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Wednesday, 11 September 2013

नफरत की दिवार

क्या दीवार हमने बनाई है, 
न इंट न सीमेंट की चिनाई है ,
पानी नहीं लहू से सिचतें है हम , 
कभी-कभी रेत की जगह, 
इंसानों के मांस पिसते है हम। ।  
पुरातन अवशेषों से भी नीचे 
धसी है नींव की गहराई ,
शुष्क आँखों से दिखती नहीं 
बस दिलों में तैरती है परछाई। । 
भूतो का भय दिखाकर 
भविष्य ये बांटता है 
धधकती है आग इसके रगड़ से 
इन पर बैठकर कोई 
अपना हाथ तापता है। ।   
जाने कब कहाँ ये खड़ी हो जाये 
ख़ुशी के खेत थे जहाँ 
नागफनी पनप जाये। 
ये दिवार सब सोंखता है 
इन्सान का इंसानियत पोंछता है 
क्या मासूम ,क्या बुजुर्ग ,क्या महिलाये
कल तक जो मिले थे गले से गले 
इनमे टकराकर इसमें समां गए 
कुछ उठी और ऊँची 
और जाने कब-कब टकराते गए। । 
कुछ के  कफ़न से ढककर 
ये दिवार छुप सा जाता है 
शायद इस बार टूट गई 
ऐसा भ्रम दिखा जाता है। । 
प्रेम दरककर जब जुट जाता 
गांठ भी साथ अपने  ले आता 
ये दरककर जब जुटते है 
और मजबूत होकर उठते है। 
इन्सान कैसे हैवान है 
ये इसका सबूत होता है 
इसे गिराना है मुश्किल 
नफरत की दिवार
बहुत मजबूत होता है। ।