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Thursday, 24 April 2014

अंतहीन समर

न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां। 
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें 
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ 
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो 
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है 
स्वप्न से  क्षुधाकाल बीते यदि 
विचरण उसमे भी ध्येयकर है। 
किन्तु होता नहीं उनके लिए 
जो अपने गोश्त को जलाकर  
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ 
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं 
विरासत का बोझ भी डालना चाहे 
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है 
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले। 
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का  इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा 
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है  
किन्तु निर्जीव पत्थरों  में भाव जगता नहीं 
जबतक  भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।  

Friday, 4 April 2014

अंतहीन प्रश्न चिन्ह ?

न बदलते अश्क
अद्भुत प्रकृत की प्रवृति,
जब अंगवस्त्र की भांति
जिस्म धारण है करता,
प्रवंचना किस बात का फिर
दोष किसको कैसे कौन मढ़ता ।
शाश्वत है अजन्मा है
अदाह और अच्छेद भी
फिर कहाँ से कलष
इसमें स्वतः ही प्रवेश करता। ।
चिरन्तन  है स्थिर साथ ही
अचलता का भाव गर्भित
फिर अस्थिर हो कैसे मचलता।
सनातन से भाव शाश्वत
शोक और संताप शाश्वत
मन के भाव जब कलष छाये
फिर ये कैसे निर्विकार रहता।
क्यों वास हो इस अवध्य सार का,
अलौकिक इसके अद्भुत निखार का,
ढो रहा जब उद्भव से निर्वाण तक
किन्तु फिर भी अव्यक्तता का भाव धर
व्यक्त दोष इस हाड़ -मांस क्यों है जड़ता।
रंगहीन जब अंग -वस्त्र
आत्मा कैसे हो क्लेश त्यक्त
पोड़ -पोड़ पीड़ा नसों में
ज्ञान का सब सार व्यर्थ। 
जठराग्नि की ज्वाला
उद्भव से जो जला रही है 
उस दिव्य उद्घोषणा पर 
एक अंतहीन प्रश्न चिन्ह लगा रही है। । 

Sunday, 9 March 2014

अंतहीन


ये गाथा अंतहीन है
बनकर मिटने और
मिट -मिट कर बनने की।
प्रलय के बाद
जीवन बीज के पनपने की
और विशाल वट बृक्ष के अंदर
मानव जीवन को समेटने की।
रवि के सतत प्रकाश की
राहु के कुचक्र ग्रास की
कुरुक्षेत्र में गहन अंधकार की
विश्व रूप से छिटकते प्रकाश की।
अद्भुत प्रकृति के विभिन्न आयाम
जीवन के उद्गम श्रोत का  भान
पुनः अहं ज्ञान बोध कर
उसे बाँधने को तत्पर ज्ञान। 
द्वन्द और दुविधाओं से घिरकर 
श्रृष्टि के उत्कृष रचना 
अपने होने का अभिशाप कर 
अंतहीन विकास के रास्ते 
जाने कौन सा वो दिन हो 
जब मानव भूख के  
हर अग्निकुंड में 
शीतल ज्वाला की आहुति पड़े।  

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हर उद्भव के साथ
समग्र को समाने का प्रयास
ह्रदय को बस
एक सान्तवना सा है।
काल के आज का कुचक्र
जिनको अपने आगोश में लपेटा है।
प्रारब्ध के भस्म से
मानवता के मस्तिष्क  पर
तिलक से शांति का आग्रह। 
चिरंतन से उद्धार का उद्घोष
मानव से महामानव
तक कि अंतहीन यात्रा
और इसी यात्रा में
सतयुग कि महागाथा
से कलियुग के अवसान होने तक
हर मोड़ पर अनवरत
मानव के विकास बोझ 
और उसके राख तले
बेवस सी आँखे। 
अपने लिए
एक नए सूरज के उदय का 
अंतहीन इन्तजार करते हुए। ।