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Sunday, 9 March 2014

अंतहीन


ये गाथा अंतहीन है
बनकर मिटने और
मिट -मिट कर बनने की।
प्रलय के बाद
जीवन बीज के पनपने की
और विशाल वट बृक्ष के अंदर
मानव जीवन को समेटने की।
रवि के सतत प्रकाश की
राहु के कुचक्र ग्रास की
कुरुक्षेत्र में गहन अंधकार की
विश्व रूप से छिटकते प्रकाश की।
अद्भुत प्रकृति के विभिन्न आयाम
जीवन के उद्गम श्रोत का  भान
पुनः अहं ज्ञान बोध कर
उसे बाँधने को तत्पर ज्ञान। 
द्वन्द और दुविधाओं से घिरकर 
श्रृष्टि के उत्कृष रचना 
अपने होने का अभिशाप कर 
अंतहीन विकास के रास्ते 
जाने कौन सा वो दिन हो 
जब मानव भूख के  
हर अग्निकुंड में 
शीतल ज्वाला की आहुति पड़े।  

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हर उद्भव के साथ
समग्र को समाने का प्रयास
ह्रदय को बस
एक सान्तवना सा है।
काल के आज का कुचक्र
जिनको अपने आगोश में लपेटा है।
प्रारब्ध के भस्म से
मानवता के मस्तिष्क  पर
तिलक से शांति का आग्रह। 
चिरंतन से उद्धार का उद्घोष
मानव से महामानव
तक कि अंतहीन यात्रा
और इसी यात्रा में
सतयुग कि महागाथा
से कलियुग के अवसान होने तक
हर मोड़ पर अनवरत
मानव के विकास बोझ 
और उसके राख तले
बेवस सी आँखे। 
अपने लिए
एक नए सूरज के उदय का 
अंतहीन इन्तजार करते हुए। । 

Saturday, 18 January 2014

शिक्षा और दुरियाँ

घर के रास्ते
बस चौराहे पर मिलते थे ,
दुरी राहो की
दिल में नहीं बसते  थे।
मेरी माँ कभी
अम्मी जान हो जाती थी
तो कभी अम्मी माँ रूप में नजर आती थी।
नामों के अर्थ का
कही कोई सन्दर्भ न था ,
सेवई खाने से ज्यादा
ईद का कोई अर्थ न था।
उसका भी आरती के थाली पे
उतना ही अधिकार था ,
कोई और ले ले प्रसाद पहले
ये न उसे स्वीकार था।

पैरो कि जूती
बराबर बढ़ रही थी,
मौसम बदल कर लौट आता
किन्तु उम्र बस  बढ़ रही थी।
तालीम अब हम
दोनों पाने लगे ,
बहुत अंजानी बातें
अब समझ हमें आने लगे।
ज्यों-ज्यों ज्ञान अब बढ़ता गया,
खुद में दिल बहुत कुछ समझाता गया।

घर के रास्ते से ये चौराहे की दुरी
कई दसको से हम नापते रहे,
अब भी कुछ वहीँ खरे है ,
दसको पहले थे जहाँ से चले।
घर ,रास्ते सब वहीँ  पड़े है ,
पर नई जानकारियों ने नये अर्थ गढ़े है।
टकराते चौराहे पर
अब भी मिलते  है ,
पर ये शिक्षित होंठ
बड़े कष्ट से हिलते है।

किन्तु वो निरा मूरखता की बातें ,
जाने क्यों दिल को है अब भी सताते।
वो दिन भी आये जो बस ये ही पढ़े हम
मानव बस मानव नहीं कोई और धर्म। ।