न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां।
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है
स्वप्न से क्षुधाकाल बीते यदि
विचरण उसमे भी ध्येयकर है।
किन्तु होता नहीं उनके लिए
जो अपने गोश्त को जलाकर
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं
विरासत का बोझ भी डालना चाहे
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले।
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है
किन्तु निर्जीव पत्थरों में भाव जगता नहीं
जबतक भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां।
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है
स्वप्न से क्षुधाकाल बीते यदि
विचरण उसमे भी ध्येयकर है।
किन्तु होता नहीं उनके लिए
जो अपने गोश्त को जलाकर
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं
विरासत का बोझ भी डालना चाहे
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले।
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है
किन्तु निर्जीव पत्थरों में भाव जगता नहीं
जबतक भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (25-04-2014) को I"चल रास्ते बदल लें " (चर्चा मंच-1593) में अद्यतन लिंक पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
किन्तु निर्जीव पत्थरों में भाव जगता नहीं
ReplyDeleteजबतक भूख संग अंतहीन समर शेष है
जीवन में संघर्ष न हो तो जीवन में कुछ शेष नहीं रहता। .
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteइस जीवन संघर्ष में हौंसले के साथ आगे बढ़ना ही शायद भवसागर से तरना है..सुंदर रचना।।
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