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Thursday, 24 April 2014

अंतहीन समर

न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां। 
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें 
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ 
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो 
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है 
स्वप्न से  क्षुधाकाल बीते यदि 
विचरण उसमे भी ध्येयकर है। 
किन्तु होता नहीं उनके लिए 
जो अपने गोश्त को जलाकर  
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ 
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं 
विरासत का बोझ भी डालना चाहे 
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है 
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले। 
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का  इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा 
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है  
किन्तु निर्जीव पत्थरों  में भाव जगता नहीं 
जबतक  भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।  

Tuesday, 4 February 2014

परछाई

सर्द हवा ने 
आंतो को जमा दिया 
भूख कुछ  जकड़  गई ,
नीले-पीले डब्बे 
रंग-बिरंगी दुनिया से निकल कर 
अपने आत्मा से अलग 
ठुकराये जाने के दुःख से कोने में गड़ी 
सूखे टहनियों सी हाथ के साथ 
कई अंजान से एक जगह मिलाप 
धूं -धूं  धधकता है। 
सुंगन्धो से मन गदगद 
सर्द हवा आंतो को बस 
ऐसे ही जकड़ रखो की ये आवाज न दे । । 
जब सूरज जकड़े गएँ 
तो इनकी औकात क्या ?
पर ये काल चक्र 
हर समय काल बनकर ही घूमता ,
इन हवाओ में न जाने क्यों 
उष्णता है रह रह कर फूंकता। 
फिर छल दिया 
प्रकृति के रखवालों ने 
नीले -पीले डब्बे कि जगह 
भर दिया फूलों से 
हरी-भरी गलियारों ने । 
आंत अब जकड़न से बाहर 
भूख से बेताब है,
धुंध से बाहर हर कुछ 
नए रंग-लिप्सा की आवाज है। 
पर ,ओह बसंत, क्या रूप है तेरा 
कैसे जानूं मैं 
आँखों पर अब तक 
आंतो की भूख  ने 
अपना ही परछाई बिठा रखा है। । 

Sunday, 7 July 2013

आज रविवार है।

काश सभी को इनका आनंद ......
सूरज की किरणों का 
दीवारों पे वार 
अलसाई आँखों का 
पलकों से जदोजहज 
खुलने को तैयार नहीं 
अरे कुछ और कर इंतजार 
आज रविवार है।।


मोहे कहा विश्राम 
पर ऐसा क्यों हुआ 
जब नजर टिकी उसपे 
घडी की टिक-टिक 
जाने कैसे चल-चल 
यहाँ तक पंहुची  
क्या वो भी ठमक गई 
आज रविवार है।।

काट रहे जो पल 
या पल जिनको काट रहा 
जाने आज कहा की देहरी
हमारा रविवार कब आएगा   ....?
कदम ढूढते जाना होगा   
क्या भूख की होगी हार 
कही भूख ठिठक गयी 
आज रविवार है।।

समय के वार से
घायल कराह रहे 
हर दिन शुष्क आंतो को 
पसीने बहा कर ठंडक पहुचा रहे 
दिन न बता बुझ जायेंगे
लड़ने दे कुछ और दिन,चाहे  
आज रविवार है।।