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Thursday 14 August 2014

जश्ने-आजादी

भूल कर याद करना
और याद कर भूल जाना
बदलना दीवार की तस्वीर को 
या नई दीवार ही बनाना। 
कस्मे ,वादे और
सुनहरी भविष्य के सपने
यादो में धंसे शूल
और भविष्य के सुनहरे फूल। 
सब कुछ पूर्ववत सा
पहले ही जहन में उभर आता है
रस्मो अदायगी ही मान
सब जैसे गुजर जाता है। 
फिर नया क्या है
ये उमंगें कुछ-कुछ
जैसे  बनवाटी  तो नहीं। 
मर्म छूती  है कही क्या 
या महज दिखावटी तो नहीं। 
किससे ये छल 
या खुद से छलावा है। 
एक दिन की ये बदली तस्वीर 
किसके लिए ये  दिखावा है। 
यादों को जो रोज नहीं जीते 
इस दिन का इंतजार है
करने के इरादे का क्या 
जब लफ्फाजी का बाजार है। 
तालियां बजाकर कब तक 
गर्दिशों के दिन जाते है 
जूनून एक रोज का क्यों हो 
हर दिन जश्ने-आजादी मनाते है।  

Thursday 24 April 2014

अंतहीन समर

न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां। 
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें 
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ 
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो 
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है 
स्वप्न से  क्षुधाकाल बीते यदि 
विचरण उसमे भी ध्येयकर है। 
किन्तु होता नहीं उनके लिए 
जो अपने गोश्त को जलाकर  
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ 
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं 
विरासत का बोझ भी डालना चाहे 
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है 
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले। 
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का  इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा 
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है  
किन्तु निर्जीव पत्थरों  में भाव जगता नहीं 
जबतक  भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।  

Tuesday 4 February 2014

परछाई

सर्द हवा ने 
आंतो को जमा दिया 
भूख कुछ  जकड़  गई ,
नीले-पीले डब्बे 
रंग-बिरंगी दुनिया से निकल कर 
अपने आत्मा से अलग 
ठुकराये जाने के दुःख से कोने में गड़ी 
सूखे टहनियों सी हाथ के साथ 
कई अंजान से एक जगह मिलाप 
धूं -धूं  धधकता है। 
सुंगन्धो से मन गदगद 
सर्द हवा आंतो को बस 
ऐसे ही जकड़ रखो की ये आवाज न दे । । 
जब सूरज जकड़े गएँ 
तो इनकी औकात क्या ?
पर ये काल चक्र 
हर समय काल बनकर ही घूमता ,
इन हवाओ में न जाने क्यों 
उष्णता है रह रह कर फूंकता। 
फिर छल दिया 
प्रकृति के रखवालों ने 
नीले -पीले डब्बे कि जगह 
भर दिया फूलों से 
हरी-भरी गलियारों ने । 
आंत अब जकड़न से बाहर 
भूख से बेताब है,
धुंध से बाहर हर कुछ 
नए रंग-लिप्सा की आवाज है। 
पर ,ओह बसंत, क्या रूप है तेरा 
कैसे जानूं मैं 
आँखों पर अब तक 
आंतो की भूख  ने 
अपना ही परछाई बिठा रखा है। । 

Wednesday 22 January 2014

क्षुधा


धड़कने धड़कती है
पर कोई शोर नहीं होता
रेंगते से जमीं पर
जैसे पाँव के नीचे  से
जीवन  निकल रहा ।
यहाँ ये किसका वास है। ।  
खुद से ही 
रोज का संघर्ष
देखते है जिंदगी जीतती है
या हार जाये भी तो 
जीत का है भान करता ।
ये किसका ऐसा अहसास है। ।  
प्रारब्ध का बोध देती 
तृष्कृत रेखा से पार 
समतल धरा के ऊपर 
अदृश्य कितनी गहरी ये खाई ।  
किसके परिश्रम का ये  सार है  । ।
अनवरत ये चल रहा 
बंटा हुआ  ह्रदय कपाट 
शुष्कता से अब तक सोखता 
जाने कैसे है पनपा ये  अतृप्त विचार।  
कैसे बुझेगी क्षुधा किसका ये भार है। । 

Sunday 8 September 2013

मांग स्वरुप

                 आज हरितालिका व्रत है।  मनाने वाली महिलाओं  में इस व्रत का उत्त्साह विशेष रहता है ,कारण सभी रूपों में कई प्रकार के हो सकते है ।     बदलते समय का सामजिक परिवेश का प्रभाव निशित रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है।  वैसे तीज के साथ-साथ ही हमारे यहाँ चौठ चन्द्र  व्रत भी होता है अपभ्रंस में चौरचन कहते। बाल्यकाल से चौठ  की महिमा ज्यादा हमारी नजरो में था क्योंकी  प्रसाद की अधिकता हमें उसी व्रत में दीखता था अतः महता उसकी स्वंय  सिद्ध थी।  धर्म के प्रति यदपि स्वाभाविक लगाव है तथापि  उसके बन्धन सिर्फ विशेष उत्सवो या त्योहारों अथवा मंदिर के अंतर्गत न होकर हर जगह महसूस करता हु। 
          
    श्रीमतीजी के पहले तीज व्रत से ही आग्रह रहता था की इसकी कथा मै स्वंय  उन्हें सुनाऊ  जिसकी इच्छा पूर्ति इस वार भी की गई।  ऐसे तो हरितालिका के कथा  वाचन से कई प्रकार के शंका से खुद ग्रसित हो जाता हु किन्तु किसी प्रकार से आस्था को ठेस न पहुचे अतः कोई वाद -विवाद से हम दोनों बचते है। खैर आज उनका विशेष आग्रह था की कोई कविता इस व्रत के ऊपर या उनके लिए ही लिख दू  तथा उसको अपने ब्लॉग पर भी  दूँ  , उनके लिए विशेष दिन है इसलिए आग्रह टाला नहीं गया और कुछ पंक्तिया   …………………………टूटी-फूटी कुछ  तुकबंदी कर दिया . त्रुटियाँ संभव है।

                       
          (१ )
              महिमा 

 है उत्सर्ग कई रूपों में
किसका मै गुणगान करू
माँ की महिमा  महिमा ही है
उसका क्या बखान करू। 
जो भी रूप में आये हो
रूप बड़ा ही न्यारा है
जीवन के हर सोपानों में
उसने हमें सवारा है। 
हर रूपों में त्याग की मुरत
अर्धांग्नी या माँ की सूरत
कितने व्रत है ठाणे तूने
विभिन्न रूप में माँने तूने
हा अब ये निष्कर्ष है लगता
जननी ,पालन हर रूप में करता।। 


             (२)
          कंचन के नाम 
माँ ने मुझको
जिन हाथो में
ऐसे ही जब सौप दिया ,
था मै किंचित शंकालु सा
क्या नेह का धागा तोड़ दिया। 
तुम संग हाथ में हाथ का मिलना
दिल खुद में तल्लीन हुआ ,
उल्काओ के सारे शंके
आसमान में विलीन हुआ।
तेरा साथ कदम नहीं
खुशिओं के पर पाए है ,
कंचन नाम युहीं नहीं
सब पारस के गुण पाए है।
बहुत कुछ कहने को है ,
हर भावों को गढ़ने को है,
पर मेरे शब्द समर्थ नहीं है,
हर शब्द का बस अर्थ तू ही है।।