धड़कने धड़कती है
पर कोई शोर नहीं होता
रेंगते से जमीं पर
जैसे पाँव के नीचे से
जीवन निकल रहा ।
यहाँ ये किसका वास है। ।
खुद से ही
रोज का संघर्ष
देखते है जिंदगी जीतती है
या हार जाये भी तो
जीत का है भान करता ।
ये किसका ऐसा अहसास है। ।
प्रारब्ध का बोध देती
तृष्कृत रेखा से पार
समतल धरा के ऊपर
अदृश्य कितनी गहरी ये खाई ।
किसके परिश्रम का ये सार है । ।
अनवरत ये चल रहा
बंटा हुआ ह्रदय कपाट
शुष्कता से अब तक सोखता
जाने कैसे है पनपा ये अतृप्त विचार।
कैसे बुझेगी क्षुधा किसका ये भार है। ।