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Wednesday 22 January 2014

क्षुधा


धड़कने धड़कती है
पर कोई शोर नहीं होता
रेंगते से जमीं पर
जैसे पाँव के नीचे  से
जीवन  निकल रहा ।
यहाँ ये किसका वास है। ।  
खुद से ही 
रोज का संघर्ष
देखते है जिंदगी जीतती है
या हार जाये भी तो 
जीत का है भान करता ।
ये किसका ऐसा अहसास है। ।  
प्रारब्ध का बोध देती 
तृष्कृत रेखा से पार 
समतल धरा के ऊपर 
अदृश्य कितनी गहरी ये खाई ।  
किसके परिश्रम का ये  सार है  । ।
अनवरत ये चल रहा 
बंटा हुआ  ह्रदय कपाट 
शुष्कता से अब तक सोखता 
जाने कैसे है पनपा ये  अतृप्त विचार।  
कैसे बुझेगी क्षुधा किसका ये भार है। ।