Thursday, 14 August 2014

जश्ने-आजादी

भूल कर याद करना
और याद कर भूल जाना
बदलना दीवार की तस्वीर को 
या नई दीवार ही बनाना। 
कस्मे ,वादे और
सुनहरी भविष्य के सपने
यादो में धंसे शूल
और भविष्य के सुनहरे फूल। 
सब कुछ पूर्ववत सा
पहले ही जहन में उभर आता है
रस्मो अदायगी ही मान
सब जैसे गुजर जाता है। 
फिर नया क्या है
ये उमंगें कुछ-कुछ
जैसे  बनवाटी  तो नहीं। 
मर्म छूती  है कही क्या 
या महज दिखावटी तो नहीं। 
किससे ये छल 
या खुद से छलावा है। 
एक दिन की ये बदली तस्वीर 
किसके लिए ये  दिखावा है। 
यादों को जो रोज नहीं जीते 
इस दिन का इंतजार है
करने के इरादे का क्या 
जब लफ्फाजी का बाजार है। 
तालियां बजाकर कब तक 
गर्दिशों के दिन जाते है 
जूनून एक रोज का क्यों हो 
हर दिन जश्ने-आजादी मनाते है।  

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर . स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ !
    नई पोस्ट : एक खिड़की शहर में खुलती है

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  2. बहुत ही सार्थक प्रस्तुति। स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  3. जब लफ्फाजी का बाजार है।
    तालियां बजाकर कब तक
    गर्दिशों के दिन जाते है
    जूनून एक रोज का क्यों हो
    हर दिन जश्ने-आजादी मनाते है----

    वाकई आजादी तो रोज की होना चाहिए
    सार्थक और प्रभावपूर्ण रचना --
    बहुत सुन्दर
    उत्कृष्ट प्रस्तुति ---
    सादर

    आग्रह है --
    आजादी ------ ???

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  4. वाह... बेहतरीन

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  5. सुंदर रचना...वाह...

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  6. बेहद प्रभावशाली रचना, बधाई.

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  7. सुन्दर प्रस्तुति...........दीवाली की हार्दिक शुभकामनायें! मेरी नयी रचना के लिए मेरे ब्लॉग "http://prabhatshare.blogspot.in/2014/10/blog-post_22.html" पर सादर आमंत्रित है!

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