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Monday, 3 March 2014

नजर


लपलपाते जीभो से
कैसे नजर फाड़े है ,
देखा नहीं क्या कभी।
जहाँ के हो वहा भी
अंदर और बाहर तो होगा।
अलग -अलग रूपों में
यहाँ क्या अलग है ?
घर कि रौशनी
इन आँखों पर पड़ते ही
तस्वीर और कैसे बदल जाती है ?
यहाँ ऐसी कौन सी हवा है
जो तुम्हारे घर में नहीं बहती।
संस्कारों का बोझ
क्या इतना ज्यादा है ,
जो देहरी पर ही छोड़ आते हो।
भरा बाजार है
इंसान कहाँ ठीक से नजर आता
कहीं नजर ऐसा न टिके की
फिर नजर उठा न सको।