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Saturday, 22 February 2014

तंग कोठरी

ये  कोठरी 
कितनी तंग हो गई है 
यहाँ जैसे 
जगह कम हो गई है। 
कैसे मिटाऊँ किसी को यहाँ से 
ये मकसद अब 
शिक्षा के संग हो गई है। 
जीवन से भरे सिद्धांतो के ऊपर 
उलटी  धारा में चर्चा बही है  
बचाने वाला तो कोई है शायद 
मिटाने के कितने नए 
हमने यहाँ उक्तियाँ गढी है। 
कितने खुश होते है अब भी 
परमाणुओं की शक्ति है पाई 
जो घुट रहे अब तक 
इसकी धमक से 
तरस खाते होंगे 
जाने ये किसकी है जग हँसाई। 
अपनी ही हाथों से 
तीली सुलगा रहे सब 
जल तो रहा ये धरा आशियाना। 
घूंट रहे  इस धुँआ में 
सभी बैचैन है 
जाने कहाँ सब ढूंढेंगे ठिकाना। 
विचारों में ऐसी है 
जकड़न भरी ,
कोठरी में रहा न कोई 
रोशन, झरोखा  
किसको कहाँ से अब 
कौन समझाए 
परत स्वार्थ का सबपे 
कंक्रीट सा है चढ़ा। ।