Friday, 16 August 2019

मंगल मिशन....

                   मिशन मंगल कुल मिला कर एक अच्छी फिल्म है। इसरो के सफल अंतरिक्ष कार्यक्रम "मार्स ऑर्बिटर मिशन" से जुड़े वैज्ञानिको के जुनून,लक्ष्य के प्रति समर्पण, प्रतिकूल कारको में मध्य दृढ़ इच्छाशक्ति के वास्तविक जादुई यथार्थ का फिल्मांकन और उसे थियेटर के बड़े पर्दे पर देखने का एक अलग ही आनंद है। इसकी सफलता का अनुमान इसके प्रथम प्रयास में सफल होने के साथ - साथ इसके बजट के संकुचन का भी है। तभी तो जहा किसी शहर में ऑटो का किराया प्रति किलोमीटर 10 रुपया पड़ता है, वही मंगलयान प्रति 8 रुपये किमी के दर से अपने लक्ष्य तक पहुच गया। खैर

      अब आते है फिल्म पर । लंबी स्टार कास्ट में सभी कलाकारों को समुचित स्पेस दिया गया है।फ़िल्म के अंत मे क्लिपिंग से ये पता चलता है कि इस "मंगलयान" के प्रोजेक्ट से लगभग 2700 वैज्ञानिक और इंजीनयर जुड़े हुए थे। स्वभाविक है कि उसमें कुछ साथ किरदारो के मध्य इस फ़िल्म का ताना-बाना बुना गया है।जिसमे पांच मुख्य महिला किरदार है।जो कि इस अभियान के विभिन्न प्रोजेक्ट को लीड कर रही है। साथ मे तीन पुरुष कलाकार है।फिर आप अंदाज लगा सकते है कि किसके लिए कितना स्पेस है। लेकिन कहानी के अनुरूप फ़िल्म में सभी की अपनी मौजूदगी है। कहानी छोटी लेकिन इतिहास बड़ी है। सीनियर सायंटिस्ट राकेश धवन जिसकी भूमिका में अक्षय कुमार है।  एक असफल अभियान के बाद तात्कालिक इसरो के एक बंद प्रोजेक्ट "मंगल मिशन" भेज दिए जाते है। पिछले असफल प्रोजेक्ट डायरेक्टर तारा शिंदे जो कि असफल अभियान में खुद को जिम्मेदार मानती है भूमिका को निभाया है विद्या बालन ने इसी तरह सोनाक्षी सिन्हा,तापसी पन्नू,कीर्ति , शरमन जोशी,विक्रम गोखले, दिलीप ताहिल, एच् डी दत्तात्रेय आदि ने विभिन्न किरदारो को जिया है। जहाँ मध्याह्न से पहले फ़िल्म की पटकथा किरदारो को बुनने में समय लगाता है लेकिन साथ ही साथ कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। वैज्ञानिको के विभिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि को रचने में कहानीकार के अपने दर्शन हो सकते है। लेकिन वो आपको उबाऊ या बोरिंग नही लगेगा। संजय कपूर एक अरसे बाद दिखे है और अपने पुराने गाने"अंखिया मिलाऊ कभी कभी अँखिका चुराऊ पर थिरकते मिलेंगे। लेकिन किरदार कुछ "कन्फ्यूज़्ड" सा है। दत्तात्रेय अपनी भूमिका से काफी आकर्षित करते है और इस उम्र में भी जिस ऊर्जा से भरे है लगता है अभी-अभी एयर फोर्स से रिटायर हुए है। दतात्रेय एयर फोर्स में विंग कमांडर से रिटायर है और बाद में फिल्मों से जुड़ गए। बाकी अदाकारी सभी कलाकारों की अपनी किरदार के अनुरूप है। मध्याह्न के बाद फ़िल्म अपनी गति में रहती है।इस तथ्य को जानते हुए भी यह इसरो का एक सफल मिशन है आपकी नजरे पर्दे पर अंत तक लगी रहती है। कुछ सांकेतिक डायलॉग अच्छे या खराब या किस परिपेक्ष्य में फिल्मकार ने दिखाया है ये आप खुद फील देख कर तय कर सकते है। फ़िल्म का बैक ग्राउंड संगीत बढ़िया है। निर्देशक ने पूरी कोशिश की है और सेट डायरेक्टर ने एक इसरो ही उतार दिया है।

      इसरो के पचास साल पर इसरो के वैज्ञानिकों के प्रयास और सफलता कि उद्घोषणा करती यह फ़िल्म है, यह उस जिजीविषा और अदम्य उत्साह की गाथा को रुपहले पर्दे पर प्रस्तुत करता है, जिसमे ज्यादातर हीरो पर्दे के पीछे ही रह जाते है। बाकी कमिया भी कई है लेकिन सिर्फ अच्छे को ही कभी-कभी देखने का अपना ही मजा है और वो भी स्वतंत्रता दिवस के बिजी मौके पर आपको किसी फिल्म के पहले दिन के दूसरे शो का आपको टिकट मिल जाये तो...।।

Monday, 10 June 2019

भारत- एक समीक्षा

               सीधे और सपाट शब्दो मे कहूँ तो फ़िल्म में मनोरंजन के मसाले भरपूर है,लेकिन वो टुकड़े-टुकड़े में थोड़ा बहुत मनोरंजन करता है।लेकिन एक पूरे फ़िल्म के रूप में कही भी बांधने में मुझे तो नही लगता है कि सफल हो पाया है।अली अब्बास जाफर के निर्देशन के कारण आज "भारत मैच छोड़"  "भारत फ़िल्म" को देखने चल दिया।लेकिन सलमान के साथ पिछली दो फ़िल्म "सुल्तान" और "टाइगर जिंदा है" के मुकाबले यह काफी कमजोर मूवी है।कहानी में कोई विशेष तारतम्य नही है बस बटवारे के पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में आप भावनात्मक रूप से जितना महसूस कर पाते है, उतनी देर बांधती है, अन्यथा दुहराव ज्यादा और काफी झोल-झाल है। सलमान अपने नाम के अनुरूप है और कैटरीना पहले की भांति खूबसूरत, दिसा पाटनी की जगह एक्स,वाय, जेड कोई भी होती कुछ फर्क नही पड़ता। अन्य कलाकार छोटी-छोटी भूमिका में आकर्षित करते है और अपना प्रभाव छोड़ते है।फिर भी कहानी के तौर पर एक समग्र रूप से उभर नही पाते है।लेकिन अपने पूर्व की सारे इमेज को तोड़कर कोई सामने आता है तो वो सुनील ग्रोवर है और हिस्सो में तो लगता है ये उसी की फ़िल्म है। गीत संगीत में विशेष कुछ नही है।

               आप जहां से चाहे फ़िल्म की शुरुआत कर सकते है औऱ कही भी छोड़ कर जा सकते है। निर्देशक खुद ही कहानीकार है तो वो कहानी ठीक से सुना नही पाए और कहानी में कसाव के नाम पर कुछ भी नही है। कोरियन फ़िल्म के री-मेक को इस देश के मिट्टी के अनुसार ढाल पाने में असफल ही कहा जायेगा। कॉमेडी का तड़का लगाने लगाने का पूरा प्रयास रहा है और कुछ जगह आपको यह गुदगुदाता है। लेकिन भारत की यात्रा फ़िल्म के अनेक पड़ाव पर आपको पहले से ही आभास हो जाएगा जिसके कारण कहानी में रोमांच नाम की कोई बात नही रहती है।

              बाकी भाई की फ़िल्म है तो उनको चाहने वाले उन्हें निराश नही करते है।ये बॉक्स ऑफिस के कलेक्सन से पता चलता है।लेकिन पिछले कुछ सालों में आई फिल्मो में सलमान की सबसे कमजोर फ़िल्म है। बाकी आप देख कर उसमें अपने लायक कुछ देखे।

Sunday, 12 May 2019

अबकी बार...किसकी सरकार

चुनाव जारी है। कही भाग-भाग के लोग मत का दान कर रहे है तो कही दान का नाम से ही भय खा रहे है। दिल्ली वाले इस भय से ज्यादा ग्रसित दिख रहे है ।आज छठवें चरण में लगता है दिल्ली की पीढ़ी लिखी जनता शायद चुनाव को बेमतलब की कवायद समझता है।

               वैसे भी दिल्ली वालों को पता है कि कही पर कितना भी मतदान करे....सरकार तो दिल्ली में ही बननी तय है। फिर इस कर्कश सूर्य के ताप से बच कर ही रहा जाए.....खैर...
सोचा अब अंतिम चरण में सिर्फ़ 59 सीटे ही बच गई है । सो अब दावे और प्रतिदावे का दौर जारी है।बाकी 23 मई को पता ही चल जाएगा कि जनता ने किसके साथ न्याय किया और किसके साथ अन्याय...। चोर ने चोर-चोर का शोर मचाया या चौकिदार ही चोर निकला इसपर फैसला अब हो रखा है।जनता अवश्य न्याय करेगी....आखिर जनता ही तो जनार्दन है....।

              23 मई खास तो होगा। इतिहास में यह दिन बेंजामिन फ्रेंकलिन के द्वारा "बाय-फोकल" के आविष्कार के लिए दर्ज है। आप उस बाई-फोकल लेंस से आने वाले 23 मई को देखेंगे तो कैसे दशा और दिशा दिखेगा। आखिर दूर और नजदीक दोनों देखने का सामर्थ्य है इसमें। वैसे कही पढ़ रहा था कि 23 मई को हिटलर का भी अंत हुआ था।वैसे हर ओर एक हिटलर तो है ही...??फिर अंत किसका..?

             किन्तु फिर भी देश के इतिहास में फिर से एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन की घटनाक्रम अंकित हो जाएगा। संविधान के भावना से छेड़छाड़ , जनता की अवमानना, असहिष्णुता गाथा पर कुछ समय के लिए कौमा लग जायेगा। विजयी नेता जनता के विवेक और उनमें भरोसे के लिए धर्म और जात-पात के बंधन से ऊपर उठकर देश के विकास में अपना अमूल्य वोट देने के लिए बधाई दे रहे होंगे।अच्छे दिन आये या नही आये अच्छे दिन लाने के मंसूबो पर कोई संदेह नही करने के लिए जनता विजयी दल की ओर से फिर से धन्यवाद के पात्र बनेगे...।

                लेकिन इसी बीच  कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार , आर्थिक विशेषज्ञ, प्रगतिशीलता के वाहक साहित्यकार वही दूसरी ओर इसे पुनः अप्रत्याशित कह कर नए जनादेश की अवहेलना तो नही करेंगे,लेकिन नए शब्द गढ़ कर जनता के विवेक पर प्रश्रचिन्ह अवश्य लगा रहे होंगे। 

                       सीटों की लड़ाई में उलझे विचारधारा का मार्ग जो भी लेकिन जनता वोट देके सरकार बनाने का मार्ग तो बना ही देती है, इसलिए आप जनता के विवेक पर कोई प्रश्न चिन्ह नही लगा सकते । सरकार तो साफ-साफ बनती दिख रही हैं लेकिन किसकी ....? मैंने तो बता दिया...अब आप ही बताये.....।

Sunday, 5 May 2019

राजनीति और सेवा

            चुनाव का मौसम है  नेताजी हर चौक-चौराहे पर मिल जाते है।तो आज एक नेताजी से मुलाकात हो गई। नेता जी काफी आश्वस्त लग रहे थे। मुस्कुराते हुए एक नुक्कड़ पर बैठे थे..अब चर्चा चाय पर थी या न्याय पर कह नही सकते ..लेकिन थोड़ी बहुत चर्चा शुरू हो गई।अब चुनाव है तो चर्चा राजनीति की ही होगी...लेकिन मेरे द्वारा एक दो बार राजनीति शब्द का प्रयोग करते ही थोड़ा गंभीर हो गए और छूटते ही कहने लगे- आप व्यर्थ में राजनीति  ...राजनोति शब्द को दुहराए जा रहे है।
देखिये सारी बात "राज" से शुरू होती है और "राज" पर ही खत्म होती है। बाकी रही नीति की बाते तो वो तो बनती और बिगड़ती रहती है। जनता के काम आई तो नीति और नही आई तो अनीति, बहुत सीधी बात है। इसलिए चुनाव में हम राजनीति करने के लिए खड़े नही होते बल्कि सिर्फ राज करने के लिए। आश्चर्य से उनका मुँह ताकते हुए कहा तो फिर क्या आप जनता की सेवा के लिए वोट नही मांग रहे है और  फिर राजनीतिक पार्टियां क्यो कहते है? नेताजी थोड़े ईमानदार है सो फिर थोड़े गंभीरता से बोलने लगे-
  देखिये शब्दो मे उलझने से निहितार्थ नही निकलते..। अब आपने राजनीति की कौन सी परिभाषा पढ़ा है ये तो आप जाने लेकिन मुझे तो ये दो परिभाषा ही पता है-
           लासवेल के अनुसार- ‘‘राजनीति  का अभीष्ट  है कि कौन क्या कब और कैसे प्राप्त करता है।’’  या फिर
           रॉबर्ट ए. डहन कहते हैं- ‘‘किसी भी राजनीति व्यवस्था में शक्ति, शासन अथवा सत्ता का बड़ा महत्व है।’’ 
             ये दोनों बड़े विद्वान रहे है। दोनों के परिभाषा में कही सेवा का कोई जिक्र है क्या..? और आप जो बार-बार राजनीति-राजनीति रट  लगा रखे है न उसमे भी राज्य है..और राज्य होगा तो राजा होगा ही न...औऱ राजा होगा तो राज ही करेगा। सेवा करना है तो मंदिर के पुजारी बन जाये या किसी धर्म के धर्म गुरु और भगवान कि सेवा करे। इंसान तो कर्म करने के लिए ही पैदा हुआ ।आप न जाने कहाँ से सेवा ले लाये ...? मैं कोई राजनीति शास्त्र तो पढ़ा नही है। इसपर कुछ बोला नही। नेताजी बोलना जारी रखे और कहने लगे -तभी तो तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहा है -  "  कोउ नृप होई हमै का हानि " ऐसे ही तो नही कहा होगा न। कुछ न कुछ सोच कर ही लिखा होगा...और एक आप है कि सेवा...सेवा की रट लगा रखे है।
मतलब ये पार्टिया जनता की सेवा के लिए नही बल्कि राज करने के तैयार होता है..?
ही...ही...ही..उन्होंने दांत निपोर कर कहाँ- आप भी बड़े भोले है। राज-भाव और सेवा-भाव में आपको कोई समानता दिखता है? क्या ये दोनों आपको समानार्थी शब्द दिखते है।
मैने कहा - हां.. समानार्थी तो शायद नही है।
               नेताजी ने फिर कहा- तो फिर  राजनीति में आप सेवा को क्यो जबरदस्ती घुसेड़ रहे है...?चुनाव सिर्फ राज पाने के लिए ही लड़े जाते है। उसमें नीति, अनीति, विनती, मनौती,फिरौती ये सब उसको प्राप्त करने के निमित मात्र हैं। अंतिम ध्येय तो राज करना ही है।
लेकिन हम तो समझते थे नेता लोग तो सेवा करने राजनीति करने आते है।
नेताजी ने कहा कि अच्छा आप क्या करते है..?
मैंने कहा- सरकारी नौकरी में हूं।
तो नेताजी ने कहा हमलोग भी यही समझते है कि सरकारी नौकरी में भी लोग सेवा करने आते है...लेकिन हमें तो ऐसा नही लगा।
           अब नेताजी थेडे सीरियस हो गए-कहने लगे देखिये आजकल लोग अपने माँ-बाप की सेवा बिना स्वार्थ के नही करते। रिश्तेदार और आस पड़ोस को जरूरत पड़ने पर मुँह चुराकर निकल लेते। तो नेता कोई मंगल ग्रह से आते है भाई। वो भी आपकी तरह यही से है। अब कुछ लोग सरकारी नौकरी ढूंढते है तो हम जैसे कुछ अपनी नौकरी राजनीति में ढूंढते है..आपको तो बस बार  परीक्षा पास करना होता है और हमे हर पांच साल में पर्चा देना पड़ता हौ। बस फर्क इतना ही है और कुछ नही...समझे कि नही..??ही..ही...ही..।।

Saturday, 4 May 2019

फोनी का प्रस्थान ..

तुलसीदास जी सुन्दरकाण्ड मे कहते है:-

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ।।

फोनी अब अपने चरम से गरज कर  कलिंगनगर पर छा गया और लगता था उन्नचासो प्रकार के वायु ने यह अपना डेरा डाल दिया । अब यहां हरि का प्रेरणा था या कुछ और...कह नही सकते।  वायु का वेग लग रहा जैसे सभी को उड़ा कर ले जाने के लिए आतुर है।

किंतु इस तूफान में जहां कुछ पेड़ अपनी जड़ से उखड़ गए वही ये आम अपने अपने डालियो से जुड़े रहने के लिए जद्दोजहद में लगा रहा। प्रकृति अपने संहार की प्रवृति के साथ जहां तांडव नृत्य करता रहा  ,वही उसकी कृति अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही थी। फिर उद्भव और संहार दोनों प्रकृति की ही लीला है तो फिर "कर्म कर्म प्रधान विश्व रची रखा " के अनुसार ये आम भी अपनी टहनी से लिपटे रहने में संघर्षरत रहा।

       अब  इसकी जड़ उखड़ने तक अपने तने के अस्तिव पर भरोसा करता रहा और फिर फोनी के आघात से विलगाव होने से बच ही गया। वैसे भी अपने जड़ से जुड़े रहने में जो भरोसा करते है उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह जल्द नही लगता....है कि नही??