Friday, 10 January 2020

नई धुन

संघर्ष शायद बुद्धिमानो के बीच ज्यादा होता है।जब "एक्स्ट्रा इंटेलीजेंसिया" से दिमाग कुपोषित हो जाता है तो मस्तिष्क का झुकाव "दर्शन" से विरक्त होकर "प्रदर्शन" की ओर आसक्त हो जाता है।वैसे भी आपकी बौद्धिकता तभी लोगो को आकर्षित करती है, जब आप "जरा हट के" कुछ कहते है। फिर नामचीन विश्वविद्यालय के प्रांगण में सिर्फ सामान्य कौतूहल ही जगे तो फिर ",रिसर्च" के लिए और कोई बिना प्रांगण वाले कॉलेजों के आंगन को क्यों न "सर्च" किया जाय ? खैर...कुछ दिनों से लोक और तंत्र दोनों से अलग जाकर जो मंत्र पढ़-पढ़ कर ये देश को जगाने में लगे हुए है, उससे कौन-कौन उत्साहित है और कितनो के अंदर मुरझाई जोश में आशा के नए कोंपल प्रस्फुटित है. ये तो समय बताएगा । वैसे शायद जनता तो ज्यादातर अर्धनिन्द्र में ही रहती है ?

          लगता है अब ये  छात्र राष्ट्रकवि दिनकर के इन पंक्तियों से ज्यादा प्रभावित है--  
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार 
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार,
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।।

    अब ये तलवार न सही हाथों में हॉकी स्टिक, लाठी या रॉड के भरोसे "विचारो" की "नई-धारा" के सूत्रपात के लिए प्रयत्नशील है। इनकी इस कर्मठता और ध्येय के प्रति जिजीविषा वाकई सराहनीय है। ज्ञान के अर्जन और परिमार्जन में अगर कुछ सरकारी संपत्ति नष्ट भी हो जाये तो उसके लिए व्यथित और चिंतित नही होना चाहिए। क्योंकि इससे "बुद्धि-जीवी" के अंदर का जीव थोड़ा कुंठित होकर काटने को आतुर हो सकते है। 

    अब हम तो इस इंतजार में बैठे है कि ये सपेरा अब अपनी तुम्बे में से कौन सा "साँप" निकालेगा और लोग बिना बीन के ही उसे देख-देख कर नागिन डांस करके जमीन पर लोट-पोट होकर जनता को जगाने में लग जाएंगे।

Friday, 3 January 2020

तलाश

कुछ लोग
अंधेरा कायम रखना चाहते है,
क्योंकि
रोशनी की महत्ता समझा सके।।

ये पुरातनपंथी है
या फिर तथाकथित प्रगतिशील।
लीलते दोनों ही है जीवन को
एक में उत्सर्ग अभिलाषा है
और दूसरे की क्रांति
 एक लालसा है।।

जब हुक्मरान
वाचाल हो ,
तो जनता सिर्फ
मूक और बघिर हो सुरक्षित ।।

नीति और नियंता
तो बदलते रहते है
लेकिन हर बार
एक नए जख्म देकर।।

क्योंकि पुराने घाव भरना
शायद कभी राज की नीति
नही होती है ।
वो तो हमेशा
आज के जख्म का उसे
कारण मानती है।।

और हम भी
घाव के निशान खुजलाकर
शायद कुछ ऐसा ही तलाशते है।
इंसान खुद को भूल
जब भी कुछ और तलाशा
तो सिर्फ इंसानियत ही तो वो खोया है।।

Wednesday, 1 January 2020

नववर्ष की शुभकामनाएं

            गणनाओ के चक्रिक क्रम में प्रवेश का भान होते हुए भी  हम पुनः दुहराव की अनवरत प्रक्रिया के संग बदलते तिथी से नव के आगमन का भरोसा और आशान्वित हर्ष से खुद को लबरेज कर लेते है।अपनी गति और ताल पर थिरकते हुए एक पूर्ण चक्र का उत्सव खगोलीय पिंड की अनवरत कर्म मीमांसा का भाग है या उसी पथ पर दुहराव की प्रक्रिया में पथ का अनुसरण भी किसी प्रकार का नूतन-प्रस्फुटन है ...? स्वयं का नजरिया विरोधाभास के कई आयामो से  छिटकते हुए भी संभवतः नूतन परिकल्पना के संग ताद्य्यतम्य बनाना ही समय-सम्मत प्रतीत होता है..?

       विज्ञान में दर्शन का समावेश और दर्शन के साथ विज्ञान का सामंजस्य के बीच वर्तमान का यू ही गुजरते जाना भविष्य के लिए हर क्षण आशाओ के क्षद्म संचार से इतर कुछ भी नजर नही आता है। मन की अपनी गति और क्रम है,लेकिन विश्वास और चेतना के धुरी पर घूमते हुए कैसे उस विलगाव की गलियो में भटकने लगती है, जहां मानव समिष्टि के तमाम तम का वास होता दिखता है और उस स्याह गलियो में बेचैनियों से टकराते हुए कैसे एक दूसरे को रौंदते हुए पग की असीमित रफ्तार सामुदायिक रफ्तार की उद्घोषणा के प्रश्नवाचक गलियो से न गुजरकर सिर्फ उन राहो पर बढ़ती चली जा रही है ,जहां ऐसे किसी भो द्वंद से उसे जूझना न पड़े।

        फिर भी ऐसा तो है कि दिन और रात की उसी घूर्णन गति को पहचानते और जानते हुए भी निशा के प्रहरकाल में भी भास्कर का पूर्वोदय मन के कोने में दबा होता है। उस विश्वास का अनवरत सृजन तम के गहराते पल के साथ और गहराता जाता है। पारिस्थिक वातावरण में फैले अंधकार का साया अवश्य ही दृष्टिपटल को बाधित करता हो, लेकिन मन के कोने में दबे विश्वास की उस प्रकाशपुंज को बाधित नही कर पाता है, जिसकी अरुणोदय की लालिमा का विश्वास सहज भाव से हृदय में  संचरित होता रहता है। 

               अतः मात्र आंकड़ो में जुड़ता एक और अंक का सृजन नव वर्ष का आगमन नही है। वस्तुतः यह आगमन उस विश्वास का है जो सूर्य के प्रथम किरण के संग कमल के खिलने जैसा मानव मन भी अभिलाषा से संचित हो  प्रफ्फुलित होता है।यह सृजन है उस आशा का जहाँ प्रकृति की वसन्तोआगमन सी सूखे टहनियों पर नव पल्लव आच्छादित हो जाता है , जिस भरोसे को धारण कर सभी प्रतीक्षारत रहते है। यह दिन है स्वप्न द्रष्टाओं के उस भरोसे का जो अब भी शोषित, कुठित, दमित,विलगित और स्वयं के अस्तित्व से अपरिचित और तृस्कारित मानव के संग मानव रूप में देखने की जिजीविषा का सिंहावलोकन की अभिलाषा संजोए राह देखते है। यह दिन है उस राहो पर पड़ने वाली उन नव-रश्मि का ,जिससे समिष्टि में व्याप्त किसी भी वर्ग भेद को अपनी प्रकाश से सम रूप में आलोकित कर सके, नव वर्ष उस आशा के संचार का आगमन है। नव वर्ष उस भरोसे के संचार का दिन है जहाँ प्रतिदिन परस्पर अविश्वास की गहरी होती खाई को विश्वास की मिट्टी से समतल करने के विश्वास का प्रस्फुटन होता है।यह उन सपनों के सृजन का पल है जहाँ पुष्प वाटिका में हर कली को स्वयं के इच्छा अनुरूप प्रकृति सम्मत खिलने का अधिकार हो। कोई एक तो दिन हो जहां सभ्यताओं के रंजिस वर्चस्व में स्वयं से परास्त मानव मन सामूहिक रूप से स्वयं का विजय उद्घोष कर सके, शायद वर्तमान में नववर्ष वही एक दिन है।

         विमाओं सी उद्दीप्त असंख्य विचारों के अनवरत प्राकट्य और अवसान के मध्य नव वर्ष के प्रथम पुंज सभी के मष्तिष्क तंतुओ को इस प्रकार से आलोकित करे कि सामूहिक समिष्टि के निर्बाध विकास और सह-अस्तित्व की धारणाओं का पोषण हो सके ।उन भावो का जागृत होना शायद नव वर्ष का आगमन है।
               
सूर्य संवेदना पुष्पे:, दीप्ति कारुण्यगंधने । 
लब्ध्वा शुभम् नववर्षेअस्मिन् कुर्यात्सर्वस्य मंगलम् ॥

 .        जिस तरह सूर्य प्रकाश देता है, पुष्प देता है, संवेदना देता है और हमें दया भाव सिखाता है उसी तरह यह नव वर्ष हमें हर पल ज्ञान दे और हमारा हर दिन, हर पल मंगलमय हो ।

                    आशा और विश्वास के साथ आप सभी को नववर्ष 2020 की हार्दिक मंगल कामनाएं और शुभकामनाये।।

Saturday, 28 December 2019

चिलका--झील....पानी ही पानी

         समय की रफ्तार नियत है। किंतु सोच की रफ्तार अनियत है। 2019 का रश्मि रथ वर्ष की अंतिम राह पर अग्रसर है। फिर ये नूतन और पुरातन वर्ष के संक्रमण काल में सुई की घड़ी अपनी नियत रफ्तार से टकटकी लगाए दौर रहा है।
      
              जाजपुर प्रवास को लगभग चार वर्ष हो गए। केन्द्रीय सेवा में आप यायावरी ही करते रहते है।ये आपको देश के विभिन्न क्षेत्रों की विविधता से रूबरू होने के कई मौके देता है। फिर आप उस सेवाकाल में खुद के लिए समय निकाल कर उसे अपने नजरिये से देखने और समझने का प्रयास करते है।आस-पास के दर्शनीय क्षेत्रो में जगन्नाथ मंदिर पूरी, कोणार्क का सूर्य मंदिर, लिँगराज मंदिर भुवनेश्वर जो कि विश्वविख्यात है उसके साथ-साथ आस-पास ही कई और विख्यात बौद्ध स्थल और स्थानीय तौर पर प्रसिद्ध का भ्रमण हो चुका। किंतु अब भी कुछ जगह बाकी रह रह गए थे , जिसका भ्रमण बाकी था। उसमें सबसे प्रमुख नाम चिलका झील है। 

         जाजपुर रोड से चिलका ज्यादा नही बस दो सौ बीस किमी है। अगर आप यहां आने से  पूर्व गूगल बाबा के सानिध्य में कुछ पल बिताते हैं तो आपको पता चलेगा कि "चिलका झील" के नाम से बेसक प्रसिद्ध हो, लेकिन भोगोलिय परिभाषा में ये "लैगून या अनूप" कहलाता है।अनूप अथवा लैगून किसी विस्तृत जलस्रोत जैसे समुद्र या महासागर के किनारे पर बनने वाला एक उथला जल क्षेत्र होता है जो किसी पतली स्थलीय पेटी या अवरोध (रोध, रोधिका, भित्ति आदि) द्वारा सागर से अंशतः अथवा पूर्णतः अलग होता है। यह लगभग ग्यारह सौ वर्ग किमी की दायरे में फैला हुआ है।खैर

      ऐसे भी ये वर्षांत वनभोज के रूप लोग एक दिन अवश्य घर से बाहर भ्रमण करना चाहते है। तो बैठे-बैठे अकस्मात चिलका के विस्तृत फैले जल प्रवाह की ओर ध्यान चला गया।अवकाश का स्वीकृति सामान्यतः एक दुरूह क्रिया है।फिर भी जैसा कि  राहुल सांकृत्यायन कहते है-"बाहरी दुनिया से अधिक बधाये आदमी के दिल मे होती है"। तो मैंने दिल की बाधाएं से पार पाते हुए मौखिक आवेदन प्रस्तुत कर दिया और एक दिन की हामी मुँह बाये सीपी के मुंह मे एक ओंस की बूंदों गिरने जैसा लगा ।वैसे तो अगर योजनाबद्ध अवकाश के आवेदन हो तो एक के साथ आगे-पीछे दिनों के उपसर्ग और प्रत्यय के रूप में कुछ और इजाफा हो जाते है। किंतु अनियोजित कार्य मे ध्येय पर ही ज्यादा ध्यान होता है, इसलिए उसका प्रयास ही नही किया।खैर
      
      यहां जाजपुर रोड से वाहन के द्वारा ही भ्रमण ज्यादा उपयुक्त  है सो पूर्व परिचित वाहन मालिक से संपर्क कर गाड़ी की उपलब्धता सुनिश्चित कर लिया।सर्दी का मौसम यहां काफी खुशनुमा और रूमानी है।जिसमे आप सर्दी से डरकर रजाई में खुद को छुपाने का प्रयास नही करते।जब देश का उत्तरी क्षेत्र भीषण सर्दी से ठिठुर रहा है । यहां एक अदद स्वेटर फिलहाल की शीत ऋतु से गुफ्तगू करने में मशगूल है।सुबह सवेरे छह बजे हम अपने आवास से उन आगंतुक पक्षियों से मिलने अपनी गाड़ी से निकल गए। जाजपुर रोड से लगभग बारह किमी की दूरी तय करने के बाद हावड़ा- चेनाई राष्ट्रीय राजमार्ग एन एच-16 के ऊपर आ गए। रोड की स्थिति कमोबेश आप अच्छा कह सकते है। यदि आप किसी अन्य स्थान से ओडिशा के भ्रमण पर है तो आपके लिए भुवनेश्वर या कटक ज्यादा मुफीद है। वैसे चिलका में रेलवे स्टेशन है किंतु कोई भी प्रमुख गाड़ियां यहां रुकती नही है। जाजपुर रोड से पानिकोइली, कटक, भुवनेश्वर होते हुए हम राष्ट्रीय राजमार्ग-16 पर हम खुर्दा रोड के रास्ते बढ़ चले। भुवनेश्वर से लगभग सत्तर किमी की यात्रा के पश्चात मुख्य राजमार्गों से काटती हुई एक अन्य मार्ग दिखा जिसपर चिलका की ओर तीर का निशान इंगित कर रहा था कि अब हम झील के आसपास पहुँच चुके है। तटीय क्षेत्र के अनुरूप पूरा परिदृश्य नारियल के पेड़ और अन्य वनिस्पतियो के आच्छादित आपको आह्लादित कर सकता है।कोई दस मिनट के बाद अब हम चिलका तट पर पहुँच चुके, अब समय दिन के लगभग ग्यारह बज गए ।वैसे अगर आप जगन्नाथ पूरी दर्शन के लिए जाते है तो वहां से लगभग नब्बे किमी की दूरी पर "सदपदा" नामक स्थान भी  चिलका झील के भ्रमण के नाम पर आपको गाइड ले जा सकते है, जो कि मुख्यतः समुद्र और चिलका झील का मुहाना है और डॉल्फिन के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन चिलका में चिलका झील का भ्रमण आपको ज्यादा आनंदित करेगा।"चिलका विकास प्राधिकरण" के तहत यहां का विकास कार्य संचालित है। 

        विशाल जलराशि के निकट हम पहुच गए। दूर तक फैले झील आपको प्रकृति में समाहित सौंदर्य के अप्रितम कल्पना लोक में लेकर चल देता है। बादलो को चीरते सूर्य की बिंब नाव के धार के तरंगों पर जैसे लग रहा है जैसे किसी अनुगुंजी संगीतो पर थिरकने में लगी हुई है। पक्षी यही धरती के है या किसी और लोक में हमें विचरण करा रहा है, इसी कल्पना के पंख पर हम उड़ने लगे, तब तक साथ आये ड्राइवर ने कहा ये- ये टिकट काउंटर है यहां पर आप टिकट लेकर बढ़े ,मैं यही इंतजार करूँगा। आंख खोले हुए भी शायद तंद्रा की अवस्था हो सकती है, इसको अभी महसूस किया। वैसे भी अज्ञेय ने एक जगह लिखा  हैं - “वास्तव में जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करता हूँ, उस से ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूं।” 

            यहां "सी डी ए" संचालित बोटिंग की व्यवस्था है, साथ ही साथ आस-पास के  लोगो के रोजगार का एक प्रमुख स्वय के बोट पर्यटक को झील के सौंदर्य का भ्रमण कराते है। किंतु "सी डी ए" संचालित बोटिंग में क्षमता के अनुरूप पर्यटक के आने के बाद खुलती है। लेकिन प्राइवेट बोट आपके अनुरूप ही चलेगी। किन्तु इसमे आपका पर्स कुछ ज्यादा ढीला होगा। अब समय और पर्स दोनों के तुलनात्मक भाव कर आप किसी बोट में भ्रमण कर सकते है।छोटो बोट की क्षमता दस से सोलह लोगो की होती है, जबकि "सी डी ए" संचालित बड़ी बोट की क्षमता लगभग पचास से साठ की है।

                 अब एक सौ अठारह नंबर के नाव पर बुकिंग की प्रक्रिया के बाद झील के तट पर पहुच गए।नाविक "कालिया" वहां अपने बोट के साथ हमे मिल गया।ये बोट लगभग दस लोगो की क्षमता के अनुरूप हम सभी उसमे सवार हो गए। अब बोट किनारा छोड़ झील की यात्रा पर निकल गया। वन-भोज के इरादे से हम निकले ,इसलिए घर से खाने के टिफ़िन हमारे साथ चला। वैसे यहां आपको कोई अच्छा होटल नही मिलेगा दूसरा समय अलग से जाया होता है। इसलिए नाव अपने मांझी और पतवार के साथ चलते ही हमने वन-भोज की जगह चिलका में "जल-भोज" के लिए बैठ गए। इसी दौरान कालिया हमे बताया कि किनारे इसकी गहराई तीन फुट तक है जबकि चिलका की सबसे ज्यादा गहराई लगभग तीस से चालीस फुट तक है। वो खुद मछवारे के परिवार से है और ये नाव खेना उसके रोजगार से ज्यादा उसका शौक है। क्योंकि पेशे से वह राज्य सरकार के प्राथमिक स्कूल में शिक्षक है। अभी स्कूल में छुट्टियां होने के कारण वो यहां है। कुछ भावुक सा होता बोला बचपन से इन्ही पानी के आसपास पला-बढ़ा है, इसलिए मौका मिलते ही वो पानी मे पहुच जाता है।कभी-कभी तो वो मछली की खोज में तीन से चार दिन इसी नाव पर गुजारते है।खाने-पीने का सामान सब साथ ही होता है। यह कहते हुए वह पानी के बीच होते हुए भी जैसे कही और विचरण करने लगा। शायद प्रतिकूल या अनुकूल कोई भी स्थिति हो , किसी के सानिध्य में बिताए कल, रह-रह कर हमें अपनी ओर खींचता है। बोट ने अपनी रफ्तार पकड़ ली, सुदूर तक  निगाहे बस पानी मे तैरने लगा।धरती और आकाश का मिलन तो क्षितिज कहलाता है।किंतु यहां पानी और आकाश की नीलिमा कब एक दूसरे के संग मिल करवटे बदलते है सब कुछ अविस्मरणीय, अद्भुत सा प्रकृति में समाई अनंत अदृश्य मनोरम छटा से आप सिर्फ विस्मृत से होते जाते है। कही नेपथ्य जैसे लगा "मिलन" फ़िल्म का गीत-" सावन का महीना पवन करे शोर" चिलका के हवाओ में तैरने लगा।अब तक लगभग झील के अंदर पांच किमी की यात्रा कर एक छोटे से पत्थरो के द्विप पर पहुँच गए। जिसे "चढ़ाईहाड़ा' के नाम से जानते है। पानी के बीच पत्थरो पर दो-चार फ़ोटो क्लिक कर अब आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए पानी के अंदर अब हल्की श्याम और श्वेत उबर-खाबड़ परिछाई जैसे तैरने लगी। हमे लगा जैसे और किसी द्विप के नजदीक आ गए। यहां झील की गहराई अब कम होकर तीन से चार फुट हो गया। तब तक कालिया ने बताया कि इसे ही "नालंबना द्वीप" कहते है। ये पक्षियों के लिए प्रसिद्ध है।ऐसा अनुमान है कि प्रवासी पक्षीयो   की लगभग 205 प्रजातियाँ  इस मौसम यानी दिसम्बर से फरवरी में  इस झील पर आती है।सर्दियों में यह झील कैस्पियन सागर, ईरान, रूस और दूर स्थित साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों का निवास स्थान बन जाती है। अब जहां देश मे एन आर सी और सी ए बी पर कितने लोग स्वयं के पहचान को लेकर सशंकित हो रहे है। वही ये सभी पक्षियां विभिन्न सुदूर भागो से आकर यहां बेखबर होकर जल-क्रीड़ा में मग्न है। इसके आगे अब जाना मना है, क्योंकि आगे पंक्षियों के संवर्धन के कारण प्रवेश निषेध है।स्वयं के लिए सशंकित इंसान और जीवो के पहचान के लिए कितना संवेदनशील है, इस विरोधभाष मे दिमाग को उलझने का यहाँ कोई औचित्य नही नजर आया। विस्तृत फैले क्षेत्र में सिर्फ पानी ही पानी एक समतल सतह पर कही कोइ चिन्ह या निशान नही बता रहा है। लेकिन इन जलराशि के मध्य सुखी बांस बल्ली बिल्कुल तन कर खड़ा है। जैसे चिलका के मध्य यह अपनी हरियाली को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास रत है। कालिया ने बताया चिलका की यात्रा में यही इनके दिशा निर्देशक तंत्र है।समय अपनी रफ्तार से भगा जा रहा था। इसलिए अब आगे बढ़ कर कालीजाई द्वीप में कालीजाई देवी के मंदिर  में आ गए। मंदिर के हुंडी में आने वाला चढ़ावा अभी भी पास के "बालू गाँव" ,के राजा के वंशज को जाता है। मान्यता है कि उसी राजा ने देवी की मंदिर स्थापित किये।जिसके विषय मे कई किवंदतियां प्रसिद्ध है,किन्तु वो कहानी फिर कभी। काली जय द्विप लगभग ढाई-तीन किमी में फैला हुआ पहाड़ी क्षेत्र है। इसके भी आसपास विविध प्रवासी पंक्षियों की जमघट लगा हुआ है।सतपड़ा, बालुगाँव, रंभा और बारकुल से होते हुए नौकासवारी के माध्यम से आप चिल्का झील के महत्व को महसूस कर सकते हैं।बीच झील के किनारे आपको आईएनएस चिलका "भारीतय नौसेना" पूर्वी तट का मुख्यालय भी है। जहां विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण चलते है । किन्तु उसके लिए आप समय की प्रचुर मात्रा अपने साथ लेकर चले। यहां घूमते-घूमते समय अब मुठ्ठी से रेत की भांति फिसलने लगा। ऊपर आसमान में सूरज भी लगा जैसे थक कर निढाल हो रहा है। और यहां से लगभग पांच घंटे की यात्रा कर वापस जाजपुर भी लौटना है। इसलिए नाव के संग-संग प्रवासी पक्षियों के संग हम वापसी की यात्रा पर चल दिये। 

Saturday, 2 November 2019

छठ ...यादें

            यहाँ काली पूजा की महत्ता है। काफी भव्य और लगभग दस दिनों का आयोजन रहता है। यहां रहते हुए इसका भी एहसास बचे खुचे समय मे समय निकाल कर करने चल दिये। घर के बगल में बड़ा सा मैदान है और रंगारंग कार्यक्रम की भी व्यवस्था है। भीड़ भरे आयोजन स्थल पर चहलकदमी बता रही है कि यहाँ के लोग इस आयोजन का भरपूर लुफ्त उठा रहे है।

            लेकिन मन का कोना इस आयोजन के तड़क-भड़क के बीच जैसे खामोशी की चादर ओढ़ रखा है। शरीर बेशक यहां भ्रमर कर रहा है लेकिन मन यायावरी कर गाँव के आंगन में बार-बार भटक कर पहुँच जा रहा है।क्योंकि आज खरना की पूजा है। विधिवत चलने वाले बहुदिनी व्रत "छठ" का एक पड़ाव।
     
            इस बार छठ में घर से दूर होना, लगता है कि कटे जड़ के साथ तना बस इधर से उधर डोल रहा है। छठ का महात्म्य क्या है ये तो बस वही जानता है जिसने किसी न किसी रूप में उसके संसर्ग में आया है और छठ को जिया है। घर से इस समय दूर रहना, जैसे लग रहा है अस्तित्वहीन होकर शून्य में भटक रहा हूँ। बीच-बीच मे मन शरीर को यही जैसे छोड़ गाँव के आंगन में विचरने लगता है। गोबर की निपाई से आँगन का कोना-कोना छठ की खुसबू से दमक रहा है।अभी तक पता नही कितने चक्कर बाजारों के लग गए होते। वैसे तो सुप पथिया, मिट्टी के बर्तन माँ पहले से ही व्यवस्था कर के रखती थी।लेकिन उसके बाद भी सांध्य पहला अरग के निकलने से पहले तक जैसे भागमभाग लगा ही रहता। फिर सारे फल, सब्जी, ईंख सब तो आ ही गया। तब तक माँ कहती अरगौती पात तो है ही नही। अरे वो समान के लिस्ट में तो लिखाया था। तब तक मैं भाग कर कहता ओह रुको अभी लेकर आता हूँ। पूजा त्योहार तो कई है लेकिन छठ अद्भुत...। 

             चार पांच दिन पहले से गेहूं धो कर सूखने लगता। छत बड़ा सा है। आस-पड़ोस के भी महिलाएं वही अपना गेहूं सुखाने आ जाती। माँ कहती - ईय एक टा गीत गायब से नई। वही आबाज आता। काकी अहाँ शुरू करु न। बस उसके बाद सनातन लोकगीत परंपरा की तरह जो बचपन से सुनते आ रहे है। माँ धीरे-धीरे गुनगुनाना शुरू कर देती- उगो हे दीनानाथ....मारबो रे सुगवा धनुष से...कांचही बांस के बहँगीय...और माटी के संग गुंथी हुई अक्षुण्ण अनगिनत और न जाने कितने मैथिली और भोजपुरी के गीत। उधर कही से शारदा सिन्हा की आवाज भी  घर की चहारदीवारी को लांघ कर एहसास कराता रहता कि पूरा परिवेश ही जैसे छठमय हो रखा है। एकांकी व्रत की धार कैसे सामूहिकता में सबको बांध सागर की तरह छठ के घाट पर सब एकसाथ आत्मसात हो जाते है, यही छठ की परम्परा अनवरत अब भी सामाजिक और आर्थिक बदलाव के बदलते माहौल में भी अब तक खुद को जीवंत रखे हुए है।

                दीपावली की रात के प्रथम सूर्योदय में भगवान भास्कर की किरण में कुछ अद्भुत छटाएँ होती है और लगता है जैसे छठ की दिव्यता फैलने लगा।  बिना किसी के बताए लगता है कि वातावरण में स्वतः उद्घोष हो गया। तैयारी तो न जाने हर छठ व्रती अपने स्तर पर कब से करता है लेकिन अब तैयारी अपने अंतिम स्तर पर आ जाता है। हर घर, हर गली, हर सड़क हर बाजार छठ की प्रकृति प्रदत्त तैयारी से एक अलग भब्यता परोसने लगता है। जबकि कुछ भी विशेष नही सब के सब वही आस पड़ोस खेत खलिहान और बगीचे में मिलने वाला। अत्यधिक की गुंजाइश बेसक लेकिन कम से कम भी पूर्णता से पूर्ण ही दिखता है।

               छठ का घाट सिर्फ व्रतियों के भगवान भास्कर को अर्ध्य नही है, बल्कि एकल व्रत की धार सामूहिक समष्टि को कैसे एक तट पर साथ रहने की अवधारणा को अब भी सहोजे रखा है सबसे अद्भुत है। 
             और इस सबके बीच अपने गाँव घर से दूर छठ के माहौल में इस तरह तल्लीन होना, चेतन अस्तित्व के ऊपर अवचेतन छठ की अनगिनत रूपो का उभरना-विचरना, मन को छठ के होने तक यू ही यायावरी कर पता नही यादों को कुरेद रहा है या फिर नही होते हुए भी वही लेकर जा रहा है। पता नही क्या.....?