Tuesday, 15 August 2017

शुभकामनये ..........

हम एक अभिसप्त समय के मूक दर्शक बनते जा रहे है। बहुत सारे सवाल जब शूल की भांति मन के हर नस में अपनी पीड़ा उड़ेलना चाहता है, हम दार्शनिकता का भाव भर विचार शृंखला से टकराना छोड़ कही कोने में दुबकने  ज्यादा आकर्षित होने लगते है । किंतु दम तो हर कोने में घुट रहा है, अंतर इतना ही है कि उस विषैली फुफकार जो लीलने के लिए तैयार बैठा है, कब उसके साँसों में घुल कर स्वयं को विषाक्त करता जा रहा है, इस क्षमता को पड़खने की मष्तिष्क की तंतू कब की विकलांग हो गई है, शायद हम में से बहुतो को आभास भी नहीं हो पा रहा है।
        घटनाओं का दौर प्रारब्ध की सुनियोजित कर्म क्रिया का प्रतिफल मान स्वीकार करने की भाव में सब बंधे से लग रहे है। नहीं तो कान्हा के धरती पर कई कान्हा यूँ ही कालिया नाग का ग्रास बन कर विलुप्त हो जाए और फिर भी विचारो की टकराहट बौद्धिक विकास के चरम पर परिलक्षित करने में विवेकवान और विवेकहीन के अंतर को पाट दे तो वर्तमान के अंधेरे को शायद इस चका चौंध भरी प्रकाश में देखना संभव भी नहीं है।
      युगों को पाटते जब वर्तमान का कलयुग और आधुनिक काल के स्वतंत्रता के इकहत्तरवे वर्ष में जब आदिम युग की संभावनाओं और उसका प्रहसन ऐसे ही चल रहा हो जहा जीवन और मृत्यु के बीच बात और विचार के अंतर को समझने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है तो , किस विचारो के उन्नत पक्ष पर हम गौरवान्वित हो शंका से भरे कई सशंकित प्रश्न यूँ ही हवा में तैर रही है।
        सच भ्रामक होता जा रहा है और हकीकत को देखने की क्षमता का क्रमश ह्रास, फिर आगे क्या...?
शायद हम आगे भी यूँ ही विभिन्न भाव भंगिमा के साथ सच को और दृढ होकर अस्वीकार करने की क्षमता को शायद विकसित करने का प्रयास करेंगे ......क्योंकि बहुत कुछ होने के बावजूद भी पता नहीं क्यों लगता है कि शायद कुछ हुआ नहीं...। सभी अब भी अपने अपने प्रारब्ध से ही खेल रहे है।
      किन्तु विशेष अवसरों पे सुभकामनाओं की कामना शायद कुछ बदलाव लाये।
     ।।स्वतंत्रतादिवस की आप सभी को हार्दिक सुभकामना।।

Saturday, 8 July 2017

स्व आलाप .....

किसी खामोश और तन्हा शाम
जब सूर्य की किरणें
समंदर के लहरो से खेलते खेलते
उस में खो जाएँगी ।
दूर दूर तक फैली
उदास सी रेत की चादर
पल पल सिसकते हुए
ओंस सी भीग जायेगी ।

फिर भी एक मधुर स्मित सी रेखा
जो अधर पे उभर जाए
अमावस की काली रात को भेदने के लिए
बस उतना ही काफी है।
कभी कभी इन चेहरों को
मष्तिष्क में उलझी नसों के परिछाई से
आजाद रहने की मोहलत तो दो।

शब्दे एहसास का भाव भर है
हकीकत की इबारत नहीं ।
सब मुस्कुराते से मुखौटे से लगते ही है
क्यों न तुम भी
एक मुस्कुराता मुखौटा ही लगा लो ।
हकीकत से टकराने की अब
न ही इच्छा है न सामर्थ्य ।।

आज नहीं तो कल
हम यूँ ही उलझेंगे जैसे
तुम अंतरात्मा की आवाज होगी
और मैं दुनिया का शोर ।
चिल्लम पों मचाएंगे एक साथ
जो प्रतिध्वनि धीरे धीरे फैलेगी चहुँ ओर
हर के लिए उसमे
अपने जीवन का संगीत दिखेगा ।
क्योंकि सुर मिलकर
आजकल एकाकार कब होते ।
कर्कश की कर्कशता में हम घुल गए
यही तो सर्वोत्तम आलाप है।।




Saturday, 24 June 2017

मैं.....

जब 'मैं' , 'मैं' नहीं होता हूँ ।
तो फिर क्या ?
तो क्या मेरे अस्तित्व का विस्तृत आकाश
अनंत तक अंतहीन होता है ?
या अनंत में विलीन होता है ?
या मेरे वजूद के संगीत की सप्तक
किसी के कानों में मूर्त एकाकार होता है।
'मैं' मुक्त, साकार.. क्या निराकार भी होता है?
शायद हाँ  या ना दोनों ।
मेरे, 'मैं' के नहीं होने से,
कैसे
अनगिनत जुगनुओं सी मद्धिम
झिलमिलाती प्रकाशपुंज
अनवरत मुझ में समाहित और प्रवाहित होता है ।
ऐसा हमेशा होता तो नहीं
हाँ पर कभी कभी होता है ।
जहाँ 'मैं', स्वयं के 'मैं' से
मुक्त होकर सबो में या सभी को स्वयं में
समाहित कर विलीन हो जाता हूँ ,
और उन तस्वीरों में बिखरे
रंगों को तलाशता हूँ
जो प्रकृति प्रद्दत तीव्रता की तरंग को
अपना समझ एक दूसरे को
निगलने को आतुर दीखते है ।
मुझे औरो का , 'मैं' , न जाने क्यों
मुझे मुझ सा, खुद के, 'मैं', से
युक्त सा दीखता है ।
पर ऐसा हमेशा नहीं होता
शायद खुली आँखों से
कभी कभी हम स्वप्न्न में विचरते है ।
तब शायद मेरा 'मैं', मुझसे
त्यक्त होकर विचरता है।
यह विचरण कितना आनंद विभोर करता है
किन्तु यह स्वप्न भी स्वप्न जैसा जाने क्यों होता ?
सच में मैं
खुद के 'मैं' से, मुक्त होना चाहता हूँ
इस दिवा स्वप्न्न के स्वप्न्न में विचरण भी
अहा...कैसा आनंद!
उस आनंदवन की तलाश है ।।

Friday, 23 June 2017

पारिवारिक कलह:: एक लघु दृष्टि

                        इस बदलते समय और समाज में परिवारिक कलह जैसे बहुत ही सामान्य सी घटना हो गई है। आये दिन इसके विकृत रूप का परिणाम कई शीर्षकों में अखबारों के किसी पन्ने में दर्ज होता रहता है। महानगरीय जीवनशैली में जैसे इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा ही दे रहा है। जहाँ एक दूसरे की दिल की बात को सुनने  और समझने के लिए किसी के भी पास वक्त नहीं है। एक ऐसे सुख की तलाश में सभी बेतहासा भाग रहे है जहाँ शुष्क और रेतीले सा अंत तक यह छोड़ फैला हुआ है।
                         किसी परिवार में सामान्यतः  एक कसक और  द्वन्द किसी भी बात को लेकर शुरू हो जाता है और उस संघर्ष में कई बार इंसान का पशुत्व का चेहरा उभर आता है। जो कभी कभी इस चेहरे पर हावी हो जाता है। इस द्वन्द की छटपटाहट में कैसे आपका आचरण पाशविक हो जाता है इस बिंदु पर पहुचने के लिए कई बार आप को एकांत के ठन्डे सागर में गोता लगाना  पड़ता है। जहाँ समय के साथ स्वयं के "मैं" सा कई धब्बे दिल और मन पर उभर आते है।अनन्य प्रकार के आरोहो अवरोधो के झोखे में कई गन्दगी की परत आपके मन को मैला कर देती है। जब आप दर्पण में खुद को देखते है चेहरे का प्रतिबिम्ब तो उभर आता है मगर उपके पीछे छिपे कालिख की हलकी परत भी देखने में हम समर्थ नहीं हो पाते है। कई बार हम खुद को स्वयं में ही सर्वज्ञ मान आस पड़ोस को कोई अहमियत नहीं देते। अपने दिल में चलने वाला उफान इतना होता है की और भी इसी मनोव्यथा से भी गुजर सकता है इसकी हमको रत्ती भर भी परवाह नहीं रहता है। नतीजतन जो घर आपको स्वर्गिक सुख का अनुभूति देता है वही आपको नरक की सी यातना का पर्याय लगने लगता है। फिर हम ऊपर वाले को कोसने लगाते है।हमारे मुह से दर्शन और फिलॉसफी की उक्तियां से क्षिद्रनिविशि बन अपने हमसंगिओ की गलतिया ढूढने बैठ जाते है। इस बात का हमें थोड़ा भी भान  नहीं होता की इस नारकीय अवस्था के मूल में  स्वयं का भी आचरण ही किसी न किसी रूप में जिम्मेदार है। 
                  पारिवारिक कलह कई परिवार को उसके वजूद से मिटा देता है। जहाँ कई छोटी छोटी बाते आगे चलकर नासूर का रूप ले लेता है। इस अवस्था का अगर आरम्भ देखा जाए तो कही भी उसी मूल भाव से शुरू होता है जहाँ हम एक दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगते है। यह अविश्वास पहले तो परिछाई का रूप ले मजाक के तौर पर एक दूसरे के जीवन में दखल देता है। किंतु कब यह मजाक मलिन रूप धर हमारे मष्तिष्क में कब गहन अंधकार का सृजन कर देता है इसका हमको जरा भी आभास नहीं होता है। परस्पर अविश्वास की वो परिछाई अब दिन पर दिन अनेक रूपो में  जीवन के किसी न किसी पहलु को अपने आगोश में ढकती रहती है। इसके परिछाई के पड़ने से हमारे हाव भाव के बदल जाने की प्रक्रिया को अन्य अगर हमें चेताता भी है तो अगले को ही बदल जाने को हमारा मन देखने लगता है।
                आपसी विश्वास की जड़ झूठ के छीटे से हमेशा कमजोर होता है। झूठ और किसी बात को खुद में छिपकर रखना में बहुत अंतर है। झूठ आप के मन मष्तिष्क को खुद को सच न समझ पाने की प्रवृति बढ़ता है। यह जानते हुए भी की कहा गया झूठ किसी न किसी रूप में निकलकर कभी न कभी सामने आ ही जाता है। तब उस छोटे से झूठ से कोई फर्क तो नहीं पड़ता किन्तु यह भावना का उभार अविष्वास की उस खाई की ओऱ ले जाता जो भरने की जगह और चौड़ा होता जाता है।
                     जीवन में किसी बात की अहमियत सिर्फ मुह से बोल देने भर से नहीं होता। अहमियत को हमेशा महसूस करना उसकी उपयोगिता की आदर करना उस भाव को समझना उससे कही ज्यादा होता है। कान में पड़े शब्द कानो से गूंज कर कर हवा में विलीन हो जाते है, किन्तु दिल पर बने भाव और गहरा होकर दिल को सहलाता रहता है। इसलिए किसी की  मधुर शब्दो के प्रति उल्लसित होने से ज्यादा जरुरी है की उसको  भावो को पढ़ने की चेष्टा करे। निर्मूल बातो को बार बार दुहराने से एक खतरा अगले को उस कार्य के प्रति प्रेरित हो जाने का भी होता है, क्योंकि उसे अब तक के किये अपने सकारात्मक कार्य के प्रति खुद में वितृष्णा का भाव भरने लगता है। किसी भी दम्पति को इसलिए एक दूसरे के ऊपर आवेश में ही सिर्फ व्यर्थ के आरोप लगाने से खुद में कई बार विचार करना चाहिए। सबसे बेहतर है कि जब दो पक्ष ही तैश की अवस्था में हो तो एक को अपने ऊपर काबू रखने के गंभीर प्रयास करना चाहिए।अन्यथा कलह की कालिख से पूरा परिवार अन्धकार ग्रस्त और बच्चे अवसाद ग्रस्त हो सकते है।
                  जब आप इस स्थिति में हो की यह तय है कि कलह के रोज रोज घर में उत्पन्न होने के कोई न कोई कारन आ ही जाते है तो आप अपना प्राथमिकता में बदलाव ले आये। बेसक आपकी प्राथमिकता आपका पति या आपकी पत्नी हो सकती है। अगर दोनों एक दूसरे की प्राथमिकता में है तो पहली बात तो अनबन की कही कोई गुंजाइश नहीं है । जब अनबन होने लगे तो आप इस बात को महसूस करे की दोनों ने अपने अपने ढंग से अपने प्राथमिकता को दूषित किया है। अतः यह बेहतर है कि अब आप इस प्राथमिकता को बदल कर अपने प्राथमिकता में बच्चे को ले आये ताकि आप दोनों का फोकस बच्चे पर हो।
                इस आपसी कलह का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम बच्चे के मन मष्तिष्क पर पड़ता है। कितनी भी विकृत परिस्थिति हो आप का प्रयास यह अवश्य होना चाहिए की बच्चे के सामने आप इसका चर्चा न करे। अन्यथा आप दोनों के प्रति बच्चे के मन में एक विलगाव पैदा होगा। क्रोध में कहे गए अकारण शब्द बच्चो के मष्तिष्क पर सदा बैठ जाएगा जिसे आप गभीर प्रयास के बाद भी नहीं मिटा ।
                      इस बात के आंकलन साफ़ बताते है कि किसी परिवार की आर्थिक स्थिति पारिवारिक कलह का कभी भी गंभीर  कारण नहीं रहा है। आज के बदलते समीकरणों में बदलती प्राथमिकताओं के साथ एक दूसरे के मनो भाव को सही ढंग से नहीं पढ़ पाने और समझने की वजह ज्यादा ही आपसी संबंधों को प्रभावित करता है। एक दूसरे को मजाक मजाक में निचा दिखने की प्रवृति, दोनों परिवारों के अहमियत का भाव, दोनों की उपयोगिता के निर्धारण में वाद विवाद, आर्थिक पक्ष में दृष्टिकोण में टकराहट, भविष्य की योजना पर विवाद इत्यादि कई कारण है जो एक दूसरे के रिश्ते के बंधन को किसी न किसी रूप में प्रतिदिन प्रभावित करता है। जिसको अगर समय रहते दोनों पक्ष अनुभव नहीं कर पाते तो रिश्ते की कड़वाहट किसी भी रूप में परिणत हो जाता है। जिसका परिवार को दंश झेलना पड़ता है।
                   पति पत्नी किसी भी परिवार के धुरी होते है। दोनों की उपयोगिता परिवार के लिए अपरिहार्य है। कोई ज्यादा नहीं है और कोई कम नहीं है। इसलिए एक दूसरे की भावना को समझते हुए एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। बड़ी बातें तो दोनों पक्षो को स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है, जरुरत इस बात की होती है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के छोटी सी छोटी बात को सुने और समझे। जिससे दोनों के मन में एक दूसरे की भाव को पढ़ने और सम्मान करने के आदि हो सके। जिससे की आपका परिवार सही अर्थों में खुशहाल रहे।

Wednesday, 31 May 2017

फरफराते पन्ने....

              भय का आवरण क्या सामाजिक चेतना से हट गया है? नव समाज के लोकतान्त्रिक पुरोधा और सामाजिक शास्त्र के नीति नियंता इस बदलाव को देख पा रहे है ? और यदि देख पा रहे है तो क्या जानबूझकर शुतुरमुर्ग की नियति पर चल रहे है..? दोनों ही स्थिति, वर्तमान की गंभीरता को दर्शाता है। गाँव की गलियो से निकलने वाले कच्चे रास्ते विकास की जिस गति से कंक्रीटों में बदलते जा रहे है ये संक्रमण कही मन मष्तिष्क को वैसे ही कंक्रीट तो नहीं बना रहा है? विकास की हर दहलीज लांघता आज का समाज को इतनी फुर्सत नहीं की इस बदलाव को समझने की चेष्टा करे।मनोविज्ञान की कसौटी पर मानवीय प्रवृति के बदलाव का आंकलन को विज्ञानं के कसौटी पर परखने का प्रयास हो या विज्ञानं के रास्ते इन संचेतना की बदलाव को दर्शन से समझने का प्रयास हो।वर्तमान का सच सामाजिक मानवीय व्यवहार के भावों को जोड़ने वाले तंतुओ के क्षीण होते शक्ति को दर्शाता है। जहाँ भीड़ में तब्दील होते व्यवहार किसी के प्रति किसी भी हद तक दुराग्रही हो सकता है, जो किसी भी स्तर तक गिर विक्षिप्त भाव को रह रह कर उजागर कर देता है। बात सिर्फ दिल्ली की क्यों ?  कही भी नजर दौड़ाइए इस हिंसक प्रवृति की मानसिकताएं आप चारो ओर देख सकते है।
  कट ऑफ मार्कसो की लांघती दीवारों की पीढ़ी ज्ञान की उस वास्तविक चुनौतियों को चुनौती दे रहा है, जहाँ मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के दर्शन को स्वीकार करता है।  उसके ज्ञान और विवेक में अंतर इस चुनौतीपूर्ण व्यवस्था में खुद के जद्दोजहद में मिट सा गया लगता है  । जहाँ प्रश्न किये जाने की गुंजाइश और टिप्पणी को त्वरित प्रतिक्रिया के साथ सब कुछ समय से पूर्व निपटाने का प्रयास हो रहा है। समय की अवधारणा के बदलते मायने तेज बदलती दुनिया में  सह-अस्तित्व के वैचारिक धरातल को किस तरह से बदल रहा ऐसे घटनाएं बस बानगी मात्र ही है।संवाद की एकांगी अवस्था है जहाँ सब कहने का ही प्रयास कर रहे है, सुनने की क्षमता शायद लॉप होता ज रहा है।
       कहते है मृत्यु से बढ़कर कोई सत्य नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर जीवन है। जिसके ऊपर मानव सृष्टि के उद्भव से लेकर आज तक सिर्फ और सिर्फ इस सफर के पड़ाव में मानव व्यवहार पर दर्शनों के असीमित व्यख्या है। किंतु यह  सत्य कितनी आसानी से भीड़ बन हवाओ में विचरण कर रहा है जहा जिंदगी की कीमत क्या है? शूल सा प्रश्न चुभता है और उसके लिए कही ताकने झाँकने की जरुरत नहीं है। बड़ी आसानी से हम अपने सुविधानुसार विवेचना कर आगे तेजी से कदम बढ़ाते जा रहे है। ये त्वरित चाल सिर्फ उन्ही कदमो में है जो या तो खुद को काफी आगे निकल जाने का मुगालता पाल रखे है या जिनको लगता है हम काफी पीछे छूट गए तो किसी बंदिशों से विद्रोही तेवर है। समष्टि की अवधारणा जब बंटे हुए अस्तर सी अनेक परतों में दबी कुचली सी हो और हर कोई अपने ही अस्तर को दुरुस्त करने के लिए अपने सुई और धागे का इस्तेमाल कर रहा हो, यक़ीन मानिये वो बेहद ही बदरंग होगी। हम अपने विशष्ट शैली में अवधारणा के मानदंड पर उसका विबेचना करते रहे मूल जड़ तक जाने की हमारी चेतना न हमें गवाही देता और न वर्तमान का गर्म हवा मौका। हमारा विवेक इस कदर विकेन्द्रित होता जा रहा सत्य की पुष्टि के मायने , विचार और धारा पर सवार होकर सबके सामने उभरता है ।
      बेहतर है कि इन छोटी छोटी घटनाओं को वर्तमान ढाँचे के आईने में न देखे। किसी घटनाओं के तत्कालीन कारण को सिर्फ कानून व्यवस्था और राज्य की भागीदारी की आलोचना कर आगे बढ़ते जाने की प्रवृति काफी भयानक और विकृत हो सकता है। रोग की जड़ में जाने का न कोई प्रयास है न कोई जरुरत । क्योंकि आज में जीने की हम आदि हो गए है। अंदर से सब इतने डरे सहमे है कि कल का सच्चाई मुँह बाए सामने खड़ी है और हम है "अल्टरनेटिव रास्ते" की तलाश में खानापूर्ति कर वक्त जाया करने में लगे है।
     वर्तमान का सच काफी कड़वा और घिनौना है और हम नाक और कान बंद कर आगे बढ़ने की असफल चेष्टा कर रहे। सामाजिक मान्यताओं के पुस्तक के पन्ने ऐसे हरकतों से तड़प कर फरफरा रहे है और एक एक कर बिखर रहे है। हम पन्नो को सहेजने की जगह सिर्फ जिल्द बदलने में लगे है।