Friday 31 March 2017

लक्ष्य

         प्रभु मन में क्लेश छाया हुआ है। अंतर्मन पर जैसे निराशा का घोर बादल पसर गया है। कही से कोई आशा की किरण नहीं दिख रहा। लगता है जैसे भविष्य के गर्भ में सिर्फ अंधकार का साम्राज्य है। मन में वितृषा छा गया है। प्रभु आप ही अब कुछ मार्ग दर्शन करे।वह सामने बैठ हताशा भरे स्वर में बुदबुदा रहा जबकि प्रभु ध्यानमुद्रा में लीन लग रहे थे।पता नहीं  ये शब्द उनके कर्ण को भेद पाये भी या नहीं। फिर भी उसने अपनी दृष्टि प्रभु के ऊपर आरोपित कर दिया। प्रभु के मुख पर वही शांति विराजमान ,योग मुद्रा में जैसे आठो चक्र जागृत, पद्मासन में धर कमर से मस्तिष्क तक बिलकुल लम्बवत ,हाथे बिलकुल घुटनो पर अपनी अवस्था में टिका हुआ। उसने दृष्टि एक टक अब तक प्रभु के ऊपर टिका रखा था। आशा की किरण बस यही अब दिख रहा । कब प्रभु के मुखरबिन्दु से शब्द प्रस्फुटित हो और उसमें उसमे बिखरे मोती को वो लपेट ले जो इस कठिन परिस्थिति से उसे बाहर निकाल सके।यह समय उसके ऊपर कुछ ऐसा ही है जैसे घनघोर बारिश हो और दूर दूर तक रेगिस्तान का मंजर कैसे बचें। संकटो के बादल में घिरने पर चमकते बिजली भी कुछ राह दिखा ही देती है और प्रभु तो स्वंम प्रकाशपुंज है। प्रभु के ऊपर दृष्टि टिकी टिकी कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला।
             क्या बात है वत्स , कंपन से भरी गंभीर गूंजती आवाज जैसे उसके कानों से टकराया उसकी तन्द्रा टूट गई। पता नहीं वो कहा खोया हुआ था। चौंककर आँखे खोला दोनों हाथ करबद्ध मुद्रा में शीश खुद ब खुद चरणों में झुक गया और कहा-गुरुदेव प्रणाम। प्रभु ने दोनों हाथ सर पर फेरते हुए कहा- चिरंजीवी भव। कहो वत्स कैसे आज  इस मार्ग पर पर आना हुआ। प्रभु गलती क्षमा करे कई बार आपके दर्शन को जी चाहा लेकिन आ नहीं पाया।इन दिनों असमंजस की राहो से गुजर रहा हूँ। जीवन में लगता है निरुद्देश्य के मार्ग से चलकर उद्देश्य की मंजिल ढूंढ रहा हूँ। निर्थकता और सार्थकता के बीच खिंची रेखा को भी जैसे देखने की शक्ति इस चक्षुओं से आलोपित हो गया है। जीवन को जीना चाहता हु लेकिन क्यों जीना चाहता हु इस उद्देश्य से मस्तिष्क भ्रमित हो गया है। प्रभु आपके सहमति स्वरूप मैं इस जीवन को अपनी दृष्टि से देखना चाहता था। आपसे पाये ज्ञान से मैं इस समाज को आलोकित करना चाहता था किंतु अब लगता है खुद ज्ञान और अज्ञान के भाव मध्य मस्तिष्क में दोलन कर रहा है। कब कौन से भाव के मोहपाश मन बध जाता पता ही नहीं चलता।जागृत अवस्था में भी लगता है मन घोर निंद्रा से ऊंघ रहा है। प्रभु मार्गदर्शन करे।
            प्रभु के मुखारबिंद पर चिर परिचित स्वाभाविक मुस्कान की स्मित रेखा उभर आई। दोनों पलक बंद किन्तु प्रभु के कंठ से उद्द्गार प्रस्फुठित हुए- वत्स मै कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। आखिर तुम्हारा मन मस्तिष्क इतना उद्धिग्न क्यों है। तुमने योगों के हर क्रिया पर एकाधिकार स्थापित कर रखा है, फिर इस हलचल का कारण मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।
               प्रभु आप सर्वज्ञानी है, आप तो चेहरे को देख मन का भाव पढ़ लेते है। अपनी पलकों को खोल एक बार आप मेरे ऊपर दृष्टिपात करे।प्रभु आप सब समझ जाएंगे। उसके स्वर में अब कातरता झलकने लगा।प्रभु की नजर उसपर पड़ी और उसकी दृष्टि नीचे गड गई। वत्स मेरे आँखों में देखो क्यों नजर चुराना चाहते हो। नहीं प्रभु ऐसी कोई बात नहीं लेकिन आप के आँखों में झांकने की मुझमे सामर्थ्य नहीं है। मैं आपके आदेशानुसार कर्तव्य के पथ पर सवार हो मानव समिष्टि के उत्थान हेतु जिन समाज को बदलने की आकांक्षा पाले आपके आदेश  मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। अब उस राह पर दूर दूर तक तम की परिछाई व्याप्त दिख रही है। मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा की आखिर इस अँधेरी मार्ग को कैसे पार करू जहाँ मुझे नव आलोक से प्रकाशित सृष्टि मिल सके।
            तुम कौन से सृष्टि की बात कर रहे हो वत्स। परमपिता परमेश्वर ने तो बस एक ही सृष्टि का निर्माण किया है।सारे जीव इसी सृष्टि के निमित्त मात्र है। तुम कर्म विमुख हो अपने ध्येय से भटक रहे हो। तुम्हारी बातो से निर्बलता का भाव निकल रहा है। आखिर तुम खुद को इतना निर्बल कैसे बना बैठे।
              अपने आप को संयत करते हुए कहा- प्रभु जब सत्य एक ही है तो उसे देखने और व्यख्या के इतने प्रकार कैसे है।आखिर हर कोई सत्य को सम भाव से क्यों नहीं देख पाता है। आखिर  मानव उत्थान के लिए बनी नीतियों में इतनी असमानता कैसे है ? सक्षम और सामर्थ्यवान दिन हिन् के प्रति विद्रोही और विरक्त कैसे हो जाते है? अवसादग्रस्त नेत्रों में छाई निराशा के भंवर को देख देख कर अब मेरा चित अधीर हो रहा है और इन लोगो के क्लांत नेत्र को देख देख व्यथित ह्रदय जैसे इनका सामना नहीं करना चाहता । प्रभु मुझे आज्ञा दे मैं पुनः आपके सानिध्य में साधना में लीन होना चाहता हूँ।
         प्रभू ने उसके सर पर पुत्रवत हाथ फेरते हुए कहा-लेकिन इस साधना से किसका उत्थान होगा। आखिर किस ध्येय बिंदु को तुम छूना चाहते हो। समाज के उत्थान हेतु जिस कार्य को मैंने तुम्हे सौपा है। आखिर वत्स तुम इससे विमुख कैसे हो सकते हो। लगता है मेरी शिक्षा में ही कुछ त्रुटि रह गई। कातरता से भरे स्वर में उसने कहा नहीं प्रभु ऐसा न कहे।मैं आपको तो हमेशा गौरवान्वित करना चाहता हूँ।परंतु प्रभु आपने इस सन्यास धर्म के साथ राजनीति के जिस कर्म क्षेत्र में मुझे भेज दिया, लगता है वो मेरे उपयुक्त नहीं है।प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-क्या वत्स तुम इतने ज्ञानी हो गए की खुद की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का निर्धारण कर पा रहे हो। इसका तो अर्थ हुआ की मै तुम्हारे क्षमता का आकलन करने योग्य नहीं। प्रभु धृष्टता माफ़ करे आपकी क्षमता पर किंचित शक मुझे महापाप का हकदार बना देगा। मेरा अभिप्राय यह नहीं था। फिर क्या अभिप्राय है पुत्र -प्रभु के स्वर से वात्सल्य रस बिखर गए।
                  प्रभु इतने वर्षों से मानव सेवा हेतु मैंने राजनीति का सहारा लिया।यही वो माध्यम है जिसके द्वारा मानव कल्याण की सार्थक पहल की जा सकती है।किंतु प्रभु इसका भी एक अलग समाज है, जो कल्याण की बाते तो करते है विचारो के धरातल अवश्य ही अलग अलग है किंतु मूल भाव में सब एक से दीखते है। प्रभु इनके मनसा,वाचा और कर्मणा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।इस कारण इनके साथ तालमेल कैसे करूँ प्रभु ?खुद को दूषित करू या इनसे दूर हो जाऊं। प्रभु क्या करूँ मैं? 
                 वत्स तुम्हे तो मैंने निष्काम कर्म योग की शिक्षा दी है फिर भी तुम अर्जुन की तरह विषादग्रस्त कैसे हो सकते हो। गीता के श्लोक अवश्य तुम्हे कंठस्त होंगे, लेकिन मर्म समझने में लगता है तुम भूल कर बैठे हो।पुत्र मानवहित हेतु ध्येय की प्राप्ति में अगर काजल की कोठरी से निकलने में कालिख से डर कर वापस  लौट जाया जाए तो इसका तो अर्थ हुआ की अज्ञान के अंधकार को विस्तार का मौका देना। किसी न किसी को तो अपने हाथों से कालिख को पोछने होंगे।क्या जयद्रथ और अश्व्थामा का दृष्टान्त वत्स तुम भूल गए। तो क्या भगवान कृष्ण अब भी इन धब्बो से तुम्हारी नजरो में दोषी होंगे। समझो अगर भगवान् कृष्ण ने इस विद्रूपता को अपने हाथों से साफ़ नहीं किया होता तो आज मानव की क्या स्थिति होती। कर्तव्य के राह पर पाप पुण्य हानि लाभ से ऊपर उठ देखो , समग्र मानवहित जिसमे दीखता है उपयुक्त तो वही मार्ग है। यही तो योग है कि इस परिस्थितयो के बाद भी अपने को  लक्ष्य से भटकने नहीं देना है। अगर कालिख लग भी जाए नैतिकता के सर्वोत्तम मानदंड और मानव कल्याण के उत्कर्ष के ताप से स्वतः कालिख धूल कर एक नए ज्ञान गंगा की धारा में परिवर्तित हो जाएगा। तुम प्रयास तो करो। वत्स कोई न कोई तो प्रथम बाण चलाएगा। इस डर से गीता श्रवण के बाद भी  गांडीव अगर अर्जुन रख ही देता तो क्या आज महाभारत वैसा ही होता ? अनुकूल स्थिति में कर्तव्य पथ पर चलना सिर्फ दुहराना है उसमें कैसी नवीनता। समाज में घिर आये ऐसे विचार की सन्यासी का राजनीती से क्या लेना ही इस दुरावस्थिति का कारण है। समाज के  शिक्षित जन इस स्थिति में आम जन के दुरवस्था से विमुख हो सिर्फ खुद के प्रति मोह भाव रख ले तो किसी न किसी को तो पहल करना ही होगा। पुत्र सन्यास आश्रम समाज से विमुखता नहीं बल्कि इसकी सापेक्षता का भाव है।जब तक यह अपनी नीति नियंता समष्टि के हर वर्ग के अनुरूप बनाकर चलता है और सब समग्र रूप से खुशहाल हो हम भजन कीर्तन  कर भागवत ध्यान में लीन रह सकते है।किंतु अगर ऐसा नहीं है तो हमें तो इसका प्रतिकार कर उत्तम ध्येय के मार्ग पर सभी को आंदोलित करना ही होगा। जीवन योग तो पुत्र ऐसा ही कहता है।परम सत्य का ज्ञान तो वर्तमान के साक्षत्कार से ही होता है भविष्य का तो सिर्फ चिंतन और मनन ही क्या जा सकता है।
              सन्यास धर्म समाज से विमुख करता है इस प्रतिकूल विचार के भाव को बदलने हेतु ही तो तुम्हे भेजा।इस अवधारणा से पुत्र मुक्त हो जाओ की सन्यास आश्रम परिवार से विरक्ति है ,बल्कि पूरे समाज को अपना परिवार मान उसके प्रति आसक्ति का भाव ही सन्यास धर्म का मर्म है। अवश्य आलोचनाओं के तीर तुम्हारे हिर्दय को छिन्न विच्छिन्न करेंगे किन्तु जब धेय श्रेष्ठ है तो ऐसे बाधाएं मार्ग च्युत नहीं कर सकता है।सन्यास धर्म खुद को श्रेष्ठ तो बनाना है किंतु यह प्राणी मात्र को श्रेष्ठता के मार्ग पर प्रसस्त करने हेतु है।जब समाज का कोई भी क्षेत्र कलुषित हो जाए तो उसका उद्धार करना ही सन्यासियों का धर्म भी है और कर्म भी है। आज राजनीति की पतन की जो गति है उसे समय रहते नहीं थामा गया तो पूरे मानव समाज को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। अतः वत्स अपने धेय्य से न भटको और इन्ही राहो पर चलकर ही तुम योग और सन्यास की श्रेष्ठता को सिद्ध करोगे। यह हमारा दृढ़ विश्वास है। इतना कहने के साथ ही प्रभु ध्यानमग्न हो गए।
            उसने प्रभु के चरणों में अपना शीश झुकाकर दंडवत प्रणाम किया। अब उसके चेहरे पर संतोष और दृढ विश्वास की आभा फ़ैल गया। पीछे मुड़कर उन राहो चल दिया जिनसे चलकर आया था। दृष्टि विल्कुल अनंत में टिकी हुई जैसे उसे लक्ष्य स्पष्ट नजर आ रहा हो।

Tuesday 14 March 2017

मेघ की बेचैनी

          इस यक्ष को अब मेघ से ईर्ष्या हो गई थी । मेघ को अब दूत बनाने के ख्याल से ही वह शंदेह के बादलो में घिर जाता था।
              वह प्रेयसी का सौंदर्य वर्णन नहीं करना चाहता था।उसे डर था उन तालों में खेलती नवयौवना के झांघो पर दृष्टि  फिसलने से कही वो मोहित न हो  जाए। आखिर कुछ भी है , है तो वह इंद्र का दास ही। उसकी लोलुपता और गौतम के श्राप को कौन नहीं जानता।
         नहीं इस विरह में भी सन्देश तुझे, नहीं , रहने दो। ये नैनाभिसार हरीतिमा जो कण कण में समाई है। दूर कही भी नजर दौराउँ इन्ही खिलती कली में मेरी भी प्रियतमा हरिश्रृंगार कर इन कल कल करती नदियों में अटखेलियां कर रही होंगी। क्या पता मेरा संदेशा देने से पहले ही कही तुम इन कटि प्रदेश की घाटी में खो जाओ। 
उस उफनती धार को तो फिर भी थाम लोगे किन्तु उन उफनती उभार में जाकर कही तुम भटक गए तो मैं कहाँ तुन्हें ढूंढता फिरूंगा , माना कि इंद्रा के दरबार में अप्सराओं के बीच पल पल मादक नैनो से तुम्हारी नजर टकराती होगी। किन्तु मेरे मृगनैनी के तीर से टकराकर व्हाँ तुम्हारा ह्रदय विच्छिन्न नहीं हो जाएगा, मुझे शंका है। यह संदेशा तुम छोड़ ही दो।
        संदेशा मेघ को देना था, प्रियतम अपने प्रियतमा के विरह में पल व्ययतीत कर रहा था।
         मंजर बदल गए थे। काल बदल गए थे।काल पल पल के धार में बहती आज से होकर गुजर रही थी। 
अब यक्ष नहीं थे, न प्रियतम का निर्वासन था। फिर भी......
           बेचैन लग रहा था। मन हवा के झोंके से भी सशंकित हो जाता, कही कोई अपना तो नहीं टकरा गया। आँखों में मिलन की चाहत से ज्यादा शंका की परिछाई निखर रही थी। प्रेम के कोरे कागज पर दिल में छपी हस्ताक्षर कही कोई पढ़ न ले। दिल में उमंगें कम वैचैनी का राग ज्यादा छिड़ा हुआ था। आखिर पहली बार आज सोना खुद तपने अग्नि के पास जा रहा है। सोना तो तपने के बाद निखारता है किंतु अग्नि तो खुद अपना निखार है। उस प्रेम की अग्नि का निखार उसके दिल पर छा गया था, उसके ताप से उसका रोम रोम पिघल कर बस उसमे समा जाना चाहता था या यूँ कहे उसमे मिल जाना चाहता था। प्रेम की तपिश का कोई पूर्वानुमान उसे नहीं था। उसने सिर्फ यक्ष की ह्रदय व्यथा को मेघदूत में पढा था। उसे जिया नहीं था।
         नजरे बिलकुल सतर्क जैसे  डाका डालने की तैयारी में हो और चौकीदार आसपास घूम रहा हो। फिर भी इश्क के जंग में आज आमना सामना हो ही जाय इस भाव को भर कदम बढ़ते जा रहे थे। वह दूर इतनी की गले की तान उसके कर्ण में रस न घोल पाये खड़ी थी। आँखों में कसक दिल में धड़क रही गती के साथ तैरता डूबता था।
       अब तो इस दुरी पर आकर ठिठक कर रुक जाने के कितने पूर्वाभ्यास हो चुके है उसे खुद भी याद नहीं । आज उसने कदम न ठिठकने देने की जैसे ठान रखा है। किन्तु पता नहीं क्यों अब इतने पास देखकर कदम में कौन सी बेड़िया जकर जाती है।
       वो  आज भी वही खड़ी है, जहाँ रोज रहती है। इसी विशाल छत के नीचे दोनों अलग अलग विभाग में काम करते।  बिलकुल बिंदास लगती है जैसी यहाँ की लड़कियां होती है। उसका अल्हड़पन उसकी पटपटाते होंठ साँसों की धड़कन से उभरते सिमटते उभार और सहेलियों संग हंसी की फुलझड़ी छोड़ती किन्तु जैसे ही उसकी नजरी मिलाप होती उन आँखों में शर्म की हरियाली निखर जाती, बिंदास और अल्हड़पन अंदाजों पर छुई मुई का प्रभाव छा जाता , वो बस ठिठक सी जाती। वह सोचता शायद यहाँ की नहीं है।
     न जाने कितने दिनों से यह सिलसिला चल रहा है। अब तो दोनों के दोस्तों ने भी छेड़ना बंद कर दिया था। बदलते परिवेश के खुले दुनिया में जहाँ वो दोनो भी बस इस आमना सामना से अलग बिलकुल खुले खुले है। जब  आइसक्रीम सी जम कर रूप लेते प्यार थोड़ी सी उष्णता पर पिघल कहाँ विलीन हो जाते पता ही नहीं चलता।दोनों के हृदयधारा प्रेम की ग्लेशियर सा जम गया था। दोनों जितने पास पास है उससे पास नहीं हो सकते। लगभग यही हर रोज होता है। 
      अब समय के साथ एहसास और गहरा होता गया है, किन्तु दोनों के बीच इश्क की गुफ्तगूँ में लब अब भी नहीं पटपटाये , आँखों की पुतलियां  जैसे शब्द गढ़ एक दूसरे के दिल में सीधे भेज देते, कुछ पल के ये ठहराव में दोनों के बीच कितने हाले दिल बयां हो जाता वो नजर टकराने के बाद गालो पर उभर आती चमक सभी से कह देती।
        दोनों इश्क के समंदर में डूब रहे थे। दिल ही दिल इकरार हो गया था। बहुत सारी गुफ्तगूँ पास आये बिना भी हो चुकी थी। अपने अपने परिवेशों की छाप के इतर जैसे ही आमना सामना होता एक अलग समां बन जाती। खुले माहौल की छाप उसके दूर होने से ही उभरती , उसको देख जाने कैसे उसके चेहरे पर छाई लालिमा संकोच के दायरे में सिमट कत्थई हो जाती। बगल से गुजर जाने पर ह्रदय हुंकार भरता अंदर की आवाज बंद होठो से टकराकर अंदर ही गूंज जाती। पर पता नहीं कैसे यह आवाज उसकी ह्रदय में भी गूंज जाती । नजर से जमीन कोे सहलाते  शर्म के भार से दबे पैर ठहर ठहर का बढ़ती और दोनों फिर पूर्ववत सा गुजर जाते।
     लेकिन शायद अब प्रेम में मिलन हो गया था। हर रोज ये और गाढ़ा हो कर दोनों के चेहरे पर निखरने लगा था।
इस मिलन के कोई साक्ष्य न थे फिर भी अब सभी ने दोनों को एक ही मान लिया। संदेशवाहक वस्तुओं का आदान प्रदान में सिर्फ वस्तु आते जाते ।उसमे छिपे सन्देश को बस दोनों के नजर ही पढ़ने में सक्षम थे।
         आज वह ज्यादा बैचैन है कई दिन गुजर गए अब। अचानक से कही ओझल हो गई। दफ्तर और सहेलियां कुछ भी बताने में अपनी असक्षमता जाहिर कर दी। टूटते पत्ते से अब एक एक पल के यादे आँखों से झर रहे थे। विरह गान के सारे मंजर जैसे उसके पास खड़े हो उसके दिल के सुर से मिल गएथे। मिलन तो कभी हुआ नहीं किन्तु विछुरण सदियों के भार का दर्द उसके दिल में उलेड़ दिया था।
        वो कहाँ चले गई उसे कोई पता नहीं था, वही नदी के किनारे उचाट मन से पत्थरो को कुरेद रहा था। आसमान उसकी इस ख़ामोशी को निहार रहा था। सूरज उसके गम से दुखी  कही छिप गया।
         मेघ से नहीं रहा गया। छोटे बड़े काले गोरे सभी आसमान में उभर आये। नजर उसने मेघ की ऒर फेरा, दिल में मेघदूत के यक्ष के विरह गाथा जैसे उसी की ह्रदय वेदना के स्मृति हो। आँखे काले काले गंभीर बादलो में कुछ ढूंढने लगी।रह रह कर बदलते बादलो की छवि में जैसे वो उभर आती और बढ़ते हाथ जैसे गालो को छूना चाहता हवा के झोंके में विलीन हो जाती। बस हाथ आसमान में उठे रह जाते।
        किन्तु फिर भी उसने मेघ को अपना संदेसा नहीं बताया। प्रियतमा के शौन्दर्य का वर्णन कर वह मेघ के मन में अनुराग नहीं जगाना चाहता था। उसके अंग अंग बस उसके नजर में कैद थे किसी को भी उसकी झलक दिखा अपने पलकों से आजाद नहीं करना चाहता था।
          उमड़ते घुमड़ते मेघ दूत का रूप धरने को बैचैन दिख रहा है लेकिन वो अब भी उस झोंके के इन्तजार में बैठा था जो संभवतः उसके प्रेयषी का संदेश ले के आ रहा हो।
      किन्तु पता नहीं क्यों मेघ इन संदेश को उसके प्रियतमा तक पहुचाने के लिए खुद बेचैन दिख रहा था। जबकि उसकी  बंद पलके अपनी दिल की गहराई में ही उसको तलाश रही है......शायद.....यही कहीं हो ....।।।

Sunday 12 March 2017

होली मुबारक.....

होली त्यौहार ही ऐसा है जो निकृष्ट पल के उदासीन माहौल में भी अपनी खनक छेड़ देता है। उदास पलो के भाव इस फागुनी बयार के झोंके में विलीन हो जाते है।  मन  पर छाये सुसुप्ता के भाव में रंगों की महक एक नए उत्साह और उमंग का  संचार कर देता है। फागुन के पलाश की दहक आसपास के मंजर को उत्साह के ताप से भर देती है। मन में जमे उदासी की बर्फ अब इसकी  ऊष्मा में पिघल कर रंगों के बयार के साथ घुल मिल गया है। ।।।।।आखिर होली है।।।।
       अपने पास बिखरे इन समूह में जो अब तक यही रुकने की मायुसी से दबे दिख रहे थे अचानक उसके चेहरे पर छाये मायूसी के परत को यह गुलाल का झोंका अपने साथ उड़ ले गया है। उनके उत्साह ये बिखरते गुलाल में मिल जैसे पुरे आसमान में छा जाना चाहते है। उत्साह और उमांग के ये नज़ारे होली की प्राकृतिक भाव को सबमे भर दिया है।।।।होली ऐसी ही है।।।

ये होली है जोगी... रा.....सा...रा..रा...रा
मस्त ढोलक की थाप और करतल की झंकार और फिर सामूहिक नाद........जोगी रा....रा...सा...रा..रा...
थिरकतें पाँव, लचकते कमर
चेहरे पर भांग की हरियाली,
हवा में गुलालों की लाली
मदमाती निगाहे,
सब पर छाई यौवन की नाशाएँ
क्या बच्चो की किलकारी,
कही गुब्बारे भर मारी
छिटक गए सब पे रंग,
खिल गये सब अंग अंग
बुढो में भर गया जोश,
और मृदंग  पर  दे जोर
सभी का रंग निखर गया और उल्लास में  सभी का स्वर बिखर गया....जोगीरा....रा...सा...रा..रा...।।।।।
            कही ब्रिज में कन्हैया ने होली की राग छेड़ी और राधा बाबली हो रंग गई ऐसी की अब तक निखरी जा रही है। भक्ति के रस पर प्रेम का राग इसी पल में चहुँ ओर कोयल की कूक सी चहकती है।कहते है काशी में भोले गंगा की  रेत को  गुलाल समझ खुद रंग शमशान में अपने डमरू की थाप पर खुद थिरकतें रह गए। ये विश्वनाथ पर भांग नहीं होली का नशा छा गया। जिस उत्सव को मनाने देव भी इन्तजार करे, वो ही  होली है।।।।।
          कसक तो परिवार से दूर होने का होता है वो भी जब होली हो। ना गुजिये की खुशबु न मठ्ठी की गंध और न ही पकवान के संग घुली प्रेमरस का स्वाद।बिलकुल खलता है। आखिर होली जो है।।।
            फिर उम्मीदों का रंग से सरोबार हो, गुलाल के झोंको  से आँख मिचौली अब भावो पर अपना प्रभाव दिखा दिया है और अवसाद के पल इन रंगों के खयालो से ही निखर गया है। तभी तो होली है।।।।।
       आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाये।।।

Friday 24 February 2017

घरौंदा की खातिर .....

घरौंदा की खातिर
रह रह कर बदलते है, बस चलते है।।
छोड़ कर सब कुछ
उसी की तलाश में
जिसे छोड़ चलते है।।
मैं मतिभ्रम में उलझ कर
इस भ्रम से निकलना चाहता हूँ।
जितना मति से मति लगाता
चकयव्यूह सा उलझता जाता हूं ।।
इन छोटे छोटे सोतों से
जब प्यास बुझती नहीं ,
किसी बड़े दरिया की तलाश में
मृगमरीचिका के पीछे पीछे
बस बढ़ता जाता हूं ।।
एक बड़े से घरौंदे के चाहत में
इन छोटे में कहाँ कभी ठहर पाता हूं ।।
इसी की देहरी पर
अगर खेल ले दोपहर की
छोटी सी परिछाई से
या शाम की धुंधलकी में
इन टिमटिमाते बल्ब की रौशनी से
कुछ अनमने से आवाज में भी
अपनेपन की आहट लगे ।
चाहता तो यह सब
फिर भी पता नहीं क्यों
घरौंदा की खातिर
रह रह कर  बदलते है बस चलते है। ।

Monday 13 February 2017

आई ऍम विथ------इस पेज को लाइक करे।।।

                      आजकल फेसबुक पर फैन्स क्लब की भरमार है। न जाने बिभिन्न नामो से कितने पेज मिल जाएंगे। ये झुझारू लिखित वक्ता लगते है जो सदैव सरहद पर तैनात सिपाही की तरह विल्कुल मुस्तैदी के साथ अपने विरोधी के पेज पर नजर जमाये रहते है कही ऐसा न हो की पेज पर लॉच मिसाइल कुछ ज्यादा ट्रोल करे। इनके बीच की प्रतिद्वंदता मजेदार है। हम किसी से कम नहीं में तर्ज पर एक दूसरे पर नए नए जुमलो के तीर इनके तरकशों से निकलता रहता है।
              राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोही के सारे फॉर्मूले आपको इन पेजो पर उपलब्ध मिलेगे। कटाक्षो और तंज की ऐसी बारिश इन पेजो पर होती है कि एक निष्पक्ष व्यक्ति के लिए इनके छीटे भी उसे धर्मसंकट में डाल दे की कब वो देशभक्त हो जाये और कब उसका एक लाइक पकिस्तान जाने की उद्घषणा कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता । कुछ लाईके आपको जवां मर्द बना सकता है अगर उसमे उंगली काँपी तो आप किस श्रेणी में रखे जाएंगे यह आप सोच ले। वैसे भी कम्पन कमजोरी की निशानी है। ये पेज देखकर तो अब बस यही लगता आप समय के साथ विचार और धारणाये नहीं बना सकते अब जो है वही है।
        फुर्सत के क्षणों में जब आप इन पेजो से गुजरते है तो वाकई क्षण गंभीर  होता है । कभी देशभक्ति की हिलोडे मन में डोलने लगता है तो अगले क्षण पेज पर लिखे वाकये सोचने पर मजबूर कर देता की शायद कही मेरी उंगली इस ढेंगे पर ठिठक गया तो लोग मुझे कही और मुल्क जाने की फरमान वही से न जारी कर दे। इसी बीच बीच बहुत सारे लिंक्स की आपको जानकारी ये देते है जैसे कोर्ट में वकील अपने पक्ष में गवाह बुलाते है ये लिंक्स अंतर्जाल में घिरा फेसबुकी देश में गवाह लगते है। लेकिन कुछ भी कहे ये फैन्स क्लब वाले बहुत ही सजग और सचेत रहते है। इनकी बुद्धिमता और नित्य नए विचार की मर्मज्ञता काबिले तारीफ होती है। कितना मनन और चिंतन एक दूसरे की काट में करने पड़ते है इसका जबाब तो बस इन्ही के पास है। हम तो शायद बेकार ही आलोचना में लगे है। ये नए युग के धर्म प्रचारक और समाज सुधार के अग्र दूत है। आई ऍम विथ------इस पेज को लाइक करे।।।