Saturday 28 December 2019

चिलका--झील....पानी ही पानी

         समय की रफ्तार नियत है। किंतु सोच की रफ्तार अनियत है। 2019 का रश्मि रथ वर्ष की अंतिम राह पर अग्रसर है। फिर ये नूतन और पुरातन वर्ष के संक्रमण काल में सुई की घड़ी अपनी नियत रफ्तार से टकटकी लगाए दौर रहा है।
      
              जाजपुर प्रवास को लगभग चार वर्ष हो गए। केन्द्रीय सेवा में आप यायावरी ही करते रहते है।ये आपको देश के विभिन्न क्षेत्रों की विविधता से रूबरू होने के कई मौके देता है। फिर आप उस सेवाकाल में खुद के लिए समय निकाल कर उसे अपने नजरिये से देखने और समझने का प्रयास करते है।आस-पास के दर्शनीय क्षेत्रो में जगन्नाथ मंदिर पूरी, कोणार्क का सूर्य मंदिर, लिँगराज मंदिर भुवनेश्वर जो कि विश्वविख्यात है उसके साथ-साथ आस-पास ही कई और विख्यात बौद्ध स्थल और स्थानीय तौर पर प्रसिद्ध का भ्रमण हो चुका। किंतु अब भी कुछ जगह बाकी रह रह गए थे , जिसका भ्रमण बाकी था। उसमें सबसे प्रमुख नाम चिलका झील है। 

         जाजपुर रोड से चिलका ज्यादा नही बस दो सौ बीस किमी है। अगर आप यहां आने से  पूर्व गूगल बाबा के सानिध्य में कुछ पल बिताते हैं तो आपको पता चलेगा कि "चिलका झील" के नाम से बेसक प्रसिद्ध हो, लेकिन भोगोलिय परिभाषा में ये "लैगून या अनूप" कहलाता है।अनूप अथवा लैगून किसी विस्तृत जलस्रोत जैसे समुद्र या महासागर के किनारे पर बनने वाला एक उथला जल क्षेत्र होता है जो किसी पतली स्थलीय पेटी या अवरोध (रोध, रोधिका, भित्ति आदि) द्वारा सागर से अंशतः अथवा पूर्णतः अलग होता है। यह लगभग ग्यारह सौ वर्ग किमी की दायरे में फैला हुआ है।खैर

      ऐसे भी ये वर्षांत वनभोज के रूप लोग एक दिन अवश्य घर से बाहर भ्रमण करना चाहते है। तो बैठे-बैठे अकस्मात चिलका के विस्तृत फैले जल प्रवाह की ओर ध्यान चला गया।अवकाश का स्वीकृति सामान्यतः एक दुरूह क्रिया है।फिर भी जैसा कि  राहुल सांकृत्यायन कहते है-"बाहरी दुनिया से अधिक बधाये आदमी के दिल मे होती है"। तो मैंने दिल की बाधाएं से पार पाते हुए मौखिक आवेदन प्रस्तुत कर दिया और एक दिन की हामी मुँह बाये सीपी के मुंह मे एक ओंस की बूंदों गिरने जैसा लगा ।वैसे तो अगर योजनाबद्ध अवकाश के आवेदन हो तो एक के साथ आगे-पीछे दिनों के उपसर्ग और प्रत्यय के रूप में कुछ और इजाफा हो जाते है। किंतु अनियोजित कार्य मे ध्येय पर ही ज्यादा ध्यान होता है, इसलिए उसका प्रयास ही नही किया।खैर
      
      यहां जाजपुर रोड से वाहन के द्वारा ही भ्रमण ज्यादा उपयुक्त  है सो पूर्व परिचित वाहन मालिक से संपर्क कर गाड़ी की उपलब्धता सुनिश्चित कर लिया।सर्दी का मौसम यहां काफी खुशनुमा और रूमानी है।जिसमे आप सर्दी से डरकर रजाई में खुद को छुपाने का प्रयास नही करते।जब देश का उत्तरी क्षेत्र भीषण सर्दी से ठिठुर रहा है । यहां एक अदद स्वेटर फिलहाल की शीत ऋतु से गुफ्तगू करने में मशगूल है।सुबह सवेरे छह बजे हम अपने आवास से उन आगंतुक पक्षियों से मिलने अपनी गाड़ी से निकल गए। जाजपुर रोड से लगभग बारह किमी की दूरी तय करने के बाद हावड़ा- चेनाई राष्ट्रीय राजमार्ग एन एच-16 के ऊपर आ गए। रोड की स्थिति कमोबेश आप अच्छा कह सकते है। यदि आप किसी अन्य स्थान से ओडिशा के भ्रमण पर है तो आपके लिए भुवनेश्वर या कटक ज्यादा मुफीद है। वैसे चिलका में रेलवे स्टेशन है किंतु कोई भी प्रमुख गाड़ियां यहां रुकती नही है। जाजपुर रोड से पानिकोइली, कटक, भुवनेश्वर होते हुए हम राष्ट्रीय राजमार्ग-16 पर हम खुर्दा रोड के रास्ते बढ़ चले। भुवनेश्वर से लगभग सत्तर किमी की यात्रा के पश्चात मुख्य राजमार्गों से काटती हुई एक अन्य मार्ग दिखा जिसपर चिलका की ओर तीर का निशान इंगित कर रहा था कि अब हम झील के आसपास पहुँच चुके है। तटीय क्षेत्र के अनुरूप पूरा परिदृश्य नारियल के पेड़ और अन्य वनिस्पतियो के आच्छादित आपको आह्लादित कर सकता है।कोई दस मिनट के बाद अब हम चिलका तट पर पहुँच चुके, अब समय दिन के लगभग ग्यारह बज गए ।वैसे अगर आप जगन्नाथ पूरी दर्शन के लिए जाते है तो वहां से लगभग नब्बे किमी की दूरी पर "सदपदा" नामक स्थान भी  चिलका झील के भ्रमण के नाम पर आपको गाइड ले जा सकते है, जो कि मुख्यतः समुद्र और चिलका झील का मुहाना है और डॉल्फिन के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन चिलका में चिलका झील का भ्रमण आपको ज्यादा आनंदित करेगा।"चिलका विकास प्राधिकरण" के तहत यहां का विकास कार्य संचालित है। 

        विशाल जलराशि के निकट हम पहुच गए। दूर तक फैले झील आपको प्रकृति में समाहित सौंदर्य के अप्रितम कल्पना लोक में लेकर चल देता है। बादलो को चीरते सूर्य की बिंब नाव के धार के तरंगों पर जैसे लग रहा है जैसे किसी अनुगुंजी संगीतो पर थिरकने में लगी हुई है। पक्षी यही धरती के है या किसी और लोक में हमें विचरण करा रहा है, इसी कल्पना के पंख पर हम उड़ने लगे, तब तक साथ आये ड्राइवर ने कहा ये- ये टिकट काउंटर है यहां पर आप टिकट लेकर बढ़े ,मैं यही इंतजार करूँगा। आंख खोले हुए भी शायद तंद्रा की अवस्था हो सकती है, इसको अभी महसूस किया। वैसे भी अज्ञेय ने एक जगह लिखा  हैं - “वास्तव में जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करता हूँ, उस से ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूं।” 

            यहां "सी डी ए" संचालित बोटिंग की व्यवस्था है, साथ ही साथ आस-पास के  लोगो के रोजगार का एक प्रमुख स्वय के बोट पर्यटक को झील के सौंदर्य का भ्रमण कराते है। किंतु "सी डी ए" संचालित बोटिंग में क्षमता के अनुरूप पर्यटक के आने के बाद खुलती है। लेकिन प्राइवेट बोट आपके अनुरूप ही चलेगी। किन्तु इसमे आपका पर्स कुछ ज्यादा ढीला होगा। अब समय और पर्स दोनों के तुलनात्मक भाव कर आप किसी बोट में भ्रमण कर सकते है।छोटो बोट की क्षमता दस से सोलह लोगो की होती है, जबकि "सी डी ए" संचालित बड़ी बोट की क्षमता लगभग पचास से साठ की है।

                 अब एक सौ अठारह नंबर के नाव पर बुकिंग की प्रक्रिया के बाद झील के तट पर पहुच गए।नाविक "कालिया" वहां अपने बोट के साथ हमे मिल गया।ये बोट लगभग दस लोगो की क्षमता के अनुरूप हम सभी उसमे सवार हो गए। अब बोट किनारा छोड़ झील की यात्रा पर निकल गया। वन-भोज के इरादे से हम निकले ,इसलिए घर से खाने के टिफ़िन हमारे साथ चला। वैसे यहां आपको कोई अच्छा होटल नही मिलेगा दूसरा समय अलग से जाया होता है। इसलिए नाव अपने मांझी और पतवार के साथ चलते ही हमने वन-भोज की जगह चिलका में "जल-भोज" के लिए बैठ गए। इसी दौरान कालिया हमे बताया कि किनारे इसकी गहराई तीन फुट तक है जबकि चिलका की सबसे ज्यादा गहराई लगभग तीस से चालीस फुट तक है। वो खुद मछवारे के परिवार से है और ये नाव खेना उसके रोजगार से ज्यादा उसका शौक है। क्योंकि पेशे से वह राज्य सरकार के प्राथमिक स्कूल में शिक्षक है। अभी स्कूल में छुट्टियां होने के कारण वो यहां है। कुछ भावुक सा होता बोला बचपन से इन्ही पानी के आसपास पला-बढ़ा है, इसलिए मौका मिलते ही वो पानी मे पहुच जाता है।कभी-कभी तो वो मछली की खोज में तीन से चार दिन इसी नाव पर गुजारते है।खाने-पीने का सामान सब साथ ही होता है। यह कहते हुए वह पानी के बीच होते हुए भी जैसे कही और विचरण करने लगा। शायद प्रतिकूल या अनुकूल कोई भी स्थिति हो , किसी के सानिध्य में बिताए कल, रह-रह कर हमें अपनी ओर खींचता है। बोट ने अपनी रफ्तार पकड़ ली, सुदूर तक  निगाहे बस पानी मे तैरने लगा।धरती और आकाश का मिलन तो क्षितिज कहलाता है।किंतु यहां पानी और आकाश की नीलिमा कब एक दूसरे के संग मिल करवटे बदलते है सब कुछ अविस्मरणीय, अद्भुत सा प्रकृति में समाई अनंत अदृश्य मनोरम छटा से आप सिर्फ विस्मृत से होते जाते है। कही नेपथ्य जैसे लगा "मिलन" फ़िल्म का गीत-" सावन का महीना पवन करे शोर" चिलका के हवाओ में तैरने लगा।अब तक लगभग झील के अंदर पांच किमी की यात्रा कर एक छोटे से पत्थरो के द्विप पर पहुँच गए। जिसे "चढ़ाईहाड़ा' के नाम से जानते है। पानी के बीच पत्थरो पर दो-चार फ़ोटो क्लिक कर अब आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए पानी के अंदर अब हल्की श्याम और श्वेत उबर-खाबड़ परिछाई जैसे तैरने लगी। हमे लगा जैसे और किसी द्विप के नजदीक आ गए। यहां झील की गहराई अब कम होकर तीन से चार फुट हो गया। तब तक कालिया ने बताया कि इसे ही "नालंबना द्वीप" कहते है। ये पक्षियों के लिए प्रसिद्ध है।ऐसा अनुमान है कि प्रवासी पक्षीयो   की लगभग 205 प्रजातियाँ  इस मौसम यानी दिसम्बर से फरवरी में  इस झील पर आती है।सर्दियों में यह झील कैस्पियन सागर, ईरान, रूस और दूर स्थित साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों का निवास स्थान बन जाती है। अब जहां देश मे एन आर सी और सी ए बी पर कितने लोग स्वयं के पहचान को लेकर सशंकित हो रहे है। वही ये सभी पक्षियां विभिन्न सुदूर भागो से आकर यहां बेखबर होकर जल-क्रीड़ा में मग्न है। इसके आगे अब जाना मना है, क्योंकि आगे पंक्षियों के संवर्धन के कारण प्रवेश निषेध है।स्वयं के लिए सशंकित इंसान और जीवो के पहचान के लिए कितना संवेदनशील है, इस विरोधभाष मे दिमाग को उलझने का यहाँ कोई औचित्य नही नजर आया। विस्तृत फैले क्षेत्र में सिर्फ पानी ही पानी एक समतल सतह पर कही कोइ चिन्ह या निशान नही बता रहा है। लेकिन इन जलराशि के मध्य सुखी बांस बल्ली बिल्कुल तन कर खड़ा है। जैसे चिलका के मध्य यह अपनी हरियाली को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास रत है। कालिया ने बताया चिलका की यात्रा में यही इनके दिशा निर्देशक तंत्र है।समय अपनी रफ्तार से भगा जा रहा था। इसलिए अब आगे बढ़ कर कालीजाई द्वीप में कालीजाई देवी के मंदिर  में आ गए। मंदिर के हुंडी में आने वाला चढ़ावा अभी भी पास के "बालू गाँव" ,के राजा के वंशज को जाता है। मान्यता है कि उसी राजा ने देवी की मंदिर स्थापित किये।जिसके विषय मे कई किवंदतियां प्रसिद्ध है,किन्तु वो कहानी फिर कभी। काली जय द्विप लगभग ढाई-तीन किमी में फैला हुआ पहाड़ी क्षेत्र है। इसके भी आसपास विविध प्रवासी पंक्षियों की जमघट लगा हुआ है।सतपड़ा, बालुगाँव, रंभा और बारकुल से होते हुए नौकासवारी के माध्यम से आप चिल्का झील के महत्व को महसूस कर सकते हैं।बीच झील के किनारे आपको आईएनएस चिलका "भारीतय नौसेना" पूर्वी तट का मुख्यालय भी है। जहां विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण चलते है । किन्तु उसके लिए आप समय की प्रचुर मात्रा अपने साथ लेकर चले। यहां घूमते-घूमते समय अब मुठ्ठी से रेत की भांति फिसलने लगा। ऊपर आसमान में सूरज भी लगा जैसे थक कर निढाल हो रहा है। और यहां से लगभग पांच घंटे की यात्रा कर वापस जाजपुर भी लौटना है। इसलिए नाव के संग-संग प्रवासी पक्षियों के संग हम वापसी की यात्रा पर चल दिये। 

Saturday 2 November 2019

छठ ...यादें

            यहाँ काली पूजा की महत्ता है। काफी भव्य और लगभग दस दिनों का आयोजन रहता है। यहां रहते हुए इसका भी एहसास बचे खुचे समय मे समय निकाल कर करने चल दिये। घर के बगल में बड़ा सा मैदान है और रंगारंग कार्यक्रम की भी व्यवस्था है। भीड़ भरे आयोजन स्थल पर चहलकदमी बता रही है कि यहाँ के लोग इस आयोजन का भरपूर लुफ्त उठा रहे है।

            लेकिन मन का कोना इस आयोजन के तड़क-भड़क के बीच जैसे खामोशी की चादर ओढ़ रखा है। शरीर बेशक यहां भ्रमर कर रहा है लेकिन मन यायावरी कर गाँव के आंगन में बार-बार भटक कर पहुँच जा रहा है।क्योंकि आज खरना की पूजा है। विधिवत चलने वाले बहुदिनी व्रत "छठ" का एक पड़ाव।
     
            इस बार छठ में घर से दूर होना, लगता है कि कटे जड़ के साथ तना बस इधर से उधर डोल रहा है। छठ का महात्म्य क्या है ये तो बस वही जानता है जिसने किसी न किसी रूप में उसके संसर्ग में आया है और छठ को जिया है। घर से इस समय दूर रहना, जैसे लग रहा है अस्तित्वहीन होकर शून्य में भटक रहा हूँ। बीच-बीच मे मन शरीर को यही जैसे छोड़ गाँव के आंगन में विचरने लगता है। गोबर की निपाई से आँगन का कोना-कोना छठ की खुसबू से दमक रहा है।अभी तक पता नही कितने चक्कर बाजारों के लग गए होते। वैसे तो सुप पथिया, मिट्टी के बर्तन माँ पहले से ही व्यवस्था कर के रखती थी।लेकिन उसके बाद भी सांध्य पहला अरग के निकलने से पहले तक जैसे भागमभाग लगा ही रहता। फिर सारे फल, सब्जी, ईंख सब तो आ ही गया। तब तक माँ कहती अरगौती पात तो है ही नही। अरे वो समान के लिस्ट में तो लिखाया था। तब तक मैं भाग कर कहता ओह रुको अभी लेकर आता हूँ। पूजा त्योहार तो कई है लेकिन छठ अद्भुत...। 

             चार पांच दिन पहले से गेहूं धो कर सूखने लगता। छत बड़ा सा है। आस-पड़ोस के भी महिलाएं वही अपना गेहूं सुखाने आ जाती। माँ कहती - ईय एक टा गीत गायब से नई। वही आबाज आता। काकी अहाँ शुरू करु न। बस उसके बाद सनातन लोकगीत परंपरा की तरह जो बचपन से सुनते आ रहे है। माँ धीरे-धीरे गुनगुनाना शुरू कर देती- उगो हे दीनानाथ....मारबो रे सुगवा धनुष से...कांचही बांस के बहँगीय...और माटी के संग गुंथी हुई अक्षुण्ण अनगिनत और न जाने कितने मैथिली और भोजपुरी के गीत। उधर कही से शारदा सिन्हा की आवाज भी  घर की चहारदीवारी को लांघ कर एहसास कराता रहता कि पूरा परिवेश ही जैसे छठमय हो रखा है। एकांकी व्रत की धार कैसे सामूहिकता में सबको बांध सागर की तरह छठ के घाट पर सब एकसाथ आत्मसात हो जाते है, यही छठ की परम्परा अनवरत अब भी सामाजिक और आर्थिक बदलाव के बदलते माहौल में भी अब तक खुद को जीवंत रखे हुए है।

                दीपावली की रात के प्रथम सूर्योदय में भगवान भास्कर की किरण में कुछ अद्भुत छटाएँ होती है और लगता है जैसे छठ की दिव्यता फैलने लगा।  बिना किसी के बताए लगता है कि वातावरण में स्वतः उद्घोष हो गया। तैयारी तो न जाने हर छठ व्रती अपने स्तर पर कब से करता है लेकिन अब तैयारी अपने अंतिम स्तर पर आ जाता है। हर घर, हर गली, हर सड़क हर बाजार छठ की प्रकृति प्रदत्त तैयारी से एक अलग भब्यता परोसने लगता है। जबकि कुछ भी विशेष नही सब के सब वही आस पड़ोस खेत खलिहान और बगीचे में मिलने वाला। अत्यधिक की गुंजाइश बेसक लेकिन कम से कम भी पूर्णता से पूर्ण ही दिखता है।

               छठ का घाट सिर्फ व्रतियों के भगवान भास्कर को अर्ध्य नही है, बल्कि एकल व्रत की धार सामूहिक समष्टि को कैसे एक तट पर साथ रहने की अवधारणा को अब भी सहोजे रखा है सबसे अद्भुत है। 
             और इस सबके बीच अपने गाँव घर से दूर छठ के माहौल में इस तरह तल्लीन होना, चेतन अस्तित्व के ऊपर अवचेतन छठ की अनगिनत रूपो का उभरना-विचरना, मन को छठ के होने तक यू ही यायावरी कर पता नही यादों को कुरेद रहा है या फिर नही होते हुए भी वही लेकर जा रहा है। पता नही क्या.....?

Friday 23 August 2019

जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

आनंद का क्षण है। बादल झूम-झूम कर बरस रहे है।आखिर हो भी क्यों नही...आज बाल गोपाल का जन्मोत्सव जो है। तो फिर आज कृष्ण के ऊपर लोहिया जी का लिखा लेख याद आ रहा है। जिसमे लोहिया अपने चिंतन में कहते है-

                कृष्ण के पहले भारतीय देव , आसमान के देवता है। निसंदेह अवतार कृष्ण के पहले शुरू हो गया । किन्तु त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनाने की कोशिश करता रहा।इसलिए उसमे आसमान की देवता का अंश अधिक है। द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करता रहा।कृष्ण देव होता हुआ सदैव मनुष्य बना रहा। कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितप्रज्ञ" का,ऐसे मनुष्य का जो अपनी शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता हो अर्थात "कूर्मोङ्गनीव" जो कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है, अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से पुरी तरह हटा लेता है।

          तो फिर जन्माष्टमी के इस अवसर पर आनंद के असीम संसार मे तिरोहित होने के साथ-साथ कृष्ण के गीत को भी कर्मरूपी चिंतन करते रहे ।।

        जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।।

Friday 16 August 2019

मंगल मिशन....

                   मिशन मंगल कुल मिला कर एक अच्छी फिल्म है। इसरो के सफल अंतरिक्ष कार्यक्रम "मार्स ऑर्बिटर मिशन" से जुड़े वैज्ञानिको के जुनून,लक्ष्य के प्रति समर्पण, प्रतिकूल कारको में मध्य दृढ़ इच्छाशक्ति के वास्तविक जादुई यथार्थ का फिल्मांकन और उसे थियेटर के बड़े पर्दे पर देखने का एक अलग ही आनंद है। इसकी सफलता का अनुमान इसके प्रथम प्रयास में सफल होने के साथ - साथ इसके बजट के संकुचन का भी है। तभी तो जहा किसी शहर में ऑटो का किराया प्रति किलोमीटर 10 रुपया पड़ता है, वही मंगलयान प्रति 8 रुपये किमी के दर से अपने लक्ष्य तक पहुच गया। खैर

      अब आते है फिल्म पर । लंबी स्टार कास्ट में सभी कलाकारों को समुचित स्पेस दिया गया है।फ़िल्म के अंत मे क्लिपिंग से ये पता चलता है कि इस "मंगलयान" के प्रोजेक्ट से लगभग 2700 वैज्ञानिक और इंजीनयर जुड़े हुए थे। स्वभाविक है कि उसमें कुछ साथ किरदारो के मध्य इस फ़िल्म का ताना-बाना बुना गया है।जिसमे पांच मुख्य महिला किरदार है।जो कि इस अभियान के विभिन्न प्रोजेक्ट को लीड कर रही है। साथ मे तीन पुरुष कलाकार है।फिर आप अंदाज लगा सकते है कि किसके लिए कितना स्पेस है। लेकिन कहानी के अनुरूप फ़िल्म में सभी की अपनी मौजूदगी है। कहानी छोटी लेकिन इतिहास बड़ी है। सीनियर सायंटिस्ट राकेश धवन जिसकी भूमिका में अक्षय कुमार है।  एक असफल अभियान के बाद तात्कालिक इसरो के एक बंद प्रोजेक्ट "मंगल मिशन" भेज दिए जाते है। पिछले असफल प्रोजेक्ट डायरेक्टर तारा शिंदे जो कि असफल अभियान में खुद को जिम्मेदार मानती है भूमिका को निभाया है विद्या बालन ने इसी तरह सोनाक्षी सिन्हा,तापसी पन्नू,कीर्ति , शरमन जोशी,विक्रम गोखले, दिलीप ताहिल, एच् डी दत्तात्रेय आदि ने विभिन्न किरदारो को जिया है। जहाँ मध्याह्न से पहले फ़िल्म की पटकथा किरदारो को बुनने में समय लगाता है लेकिन साथ ही साथ कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। वैज्ञानिको के विभिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि को रचने में कहानीकार के अपने दर्शन हो सकते है। लेकिन वो आपको उबाऊ या बोरिंग नही लगेगा। संजय कपूर एक अरसे बाद दिखे है और अपने पुराने गाने"अंखिया मिलाऊ कभी कभी अँखिका चुराऊ पर थिरकते मिलेंगे। लेकिन किरदार कुछ "कन्फ्यूज़्ड" सा है। दत्तात्रेय अपनी भूमिका से काफी आकर्षित करते है और इस उम्र में भी जिस ऊर्जा से भरे है लगता है अभी-अभी एयर फोर्स से रिटायर हुए है। दतात्रेय एयर फोर्स में विंग कमांडर से रिटायर है और बाद में फिल्मों से जुड़ गए। बाकी अदाकारी सभी कलाकारों की अपनी किरदार के अनुरूप है। मध्याह्न के बाद फ़िल्म अपनी गति में रहती है।इस तथ्य को जानते हुए भी यह इसरो का एक सफल मिशन है आपकी नजरे पर्दे पर अंत तक लगी रहती है। कुछ सांकेतिक डायलॉग अच्छे या खराब या किस परिपेक्ष्य में फिल्मकार ने दिखाया है ये आप खुद फील देख कर तय कर सकते है। फ़िल्म का बैक ग्राउंड संगीत बढ़िया है। निर्देशक ने पूरी कोशिश की है और सेट डायरेक्टर ने एक इसरो ही उतार दिया है।

      इसरो के पचास साल पर इसरो के वैज्ञानिकों के प्रयास और सफलता कि उद्घोषणा करती यह फ़िल्म है, यह उस जिजीविषा और अदम्य उत्साह की गाथा को रुपहले पर्दे पर प्रस्तुत करता है, जिसमे ज्यादातर हीरो पर्दे के पीछे ही रह जाते है। बाकी कमिया भी कई है लेकिन सिर्फ अच्छे को ही कभी-कभी देखने का अपना ही मजा है और वो भी स्वतंत्रता दिवस के बिजी मौके पर आपको किसी फिल्म के पहले दिन के दूसरे शो का आपको टिकट मिल जाये तो...।।

Monday 10 June 2019

भारत- एक समीक्षा

               सीधे और सपाट शब्दो मे कहूँ तो फ़िल्म में मनोरंजन के मसाले भरपूर है,लेकिन वो टुकड़े-टुकड़े में थोड़ा बहुत मनोरंजन करता है।लेकिन एक पूरे फ़िल्म के रूप में कही भी बांधने में मुझे तो नही लगता है कि सफल हो पाया है।अली अब्बास जाफर के निर्देशन के कारण आज "भारत मैच छोड़"  "भारत फ़िल्म" को देखने चल दिया।लेकिन सलमान के साथ पिछली दो फ़िल्म "सुल्तान" और "टाइगर जिंदा है" के मुकाबले यह काफी कमजोर मूवी है।कहानी में कोई विशेष तारतम्य नही है बस बटवारे के पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में आप भावनात्मक रूप से जितना महसूस कर पाते है, उतनी देर बांधती है, अन्यथा दुहराव ज्यादा और काफी झोल-झाल है। सलमान अपने नाम के अनुरूप है और कैटरीना पहले की भांति खूबसूरत, दिसा पाटनी की जगह एक्स,वाय, जेड कोई भी होती कुछ फर्क नही पड़ता। अन्य कलाकार छोटी-छोटी भूमिका में आकर्षित करते है और अपना प्रभाव छोड़ते है।फिर भी कहानी के तौर पर एक समग्र रूप से उभर नही पाते है।लेकिन अपने पूर्व की सारे इमेज को तोड़कर कोई सामने आता है तो वो सुनील ग्रोवर है और हिस्सो में तो लगता है ये उसी की फ़िल्म है। गीत संगीत में विशेष कुछ नही है।

               आप जहां से चाहे फ़िल्म की शुरुआत कर सकते है औऱ कही भी छोड़ कर जा सकते है। निर्देशक खुद ही कहानीकार है तो वो कहानी ठीक से सुना नही पाए और कहानी में कसाव के नाम पर कुछ भी नही है। कोरियन फ़िल्म के री-मेक को इस देश के मिट्टी के अनुसार ढाल पाने में असफल ही कहा जायेगा। कॉमेडी का तड़का लगाने लगाने का पूरा प्रयास रहा है और कुछ जगह आपको यह गुदगुदाता है। लेकिन भारत की यात्रा फ़िल्म के अनेक पड़ाव पर आपको पहले से ही आभास हो जाएगा जिसके कारण कहानी में रोमांच नाम की कोई बात नही रहती है।

              बाकी भाई की फ़िल्म है तो उनको चाहने वाले उन्हें निराश नही करते है।ये बॉक्स ऑफिस के कलेक्सन से पता चलता है।लेकिन पिछले कुछ सालों में आई फिल्मो में सलमान की सबसे कमजोर फ़िल्म है। बाकी आप देख कर उसमें अपने लायक कुछ देखे।