Sunday 20 June 2021

फादर्स डे...... बस यूं ही...

                भाव जब शब्द से परे हो तो उसे उकेडने का प्रयास जदोजहद से भरी होती है। हर समय मन में खटका उठता है ओह यह रंग तो छूट ही गया। फिर उस तस्वीर के ऊपर एक और कोरा कागज एक नए तस्वीर की तैयारी।

                        हर तस्वीर में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। यह जानते हुए भी समग्र को समेटने का प्रयास निष्फल ही होगा ।फिर भी प्रयास करना है यह प्रथम पाठ भी अबोध मन पर उन्ही का लेखन है। जब अनुशासन के उष्म आवरण की गर्मी दिल में एक बैचैनी देता तो आँखों से सब कष्ट हर लेने का दिलाशा भी उनके व्यक्तित्व के आयाम में छिपे रहते थे। जो वर्षों बाद इन तुच्छ नजरो को दृष्टिगोचर हो पाया। निहायत सामान्य से व्यक्तिव्य में असामान्य जीवन के कई पहलूँ को लेकर चलना सामान्य व्यक्तिव्य नहीं हो सकता। शून्य के दहलीज से सारा आसमान को छू लेने के यथार्थ को मापने के पारम्परिक  पैमाने इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रतिफल का आज जिस मधुरता के रस में  घुला हुआ हमें मिला है  उसमे उनके स्वयं के वर्तमान की आहुति से कम क्या होगा? वो ऋषि की तपोसाधना और उसके बरदान स्वरूप हमारा आज।

                       मुख से निकले शब्द .....अंतिम सत्य और प्रश्न चिन्ह की गुंजाइश पर मष्तिष्क खुद ही प्रश्न निगल जाए ....। बेसक कई बार अबोध मन का प्रतिरोध की भाव दिल में ही सुलग कर रह जाय । किन्तु मन में बंधे भरोसे के ताल में सब विलीन हो जाते। आँखों के सम्मोहित तेज का भय या श्रद्धा या कुछ और ...जो कहे पर हम सबके आँख सदा मिलने से कतराती ही रही। उस तेज का सामना करने का सामर्थ्य ......बेसक इस प्रश्न का उत्तर अनुत्तरित ही रहा। लेकिन जीवन दर्शन से भरी बातें अब भी कानो को वैसे ही तृप्त करता है, जैसे कभी वो इस पौधे को सींचते समय दर्शन के जल से इन नन्हे पौधों को सींचा करते थे।

                          कई बार गीता पढ़ा लेकिन यथार्थ का अनुभव वस्त्र के तंतू बिखरने के बाद ही चला । जब सब कुछ होने पर भी शून्य दीखने लगा । किंतु  फिर वो अनुभति जो कदम कदम पर साथ चलने का अहसास और किकर्व्यविमूढ़ भाव पर दिशा दर्शन का भाव ....मुक्त काया का साथ याथर्थ तो पल पल है।.........अब भी वो साथ है। यह संवेदना से भरे भाव न होकर ...याथर्थ का साक्षत्कार है। जिसे शब्दो की श्रृंखला में समेटना आसान नहीं है।

                        उधार में लिए गए नए रवायत को जब हमारा आज उस समृद्ध संस्कृति की मूल्यों को ढोने में अक्षम है तो फिर कम से कम एक दिन के महत्व को प्रश्नों के घेरे में रखना पिल्हाल आज तो संभवतः अनुचित ही है...?

          यह भाव दिन और काल से परे है। फिर भी.......

Monday 10 May 2021

कोरोना काल

 अपेक्षाओं का संसार असीमित है....सिमित साधनों के साथ कैसे और आखिर कब तक सामंजस्य बिठाया जाय....?

                भय का दोहन हो रहा है या दोहन की बढती प्रवृति भय का कारण है...इसी असमंजस और उहापोह में बढ़ते जा रहे है । आंकड़ो की कुल रफ्तार और वास्तविक स्थिति के बीच न कही कोई चर्चा है और न ही कोई रूपरेखा दिखता है। 

                  इन उलझनों के बीच भी नियत दिन अपने तय समय पर आकर उस दिन की भाव भंगिमा के अनुसार हमे आभूषणों के साथ नाट्य कला के मंचन के लिए  स्वयं को सुस्सजित करना ही पड़ता है। दिन भर मंचन की सामूहिक प्रक्रिया का निष्पादन करने के पश्चात पुनः पीछे मुड़कर देखे तो सब कुछ वैसे ही उजड़ा उजड़ा दीखता जब कारीगर नाटक स्थल से उसके सजावट के तड़क भड़क वाले वस्त्र को मंच से खोलने के बाद दीखता है। बिलकुल हकीकत सदृश्य नंग धरंग । दृश्य को देख उसका विश्लेषण करने में असमर्थ .....पहले हम हकीकत के रंगमंच पर थे या अब जो नाट्य सदृश्य दिख रहा है वो ही वास्तविक रंगमंच है...कहना मुश्किल है?लेकिन हम जैसो के लिए तो "न दैन्य न पालनयम" के भाव ही सर्वोत्तम विकल्प है।

             अब सबकुछ धीरे-धीरे ही सही किन्तु रफ्तार पाने का जुनून तो अब भी पूर्ववत है।लेकिन भय का आवरण हर ओर यथावत अपनी परिछाई में जकड़ रखा है और भय के कारण भी पर्याप्त है। एक सामान्य धारणा है "क्वांटिटी के बढ़ते ही क्वालिटी घटने लगता है" तो कोरोना के बढ़ते क्वांटिटी ने इसके प्रति उपजे भय के क्वालिटी में उत्तरोत्तर ह्रास करता जा रहा है। लेकिन ये भाव रूपक है वास्तविकता नही। फिर भी उम्मीद से बेहतर विकल्प और दूसरा कोई नही है। 

                  अतः फिर भी आपको उम्मीद के संग अब भी होशियार और सचेत रहने की जरूरत है जब तक बाजी आपके हाथ न आ जाये।जरूरत न हो तो घर पर रहे और बाहर निकले तो मास्क और दूरी का अवश्य ध्यान रखे।बाकी आपकी मर्जी......

  "#कोरोना_डायरी_35(फेसबुक)

Thursday 14 January 2021

मकर-संक्रांति की शुभकामनाएं

 कुरुक्षेत्र का मैदान ....युद्ध का दसवां दिन ...

विषाद की वायु से पूरा वातावरण रत्त । विधवा विलाप और पुत्र शोक संतप्त विलाप से कंपित सिसकारियां  मातम और रूदन की प्रतिध्वनि संग एक क्षत्र पसर गया।आज के युद्ध के समापन की घोषणा हो चुकी है। क्या कौरव क्या पांडव सभी के रथ एक ही दिशा में भाग रहे है।रक्त और क्षत-विक्षत लाश ने कुरुक्षेत्र के मैदान पर अपना एकाधिकार कर रखा है।  महापराक्रमी, महाधनुर्धर, परशुराम शिष्य, गंगापुत्र, देवव्रत भीष्म वाणों की शैया पर पड़े हुए है। कौरव के सेना का सेनापति यूँ लाचार और बेवस ...अब तक कुरुक्षेत्र का मैदान इनके गांडीव की कम्पन से दहल रहा था वो बलशाली असहाय सा....।भीष्म अब कौरव और पांडव के मिश्रित सेना से घिर चुके थे। 

              वाणों की शेष शैय्या पर इस रूप में भीष्म को देख दुर्योधन के चेहरे का क्रोध स्पष्ट परिलक्षित था। वह मन में भीष्म के घायल से जितना द्रवित नहीं है उससे ज्यादा भविष्य के पराजय की आहट का डर वह सशंकित था। यह भय क्रोध का रूप धर आँखों में उभर रहा है।  पांडवों में संताप पितामह को लेकर स्पष्ट था, जहाँ अर्जुन का मन कर्मयोग और निजत्व मर्म को लेकर संघर्षरत्त दिख रहा ...वही बलशाली भीम भीष्म के इस रूप को देखकर सिर्फ अकुलाहट मिश्रित दुःख से अश्रुपूर्ण हो रखा था..तो धर्मराज युधिष्ठिर अब इस कालविजयी योद्धा से श्रेठ ज्ञान की कुछ याचना से चरणों में करबद्ध हो अपने आँखों के अश्रु की धार को रोक रखा है। नकुल सहदेव आम मानव जनित शोक के वशीभूत हो बस अपने अश्रुओं को निर्बाध रूप से बहने के लिए छोड़ रखा है।

             भीष्म यदि वर्तमान है।तो बाकी कौरव  दक्षिणायन में विवेक पर जम आये अहंकार और दुर्बुद्धि की परत । वही  पांडव भविष्य का उत्तरायण जो  इस हठी सिला को परास्त कर विवेक पर घिर आये तम की परिछाइयो को परास्त कर मानव के नैसर्गिक सौंदर्य को निखार कर लाने को युद्धरत। तभी तो नारायण नर रूप धर स्वयं रथ के सारथी का दायित्व ले लिया।  देवकी नंदन भी वही भीष्म की इस अवस्था को देख भविष्य के गर्भ में छिपे भारत के अध्याय को जैसे खंगाल रहे है।

                  किन्तु अब युधिष्ठिर से नहीं रहा जा रहा। पितामह आखिर आप इस वाण शैय्या पर कब तक ऐसे पड़े रहेंगे। दोनों पक्ष के क्या ज्येष्ठ क्या अनुज क्या सभासद क्या आम जन ....सभी को भीष्म की पीड़ा ये दर्द ..ये कराह जैसे रह रह कर दिल को क्षत विक्षत कर रहा है। हर हाथ इस याचना में जुड़ रहे है कि कुरु श्रेष्ठ अपनी इच्छा मृत्यु के वरदान को अभी वरन कर ले। खुद को इस पीड़ा से मुक्त करे ।

      किन्तु भीष्म ये जानते है कि इस जम्बूदीप पर अज्ञान का जो सूरज अभी दक्षिणायन में है, इस भूमी को इस रूप में असहाय छोड़ चल जाना तो उनके स्वाभिमान को शोभा नहीं देगा। कही आने वाले कल इतिहास में यह नहीं कहे की भीष्म ने हस्तिनापुर के सिंघासन से बंध कर जो प्रतिज्ञा लिया वो तो धारण कर निभा गए किन्तु भीष्म जैसे महाज्ञानी के अपने भी मानवोचित धर्म को निभाने हेतु जिस कर्तव्य और धर्म के मध्य जीवन भर संघर्षरत्त रहे उसके अंतिम अध्याय को अपने आँखों के सामने घटित होते देख सहम गए। वर्तमान का कष्ट भविष्य के उपहासपूर्ण अध्याय से ज्यादा कष्टकारी तो नहीं हो सकता। ये अंग पर बिंधे बाण नहीं बल्कि वर्तमान के घाव का शल्य है । भविष्य के अंग स्वस्थ हो तो इतना कष्ट तो सहना पड़ेगा।

        महाभारत का अंतिम अध्याय लिखा जा चूका है। मंथन के विषाद रूप और विचार के द्वन्दयुद्ध से एक नए भारत का उदय हो गया है। अब दक्षिणायन से निकल कर उत्तरायण में जिस सूर्य ने प्रवेश किया वह नैसर्गिक प्रकाश पुंज बिगत के कई कुत्सित विचारो के साए को जैसे अपने दर्प से विलीन  दिया  है। वर्ष का यह क्रम साश्वत और अस्वम्भावी है और समाज और देश इस से इतर नहीं है। किंतु उत्तरायण में प्रवेश की इच्छा पर अधिकार के लिए भीष्म सदृश भाव भी धारण करने की क्षमता ही नियति के चक्र को रोक सकता है।

            लगभग 58 दिन हो गए ....वर्तमान के भीष्म को क्षत विक्षत पड़े रहे लेकिन धौर्य नहीं खोया....ये विचारो की रक्तपात काल चक्र में नियत है....कोई न कोई मधुसूदन आता रहेगा जो काल के रथ का पहिया अपने उंगली में चक्र की भांति धारण करेगा ....लेकिन वर्तमान हमेशा भीष्म की तरह कर्तव्य और धर्म के मध्य क्षत विक्षत हो भविष्य के ज्ञान किरण का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने हेतु प्रतीक्षारत रहेगा।

आप सभी को मकर संक्रांति .... लोहड़ी.. पोंगल...बिहू.. जो भी मानते हो की हार्दिक शुभकामनाए एवं बधाई।

Monday 2 November 2020

जंगल-राज.....

 मैं "जंगल-राज" का पैरोकार हूँ...नही इसको ऐसे कह सकते है किसी भी राज्य में जंगल का पैरोकार हूँ...! जो जंगल के हितैषी नही है ..हमे पता है वो पर्यावरण के कितने बड़े दुश्मन है । अब किसी राज्य में जंगल लगाने के लिए पर्यावरण पर अलग से सरकारी धन का दुरुपयोग हो ...यह तो ठीक नही ...तो फिर...उस राज्य को जंगल मे तब्दील कर देने से सरकारी खजाने का भी भला होगा। वैसे भी जो जंगल से निर्मोही है ...वो तो  पूंजीपति के स्नेही ही माने जाते है । तो फिर वो क्यो चाहेंगे कि किसी भी राज में जंगल हो..। आखिर जंगल काट-काट कर इन्होंने ये हाल कर दिया है कि बीच-बीच मे हस्तिनापुर से फरमान जारी होता रहता है की इतने पेड़ लगाओ. ..  उतने पेड़ लगाओ...। अब हम जहां है वहाँ जमीन हो ...तब न पेड़ लगाए , लेकिन "कागज की किस्ती" जब मंझधार से निकल सकती है तो कागज पर वृक्षारोपण भी हो जाता  है।

      अगर राज में सचमुच के जंगल हो तो ऐसी समस्याओं से हमारा पाला नही पड़ेगा। अब जंगल होगी तो थोड़ी बहुत समस्याएं तो होगी ही....। कभी भालू तो कभी लकड़बघ्घा का भय स्वभाविक है। लेकिन फायदे भी तो कितने है.....बिना मेहनत के जंगल मे फल तोड़ो और खा लो...जंगल मे रोटी-रोजगार दोनों मौजूद होते है बस हौसला और पारखी नजर चाहिए...।  

          और जिन्हें जंगल से भय लगता है ...वो शहर का रुख तो कर ही लेते है। देखिए जहां जंगल नही है वहां कैसे सांस बंधक बने हुए है ...और दोष पड़ोसी पर डाल देते। लेकिन हस्तिनापुर को तो शुरू से ही दृष्टि दोष है।

           बात बराबर की है....अगर जंगल नही है तो आपकी सांसे बंधक हो सकती है और अगर जंगल हो जाये तो आप बंधक हो सकते है... ।तो फिर आपको "जंगल-युक्त" राज चाहिए या फिर आप "जंगल-मुक्त" राज के पक्षधर है.... फैसला आपका है...आपको क्या चाहिए..?

           नोट:- इस बातो का बिहार चुनाव से कोई संबंध नही है.....।

Saturday 19 September 2020

होमो सेपियन्स- अतीत से वर्तमान तक

             इतिहास कई अवधारणाओं का संश्लेषित निचोड़ है, जिसमे हर इतिहासकार स्वयं के मनोवैज्ञानिक भाव की चाशनी में लपेट कर परोशते है। यह कभी  अंतिम निष्कर्ष पर नही पहुंचता और भविष्य की संभावनाओं को कभी खारिज नही करता।यह भाव हर एक इतिहासकार के अपने सामाजिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक विचार या शैक्षिणिक गतिविधियों के बारीक तंतुओ के मध्य उपलब्ध साक्ष्यों के विश्लेषण में स्वतः पनपता है। इस मायने में यह कथन ठीक है-"इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है ।इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है"। लेकिन जिस समय काल खंड में इसे लिखा जा रहा है उस काल खंड के राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था शायद इस पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते है।किन्तु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भविष्य के कल्पित रागों के लिए हम हमेशा से वर्तमान में मंथन,भूत में छेड़े गए सुरो का ही करते रहे है।इतिहास वास्तव में सिर्फ सूचना और घटनाओ का दस्तावेजीकरण या आंकड़ो का एकत्रीकरण न होकर इन दस्तावेजों से छन कर निकले दर्शन है।जो मानव के वर्तमान और भविष्य के चिंतन के लिए कई प्रकार के नए मार्ग प्रसस्त करता है।

                   इस क्रम में यह पुस्तक" सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कुछ इसी प्रकार के भविष्य के दर्शन  के भूत की उकेडी गई रेखाओ को मिलाकर वर्तमान में एक रूप रेखा प्रस्तुत करता है।इसलिये लेखक ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है कि लगभव 70,000 वर्ष पहले होमो सेपियन्स से संबंधित जीवो ने एक विस्तृत संरचनाओं को रूप देना शुरू किया,जिन्हें संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है।इन मानवीय संस्कृतियो के उत्तरवर्ती विकास को इतिहास कहा जाता है।जिसे इतिहास के तीन क्रांतियों ने आकर दिया:- संज्ञानात्मक क्रांति-लगभव 70,000 वर्ष पहले,कृषि क्रांति-लगभग 12,000 वर्ष पहले तथा अंत मे वैज्ञानिक क्रांति जो कि 500 वर्ष पहले शुरू हुआ।साथ ही साथ यह भी स्पष्ट करता है कि इतिहास को न तो निश्चयात्मक मानकर समझाया जा सकता है,न ही उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है क्योंकि वह अराजक होता है।

                     युवाल नोवा हरारी द्वारा लिखित यह पुस्तक "सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कई मायनों में महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए नही है कि इतिहास की विद्वतापूर्ण बाते शोधार्थी के लिए नए दरवाजे खोलती है,बल्कि महत्वपूर्ण इसलिये है कि एक आम पाठक होने के नाते आप कई ऐसे तथ्यों से टकराते है,जो आप के अब तक के बने धारणाओं को गहरे तक झकझोर देता है।किसी भी किताब को पड़खने की कसौटी यह नही है कि कितने क्लिष्ट तथ्यों के साथ आपको अवगत कराता है,बल्कि उसकी कसौटी तो संभवतः यही है कि एक आम पाठक जब इसको पढ़े तो अपने भाषा मे उन तथ्यों के साथ कैसे तारतम्य स्थापित कर पाता है और विचार श्रृंखला को किस हद तक प्रभावित करता है।उसपर भी इतिहास सामान्य रूप में बीती घटनाओ का एक उदासीन वर्णन अवश्य है,लेकिन उद्देश्यहीन तो कतई नही।किन्तु जब आपको इतिहास इस रूप में मिले जो कि कहानियों की श्रृंखला हो और तथ्यों का व्यापक स्पष्टीकरण  तो यह स्वभाविक रूप से आपको आकर्षित करता है। वैसे भी मानव उद्भव से लेकर वर्तमान समय तक इतिहास को समग्र रूप से समेटना संभवतः एक दुरूह क्रिया है।लेकिन मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास जिस रूप में  लेखक ने दार्शनिक रूप में इतिहास का क्रमिक वृतांत दिया है,आपको कई बिंदुओं पर प्रभावित करता है, तो कई पुराने विचार श्रृंखला को गहरे तक झकझोरता है।यह पुस्तक मुख्य रूप से इन प्रश्नों पर केंद्रित है, जैसे कि:- इतिहास और जीव विज्ञान का क्या संबंध है?क्या इतिहास में इंसाफ है?क्या इतिहास के विस्तार के साथ लोग सुखी हुए?

मानव उत्तरोत्तर विकास करता हुआ एक कल्पित समुदाय में परिणत हो गया है। यह विचार करने योग्य है कि उपभक्ताबाद और राष्ट्रवाद हमसे यह कल्पना करवाने के लिए अतिरिक्त श्रम करते है कि लाखों अजनबी उसी समुदाय का हिस्सा है,जिसका हिस्सा हम है,हमारा एक साझा अतीत है साझा हित और एक साझा भविष्य है।लेखक बीच-बीच मे कुछ समीचीन अनुत्तरित प्रश्न भी इस दौरान उठाये है।जैसे कोई भी समाज सच्चे अर्थों में सार्वभौमिक नही था और किसी भी साम्रज्य ने वास्तव में सम्पूर्ण मानव जाति के हितों की पूर्ति नही की।क्या भविष्य में कोई साम्राज्य इससे बेहतर करेगा?

                    पुस्तक का पहला अध्याय ही लेखक ने "एक महत्वहीन प्राणी" के नाम से शुरू किया है।जिसमे यह स्थापित करने का प्रयास है कि मानव की उत्पत्ति एक स्वभाविक जैव वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रतिफल है और अंतिम अध्याय "होमो सेपियन्स का अंत" से समाप्त है।इसके बीच मे अतीत में मानव का उद्भव, विकास प्रक्रिया, कृषि क्रांति से होता हुआ कैसे मानव पैसे की खुशबू से आकर्षित होता हुआ, विभिन्न मजहबो के उद्भव के साथ सम्राज्यवादी आकांक्षाओं से होता हुआ विज्ञान के साथ गठबंधन कर पूंजीवादी पंथ की ओर अग्रसर है,इसपर विस्तृत चर्चा करता है। मुद्राओं का चलन और पैसे के इतिहास के निर्णायक मोड़ एक नए दृषिटकोण को रूपांतरित करता है।जब वो कहते है कि पैसे के इतिहास में निर्णायक मोड़ तब आया , जब लोगो ने उस पैसे पर विश्वास हासिल किया,जिसमे अन्तर्निहित मूल्य का आभाव था।पैसा आपसी भरोसे की अब तक ईजाद की गई सर्वाधिक सार्वभौमिक और सर्वाधिक कारगर प्रणाली है।इसलिए कहते है कि "भरोसा वह कच्चा माल है,जिसमे तमाम तरह के सिक्के ढलते है।"

                      किंतु हर जगह और काल के दौरान मानव की खुशी के पर्याय को यथार्थ के साथ रख कर इसे विशेष रूप से रेखांकित करता है कि दस हज़ार वर्ष पहले के होमो सेपियन्स और वर्तमान के होमो सेपियन्स के खुशी में वाकई कोई बदलाव आया है, जहां सिर्फ दर्शन है। दुख और सुख के धर्मो के तुलनात्मक दर्शन की चर्चा करते समय लेखक बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित नजर आते है, जब बौद्ध ध्यान साधनाओ का वर्णन करते हुए कहते है कि- दुख से लोगो को मुक्ति उस वक्त तक नही मिलती,जब वो इस या उस क्षणभंगुर आनंद को अनुभव कर रहे होते,वह मुक्ति तब मिलती है,जब वे अपनी तमाम अनुभूतियों की अनित्य या अस्थायी प्रवृति को समझ लेते है और उनकी लालसा करना बंद कर देते है। किन्तु इसी बात को श्रीमद भागवतम के एक श्लोक में निम्न प्रकार से कहा है- इस संसार के सभी अन्न, धन, पशु और स्त्रियां भी किसी को संतुष्ट नही कर सकता है,यदि उसका मन अनियंत्रित इच्छाओ का दास है।इन दर्शनों पर उतनी चर्चा नही है।

                  आप माने या न माने लेकिन लेखक तो आपको एक नाचीज वानर ही मानता है,जो कि दुनिया का मालिक बन बैठा है। इसलिए यह रेखांकित किया है कि जीवविज्ञान के मुताबिक लोगो का 'सृजन' नही किया गया था। वे विकास की प्रक्रिया के उपज है। और उनका विकास निश्चय ही 'समान' रूप से नही हुआ है।समानता की धारणा पेचीदा ढंग से सृजन की धारणा से गुंथी है। जिस तरह लोगो का कभी सृजन नही हुआ था, उसी तरह जीव विज्ञान के मुताबिक, ऐसा कोई सृजनकर्ता भी नही है,जिसने लोगो को कोई चीज 'प्रदान' की हो।सिर्फ एक प्रयोजनहीन ,अंधी विकास प्रक्रिया है,जिससे व्यक्तियों का जन्म होता है।पुस्तक सिर्फ मानव की नही पारिस्थितिकी के साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं पर इस मानव के विस्तृत नकारात्म प्रभाव की चर्चा करते है,जो कि एक विनाश के मार्ग पर अग्रसर है।

                  इस किताब में लेखक द्वारा छोटे-छोटे दृष्टांत और किवदंती का उल्लेख अपने बातो के क्रम में और पठनीय बनाता है। जब ईश्वर के अवधारणा पर चर्चा करते हुए वाल्तेयर का कथन उल्लेख करता है- "यह सही है कि ईश्वर नही है,लेकिन यह बात मेरे नौकर को मत कहना ,नही तो रात में वह मेरी हत्या कर देगा। 

                इसे उपन्यास कहे या कथेतर इतिहास या साहित्य की कोई और विद्या कहे, है रोमांचक।  चार सौ पचास पृष्ठों की इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद मदन सोनी ने क्या है।पुस्तक पढ़कर मनन करने योग्य है इसलिए इसपर विशेष प्रतिक्रया हेतु पुनः अध्ययन करना पड़ेगा।क्योंकि कुछ विचार को समझने के लिए काल की धुरी पर गमन और मनन साथ-साथ करना पड़ता है।फिर भी अंत मे एक पठनीय और विशेष जानकारियों से युक्त एक अच्छी पुस्तक है।