कल जो बीत गए आज न कुछ हाथ है ,
ढूंड रहा परछाई पर रोशनी नहीं साथ है।
मजनुओ को जो चाहा उतार दे दरख़्त पर,
चल परा पानी सा अब स्याही सुखी दवात है।
यही कहते अब न कोई आस है,
क्या करे अब वक्त नहीं पास है।।
चेहरे के धुल पोछकर देखना जो चाहा है
पाया की अब आयना खुद को दरकाया है।
उनकी बाते काँटों से चुभन देती थी
सुनना चाहा तो हलक न कुछ बुदबुदाया है।
यही कहते अब न कोई आस है ,
क्या करे अब वक्त नहीं पास है।।
कदम हर कदम अब खुद से अंजान है,
मुड़ के जो देखा तो न कोई पहचान है।
साथ भीर में चाहा तलाशे किसी को,
न मिला सब को किसी और की प्यास है।
यही कहते अब न कोई आस है,
क्या करे अब वक्त नहीं पास है।।
बहती हुई धार के मौजों को पहचान,
हवा के झोको से न रह अंजान,
कोसते हुए जिन्दगी में भी क्या रखा है ?
सूखे पतों को क्या वर्षा से आसरा है ?
यही न कहते रहो अब न कोई आस है,
क्या करे अब वक्त नहीं पास है।।
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