ह्रदय व्यथित चित्त अधीर
मुख मलिन शांत क्यों ?
दृष्टि यूँ झुंकी -झुंकी
नयन ज्योति क्लांत क्यों ?
अर्थ शब्द नित-नियत ,
भाव क्यों बदल रहे ?
अथाह मन जो धीर था,
सिर्फ बातों से उथल रहे ?
हताश पस्त अस्त-व्यस्त
जाने क्यों डिग रहे।
लहर के हर प्रहार सा
कदम कदम पर झुक रहे। ।
किससे ये द्वन्द है
किसपर विजय गुमान है,
धरा नीर जब रक्त-पथ
तब कहाँ अतृप्त निदान है ?
खुद से है छल रहे,
जाने क्यों मचल रहे
मस्तष्क मणि अहिन्ह* चाह
गरल सिक्त मन कर रहे।
दम्भ-दंड पर जब खड़े
ऊंचाई का कहाँ भान हो
असीम तृष्णा वेग प्रवाह
वेद सूक्त कैसे न निष्प्राण हो।।
जब प्रलय थी अथाहगति न थम पाई तब
मनुज अंश एक यगुल
असंख्य रूप प्रकट अब।
एक काया एक तब
असंख्य कोशिका मेल सब।
शूल का कही प्रहार
असहय वेदना कहीं उभार।
मनुज मन समग्र हो
इतना न व्यग्र हो
देव अंश सब धरा पे
पल कुचक्र पर न अधीर हो। ।
कृपणता बस त्याग हो
ह्रदय शक्ति संचार हो
शूरवीर वंशजो में
शूरवीर वंशजो में
बस मनुजता वास हो
तरकशें है पड़ी
सब वाण से है भरीं
थपेड़ो से मन उभार
कर प्रत्यंचा से श्रृंगार
मन से बस एक हो
नहीं कोई संदेह हो
शत्रु दंभ ,विचार अधर्म
सभी लक्ष्य भेद हो।।
*सर्प