Wednesday, 9 July 2014

खाली मन .....?? ?

जब यहाँ कुछ भी नहीं था 
तब भी बहुत कुछ था 
कुछ होने और न होने की 
कयास ही बहुतो के लिए
बहुत कुछ था। 
फिर मै बैचैन क्यों होता हूँ 
की अब मेरे मन में क्या है ? 
नहीं कुछ उमड़ने घुमड़ने पर भी 
कही न कही अंतस के किसी कोने में 
कुछ बुलबुले छिटक उठते है 
और अपनी नियति में 
जाने कहाँ सिमट जाते है। 
इन बुलबुले से किसी 
धार बन जाने की चाहत में 
बस बुलबुले का बनना और 
मिट कर शून्य में विलीन हो जाना    
मन में एक क्षोभ जाने क्यों 
भर जाता है।  
अनायास कितने प्रकार के 
तरंग छिटक जाते है 
कुछ समेटु उससे पहले ही 
कितने विलीन हो  जाते है।  
किन्तु एक बुलबुले में खोना भी 
कितना कुछ कह जाता है। 
शून्य सा दिखता ,शून्य को समेटे 
शायद सब शून्य है,ऐसा कह जाता है। 
बाह्य प्रकाश के पाने से 
कैसी सतरंगी छटा छटकती है 
खाली मन को भी 
उम्मीदों के कई रंग भर जाती है। 
शून्य  मन क्या शांत और गंभीर है, 
या इस निर्वात को भरने की 
झंझावती तस्वीर है ,
जद्दोजहज जारी है 
मन में कुछ नहीं होना 
क्या बहुत कुछ का होना तो नहीं है ? 

28 comments:

  1. उम्मीदों के रंग इन्द्रधनुषी सा ही होते हैं.
    बहुत सुंदर.

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  2. अच्छी प्रगतिवादी कविता !

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  3. वाह लाजबाब प्रस्तुति । आभार बन्धु।

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  4. wah ! man ki dasha ka uttam varnan kiya hai apne

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  6. उत्कृष्ट रचना... उम्मीदों के रंगों का होना बेहद ज़रूरी है !

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  7. बहुत ही भावपूर्ण रचना ..बधाई .

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  8. ऐसा द्वंद्व सबके जीवन का हिस्सा है .... सुन्दर भाव

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  9. काफी अच्छा लिखा है.

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  10. सुंदर प्रस्तुति............बधाई .

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  11. अरे वाह !
    यहाँ भी सुंदर मन , मंगलकामनाएं आपको !

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  12. बहुत ही भावपूर्ण रचना

    आग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
    शब्दों की मुस्कुराहट पर ...विषम परिस्थितियों में छाप छोड़ता लेखन

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  13. अंतर्मन के द्वन्द को उकेरती बहुत गहन और उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...

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  14. सर्जनशील है...

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  15. This comment has been removed by the author.

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