Friday, 29 May 2020

बदलते तराने..कोरोना डायरी

                  कोरोना काल ने दिन-प्रतिदिन चित्रहार और रंगोली की तरह लोगो के मन विभिन्न रागों के कई तान छेड़े और न जाने कितने रंग भरे है। लॉक-डाउन -1की शुरुआत से पहले ही हम थाली, घण्टा-घड़ियाल और शंख नाद से मोहित हो रखे थे और लगा ये कुछ दिनों की ही बात है।  तो लॉक-डाउन-1 के शुरू-शुरू में बॉबी फ़िल्म का ये गाना गूंजने लगा-
हम-तुम एक कमरे में बंद हो
और चाभी गुम हो जाये।।
            यहाँ चाभी गुम तो नही हुए लेकिन दरवाजे बंद तो हो गए। बंद दरवाजा भला कब तक अच्छा लगता।अब दिनों के बढ़ते कारवें उस रस की मधुरता को सोखने लगा। तो अब युगल स्वर लहरी खिड़कियों के झरोखे से तैर कर बाहर गूंजने लगा -
चलो इक बार फिर से
अजनबी बन जाएं हम दोनों ,
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से।।

         अब तक दिन लॉक-डाउन 2 और 3 के सफर पर निकल गया तो दिल कुछ और गमगीन भी हो चला।किन्तु इसी बीच अर्थव्यवस्था की दवाई हेतु दारू की दुकान खुल गई फिर जैसे ये धुन गूंजने लगा-चार बोतल वोडका ,काम मेरा रोज का तो किसी ने ये राग छेड़ दिया- लोग कहते है मैं शराबी हूं...।
          तो फिर जिनके लिए इन बीच दो जून के खाने नही नसीब हुए होंगे ,वो तो भगवान और इंसान को रह-रह कर ऐसे ही कोसते होंगे-
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
की कितना बदल गया इंसान।।

         गिरते-पड़ते कदम अगर दिन काटने में सक्षम दिखे तो खैर चल रहे होंगे, लेकिन जिनकी तस्वीर भयावह हो वो भला आहे भरकर कुछ यही गुनगुना रहे होंगे-
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।।

                 इस लंबे सफर के बाद फिर कुछ कुछ खुले और कुछ -कुछ बंद सा लॉक-डाउन 4 का ताला लटका दिया गया।टीवी पर प्रवासी मजदूरों की बदहाल तस्वीर रह-रह कर टीआर पी के साथ होड़ में लग गए। व्यवस्था से निराश और हताश,जिनका सबसे भरोसा टूट गया वो पलायन की व्यथा शायद फ़िल्म "भरोसा" के इसी पंक्तियों से जाहिर कर विरहा रूप में ही गया रहे होंगे -
" इस भरी दुनिया में, कोई भी हमारा न हुआ
 गैर तो गैर हैं, अपनों का भी सहारा न हुआ ।

         इस बीच  इंद्रप्रस्थ के सिंघासन से बंधे सेवक  जो खुश होकर कोरोना के चिराग से निकले जिन्न की दरियादिली समझ रहे थे और लॉक डाउन में छुट्टी के दिन में घिरने से खुशी में  फ़िल्म हेरा-फेरी का ये गाना बार-बार गाते होंगे-
देने वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के
किती किती कितना, किती किती कितना
दिक् ताना, दिक् ताना, तिकना तिकना ।।
 
              अब जैसे-जैसे तस्वीर साफ हो रही है की खाते से सारे छुटी की सफाई की योजना बन रही है शायद लगे कि सही में उनके साथ हेरा-फेरी हो गया । तो शायद बस ये गुनगुना सकते है-
हमसे क्या भूल हुई जो ये सजा हमको मिली
अब तो चारो ही तरफ बंद है दुनिया की गली।।

      किन्तु इस बीच-बीच मे कही कोरोना भी जैसे रह-रहकर  गुनगुना रहा है-
 तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा।।

    और इसकी रफ्तार को देख कर यही लग रहा है कि ये सिर्फ गुनगुना नही रहा है। बल्कि तेजी के साथ चल भी रहा है।
इसलिए संभव है तो बंद रहे सुरक्षित रहे...बाकी आपकी मर्जी..।। क्योंकि ये कोरोना काल अभी कौन-कौन से राग और रंग से मिलाएगा..कहना मुश्किल है..?

Wednesday, 27 May 2020

भ्रमित काल...कोरोना डायरी

             आखिर अब लग रहा है कि कोविडासुर अपने उद्देश्य में सफल होने लगा है। इससे लड़ने के मोर्चे और व्यूह रचना हमे खुद के व्यूह में जैसे उलझाने लगा है। अलग-अलग सेनापति कोविडासुर पर प्रहार करने की जगह आपस मे ही तलवार भाजना शुरू कर दिया है। इस मायावी के विरुद्ध मति भ्रम के शिकार अब हम ज्यादा लगने लगे है।

               जब तक ये समझ बनी,शायद कुछ देर हो गई,की घर के लिए घर छोड़ने वाले भी घर की राह पकड़ेंगे । फिर भी जब चलने की व्यवस्था हुई तो कही ट्रेन बेचारे प्रवासियों को पहुचाने में अपनी ही पटरियों के चक्कर काट कही से कही और भटके जा रहे है। तो कही लॉक- डाउन और लॉक-अप के बीच प्रशासन झूल रहा रहा है।जो पीड़ित है वो स्वास्थ के व्यवस्था से दुखी है और जो अपीढ़ित है वो साशन की व्यवस्था से दुखी है।व्यवस्था बार-बार खुद की बदलती व्यवस्था से दुखी है..।

              दो गज की दूरी में रहने की बाध्यता हवा में जाते ही हवा हवाई हो गई है।आखिर इतने बड़े युद्ध को लड़ने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता है और पैसे उसके लिए जरूरी है। नियंता को लगता है कि पैसे हवा में ज्यादा उड़ते है और उससे पहले ही दवा कि जगह दारू का प्रयोग सफल भी हो रखा है..?

             कोविडासुर ने तो अभी तक अपने गुणों को नही छोड़ा,लेकिन हमने बचने के उपाय को रह-रह कर बदलते जा रहे है। कभी "होम-क्वेरेंटीन" तो कही "पेड- क्वेरेंटीन" तो कही "हॉस्पिटल-क्वेरेंटीन",कही हथेली पर मुहर तो कही खुद के भरोसे और नही तो अंत मे बाकी को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है।इसने जैसे कुएं में भांग घोल दिया और पूरी व्यवस्था और नागरिक अपने-अपने मस्ती में झूमने लगे है।

              लॉक डाउन अपनी मर्यादा से बाहर निकल कर अपने अर्थ तलाश रहा है और कोविडासुर बेझिझक अपनी रफ्तार कायम कर रखा है। देश भी अपनी रफ्तार को कायम रखना चाह रहा है। वैसे भी अब शायद हम यह मान बैठे है कि  हमें तो कुछ करना नही, बाकी जो करेगा कोविडासुर ही करेगा। तो बेहतर है इंतजार करने से की हम भी चलते रहे ।क्योंकि लगता है हमने  इस श्लोक से ज्यादा सिख लिया है-"चराति चरतो भगः" अर्थात चलेने वाले का भाग्य चलता है और अब सब संभवतः भाग्य भरोसे ही तो चल रहा है।

            किन्तु अगर आपके लिए संभव है तो चले नही घर मे रहे....बाकी आपकी मर्जी....।।

Tuesday, 12 May 2020

अभिशप्त काल...कोरोना डायरी

  अभिसप्त काल अपनी भूत की कहानियों के साथ जीता है।ऐसे श्याह काल खंड से मानव सभ्यता को विभिन्न समय में साक्षत्कार करना ही पड़ा है। पुरातन काल के मिथकीय इतिहास के रूप में देखे या कहानी रूप में श्रवण करे, यत्र-तत्र हर धर्म या सम्प्रदाय इसे दोहराता आया है। ऐसे काल-खंड आधुनिक इतिहास में भी ऐसे ही प्रासंगिक रहे है।जब आधुनिक सभ्यता के विभिन्न  कालखंड में हम झांके तो नाम बदलते रहे लेकिन इंसान ऐसे बीमारी से काल कलवित होता रहा है।फिर भविष्य की आशा भरी यात्रा के लिए भुत की धुंधली दौर में झांकने का प्रयास करते है और उसी में रोशनी की सुराख भी दिखती है और पदचाप की गूंज भी कान सुनने का प्रयास करता है।फिर वही रोशनी और पदचाप आगे की यात्रा की जिजीविषा पैदा करता है।
              काल अगर अभिसप्त हो तो पात्र की स्थिति को कैसे देखे..?स्वभाविक रूप से वो भी अभिस्पतता के त्रास और दंश के अतिरिक्त और कोई अन्य व्यथा क्या कहेगा..? ऐसे अनगिनत पात्र समूह को हम एकल बटें चेहरे के प्रतिबिंब में देखे या फिर एकल में समग्र की प्रतिछाया देखे..? स्वभाविक नही की काल खंड भी भौगोलिक खंडों में विभक्त हो कर सामुहिकता का प्रतिकार स्वयं के वजूद के लिए संघर्षरत हो..। भौगोलिक खंड कैसे कभी संघर्ष का सहारा देती है तो कभी पूरे वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगा कर उन जड़ो की ओर धकेल देती है,जिसे कभी वो छोड़ आया है।ये रोड पर अनगिनत पदचाप कैसे मिलो चलने की ऊर्जा की अनेक कद काया का साक्षी बनने को अभिसप्त है?

               क्या यह सिर्फ एकल जिजीविषा की व्यथा कथा है या फिर ढांचागत आधुनिक शासन व्यवस्था सिर्फ उनकी सामुहिकता की कहानी कहता जो  है और जो समग्रता में प्रभावित करने की क्षमता रखते है? अवश्य बीमारी ने वर्ग विभेद का कोई प्रदर्शन नही किया, लेकिन इस बीमारी से बचने के तौर-तरीकों ने पुनः एक बार इसी ओर इंगित किया है, व्यवस्था तो सिर्फ उनके लिए ही क्रियान्वित है, जिनकी इच्छा का प्रदर्शन के लिए तमाम आधुनिक संसाधन लगे है। इसके बरक्स तो जिनके नाम पर तमाम संशाधनों की नीति की दुहाई दिया जाता है, वो कल भी उसी राह पर पैदल थे और इस समय पैदल और भूखे प्यासे उन्ही राह पर पैदल ही अभिसप्त रूप से चल ही रहे है। शासन और व्यवस्था अपने अव्यवस्था के लिए रजनीति शास्त्र के शब्दकोश से नित नए शब्दो को ढूंढ कर खानापूर्ति में लगे है।

             रह-रह कर कई परिदृश्य उभर कर आ रहे है।उस परिदृश्य में सतहों के उभार इतने विस्तृत है कि कौन किसके लिए संघर्षरत है कहना कठिन हो रहा है। संवेदना के साथ कठिन निर्णय और संवेदनहीन होकर कठिन निर्णय लेने में क्या ज्यादा तर्कसंगत है, कहना कठिन है। हर एक कदम के साथ अनुभव रहित निर्णय और निर्णय के साथ अनुभव आधारित बदलते स्थिति कही सिर्फ प्रयोग तक सीमित न रह जाय..? इन प्रयोगों में व्यवस्था के तहत बंधक बने इंसानी हित मे इंसान का वजूद ही जब खोने लगे तब इसको क्या कहा जाय..?आधुनिक विज्ञान के चरम पर होने की संभावना संजोए इंसानी सभ्यता जब इस तरह से निरुत्तर हो जाये तो वापस पलट कर देखना ही ज्यादा तर्क संगत लगता है। सनातन परंपरा तो कब से इस ओर इंगित कर रहा है।खैर..

            समय के दर्द को शब्दों की चासनी से आखिर कब तक भरमाया जा सकता है। किंकर्तव्यविमूढ़ होने की स्थिति में तो यही ज्यादा अनुकूल है कि ऐसे अगिनित जन को उनके भाग्य भरोसे ही छोड़ दिया जाय। नही तो जीवन  के लिए अपने जड़ो से कट कर ऐसे संघर्षशील विस्थापित को भी कम से कम इतना तो हो सके कि वो भी किसी शासन व्यवस्था  के प्रति खुद को आभारी बना सके।जो दर्द को झेलता न जाने कब से प्रयत्नशील है।ऐसे लोगों के लिए कभी तो तर्कशील निर्णय की मुहर लगे।

      काल गतिशील है और यह भी समय गुजर जाएगा।लेकिन एक आधुनिक समाज और देश के अनगिनत जनों के मष्तिष्क में यह ऐसे की प्रलय काल के रूप में दर्ज हो जाएगा। जहां निर्णय और अनिर्णय के मध्य जद्दोजहद में वैसे कई सांसे भी थम गई ।जिनको जीवन के सुर संगीत बिखेरना था। अतः असमंजस न हो,वो अंतिम पायदान पर बैठे हूए को अगर हाथों का सहारा दे उसे ऊपर खिंचने में संभव हो गए तो उससे ऊपर के पायदान वाले आ ही जायेंगे।ये हाथ सिर्फ शासन के होते है और इनके हाथ भी आम-जनों के हाथ से ही बने है।अब भी समय है, सभी को चेतना है। ध्यान रहे अकर्मण्य अनिर्णय की स्थिति कर्म का पर्याय नही हो सकता है।