Monday, 2 November 2020

जंगल-राज.....

 मैं "जंगल-राज" का पैरोकार हूँ...नही इसको ऐसे कह सकते है किसी भी राज्य में जंगल का पैरोकार हूँ...! जो जंगल के हितैषी नही है ..हमे पता है वो पर्यावरण के कितने बड़े दुश्मन है । अब किसी राज्य में जंगल लगाने के लिए पर्यावरण पर अलग से सरकारी धन का दुरुपयोग हो ...यह तो ठीक नही ...तो फिर...उस राज्य को जंगल मे तब्दील कर देने से सरकारी खजाने का भी भला होगा। वैसे भी जो जंगल से निर्मोही है ...वो तो  पूंजीपति के स्नेही ही माने जाते है । तो फिर वो क्यो चाहेंगे कि किसी भी राज में जंगल हो..। आखिर जंगल काट-काट कर इन्होंने ये हाल कर दिया है कि बीच-बीच मे हस्तिनापुर से फरमान जारी होता रहता है की इतने पेड़ लगाओ. ..  उतने पेड़ लगाओ...। अब हम जहां है वहाँ जमीन हो ...तब न पेड़ लगाए , लेकिन "कागज की किस्ती" जब मंझधार से निकल सकती है तो कागज पर वृक्षारोपण भी हो जाता  है।

      अगर राज में सचमुच के जंगल हो तो ऐसी समस्याओं से हमारा पाला नही पड़ेगा। अब जंगल होगी तो थोड़ी बहुत समस्याएं तो होगी ही....। कभी भालू तो कभी लकड़बघ्घा का भय स्वभाविक है। लेकिन फायदे भी तो कितने है.....बिना मेहनत के जंगल मे फल तोड़ो और खा लो...जंगल मे रोटी-रोजगार दोनों मौजूद होते है बस हौसला और पारखी नजर चाहिए...।  

          और जिन्हें जंगल से भय लगता है ...वो शहर का रुख तो कर ही लेते है। देखिए जहां जंगल नही है वहां कैसे सांस बंधक बने हुए है ...और दोष पड़ोसी पर डाल देते। लेकिन हस्तिनापुर को तो शुरू से ही दृष्टि दोष है।

           बात बराबर की है....अगर जंगल नही है तो आपकी सांसे बंधक हो सकती है और अगर जंगल हो जाये तो आप बंधक हो सकते है... ।तो फिर आपको "जंगल-युक्त" राज चाहिए या फिर आप "जंगल-मुक्त" राज के पक्षधर है.... फैसला आपका है...आपको क्या चाहिए..?

           नोट:- इस बातो का बिहार चुनाव से कोई संबंध नही है.....।

Saturday, 19 September 2020

होमो सेपियन्स- अतीत से वर्तमान तक

             इतिहास कई अवधारणाओं का संश्लेषित निचोड़ है, जिसमे हर इतिहासकार स्वयं के मनोवैज्ञानिक भाव की चाशनी में लपेट कर परोशते है। यह कभी  अंतिम निष्कर्ष पर नही पहुंचता और भविष्य की संभावनाओं को कभी खारिज नही करता।यह भाव हर एक इतिहासकार के अपने सामाजिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक विचार या शैक्षिणिक गतिविधियों के बारीक तंतुओ के मध्य उपलब्ध साक्ष्यों के विश्लेषण में स्वतः पनपता है। इस मायने में यह कथन ठीक है-"इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है ।इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है"। लेकिन जिस समय काल खंड में इसे लिखा जा रहा है उस काल खंड के राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था शायद इस पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते है।किन्तु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भविष्य के कल्पित रागों के लिए हम हमेशा से वर्तमान में मंथन,भूत में छेड़े गए सुरो का ही करते रहे है।इतिहास वास्तव में सिर्फ सूचना और घटनाओ का दस्तावेजीकरण या आंकड़ो का एकत्रीकरण न होकर इन दस्तावेजों से छन कर निकले दर्शन है।जो मानव के वर्तमान और भविष्य के चिंतन के लिए कई प्रकार के नए मार्ग प्रसस्त करता है।

                   इस क्रम में यह पुस्तक" सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कुछ इसी प्रकार के भविष्य के दर्शन  के भूत की उकेडी गई रेखाओ को मिलाकर वर्तमान में एक रूप रेखा प्रस्तुत करता है।इसलिये लेखक ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है कि लगभव 70,000 वर्ष पहले होमो सेपियन्स से संबंधित जीवो ने एक विस्तृत संरचनाओं को रूप देना शुरू किया,जिन्हें संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है।इन मानवीय संस्कृतियो के उत्तरवर्ती विकास को इतिहास कहा जाता है।जिसे इतिहास के तीन क्रांतियों ने आकर दिया:- संज्ञानात्मक क्रांति-लगभव 70,000 वर्ष पहले,कृषि क्रांति-लगभग 12,000 वर्ष पहले तथा अंत मे वैज्ञानिक क्रांति जो कि 500 वर्ष पहले शुरू हुआ।साथ ही साथ यह भी स्पष्ट करता है कि इतिहास को न तो निश्चयात्मक मानकर समझाया जा सकता है,न ही उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है क्योंकि वह अराजक होता है।

                     युवाल नोवा हरारी द्वारा लिखित यह पुस्तक "सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कई मायनों में महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए नही है कि इतिहास की विद्वतापूर्ण बाते शोधार्थी के लिए नए दरवाजे खोलती है,बल्कि महत्वपूर्ण इसलिये है कि एक आम पाठक होने के नाते आप कई ऐसे तथ्यों से टकराते है,जो आप के अब तक के बने धारणाओं को गहरे तक झकझोर देता है।किसी भी किताब को पड़खने की कसौटी यह नही है कि कितने क्लिष्ट तथ्यों के साथ आपको अवगत कराता है,बल्कि उसकी कसौटी तो संभवतः यही है कि एक आम पाठक जब इसको पढ़े तो अपने भाषा मे उन तथ्यों के साथ कैसे तारतम्य स्थापित कर पाता है और विचार श्रृंखला को किस हद तक प्रभावित करता है।उसपर भी इतिहास सामान्य रूप में बीती घटनाओ का एक उदासीन वर्णन अवश्य है,लेकिन उद्देश्यहीन तो कतई नही।किन्तु जब आपको इतिहास इस रूप में मिले जो कि कहानियों की श्रृंखला हो और तथ्यों का व्यापक स्पष्टीकरण  तो यह स्वभाविक रूप से आपको आकर्षित करता है। वैसे भी मानव उद्भव से लेकर वर्तमान समय तक इतिहास को समग्र रूप से समेटना संभवतः एक दुरूह क्रिया है।लेकिन मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास जिस रूप में  लेखक ने दार्शनिक रूप में इतिहास का क्रमिक वृतांत दिया है,आपको कई बिंदुओं पर प्रभावित करता है, तो कई पुराने विचार श्रृंखला को गहरे तक झकझोरता है।यह पुस्तक मुख्य रूप से इन प्रश्नों पर केंद्रित है, जैसे कि:- इतिहास और जीव विज्ञान का क्या संबंध है?क्या इतिहास में इंसाफ है?क्या इतिहास के विस्तार के साथ लोग सुखी हुए?

मानव उत्तरोत्तर विकास करता हुआ एक कल्पित समुदाय में परिणत हो गया है। यह विचार करने योग्य है कि उपभक्ताबाद और राष्ट्रवाद हमसे यह कल्पना करवाने के लिए अतिरिक्त श्रम करते है कि लाखों अजनबी उसी समुदाय का हिस्सा है,जिसका हिस्सा हम है,हमारा एक साझा अतीत है साझा हित और एक साझा भविष्य है।लेखक बीच-बीच मे कुछ समीचीन अनुत्तरित प्रश्न भी इस दौरान उठाये है।जैसे कोई भी समाज सच्चे अर्थों में सार्वभौमिक नही था और किसी भी साम्रज्य ने वास्तव में सम्पूर्ण मानव जाति के हितों की पूर्ति नही की।क्या भविष्य में कोई साम्राज्य इससे बेहतर करेगा?

                    पुस्तक का पहला अध्याय ही लेखक ने "एक महत्वहीन प्राणी" के नाम से शुरू किया है।जिसमे यह स्थापित करने का प्रयास है कि मानव की उत्पत्ति एक स्वभाविक जैव वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रतिफल है और अंतिम अध्याय "होमो सेपियन्स का अंत" से समाप्त है।इसके बीच मे अतीत में मानव का उद्भव, विकास प्रक्रिया, कृषि क्रांति से होता हुआ कैसे मानव पैसे की खुशबू से आकर्षित होता हुआ, विभिन्न मजहबो के उद्भव के साथ सम्राज्यवादी आकांक्षाओं से होता हुआ विज्ञान के साथ गठबंधन कर पूंजीवादी पंथ की ओर अग्रसर है,इसपर विस्तृत चर्चा करता है। मुद्राओं का चलन और पैसे के इतिहास के निर्णायक मोड़ एक नए दृषिटकोण को रूपांतरित करता है।जब वो कहते है कि पैसे के इतिहास में निर्णायक मोड़ तब आया , जब लोगो ने उस पैसे पर विश्वास हासिल किया,जिसमे अन्तर्निहित मूल्य का आभाव था।पैसा आपसी भरोसे की अब तक ईजाद की गई सर्वाधिक सार्वभौमिक और सर्वाधिक कारगर प्रणाली है।इसलिए कहते है कि "भरोसा वह कच्चा माल है,जिसमे तमाम तरह के सिक्के ढलते है।"

                      किंतु हर जगह और काल के दौरान मानव की खुशी के पर्याय को यथार्थ के साथ रख कर इसे विशेष रूप से रेखांकित करता है कि दस हज़ार वर्ष पहले के होमो सेपियन्स और वर्तमान के होमो सेपियन्स के खुशी में वाकई कोई बदलाव आया है, जहां सिर्फ दर्शन है। दुख और सुख के धर्मो के तुलनात्मक दर्शन की चर्चा करते समय लेखक बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित नजर आते है, जब बौद्ध ध्यान साधनाओ का वर्णन करते हुए कहते है कि- दुख से लोगो को मुक्ति उस वक्त तक नही मिलती,जब वो इस या उस क्षणभंगुर आनंद को अनुभव कर रहे होते,वह मुक्ति तब मिलती है,जब वे अपनी तमाम अनुभूतियों की अनित्य या अस्थायी प्रवृति को समझ लेते है और उनकी लालसा करना बंद कर देते है। किन्तु इसी बात को श्रीमद भागवतम के एक श्लोक में निम्न प्रकार से कहा है- इस संसार के सभी अन्न, धन, पशु और स्त्रियां भी किसी को संतुष्ट नही कर सकता है,यदि उसका मन अनियंत्रित इच्छाओ का दास है।इन दर्शनों पर उतनी चर्चा नही है।

                  आप माने या न माने लेकिन लेखक तो आपको एक नाचीज वानर ही मानता है,जो कि दुनिया का मालिक बन बैठा है। इसलिए यह रेखांकित किया है कि जीवविज्ञान के मुताबिक लोगो का 'सृजन' नही किया गया था। वे विकास की प्रक्रिया के उपज है। और उनका विकास निश्चय ही 'समान' रूप से नही हुआ है।समानता की धारणा पेचीदा ढंग से सृजन की धारणा से गुंथी है। जिस तरह लोगो का कभी सृजन नही हुआ था, उसी तरह जीव विज्ञान के मुताबिक, ऐसा कोई सृजनकर्ता भी नही है,जिसने लोगो को कोई चीज 'प्रदान' की हो।सिर्फ एक प्रयोजनहीन ,अंधी विकास प्रक्रिया है,जिससे व्यक्तियों का जन्म होता है।पुस्तक सिर्फ मानव की नही पारिस्थितिकी के साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं पर इस मानव के विस्तृत नकारात्म प्रभाव की चर्चा करते है,जो कि एक विनाश के मार्ग पर अग्रसर है।

                  इस किताब में लेखक द्वारा छोटे-छोटे दृष्टांत और किवदंती का उल्लेख अपने बातो के क्रम में और पठनीय बनाता है। जब ईश्वर के अवधारणा पर चर्चा करते हुए वाल्तेयर का कथन उल्लेख करता है- "यह सही है कि ईश्वर नही है,लेकिन यह बात मेरे नौकर को मत कहना ,नही तो रात में वह मेरी हत्या कर देगा। 

                इसे उपन्यास कहे या कथेतर इतिहास या साहित्य की कोई और विद्या कहे, है रोमांचक।  चार सौ पचास पृष्ठों की इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद मदन सोनी ने क्या है।पुस्तक पढ़कर मनन करने योग्य है इसलिए इसपर विशेष प्रतिक्रया हेतु पुनः अध्ययन करना पड़ेगा।क्योंकि कुछ विचार को समझने के लिए काल की धुरी पर गमन और मनन साथ-साथ करना पड़ता है।फिर भी अंत मे एक पठनीय और विशेष जानकारियों से युक्त एक अच्छी पुस्तक है।

Sunday, 16 August 2020

चेतन चौहान.......श्रद्धांजली


             चेतन चौहान का क्रिकेट कैरियर बचपन के धुंधलके तस्वीरों में बैठा हुआ है। जब क्रिकेट की दुनिया रेडियो के इर्द-गिर्द घूमती थी।हमे याद है कि उस समय टेस्ट मैच की रंनिंग कॉमेंट्री को सुनने वाले साथ में कॉपी और पेन रखते थे और टेबल उनका मैदान होता था।किसी स्कोरर की तरह बाकायदा हर गेंद पर उसे लिखते थे। उस समय कितने गेंद पर उनका खाता खुलेगा ये क्रिकेट प्रेमियों में चर्चा और हो सकता हो "ऑफ-ग्राउंड सट्टे" की शुरुआती दौर हो।

                 उस समय तक चेतन चौहान के नाम से हम वाकिफ हो गए थे।लेकिन वो क्रिकेट में हमारे लिए तब तक सामान्य ज्ञान के प्रश्न के रूप में बदल चुके थे और इसका प्रदर्शन अपने आप को ज्यादा जानकर इसे बाउंसर के रूप में फेंक कर कहते-अच्छा बताओ ऐसा कौन सा बैट्समैन है जो अपने क्रिकेट कैरियर में एक भी शतक नही बनाया? बैट्समैन होते हुए शतक न बनाने के कारण सबसे ज्यादा ज्यादा याद किये जाने वाले में शायद चेतन चौहान ही होंगे।

         वक्त के साथ उन्होंने मैदान बदल दिया, किन्तु राजनीति के पिच पर बनाये गए उनके स्कोर के बनिस्बत भी वो हमेशा संभवतः वो एक क्रिकेटर के रूप में ही याद किये जायेंगे।भगवान दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे।ॐ शांति..

Tuesday, 11 August 2020

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

 आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।इस अवसर पर प्रखर राजनीतिक विचारक और दार्शनिक डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा श्रीकृष्ण पर लिखे उनके लेख पढ़िए।उपरोक्त्त लेख "लोहिया के सौ वर्ष" नामक पुस्तक से लिये गए संपादित अँश है।।।
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    त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनने की कोशिश करता है।इसलिए उनमे आसमान के देवता का अंश कुछ अधिक है।द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बने रहने की कोशिश करता है।कृष्ण सम्पूर्ण और अबोध मनुष्य है।निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी।  कृष्ण देव होता हुआ निरंतर मनुष्य बनता रहा।देव और निस्व और असीमित होने के नाते कृष्ण में जो असंभव मनुष्यताएं है,जैसे झूठ,धोखाऔर हत्या,उनकी नकल करने वाले लोग मूर्ख है उसमें कृष्ण का क्या दोष?कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितिप्रज्ञ" का, ऐसे मनुष्य का जो अपने शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता है।"कूर्मोङ्गनीव" बताया है ऐसे मनुष्य को।कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है,अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है।'कूर्मोगानीव' और 'समग्र-अंग-एकांग्री' मनुष्य को बनना है।यही तो देवता की मनुष्य बनने की कोशिश है।
            कृष्ण बहुत अधिक हिंदुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिंदुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार मिट्टी के साथ सने हुए है।मिट्टी से अलग करने पर वो बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते है।त्रेता का राम हिंदुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है।द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम एकता का देव है। राम उत्तर- दक्षिण और कृष्ण पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कृष्ण को वास्ता पड़ा अपने ही लोगो से।एक ही सभ्यता के दो अंगों में से एक को लेकर भारत की पूर्वी-पश्चिम एकता कृष्ण को स्थापित करनी पड़ी।काम मे पेच ज्यादा थे।तरह-तरह की संधि और विग्रह का क्रम चला।न जाने कितने चालाकिया और धूर्तताये भी हुईं। राजनीति का निचोड़ भी सामने आया -ऐसा छनकर जैसा फिर और न हुआ।
             यो हिंदुस्तान में और भी देवता है,जिन्होंने अपना पराक्रम भागकर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने।यह पुराना देश है।लड़ते-लड़ते थके हड्डियों को भागने का अवसर मिलना चाहिए।लेकिन कृष्ण थकी पिंडलियों के कारण नही भागा । वह भागा जवानी की बढ़ती हुई हड्डियों के कारण।अभी हड्डियों को को बढ़ाने और फैलाने का मौका मिलना चाहिए था।लेकिन भागा भी बड़ी दूर द्वारका में। तभी तो उसका नाम "रणछोड़दास" पड़ा।कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल के छापामार लडाई की तरह थी,वार करो और भागो।अफसोस यह है कि कुछ भक्त लोग भागने में ही मजा लेते है।
        कृष्ण त्रिकालदर्शी थे।उसने देख लिया होगा कि उत्तर-पश्चिम में आगे चलकर यूनानियों, हूणों,पठानों,मुगलो आदि के आक्रमण होंगे।इसलिए भारतीय एकता के धुरी का केंद्र कही वही होना चाहिए,जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर सके।लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध धुरी बदला चुकायेगी और सैकड़ो वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण के भूमि के नजदीक यानी कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी।किन्तु अशक्त अवस्था मे त्रिकालदर्शी ने देखा,शायद यह सब कुछ हो,लेकिन कुछ न कर सका हो।वह हमेशा के लिए कैसे अपने देशवासियों को ज्ञानी और साधु दोनों बनाता।वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था।रास्ते मे भी शायद त्रुटि थी।त्रिकालदर्शी को यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नही अनाड़ी भी चलेंगे और वे कितना भारी नुकसान उठाएंगे ।राम के रास्ते चलकर अनाड़ी का भी अधिक नही बिगड़ता,चाहे बनना भी कम होता है।
             राम त्रेता के मीठे, शांत और सुसंस्कृत युग के देव है।कृष्ण पके,जटिल,तीखे और प्रखर बुद्धि-युग का देव है।राम गम्य है जबकि श्रीकृष्ण अगम्य है। कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के।अब भी तब की गोपियां और जो चाहे वे,उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रासविभोर हो सकते है और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते है।साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण, जय-अजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यय भाव का सुरीला दर्शन उसके वाणी से सुन सकती है।संसार मे एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।
                कौन जाने कृष्ण तुम थे या नही।कैसे तुमने राधा लीला को कुरु लीला से निभाया।लोग कहते है कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नही।बताते है कि महाभारत में राधा नाम तक नही।बात इतनी सच नही,क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण को पुरानी बातें साधारण तौर पे बिना नामकरण के बताई है।सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नही किया करते,जो समझते है वे,और जो नही समझते वे भी।महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता हैं।राधा का वर्णन तो वही होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी उसका दास है।रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है।न जाने हजारो वर्षो से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण!

                                (------   1955,जुलाई; "जन" से-////)

Sunday, 28 June 2020

गतिशील लोकतंत्र

वो बहरे है..
सबने कहा हाँ बहरे है ।
वो अंधे है..
सबने कहा हाँ अंधे है।
वो गूंगे है...
सबने कहा हाँ गूंगे है।

चुनावी मंथन में
मशवरा अब अंत पर है ।
बोलो तो सुन नही पाएंगे,
दिखाओ तो देख नही पाएंगे,
अधिकार मांग नही पाएंगे,
तो फिर दिक्कत कहाँ है..?
और चुनावी प्रचार शुरू हो गया।

जो पार्टी जीती ...
उसने कहा ऐसा कुछ नही है
जनता जनार्दन है..।
हारने वाले पार्टी ने अब तक
मतदाता को बापू के बंदर ही समझ है।
किन्तु इसमे शक नही की
गतिशील लोकतंत्र उन्नति के पथ पर अग्रसर है।।

Sunday, 21 June 2020

पितृ दिवस...दिन से परे भाव

            भाव जब शब्द से परे हो तो उसे उकेडने का प्रयास जदोजहद से भरी होती है। हर समय मन का भाव स्वयं में द्वंद करता है । इसलिए भगवान कृष्ण ने मन को "द्वंदातीत" कहा है।फिर शब्दो मे इसका संशय हमेशा बना रहता है कि जीवन के अद्भुत रंगों में कोई-न-कोई रंग छूट ही जाता है। फिर उस तस्वीर के ऊपर एक और कोरा कागज एक नए तस्वीर की तैयारी।

               हर तस्वीर में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। यह जानते हुए भी समग्र को समेटने का प्रयास निष्फल ही होगा ।फिर भी प्रयास करना है यह प्रथम पाठ भी अबोध मन पर उन्ही का लेखन है। जब अनुशासन के उष्म आवरण की गर्मी दिल में एक बैचैनी देता तो आँखों से सब कष्ट हर लेने का दिलाशा भी उनके व्यक्तित्व के आयाम में छिपे रहते थे। जो वर्षों बाद इन तुच्छ नजरो को दृष्टिगोचर हो पाया। निहायत सामान्य से व्यक्तिव्य में असामान्य जीवन के कई पहलूँ को लेकर चलना सामान्य व्यक्तिव्य नहीं हो सकता। शून्य के दहलीज से सारा आसमान को छू लेने के यथार्थ को मापने के पारम्परिक  पैमाने इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रतिफल का आज जिस मधुरता के रस में  घुला हुआ हमें मिला है  उसमे उनके स्वयं के वर्तमान की आहुति से कम क्या होगा? वो ऋषि की तपोसाधना और उसके बरदान स्वरूप हमारा आज।

                  मुख से निकले शब्द .....अंतिम सत्य और प्रश्न चिन्ह की गुंजाइश पर मष्तिष्क खुद ही प्रश्न निगल जाए ....। बेसक कई बार अबोध मन में प्रतिरोध की भाव दिल में उष्णता का अनुभव दे । किन्तु मन में बंधे भरोसे के ताल में सब विलीन हो जाते। आँखों के सम्मोहित तेज का भय या श्रद्धा या कुछ और ...जो कहे पर हम सबके आँख सदा मिलने से कतराती ही रही। उस तेज का सामना करने का सामर्थ्य  अनुत्तरित ही रहा। लेकिन जीवन दर्शन से भरी बातें अब भी कानो को वैसे ही तृप्त करता है, जैसे कभी वो जीवन दर्शन के जल से इन नन्हे पौधों को सींचा करते थे।

                    कई बार गीता पढ़ा लेकिन यथार्थ का अनुभव वस्त्र के तंतू बिखरने के बाद ही चला । जब सब कुछ होने पर भी शून्य दीखने लगा । किंतु  फिर वो अनुभति जो कदम कदम पर साथ चलने का अहसास और किकर्व्यविमूढ़ भाव पर दिशा दर्शन का भाव, अब भी मुक्त काया के साथ यथार्थ तो पल पल है।अब भी वो साथ है। यह संवेदना से भरे भाव न होकर यथार्थ का साक्षत्कार है। जिसे शब्दो की श्रृंखला में समेटना आसान नहीं है।

                       उधार में लिए गए नए रवायत को जब हमारा आज, उस समृद्ध संस्कृति की मूल्यों को ढोने में अक्षम है तो फिर कम से कम एक दिन के महत्व को प्रश्नों के घेरे में रखना  आज तो संभवतः अनुचित ही है...?

                        यह भाव एवम भावना दिन और काल से परे है, जो सास्वत सत्य की तरह सांसो में प्रत्येक क्षण घुला हुआ रहता है। फिर भी.......पितृ दिवस की शुभकामनाएं।।

Sunday, 7 June 2020

बढ़ते आकंड़े.....कोरोना डायरी

                 आंकड़ो के बढ़ते उफान से भावनाओ को विचलित न होने दे,सिर्फ संवेदनशील होने की जरुरत है। आपका व्यस्त दिनचर्या आपको इसकी इजाजत नहीं देगा ।क्योकि आप चाहते हुए भी खुद से मजबूर है और शासन,अर्थ की व्यवस्था से मजबूर है। यह भी खबर में चलचित्र की भांति आएगा, आरोपो और प्रत्यारोपो के बीच समय खबरनवीस को खबर पर बने रहने की इजाजत नहीं देगा । क्योंकि समय की अपनी रफ़्तार है जिसके किसी भी नोक पर आप रुक नहीं सकते। 

                    हम एक  अँधेरी साया के तले सफर कर रहे है, खैर मना सकते है कि इस पर भी सब कुछ दिखने का आप भ्रम पाले हुए है। यह कुछ "वादों" को लेकर सिर्फ "विवादो"  का कारण है ऐसा नहीं , जीवन को जीने के लिए जीवन को खोने के संघर्ष की गाथा पुरातन से नवीनतम की धुरी पर काल चक्र की भांति अग्रसर है।  हम फिर भी अभिमान से अतिरंजित है......धरती को सींचकर जीवन फसल उगाने वाले किसान हो या श्रम साध्य वर्ग की पलायन गाथा हो।जो  जीवन दृष्टि की तलाश में कैसे कितने कदम मंजिल पूर्व ही ठहर गए या मंजिल की तलाश में कहीं विलीन हो गये।जीवन निर्वहन के लिए याचनाओं के वाचक समूह की रक्तिम सिचाई परती हृदयकथा सी है।

                     मैं वाकई इससे भ्रमित हूं ...सीमाओं के बंधन में चिंता की लकीरें खिंच रही है...जो स्वयं के विरोधाभासी द्वन्द की रेखा लगाती है....? फिर आप अपने ही लोगो से ऐसा व्यवहार इस कोरोना काल मे करते है,जो स्वयं में अपेक्षित नही होता है। शासन से बंधे होने की दुश्वारियां आपके समग्र मष्तिष्क को हर बदलते आदेश के साथ कितना दिग्भ्रमित करता है...जो सिंघासन से बंधे होते है, वो अनुभव करते है। एक ही समय के लिए एक ही तथ्य के अर्थ को आप कैसे सुविधानुसार व्यख्या करते है, ये जानते हुए भी की इन तथ्यों का सत्य और असत्य के किसी मानदंड से कोई सरोकार न होकर सिर्फ आप निष्पादन की प्रक्रिया को पूरा कर रहे है। फिर इन विरोधाभाषी चिंत्तन में पड़ते है तो कई प्रकार के विरोधाभास में विचरण करते है।

                  यह समय विरोधाभास का है, इसलिए ज्यादा भ्रमित न हो और संभव हो तो घर मे रहे और बाहर निकले तो मास्क लगाए।ताकी आपका विरोधाभासी चेहरा किसी को नजर न आये और आप कोरोना से सुरक्षित भी रहे.....है कि नही....आप भी सोचिये ...।।

Friday, 29 May 2020

बदलते तराने..कोरोना डायरी

                  कोरोना काल ने दिन-प्रतिदिन चित्रहार और रंगोली की तरह लोगो के मन विभिन्न रागों के कई तान छेड़े और न जाने कितने रंग भरे है। लॉक-डाउन -1की शुरुआत से पहले ही हम थाली, घण्टा-घड़ियाल और शंख नाद से मोहित हो रखे थे और लगा ये कुछ दिनों की ही बात है।  तो लॉक-डाउन-1 के शुरू-शुरू में बॉबी फ़िल्म का ये गाना गूंजने लगा-
हम-तुम एक कमरे में बंद हो
और चाभी गुम हो जाये।।
            यहाँ चाभी गुम तो नही हुए लेकिन दरवाजे बंद तो हो गए। बंद दरवाजा भला कब तक अच्छा लगता।अब दिनों के बढ़ते कारवें उस रस की मधुरता को सोखने लगा। तो अब युगल स्वर लहरी खिड़कियों के झरोखे से तैर कर बाहर गूंजने लगा -
चलो इक बार फिर से
अजनबी बन जाएं हम दोनों ,
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से।।

         अब तक दिन लॉक-डाउन 2 और 3 के सफर पर निकल गया तो दिल कुछ और गमगीन भी हो चला।किन्तु इसी बीच अर्थव्यवस्था की दवाई हेतु दारू की दुकान खुल गई फिर जैसे ये धुन गूंजने लगा-चार बोतल वोडका ,काम मेरा रोज का तो किसी ने ये राग छेड़ दिया- लोग कहते है मैं शराबी हूं...।
          तो फिर जिनके लिए इन बीच दो जून के खाने नही नसीब हुए होंगे ,वो तो भगवान और इंसान को रह-रह कर ऐसे ही कोसते होंगे-
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
की कितना बदल गया इंसान।।

         गिरते-पड़ते कदम अगर दिन काटने में सक्षम दिखे तो खैर चल रहे होंगे, लेकिन जिनकी तस्वीर भयावह हो वो भला आहे भरकर कुछ यही गुनगुना रहे होंगे-
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।।

                 इस लंबे सफर के बाद फिर कुछ कुछ खुले और कुछ -कुछ बंद सा लॉक-डाउन 4 का ताला लटका दिया गया।टीवी पर प्रवासी मजदूरों की बदहाल तस्वीर रह-रह कर टीआर पी के साथ होड़ में लग गए। व्यवस्था से निराश और हताश,जिनका सबसे भरोसा टूट गया वो पलायन की व्यथा शायद फ़िल्म "भरोसा" के इसी पंक्तियों से जाहिर कर विरहा रूप में ही गया रहे होंगे -
" इस भरी दुनिया में, कोई भी हमारा न हुआ
 गैर तो गैर हैं, अपनों का भी सहारा न हुआ ।

         इस बीच  इंद्रप्रस्थ के सिंघासन से बंधे सेवक  जो खुश होकर कोरोना के चिराग से निकले जिन्न की दरियादिली समझ रहे थे और लॉक डाउन में छुट्टी के दिन में घिरने से खुशी में  फ़िल्म हेरा-फेरी का ये गाना बार-बार गाते होंगे-
देने वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के
किती किती कितना, किती किती कितना
दिक् ताना, दिक् ताना, तिकना तिकना ।।
 
              अब जैसे-जैसे तस्वीर साफ हो रही है की खाते से सारे छुटी की सफाई की योजना बन रही है शायद लगे कि सही में उनके साथ हेरा-फेरी हो गया । तो शायद बस ये गुनगुना सकते है-
हमसे क्या भूल हुई जो ये सजा हमको मिली
अब तो चारो ही तरफ बंद है दुनिया की गली।।

      किन्तु इस बीच-बीच मे कही कोरोना भी जैसे रह-रहकर  गुनगुना रहा है-
 तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा।।

    और इसकी रफ्तार को देख कर यही लग रहा है कि ये सिर्फ गुनगुना नही रहा है। बल्कि तेजी के साथ चल भी रहा है।
इसलिए संभव है तो बंद रहे सुरक्षित रहे...बाकी आपकी मर्जी..।। क्योंकि ये कोरोना काल अभी कौन-कौन से राग और रंग से मिलाएगा..कहना मुश्किल है..?

Wednesday, 27 May 2020

भ्रमित काल...कोरोना डायरी

             आखिर अब लग रहा है कि कोविडासुर अपने उद्देश्य में सफल होने लगा है। इससे लड़ने के मोर्चे और व्यूह रचना हमे खुद के व्यूह में जैसे उलझाने लगा है। अलग-अलग सेनापति कोविडासुर पर प्रहार करने की जगह आपस मे ही तलवार भाजना शुरू कर दिया है। इस मायावी के विरुद्ध मति भ्रम के शिकार अब हम ज्यादा लगने लगे है।

               जब तक ये समझ बनी,शायद कुछ देर हो गई,की घर के लिए घर छोड़ने वाले भी घर की राह पकड़ेंगे । फिर भी जब चलने की व्यवस्था हुई तो कही ट्रेन बेचारे प्रवासियों को पहुचाने में अपनी ही पटरियों के चक्कर काट कही से कही और भटके जा रहे है। तो कही लॉक- डाउन और लॉक-अप के बीच प्रशासन झूल रहा रहा है।जो पीड़ित है वो स्वास्थ के व्यवस्था से दुखी है और जो अपीढ़ित है वो साशन की व्यवस्था से दुखी है।व्यवस्था बार-बार खुद की बदलती व्यवस्था से दुखी है..।

              दो गज की दूरी में रहने की बाध्यता हवा में जाते ही हवा हवाई हो गई है।आखिर इतने बड़े युद्ध को लड़ने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता है और पैसे उसके लिए जरूरी है। नियंता को लगता है कि पैसे हवा में ज्यादा उड़ते है और उससे पहले ही दवा कि जगह दारू का प्रयोग सफल भी हो रखा है..?

             कोविडासुर ने तो अभी तक अपने गुणों को नही छोड़ा,लेकिन हमने बचने के उपाय को रह-रह कर बदलते जा रहे है। कभी "होम-क्वेरेंटीन" तो कही "पेड- क्वेरेंटीन" तो कही "हॉस्पिटल-क्वेरेंटीन",कही हथेली पर मुहर तो कही खुद के भरोसे और नही तो अंत मे बाकी को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है।इसने जैसे कुएं में भांग घोल दिया और पूरी व्यवस्था और नागरिक अपने-अपने मस्ती में झूमने लगे है।

              लॉक डाउन अपनी मर्यादा से बाहर निकल कर अपने अर्थ तलाश रहा है और कोविडासुर बेझिझक अपनी रफ्तार कायम कर रखा है। देश भी अपनी रफ्तार को कायम रखना चाह रहा है। वैसे भी अब शायद हम यह मान बैठे है कि  हमें तो कुछ करना नही, बाकी जो करेगा कोविडासुर ही करेगा। तो बेहतर है इंतजार करने से की हम भी चलते रहे ।क्योंकि लगता है हमने  इस श्लोक से ज्यादा सिख लिया है-"चराति चरतो भगः" अर्थात चलेने वाले का भाग्य चलता है और अब सब संभवतः भाग्य भरोसे ही तो चल रहा है।

            किन्तु अगर आपके लिए संभव है तो चले नही घर मे रहे....बाकी आपकी मर्जी....।।

Tuesday, 12 May 2020

अभिशप्त काल...कोरोना डायरी

  अभिसप्त काल अपनी भूत की कहानियों के साथ जीता है।ऐसे श्याह काल खंड से मानव सभ्यता को विभिन्न समय में साक्षत्कार करना ही पड़ा है। पुरातन काल के मिथकीय इतिहास के रूप में देखे या कहानी रूप में श्रवण करे, यत्र-तत्र हर धर्म या सम्प्रदाय इसे दोहराता आया है। ऐसे काल-खंड आधुनिक इतिहास में भी ऐसे ही प्रासंगिक रहे है।जब आधुनिक सभ्यता के विभिन्न  कालखंड में हम झांके तो नाम बदलते रहे लेकिन इंसान ऐसे बीमारी से काल कलवित होता रहा है।फिर भविष्य की आशा भरी यात्रा के लिए भुत की धुंधली दौर में झांकने का प्रयास करते है और उसी में रोशनी की सुराख भी दिखती है और पदचाप की गूंज भी कान सुनने का प्रयास करता है।फिर वही रोशनी और पदचाप आगे की यात्रा की जिजीविषा पैदा करता है।
              काल अगर अभिसप्त हो तो पात्र की स्थिति को कैसे देखे..?स्वभाविक रूप से वो भी अभिस्पतता के त्रास और दंश के अतिरिक्त और कोई अन्य व्यथा क्या कहेगा..? ऐसे अनगिनत पात्र समूह को हम एकल बटें चेहरे के प्रतिबिंब में देखे या फिर एकल में समग्र की प्रतिछाया देखे..? स्वभाविक नही की काल खंड भी भौगोलिक खंडों में विभक्त हो कर सामुहिकता का प्रतिकार स्वयं के वजूद के लिए संघर्षरत हो..। भौगोलिक खंड कैसे कभी संघर्ष का सहारा देती है तो कभी पूरे वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगा कर उन जड़ो की ओर धकेल देती है,जिसे कभी वो छोड़ आया है।ये रोड पर अनगिनत पदचाप कैसे मिलो चलने की ऊर्जा की अनेक कद काया का साक्षी बनने को अभिसप्त है?

               क्या यह सिर्फ एकल जिजीविषा की व्यथा कथा है या फिर ढांचागत आधुनिक शासन व्यवस्था सिर्फ उनकी सामुहिकता की कहानी कहता जो  है और जो समग्रता में प्रभावित करने की क्षमता रखते है? अवश्य बीमारी ने वर्ग विभेद का कोई प्रदर्शन नही किया, लेकिन इस बीमारी से बचने के तौर-तरीकों ने पुनः एक बार इसी ओर इंगित किया है, व्यवस्था तो सिर्फ उनके लिए ही क्रियान्वित है, जिनकी इच्छा का प्रदर्शन के लिए तमाम आधुनिक संसाधन लगे है। इसके बरक्स तो जिनके नाम पर तमाम संशाधनों की नीति की दुहाई दिया जाता है, वो कल भी उसी राह पर पैदल थे और इस समय पैदल और भूखे प्यासे उन्ही राह पर पैदल ही अभिसप्त रूप से चल ही रहे है। शासन और व्यवस्था अपने अव्यवस्था के लिए रजनीति शास्त्र के शब्दकोश से नित नए शब्दो को ढूंढ कर खानापूर्ति में लगे है।

             रह-रह कर कई परिदृश्य उभर कर आ रहे है।उस परिदृश्य में सतहों के उभार इतने विस्तृत है कि कौन किसके लिए संघर्षरत है कहना कठिन हो रहा है। संवेदना के साथ कठिन निर्णय और संवेदनहीन होकर कठिन निर्णय लेने में क्या ज्यादा तर्कसंगत है, कहना कठिन है। हर एक कदम के साथ अनुभव रहित निर्णय और निर्णय के साथ अनुभव आधारित बदलते स्थिति कही सिर्फ प्रयोग तक सीमित न रह जाय..? इन प्रयोगों में व्यवस्था के तहत बंधक बने इंसानी हित मे इंसान का वजूद ही जब खोने लगे तब इसको क्या कहा जाय..?आधुनिक विज्ञान के चरम पर होने की संभावना संजोए इंसानी सभ्यता जब इस तरह से निरुत्तर हो जाये तो वापस पलट कर देखना ही ज्यादा तर्क संगत लगता है। सनातन परंपरा तो कब से इस ओर इंगित कर रहा है।खैर..

            समय के दर्द को शब्दों की चासनी से आखिर कब तक भरमाया जा सकता है। किंकर्तव्यविमूढ़ होने की स्थिति में तो यही ज्यादा अनुकूल है कि ऐसे अगिनित जन को उनके भाग्य भरोसे ही छोड़ दिया जाय। नही तो जीवन  के लिए अपने जड़ो से कट कर ऐसे संघर्षशील विस्थापित को भी कम से कम इतना तो हो सके कि वो भी किसी शासन व्यवस्था  के प्रति खुद को आभारी बना सके।जो दर्द को झेलता न जाने कब से प्रयत्नशील है।ऐसे लोगों के लिए कभी तो तर्कशील निर्णय की मुहर लगे।

      काल गतिशील है और यह भी समय गुजर जाएगा।लेकिन एक आधुनिक समाज और देश के अनगिनत जनों के मष्तिष्क में यह ऐसे की प्रलय काल के रूप में दर्ज हो जाएगा। जहां निर्णय और अनिर्णय के मध्य जद्दोजहद में वैसे कई सांसे भी थम गई ।जिनको जीवन के सुर संगीत बिखेरना था। अतः असमंजस न हो,वो अंतिम पायदान पर बैठे हूए को अगर हाथों का सहारा दे उसे ऊपर खिंचने में संभव हो गए तो उससे ऊपर के पायदान वाले आ ही जायेंगे।ये हाथ सिर्फ शासन के होते है और इनके हाथ भी आम-जनों के हाथ से ही बने है।अब भी समय है, सभी को चेतना है। ध्यान रहे अकर्मण्य अनिर्णय की स्थिति कर्म का पर्याय नही हो सकता है।

Wednesday, 29 April 2020

अलविदा इरफान...श्रधांजली

           लगता है जैसे आनंद फ़िल्म की पटकथा आंखों में तैरने लगा है।
         "जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जांहपनाह। उसे न तो आप बदल सकते हैं न ही मैं" 
           जंग तो पिछले कई वर्षों से जारी था और ऐसा तो कतई न था कि जीने की जिजीविषा न हो।जिसकी आँखों में कला और अभिनय का अलग ही संसार बसा हो । वह आंखों के पलक मूंद इस तरह खामोश हो गया है, सहसा विश्वास तो नही होता।

                   शायद शायर अहमद मुश्ताक ने लगता है इसी को देख कर ये पंक्तियां लिखा होगा-
बला की चमक उस के चेहरे पे थी
मुझे क्या ख़बर थी कि मर जाएगा।।

               अभिनय के कई पाठशाला होंगे।लेकिन अगर उन सभी का पाठ्यक्रम एक मे आ कर सिमट जाए तो संभवतः वह इरफान है। शारीरिक हाव-भाव और संवाद अदायगी तो जब मूल तत्व है किसी कलाकर के,किन्तु सिर्फ आंखों से अभिनय देखना हो तो आपको इरफान अवश्य याद आएंगे। गिने-चुने फ़िल्म देख कर आप किसी का अगर मुरीद हो सकते है तो वो अवश्य ही इरफान खान है।तभी तो लगभग सिर्फ तीस फिल्मों में उनके अभिनय ने अदाकारी की कई नए मिसाल गढ़ गये। चाहे वो मकबूल हो या फिर पान सिंह तोमर या फिर आप लंच बॉक्स याद करे या फिर कोई अन्य।

         तभी तो रह-रह कर फ़िल्म आनंद का ये सवांद कानो में गूंजने लगा है- "बाबू मोशाय जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं"। फिर इरफान सिर्फ बड़ी जिंदगी के साथ ही खामोश हो गए, क्योंकि तिरपन वर्ष  अंतिम यात्रा के लिए कोई उम्र तो नही है भला।किन्तु अंतिम सत्य तो यही लगता है जो तुलसीदास जी कह गए-"हानि लाभ जीवन मरण। यश अपयश विधि हाथ "।।

       कुछ बाते सहसा विश्वास करने लायक नही होती। लेकिन विश्वास का न होना सत्य से परे तो नही हो सकता। फिर सत्य तो यही है कि  अपने नाम  "इरफान" के अनुरूप श्रेष्ठ, सर्वोत्तम, शानदार और चाहे कोई विशेषण लगा ले, वो कलाकार अब इस पार्थिव दुनिया को छोड़ कर सितारों की दुनिया का एक नया सितारा बन गया।

अहमद नदीम क़ासमी का ये शेर कितना सटीक है-
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा ।।
     और वो कला का दरिया अनंत के सागर में विलीन हो गया। लेकिन उस सागर में उठने वाले लहरों में भी इरफान का लहर उसी मासूमियत, आंखों की गहराई धारण किये नजर आएगा।
  इरफ़ान खान को भाव-भीनी श्रद्धांजलि।।

Tuesday, 28 April 2020

कोरोना डायरी... मानसिक संक्रमण

          अब हर दिन ये शब्द रह-रह कर गूंजता रहता  है ....... लॉक -डाउन ...शंशय से प्रश्न दिमाग मे कौंधने लगते है..कब तक चलेगा? फिर बढ़ते आंकड़े.. और फिर  केंटोनमेंट जोन, रेड ज़ोन, ऑरेंज जॉन... ग्रीन जोन। फिर नजर ..विदेश के कोरोना भ्रमण.. उसके बाद... सवाल देश का ...फिर राज्यो की स्थिति...अब जिला का सवाल और  फिर अंत मे ..कही हमारे आस-पास तो नही है ?

                 स्वयं को सुरक्षित के भाव से भरने के बाद जब अगल-बगल निहारो तो हर अगला जैसे कोविडासुर का वाहक लगता है।उस पर कोई अपरचित अगर किसी भी वजह से  राह रोक  दिया तो लगता है जैसे कोविडासुर माया से रूप बदल कर  मिलने आ गया है। बिल्कुल "कुएं में भांग मिलना" वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहा है।

               वैसे भी मास्क लगाना अब नियति है और लगता तो यही है कि हम सब शर्मिंदगी के कारण बस प्रकृति से अपना चेहरा छुपा रहे है। वैसे भी  इस मास्क में अब हर कोई अजनबी ही हो गया है।

           समाचार चैनल आपको इस  गाथा को सुना-सुनकर दिमागी रूप से ऐसा संक्रमित कर देंगे कि उसकी जांच के लिए कोई "टेस्ट किट" भी उपलब्ध हो पायेगा, कहना मुश्किल है। इसलिए अपने आपको को इस बीमारी के हालात से सिर्फ "अपडेट" करे नही तो "आउट डेट" होने की भी गुंजाइश हो सकता है..? अगर रह सकते तो घर मे रहे स्वस्थ रहे। बाकी आपकी मर्जी...।।

Saturday, 25 April 2020

कोरोना डायरी.....दो गज दूरी

               दो गज दूरी तो बनाया जा सकता है। किंतु वो तो तब है जब बाहर निकलने की संभावना बने। लगभाग एक मास का सफर "ताला-बंदी" में निकल चुका है। इतना चलने के बाद भी अभी तक दो गज फासले पर अटके हुए है।किन्तु अभी भी इस दो गज दूरी का और कोई कारगर विकल्प दिख नही रहा है और ये स्वभावतः संभव नही, अतः लॉक-डाउन के अलावा अन्य  बाकी इलाज तो बस प्रयासरत कर्म ही है।

                   लियो टॉलस्टॉय की एक प्रसिद्ध कहानी है। जिसमे किरदार एक गांव में अपने लिए जमीन खरीदने जाता है।गाँव वाले की शर्त के अनुसार एक तय राशि पर वह सूर्योदय से सूर्यास्त तक पैदल जितना जमीन, जिस जगह से नापना शुरू कर वापस वही तक नापता पहुच जाता है तो वह पूरा जमीन उसका हो जाएगा।अन्यथा राशि जब्त हो जाएगा।  शर्त के अनुसार वह दिन भर ज्यादा से ज्यादा जमीन नापने के लालच में दिन भर भागता रहा, लेकिन उसे सूर्यास्त से पूर्व जहाँ से चलना शुरू किया वही पहुचना होता है।  अतः वह ज्यादा से ज्यादा भागता रहा और जब वह शुरुआत की जगह पहुचता है तो उसके प्राण निकल जाते है। इसके बाद गाँव वाले उसे वही लगभग दो गज जमीन में दफना देते है ।

                         कहानी तो मूलतः लालच को केंद्र बिंदु पर लिखा है और वर्तमान भी वही है। लॉक-डाउन से बाहर निकलने की लालच, फिर से वही भागमभाग की जल्दी, जबकि सब जानते और समझते हुए भी की इस भागम -भाग  मे दो गज की दूरी बनाये रखना कितना कठिन प्रतीत होता है।इसलिए अमेरिका जैसे महाशक्ति इस बात को नही समझ पाए और असमय कई दो गज जमीन में समा गए।

                वैसे तो दधीचि ऋषि की कहानी तो आप जानते ही है।जब देवलोक पर वृतासुर नामक राक्षस ने अपना अधिकार कर लिया था।तब बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है।तब इंद्र के अनुरोध पर दधीचि ने उक्त प्रयोजन में अपने अस्थियो का दान कर दिया।

            इस कोविडासुर के दमन के लिए अब लगता है लोगो को अपने और दिनों का दान करना होगा। अभी तक के अनुभव तो यही कह रहे है कि इसके संहार के लिए और अतिरिक्त कोई अस्त्र नही दिख रहा है।बाकी आपकी मर्जी...

Friday, 17 April 2020

कोरोना डायरी

           संघर्ष के दौर में विभिन्न प्रकार के लहरे हिचकोले लेते रहेंगे। पर इन लहरों पर सवार होकर कोई सागर लांघ जाए ऐसा तो नही होता और कोई डर के तट पर ही बैठा रह जाये यह भी नही हो सकता। फिर इस संक्रमण के दौर में संघर्षरत वीर हतोत्साहित हो जाये तो क्या?क्या आश्चर्य नही की संक्रमण से ग्रसित शरीर खुद के इलाज की जगह भस्मासुर बन इधर-उधर छुप रहा है,तो फिर उसका मंतव्य और प्रयोजन क्या हो सकता है?

                 इसलिए कोविडासुर संक्रमण के दौर में, सिर्फ बीमारी नही बल्कि इसे काल और समय का संक्रमण समझे ।साझा संस्कृति की गंगा-जमुना तहजीब की वकालत करते उदारपंथी इसको समझने की कोशिश करे कि गंगा तो अब भी अपने देश और मानव धर्म की निष्ठा के साथ वैसे ही अक्षुण है। किंतु जमुना की रवायत में अब भी कालिया नाग के जहर का असर है।जिसका प्रदर्शन रह-रह कर होता रहता है।

          जब काल संक्रमित होता है तो समय की धार में नदियों के बहाव के तरह गंदगी और दूषित पदार्थ कही किनारे में जमा होने लगते है।ये वैसे ही गंदगी की तरह मैले मटमैले धार में झाग बन उबल रहे है। ये पत्थर चलाते पुरुष और महिला उसी दूषित और संक्रमित मानसिकता के परिचायक है।जिनके लिए देश के मुख्य राह की जगह सिर्फ अपने एकांगी रास्ते का अनुसरण करना है।यह सिर्फ एक विरोध की नकारात्मक प्रदर्शन नही है।बल्कि उस आदिम सोच की हिंसात्मक प्रवृति और विचार जो  अब भी जेहन में पोषित है। जिसके लिए वसुधैव कुटुम्बकम कोई मायने नही रखता है। बल्कि राष्ट्र रूपी गंगा की धारा जो प्लावित हो रही है, उसमे संक्रमित हो रखे प्रदूषित सोच और उस अनर्गल प्रलाप का धोतक है। जिसे हम विभिन्न वाद और निरपेक्षता के ढाल में और पनपने दे रहे है।स्वभाविक रूप से नदी की धार को काट कर अलग कर दिया जाय तो वह अपने स्वत्रन्त्र इकाई के रूप से किसी और रूप में परिवर्तीत हो जाती है।विगत यह हो चुका है और उसका परिणाम सब देख रहे है।इसलिए यह तो स्वयं सिद्ध है ।अतः इस दूषित मानसिकता के स्वच्छता अभियान के लिए निश्चित ही शारीरिक संक्रमण के साथ-साथ मानसिक संक्रमण को भी नियोजित किया जाय और इसके लिए भी प्रयोजन आवश्यक है।

                 आश्चर्य नही की इतने बड़े कुनबे में एक आवाज आती है उन मूर्खो और जोकरों के लिए, तो क्या अन्य बाकी आदर्श और सिद्धान्त की ढोल पीटने वाले इस बार मूक या बधिर हो गए है।एक आवाज तो नक्कारखाने में तूती की तरह विलुप्त हो जाएगी। फिर मीडिया उस एक के आवाज को कोरस के रूप में गाने लगता है।सहृदय उदार दिखने के लोलुप आत्मप्रवंचना में उसे उसे सिर्फ कुछ लोगो के करतूत के रूप में देखे तो आश्चर्य है। फिर इतना तो लगता है इस मानसिकता को या तो पढ़ पाने में अक्षम है या फिर उदारवाद के दिखावा में वास्तविकता से दूर रहना ही श्रेयस्कर समझ रहे है।

             असमंजस का यह दौर जितना किरोना के कारण भयावह नही है उससे ज्यादा भयावह तो वो सोच और मानसिकता है जो इस कोविडासुर के कारण अस्पष्ट रूप से कई जगह परिलक्षित हो रहा है।समय रहते सभी प्रकार के संक्रमण को इलाज नही होता है तो ये किसी न किसी रूप में रह-रह कर देश को बीमार करते रहेंगे। क्योंकि संक्रमित शरीर से  कही ज्यादा खतरनाक संक्रमित सोच और बीमार मानसिकता है।

कोरोना डायरी

द्वंद अभी न मंद हो
उत्साह और उमंग हो।
एक विकल्प यही सही
घर मे सब बंद हो ।।

कुछ छिटक गए कही
बिखर गए इधर उधर।
छद्म भेष धर लिए
पहुच गए नगर डगर।।

कोरोना सा काल ये
जुनून सर पर लिए।
बुझ न जाये कही
मनुज हित के दिए ।।

है लगे यहाँ वहाँ
जो जिंदगी के जंग में।
वो टूट न जाये कही
अराजको के संग में ।।

मानवता संतप्त और त्रास है
ये विश्व समर का काल है।
कोविडासुर का अब
निश्चय ही संहार है।।

Friday, 27 March 2020

कोरोना डायरी-3

                    आप इस बात को जीतना जल्दी समझ ले कि ये विषराज "कोविडानंद-उन्नीस" किसी भी रूप में रक्तबीज राक्षस से कम नही है। असुर रक्तबीज की कहानी आपने पढ़ा होगा।देवासुर संग्राम में रक्तबीज का प्रसंग आज के स्थिति में शायद प्रासंगिक  है।वह एक ऐसा शक्तिशाली राक्षस था,जिसके शरीर से खून की एक-एक बूँद गिरने पर उतने ही रक्तबीज राक्षस पैदा हो जाते थे।इस प्रकार यह अनेक युद्ध जीता। उसके पश्चात देवताओ के अनुरोध पर माँ दुर्गा को काली के विकराल रूप में प्रकट होकर, रक्तबीज से युद्ध करना पड़ा। किन्तु जब -जब रक्तबीज पर प्रहार होता उससे गिरने वाले रक्त से एक नया रक्त बीज पैदा हो जाता। तब माँ काली ने अपनी जीभ का विस्तार किया और गिरने वाली हर रक्तबन्द को जीभ पर ले अपने अंदर ले लिया और इस प्रकार असुर रक्तबीज का वध कर दिया। 

           अर्थात ये "लॉक डाउन" भी उसी का विस्तार है ताकि हर कोई इसे अपने अंदर लेकर इसके विस्तार को खत्म कर दे नही तो यह रक्तबीज की तरह बढ़ता जाएगा और आपको अपनी और औरो की  इच्छा के प्रति काली की तरह रौद्र रूप धारण करना पड़ सकता है।

                 कहते है महाभारत के युद्ध के तीसरे दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण अर्जुन को भीष्म का वध करने को कहते हैं, परंतु अर्जुन उत्साह से युद्ध नहीं कर पाते, जिससे श्रीकृष्ण स्वयं भीष्म को मारने के लिए उद्यत हो जाते हैं। जबकि श्रीकृष्ण ने युद्ध मे शस्त्र नही उठाने को प्रतिज्ञाबद्ध थे।अतः अर्जुन उन्हें प्रतिज्ञारूपी आश्वासन देकर कौरव सेना के साथ पूरे उत्साह के साथ युद्धरत होना पड़ा। फिर भी अठारह दिन लग गए।

              आज "लॉक डाउन" का तीसरा दिन है और यह दिख रहा है कि लोगो को इस युद्ध मे लड़ने से हतोत्साहित होकर नियमो को भंग करने को आतुर हो रहे है। इस विषराज "कोविडानंद-उन्नीस" से युद्ध  इक्कीस दिनों में समाप्त हो जाएगा इसकी संभावना कम है। फिर भी हतोत्साहित होने की जरुरत नही है। क्योंकि बल्कि राम-रावण युद्ध भी चैरासी दिनो तक चला था। अतः अपने उत्साह में कमी न आने दे, इस युद्ध मे आप ही कृष्ण है और आप ही अर्जुन।

                पुनः आधुनिक संजय(मीडिया) से युद्ध की खबर ले।  कुरुक्षेत्र के इस मैदान में जिन योद्धाओं की जरूरत है ,वो युद्धरत दिख रहे है,आप इनकी लड़ाई को आगे न बढ़ाये ।घर में बैठने पर भी आपको योद्धा रूप में स्वीकार किया जाएगा। बाकी आपकी मर्जी....

Thursday, 26 March 2020

कोरोना डायरी

आज नवरात्रि का दूसरा दिन है। नवरात्रि के दूसरे दिन मां के दूसरे स्वरूप ब्रह्मचारिणी की पूजा-आराधना की जाती है। फिर ब्रह्मचारिणी स्वयं में ब्रह्रा और चारणी का संधि है।जिसमें ब्रह्म का अर्थ तपस्या और चारिणी का मतलब आचरण करने वाली। फिर ऐसे मान्यता और विश्वास बेसक पुरातन हो लेकिन ये सार्वकालिक ही है। तो फिर वर्तमान में आज लॉक डाउन का देश मे भी दूसरा दिन है। बेशक महिषासुर मर्दन  नौ दिनो में हो गया था, कौरवो को पराजित करने में अठारह दिन लगे।किन्तु  "कोविदानंद- उन्नीस" तो कम से कम 21 दिनों का संघर्ष निश्चित है और आगे भी बढ़ सकता है। इसलिए ये सभी के लिए आचरण युक्त तपस्या का समय है। फिर आप इस तपस्या की सिद्धि के लिए अपने आचरण को ऐसे ढाले की आपके पांव लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नही करे।

          हमारे पास तो खैर अभी कोई कोई चारा नही है। हम लॉक डाउन में रहना चाहते है,लेकिन अब तक अनलॉकिंग प्रोसेस में ही है। पूरे रोड पर जब कोरोना का खौफ और सन्नाटा पसरा हो और उस समय जब मोटरसाइकिल की आवाज उन सन्नाटो को चीरती हुई आगे बढ़ती है, तो मन का द्वंद में कौन सा राग छिड़ता है, कहना मुश्किल है।

       वक्त ने गंभीरता ओढ़ ली है।आंकड़ो की रफ्तार बता रहा है। जो इसको अब तक हर बात की भांति इसे भी हवा में सिगरेट की छल्लो की तरह उड़ाना चाहते है, शायद वो भी अब थोड़ा संजीदा हो जाये। इसलिए अब इक्कीस दिनों के लिए बेहतर है, बाहर निकलने से पहले इक्कीस बार सोचे।

             बाकी कुरुक्षेत्र के मैदान में जो योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ डटे है, उनको इस युद्ध मे जीतने में अपना योगदान दे और ये तभी आप कर सकते है जब आप अपने आपको सुरक्षित घर पर रखे।घर के दहलीज को लांघना विषराज को घर पर आमंत्रित करना है। बाकी आधुनिक संजय से आप प्रतिपल इस युद्ध का खबर लेते रहे, लेकिन गान्धारी की तरह आंख पर पट्टी न बांधे। खुली आंख से देखे और स्वयं आकलन करे।

Tuesday, 24 March 2020

कोरोना डायरी

हमे कभी-कभी बड़ा कोफ्त होता है। हमे किसी ऐतिहासिक घटनाक्रम के साक्षी होने का मौका अब तक नही दिखा। लेकिन अब एक मौका आखिर कोरोना ने दे ही दिया। गंभीर तो इसके प्रति हम पहले ही दिन से थे, लेकिन आने वाला कल इतना उथल-पुथल वाला होने जा रहा है, इसका अंदाज न था।
           इससे पहले भी कई बीमारी नाम बदल-बदल कर आते रहे है। कभी सार्स, तो कभी मार्स, कभी बर्ड फ्लू उड़ने लगा तो कभी स्वाइन फ्लू छाया, कभी एंथ्रेक्स से घबराए रहे।
         लेकिन ये कोरोना ने तो वाकई घटनाक्रम में ऐतिहासिक मोड़ ले आया। कोविड-19 अब इतिहास के पन्नो में दर्ज हो गया। जब देश सबसे लंबे लॉकडाउन के दौर से गुजरेगा।
         ज्यादा दुखी होने की कोई जरूरत नही है।अब इसके अलावा कोई चारा भी नही है।"सटले तो गइले" कई दिनों से सोशल मीडिया पर सचेत किया जा रहा था। लेकिन आप हम है कि मानते नही। फिर ये चेताया कि हॉस्पिटल में इतने बेड नही है कि आपको रखना संभव हो और फ़ोटो फ्रेम किसी को भला क्यों कबूल हो फिर घर के अलावा और कोई दूसरा उपाय अब तक किसी एक्सपर्ट ने बताया नही।
     अतः घर की चहारदीवारी ही आपकी लक्ष्मणरेखा है। जाने कब से सभी भागने में व्यस्त थे। थोड़ा मौका मिला है सुस्ता ले और घर मे बैठे-बैठे कहानी बुनिये। ताकि आने वाले समय मे आप भी कहानी सुना सके कि  एक बार जब "कोरोना विष राक्षस" के महापराक्रमी पुत्र "उन्निसानन्द कोविड" को आपने घर मे बैठे-बैठे ही परास्त कर दिया। इस ऐतिहासिक घटना क्रम में आपके योगदान को आने वाली पीढ़ी सराहेगी और जब आप से बार-बार ये पूछेगी की बताइए न आखिर बिना अस्त्र और शस्त्र के आपने "उन्निसानन्द कोविड" को कैसे परास्त कर दिया?
         और फिर आप सिर्फ बिना कुछ कहे मुस्कुरायेंगे। भला क्या कहेंगे ..जब मानव मंगल ग्रह पर घर बनाने की बात सोच रहा था, तब भी हम सब के पास "उन्निसानन्द कोविड" को हराने के लिए घर मे बैठने के बिना और कोई कारगर अस्त्र नही था।

Tuesday, 3 March 2020

दिल्ली दंगा


               दिल्ली की हवा तो पहले से खराब है, इसकी जानकारी तो हमे थी। किन्तु हवा इतनी जहरीली हो गई है इसका एहसास तो आने के बाद हुआ।  क्रंदन और वंदन का दौर अब भी अनवरत है। धार्मिक कुनिष्ठा के साथ सहनशीलता की अतिरेक प्रदर्शन तो हो ही गया। फिर भी यथोचित मानवीय गुणों को तो तभी ही सहेजा जा सकता है।जब वर्तमान आपका सुरक्षित हो।असुरक्षा के भाव धारण कर कब तक इंसानी जज्बात और मानवीय संवेदना को आप वैसे ही सहेज पाते है,कहना कठिन है। 
                एक कानून के ऊपर स्वभाविक रूप से बौद्धिक या अनपढ़ जो भी हो स्व-पंथ के एक चादर में आकर विरोध का स्वर दे, किन्तु लोकतांत्रिक मूल्यों से कोई वास्ता न रखे। तो ऐसे भीड़ को उन्मादी और वहशी में तब्दील करने में विशेष परिश्रम नही करना पड़ता है।वैसे स्थिति में तो और भी आसान है जब आप पहले से ही किसी को अपना दुश्मन मान बैठे है।  
              जब वर्तमान अभिव्यक्ति की आजादी के हर्ष से अतिरेक होकर बढ़ रहे है, तो शायद वो बहुत कुछ बाहरी कारको से प्रभावित हो परिमार्जित होकर प्रदर्शित हो रहा है। ध्रुवीय विचारो का ऐसा परिवर्धन अगर होगा तो फिर उसका परिणाम दिल्ली दंगो के रूप में ही निकल कर आएगा।वर्तमान में एक पक्षीय उभार को देखने के लिए भूत के  ससंकित भाव भी ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में उतने ही समकालीन है।क्योंकि विभाजन एक ऐतिहासिक सत्य है।अतः बहुसंख्यक भाव को भी उसी मानवीय मनोविज्ञान के परिधि में ही तलाशने की भी आवश्यकता है। 
                 कानून और व्यवस्था उस मानवीय पहलू और भाव का भाग है, जहाँ बहुसंख्यक नागरिक उस पर विश्वास रखता है।  फिर यह भी विचारे की बदलते भूगोलीय और भू-खंडीय परिपेक्ष्य में यह भाव सास्वत है या फिर इसके बदलने की स्वभाविक वृति है।इसके नए उभार और आयाम ऐसे ही बदलते रहे तो व्यवस्था दिल्ली की तरह मूक दर्शक बने रह जाएंगे। 
              तमाम विरोधभास और अन्य के प्रति अपनी निष्ठा के बीच इतनी गुंजाइस अवश्य रहे की कम से कम इंसान कैसे इंसान बना रह सके  इन प्रश्नों पर भी विचार करने के अवसर बचा रहे।

Friday, 28 February 2020

क्या जला है..?

हर तरफ धुंआ और आग है,
जल रहा क्या ?

शायद इंसानी जज्बात और इंसानियत
मासूम बच्चों की खिलखिलाहट।।

नही सिर्फ घर और समान नही जलते
फिर जल रहा क्या?

वो होली के गुलाल राख होते है
और ईद की सेवइयां भी झुलस रही
गंगा में जलती चिता की राखे है
तो जमुना में रक्त के छीटें।।

नही सिर्फ दुकान और आशियाने नही जलते
तो फिर जला क्या है?

आपसी विश्वास की डोर में धुएँ है
इंसानी एहसास में लपटे है
हम कौन और तुम कौन
गैर होने के तपन ही दहके है।।

नही सिर्फ ये शहर नही जलते
फिर जला क्या है ?

भविष्य के दिये जले है
कई घरों के चिरागे जले है
साथ रहने के भरोसे जले है
बच्चों के सर से पिता के साये जले है
ये जलन की ऊष्मता
कभी भविष्य में कम होगी या नही
कई दिलो में ये भरोसे भी जली है।।

Thursday, 27 February 2020

दिल्ली में दंगा


       दिल्ली आना अप्रत्याशित था और यहाँ आने के बाद जो हुआ वो भी अप्रत्याशित है।दिल्ली को देश का दिल कहते है और ऐसे लगा जैसे दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो।जिनसे सीपीआर की उम्मीदें लगी वो हाथ पत्थरो और लाठी से खेलते रहे और जिन्हें ऑपरेशन की जिम्मेदारी थी वो उनके पास साजो सामान नही था। 
 जब आप अपने घर से बाहर के हालात का जायजा टी वी पर लेने की कोशिश में रहते है।तो आप अंदाज लगा सकते है कि भय का आवरण  किदर लिपट गया होगा। आसमान में उठते काले बादल की गुबार जब बंद खिड़की की सुराख से देखने का प्रयास होता है तो सांस की धड़कन की आवाज भी आपको दहशत से भरने के लिए काफी है। आप अंदाज लगा सकते कि दंगा से पसरी हुई सन्नाटा अंदर तक कितनी चित्तकार करती होगी। यह उस घर मे जाकर देखा जा सकता है जिसमे कोई इस भीड़ का शिकार बन गया हो। 

       नफरत के आग से फैली चिंगारी उन्मादी हवा में तैर कर कुछ भी जला सकती है यह प्रत्यक्ष दिख रहा था। भविष्य को सुरक्षित करने को निकले भीड़ में कितनो का वर्तमान छिन गया कहना मुश्किल है।        कराहती दिल्ली का ये भाग अब जैसे-तैसे लंगड़ाते हुए राहों पर चलने लगा । लेकिन हर दंगा की तरह कुछ चेहरे इन राहों पर से सदा के लिए खो गए होंगे। इन गलियों से आ रही जलने की बदबू कब तक वीभत्स यादों की जख्मो को यहां के लोगो के जेहन में बसा के रखेगा कहना मुश्किल है।

     बशीर बद्र का ये शेर ऐसा ही बयां करता है-
       लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में 
      तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में ।।

Wednesday, 19 February 2020

दौरा...एक राष्ट्राध्यक्ष का

सभी शोर मचाने में लगे है। न भारत कि ऐतिहासिक गौरव का मन मे कोई भान है और न ही अपनी सदियों पुरानी "अथिति देवो  भव" की आदर्श को अपने स्मृति में सहेज कर रखा है।जब दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से मिलता है तो स्वागत संभवतः ऐसा ही होता है। पैसे आते जाते है लेकिन ऐसे-ऐसे राष्ट्राध्यक्ष रोज-रोज कोई थोड़े ही देश मे पधारते है। जो उनके लिए बजट की चिंता की जाय। ये सिर्फ नई दीवार की तर्कसंगतता को ढूंढने में लगे है। जबकि हमे मालूम है वो दुनिया का सबसे विकसित और शक्तिशाली देश है।
         जब ओसामा को पाकिस्तान उसकी नजरो से छिपा नही सका तो बाकी चीजे तो वो खुद जान जाएगा। वो बेशक जान जाए लेकिन हमें क्या दिखाना है ,इसका तो पता हमे होना चाहिए। फिर जो नही दिखाना चाहते उसके लिए तो दीवार खड़ी करनी ही होगी।
           जब देश के अंदर बिना ईट के ही कितने दीवार खड़े है, गिनती करना मुश्किल है।फिर एक ईंट की दीवार खड़ी हो गई तो क्या फर्क पड़ता है।
          स्वागत के लिये राह पर पलके बिछा कर रखे। अनावश्यक भैहे को तान उठती दीवारों पर नजर न डाले। आंखों में खराबी आने को संभावना हो सकती है।।

Tuesday, 11 February 2020

लक्ष्य

             प्रभु मन में क्लेश छाया हुआ है। अंतर्मन पर जैसे निराशा का घोर बादल पसर गया है। कही से कोई आशा की किरण नहीं दिख रहा। लगता है जैसे भविष्य के गर्भ में सिर्फ अंधकार का साम्राज्य है। मन में वितृष्णा छा गया है। प्रभु आप ही अब कुछ मार्ग दर्शन करे।वह सामने बैठ हताशा भरे स्वर में बुदबुदा रहा जबकि प्रभु ध्यानमुद्रा में लीन लग रहे थे।पता नहीं  ये शब्द उनके कनों को भेद पाये भी या नहीं? फिर भी उसने अपनी दृष्टि प्रभु के ऊपर आरोपित कर दिया। प्रभु के मुख पर वही शांति विराजमान ,योग मुद्रा में जैसे आठो चक्र जागृत, पद्मासन में धर कमर से मस्तिष्क तक बिलकुल लम्बवत ,हाथे बिलकुल घुटनो पर अपनी अवस्था में टिका हुआ। उसने दृष्टि एक टक अब तक प्रभु के ऊपर टिका रखा था। आशा की किरण बस यही अब दिख रहा । कब प्रभु के मुखारबिन्दु से शब्द प्रस्फुटित हो और उसमें उसमे बिखरे मोती को वो लपेट ले जो इस कठिन परिस्थिति से उसे बाहर निकाल सके।यह समय उसके ऊपर कुछ ऐसा ही है जैसे घनघोर बारिश हो और दूर दूर तक रेगिस्तान का मंजर । आखिर कैसे बचें ? संकटो के बादल में घिरने पर चमकते बिजली भी कुछ राह दिखा ही देती है और प्रभु तो स्वंम प्रकाशपुंज है। प्रभु के ऊपर दृष्टि टिकी टिकी कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला।

             क्या बात है वत्स , कंपन से भरी गंभीर गूंजती आवाज जैसे उसके कानों से टकराया उसकी तन्द्रा टूट गई। पता नहीं वो कहा खोया हुआ था। चौंककर आँखे खोला दोनों हाथ करबद्ध मुद्रा में शीश खुद ब खुद चरणों में झुक गया और कहा-गुरुदेव प्रणाम। प्रभु ने दोनों हाथ सर पर फेरते हुए कहा- चिरंजीवी भव। कहो वत्स कैसे आज  इस मार्ग पर पर आना हुआ। प्रभु गलती क्षमा करे कई बार आपके दर्शन को जी चाहा लेकिन आ नहीं पाया।इन दिनों असमंजस की राहो से गुजर रहा हूँ। जीवन में लगता है निरुद्देश्य के मार्ग से चलकर उद्देश्य की मंजिल ढूंढ रहा हूँ। निर्थकता और सार्थकता के बीच खिंची रेखा को भी जैसे देखने की शक्ति इस चक्षुओं से आलोपित हो गया है। जीवन को जीना चाहता हु लेकिन क्यों जीना चाहता हु इस उद्देश्य से मस्तिष्क भ्रमित हो गया है। प्रभु आपके सहमति स्वरूप मैं इस जीवन को अपनी दृष्टि से देखना चाहता था। आपसे पाये ज्ञान से मैं इस समाज को आलोकित करना चाहता था किंतु अब लगता है खुद ज्ञान और अज्ञान के भाव मध्य मस्तिष्क में दोलन कर रहा है। कब कौन से भाव के मोहपाश मन बध जाता पता ही नहीं चलता।जागृत अवस्था में भी लगता है मन घोर निंद्रा से ऊंघ रहा है। प्रभु मार्गदर्शन करे।

            प्रभु के मुखारबिंद पर चिर परिचित स्वाभाविक मुस्कान की स्मित रेखा उभर आई। दोनों पलक बंद किन्तु प्रभु के कंठ से उद्द्गार प्रस्फुठित हुए- वत्स मै कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। आखिर तुम्हारा मन मस्तिष्क इतना उद्धिग्न क्यों है। तुमने योगों के हर क्रिया पर एकाधिकार स्थापित कर रखा है, फिर इस हलचल का कारण मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

               प्रभु आप सर्वज्ञानी है, आप तो चेहरे को देख मन का भाव पढ़ लेते है। अपनी पलकों को खोल एक बार आप मेरे ऊपर दृष्टिपात करे।प्रभु आप सब समझ जाएंगे। उसके स्वर में अब कातरता झलकने लगा।प्रभु की नजर उसपर पड़ी और उसकी दृष्टि नीचे गड गई। वत्स मेरे आँखों में देखो क्यों नजर चुराना चाहते हो। नहीं प्रभु ऐसी कोई बात नहीं लेकिन आप के आँखों में झांकने की मुझमे सामर्थ्य नहीं है। मैं आपके आदेशानुसार कर्तव्य के पथ पर सवार हो मानव समिष्टि के उत्थान हेतु जिन समाज को बदलने की आकांक्षा पाले आपके आदेश  मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। अब उस राह पर दूर दूर तक तम की परिछाई व्याप्त दिख रही है। मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा की आखिर इस अँधेरी मार्ग को कैसे पार करू जहाँ मुझे नव आलोक से प्रकाशित सृष्टि मिल सके।

            तुम कौन से सृष्टि की बात कर रहे हो वत्स। परमपिता परमेश्वर ने तो बस एक ही सृष्टि का निर्माण किया है।सारे जीव इसी सृष्टि के निमित्त मात्र है। तुम कर्म विमुख हो अपने ध्येय से भटक रहे हो। तुम्हारी बातो से निर्बलता का भाव निकल रहा है। आखिर तुम खुद को इतना निर्बल कैसे बना बैठे?
              अपने आप को संयत करते हुए कहा- प्रभु जब सत्य एक ही है तो उसे देखने और व्यख्या के इतने प्रकार कैसे है? आखिर हर कोई सत्य को सम भाव से क्यों नहीं देख पाता है?आखिर  मानव उत्थान के लिए बनी नीतियों में इतनी असमानता कैसे है ? सक्षम और सामर्थ्यवान दिन हिन् के प्रति विद्रोही और विरक्त कैसे हो जाते है? अवसादग्रस्त नेत्रों में छाई निराशा के भंवर को देख देख कर अब मेरा चित अधीर हो रहा है और इन लोगो के क्लांत नेत्र को देख देख व्यथित ह्रदय जैसे इनका सामना नहीं करना चाहता । प्रभु मुझे आज्ञा दे मैं पुनः आपके सानिध्य में साधना में लीन होना चाहता हूँ।

         प्रभू ने उसके सर पर पुत्रवत हाथ फेरते हुए कहा-लेकिन इस साधना से किसका उत्थान होगा ? आखिर किस ध्येय बिंदु को तुम छूना चाहते हो ? समाज के उत्थान हेतु जिस कार्य को मैंने तुम्हे सौपा है। आखिर वत्स तुम इससे विमुख कैसे हो सकते हो ? लगता है मेरी शिक्षा में ही कुछ त्रुटि रह गई। कातरता से भरे स्वर में उसने कहा नहीं प्रभु ऐसा न कहे।मैं आपको तो हमेशा गौरवान्वित करना चाहता हूँ।परंतु प्रभु आपने इस सन्यास धर्म के साथ राजनीति के जिस कर्म क्षेत्र में मुझे भेज दिया, लगता है वो मेरे उपयुक्त नहीं है।प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-क्या वत्स तुम इतने ज्ञानी हो गए की खुद की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का निर्धारण कर पा रहे हो। इसका तो अर्थ हुआ की मै तुम्हारे क्षमता का आकलन करने योग्य नहीं। प्रभु धृष्टता माफ़ करे आपकी क्षमता पर किंचित शक मुझे महापाप का हकदार बना देगा। मेरा अभिप्राय यह नहीं था। फिर क्या अभिप्राय है पुत्र -प्रभु के स्वर से वात्सल्य रस बिखर गए।

                  प्रभु इतने वर्षों से मानव सेवा हेतु मैंने राजनीति का सहारा लिया।यही वो माध्यम है जिसके द्वारा मानव कल्याण की सार्थक पहल की जा सकती है।किंतु प्रभु इसका भी एक अलग समाज है, जो कल्याण की बाते तो करते है विचारो के धरातल अवश्य ही अलग अलग है किंतु मूल भाव में सब एक से दीखते है। प्रभु इनके मनसा,वाचा और कर्मणा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।इस कारण इनके साथ तालमेल कैसे करूँ प्रभु ?खुद को दूषित करू या इनसे दूर हो जाऊं। प्रभु क्या करूँ मैं? 

                 वत्स तुम्हे तो मैंने निष्काम कर्म योग की शिक्षा दी है फिर भी तुम अर्जुन की तरह विषादग्रस्त कैसे हो सकते हो? गीता के श्लोक अवश्य तुम्हे कंठस्त होंगे, लेकिन मर्म समझने में लगता है तुम भूल कर बैठे हो।पुत्र मानवहित हेतु ध्येय की प्राप्ति में अगर काजल की कोठरी से निकलने में कालिख से डर कर वापस  लौट जाया जाए तो इसका तो अर्थ हुआ की अज्ञान के अंधकार को विस्तार का मौका देना। किसी न किसी को तो अपने हाथों से कालिख को पोछने होंगे।क्या जयद्रथ और अश्व्थामा का दृष्टान्त वत्स तुम भूल गए। तो क्या भगवान कृष्ण अब भी इन धब्बो से तुम्हारी नजरो में दोषी होंगे ? समझो अगर भगवान् कृष्ण ने इस विद्रूपता को अपने हाथों से साफ़ नहीं किया होता तो आज मानव की क्या स्थिति होती। कर्तव्य के राह पर पाप पुण्य हानि लाभ से ऊपर उठ देखो , समग्र मानवहित जिसमे दिखता है उपयुक्त तो वही मार्ग है। यही तो योग है कि इस परिस्थितयो के बाद भी अपने को  लक्ष्य से भटकने नहीं देना है। अगर कालिख लग भी जाए नैतिकता के सर्वोत्तम मानदंड और मानव कल्याण के उत्कर्ष के ताप से स्वतः कालिख धूल कर एक नए ज्ञान गंगा की धारा में परिवर्तित हो जाएगा। तुम प्रयास तो करो। वत्स कोई न कोई तो प्रथम बाण चलाएगा। इस डर से गीता श्रवण के बाद भी  गांडीव अगर अर्जुन रख ही देता तो क्या आज महाभारत वैसा ही होता ? अनुकूल स्थिति में कर्तव्य पथ पर चलना सिर्फ दुहराना है उसमें कैसी नवीनता। समाज में घिर आये ऐसे विचार की सन्यासी का राजनीती से क्या लेना ही इस दुरावस्थिति का कारण है। समाज के  शिक्षित जन इस स्थिति में आम जन के दुरवस्था से विमुख हो सिर्फ खुद के प्रति मोह भाव रख ले तो किसी न किसी को तो पहल करना ही होगा। पुत्र सन्यास आश्रम समाज से विमुखता नहीं बल्कि इसकी सापेक्षता का भाव है।जब तक यह अपनी नीति नियंता समष्टि के हर वर्ग के अनुरूप बनाकर चलता है और सब समग्र रूप से खुशहाल हो हम भजन कीर्तन  कर भागवत ध्यान में लीन रह सकते है।किंतु अगर ऐसा नहीं है तो हमें तो इसका प्रतिकार कर उत्तम ध्येय के मार्ग पर सभी को आंदोलित करना ही होगा। जीवन योग तो पुत्र ऐसा ही कहता है।परम सत्य का ज्ञान तो वर्तमान के साक्षत्कार से ही होता है भविष्य का तो सिर्फ चिंतन और मनन ही क्या जा सकता है।

              सन्यास धर्म समाज से विमुख करता है इस प्रतिकूल विचार के भाव को बदलने हेतु ही तो तुम्हे भेजा।इस अवधारणा से पुत्र मुक्त हो जाओ की सन्यास आश्रम परिवार से विरक्ति है ,बल्कि पूरे समाज को अपना परिवार मान उसके प्रति आसक्ति का भाव ही सन्यास धर्म का मर्म है। अवश्य आलोचनाओं के तीर तुम्हारे हिर्दय को छिन्न विच्छिन्न करेंगे किन्तु जब ध्येय श्रेष्ठ है तो ऐसे बाधाएं मार्ग च्युत नहीं कर सकता है।सन्यास धर्म खुद को श्रेष्ठ तो बनाना है किंतु यह प्राणी मात्र को श्रेष्ठता के मार्ग पर प्रसस्त करने हेतु है।जब समाज का कोई भी क्षेत्र कलुषित हो जाए तो उसका उद्धार करना ही सन्यासियों का धर्म भी है और कर्म भी है। आज राजनीति की पतन की जो गति है उसे समय रहते नहीं थामा गया तो पूरे मानव समाज को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। अतः वत्स अपने धेय्य से न भटको और इन्ही राहो पर चलकर ही तुम योग और सन्यास की श्रेष्ठता को सिद्ध करोगे। यह हमारा दृढ़ विश्वास है। इतना कहने के साथ ही प्रभु ध्यानमग्न हो गए।

            उसने प्रभु के चरणों में अपना शीश झुकाकर दंडवत प्रणाम किया। अब उसके चेहरे पर संतोष और दृढ विश्वास की आभा फ़ैल गया। पीछे मुड़कर उन राहो चल दिया जिनसे चलकर आया था। दृष्टि विल्कुल अनंत में टिकी हुई जैसे उसे लक्ष्य स्पष्ट नजर आ रहा हो।

Monday, 20 January 2020

नए अध्यक्ष ...त्वरित टिप्पणी

            जब प्रधानमंत्रीजी छात्रों को परीक्षा के टिप्स बांट रहे थे उस समय नड्डा जी अध्यक्ष के छात्र रूप में चुन लिए गए। परीक्षा तो अब इनकी कक्षा में कई होने लेकिन अगला पेपर बहुत जल्दी दिल्ली में होने वाला है। इनकी तैयारी का जायजा उसके बाद ही लिया जाएगा। कल आज और कल के कई मार्गदर्शक अलग अलग भाव भंगिमा में लिए नए अध्यक्ष को शुभकामनाएं देने कर्तव्यानुसार उपस्थित हो गए। नड्डा जी वैसे तो हिमाचली है लेकिन बिहारीपन ज्यादा है।

     वैसे नड्डा जी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए सिर्फ "जय भारत" का उद्घोष किया। जबकि उनके पूर्ववर्ती सदा की भांति भारत माता की जय और अंत मे वंदे मातरम के साथ अपना उद्घोष समाप्त किया। नड्डा जी की इस "जय भारत"  सांकेतिक उद्घोषणा सामान्य माना जाय या अपने कार्यकाल में वो पार्टी के सिलेबस में कोई बदलाव की तैयारी है।इस पर राजनीतिक विश्लेषक चिंतन की नई लकीर खिंच सकते है।
         वैसे उनके पूर्ववर्ती ने जो लकीर खिंच दी है,उससे बड़ी लकीर खीचना वाकई में नड्डा जी के लिए एक दुरूह कार्य होगा। लेकिन अब जब उन्होंने ये दायित्व लिया है तो अवश्य उसके लिए प्रयत्नशील रहेंगे।...नड्डा जी को अध्यक्ष चुने जाने पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।।

Saturday, 18 January 2020

मुद्दें.....

                        मुद्दों में मुद्दा इतना ही है कि देश मे मुद्दों की कमी नही है। हम तो इसी मुद्दों पर लड़ रहे थे। अब ये भी कोई बात है कि आप मुद्दों का ट्रैक ही चेंज कर दे। किसी दौड़ में अगर कोई अपना लेन बदल देता है तो उसे डिसक्वालिफाई कर देते है। अब यहाँ सरकार की कोई नैतिकता ही नही है। मुद्दों का पूरा ट्रेक बदल दिया। आखिर देश में अब तक गरीबी हटाओ, बेरोजगारी भगाओ, भ्रष्टाचार मिटाओ, महगाई डायन मारो और पिछले कुछ वर्षों से राम मंदिर बनाना है, पाकिस्तान को सीखना है, इस मुद्दों पर ही चुनाव होता आया है।अब आपने ये क्या उसमे एन आर सी, सी ए ए जैसे मुद्दों को जबरदस्ती घुसा दिया है।अब यार भोली जनता पर भी रहम करो। आखिर जनता का टास्क तो बढ़ गया। इस तरह  अगर मुद्दों की फेहरिस्त बढ़ती जाएगी तो जो जनता पहले से मुद्दों के बोझ तले दबे हुए है,वो और भार कैसे उठाएंगे..?इसलिए तो हम साफ-साफ कह रहे है कि ये जो नए मुद्दे आपने भोली-भाली जनता के ऊपर एन आर सी और सी ए ए का डाल दिया है। उसे वापस ले ले। हम वही पुराने सास्वत मुद्दे को ही रहने दे। आखिर सरकार ही तो बनाना है, बाकी तो देश पहले भी चल रहे थे और आगे भी चलेंगे।लेकिन जो सरकार मुद्दों की सास्वतता को जड़ से मिटाने का प्रयास करे तो वो जनता के साथ सही में अन्याय करती है। पुराने मुद्दों के खत्म होने से नए मुद्दों को ढूंढना भी तो एक दुरुह काम है और फिर उसके बारे में जनता को बताना तो उससे भी कठिन। फिर बेचारी भोली-भाली जनता आखिर अपने दिनचर्या में ऐसे दबा हुआ है। फिर वो कैसे समय निकाल कर इन नए मुद्दों पर अपनी राय को कायम करे । बेशक भ्रष्टाचार कुछ कम होने की खबर हो और राम मंदिर भी न्यायालय द्वारा सुलझ गए हो। फिर भी पुराने मुद्दे कई है, आप ये नए मुद्दे उछाल कर, पार्टी तो गोते लगा ही रही है, जनता को क्यो उछालने में लगे हो...?

Tuesday, 14 January 2020

मकर सक्रांति की शुभकामनाएं...

                कुरुक्षेत्र का मैदान अब रक्त-रंजित कीचड़ में बदल गया है।युद्ध का दसवां दिन विषाद की वायु से पूरा वातावरण रत्त हो रखा है । विधवा विलाप और पुत्र शोक संतप्त रुदन से कंपित सिसकारियां,  मातम और रूदन की प्रतिध्वनि संग एक क्षत्र पसर पूरे वातावरण को जैसे शमशानी क्षेत्र में बदल दिया है ।आज के युद्ध के समापन की घोषणा हो चुकी है। क्या कौरव क्या पांडव सभी के रथ एक ही दिशा में भाग रहें है।रक्त और क्षत-विक्षत लाश ने कुरुक्षेत्र के मैदान पर अपना एकाधिकार कर रखा है।

              महापराक्रमी, महाधनुर्धर, परशुराम शिष्य, गंगापुत्र, देवव्रत भीष्म वाणों के शैया पर पड़े हुए है। कौरव के सेना का सेनापति यूँ लाचार और बेवस, जिनके गांडीव की कम्पन सेअब तक कुरुक्षेत्र का मैदान  दहल रहा था। वो बलशाली असहाय सा इस निस्तेज अवस्था मे है।भीष्म अब कौरव और पांडव के मिश्रित सेना से घिर चुके थे। 

              वाणों की शेष शैय्या पर इस रूप में भीष्म को देख दुर्योधन के चेहरे पर क्रोध की स्पष्ट रेखा खिंच आया है । वह मन में भीष्म के घायल से द्रवित नहीं है जितना भविष्य के पराजय की आहट का डर उसकी भृकुटि पर उभर रहा है । यह भय क्रोध का रूप धर आँखों में उभर रहा है।  पांडवों में संताप पितामह को लेकर स्पष्ट परिलक्षित है।जहाँ अर्जुन का मन कर्मयोग और निजत्व मर्म को लेकर संघर्षरत्त दिख रहा, वही बलशाली भीम भीष्म पितामह के इस रूप को देखकर सिर्फ अकुलाहट मिश्रित दुःख से अश्रुपूर्ण हो रखा। धर्मराज युधिष्ठिर अब इस कालविजयी योद्धा से श्रेठ ज्ञान की कुछ याचना से चरणों में करबद्ध हो अपने आँखों के अश्रु की धार को रोक रखा है। नकुल सहदेव आम मानव जनित शोक के वशीभूत हो बस अपने अश्रुओं को निर्बाध रूप से बहने के लिए छोड़ रखा है।

             भीष्म यदि वर्तमान है,तो बाकी कौरव  दक्षिणायन में विवेक पर जम आये अहंकार और दुर्बुद्धि की परत । वही  पांडव भविष्य का उत्तरायण जो  इस हठी सिला को परास्त कर विवेक पर घिर आये तम की परिछाइयो को परास्त कर मानव के नैसर्गिक सौंदर्य को निखारने के लिये युद्धरत हो। तभी तो नारायण नर रूप धर स्वयं रथ के सारथी का दायित्व ले लिया है।
     
         देवकी नंदन भी वही भीष्म की इस अवस्था को देख भविष्य के गर्भ छिपे भारत के अध्याय को जैसे खंगाल रहे है।

                  किन्तु अब युधिष्ठिर से नहीं रहा जा रहा। पितामह आखिर आप इस वाण शैय्या पर कब तक ऐसे पड़े रहेंगे। दोनों पक्ष के क्या जयेष्ठ क्या अनुज क्या सभासद क्या आम जन , सभी को भीष्म की पीड़ा ये दर्द ये कराह जैसे रह रह कर दिल को क्षत विक्षत कर रहा है। हर हाथ इस याचना में जुड़ रहे है कि कुरु श्रेष्ठ अपनी इच्छा मृत्यु के वरदान को अभी वरन कर ले। खुद को इस पीड़ा से मुक्त करे ।

      किन्तु भीष्म ये जानते है कि इस जम्बूदीप पर अज्ञान का जो सूरज अभी दक्षिणायन में है, इस भूमी को इस रूप में असहाय छोड़कर चले जाना तो उनके स्वाभिमान को शोभा नहीं देगा। कही आने वाला कल इतिहास में यह नहीं कहे की भीष्म ने हस्तिनापुर के सिंघासन से बंध कर जो प्रतिज्ञा लिया वो तो धारण कर निभा गए, किन्तु भीष्म जैसे महाज्ञानी के अपने भी मानवोचित धर्म को निभाने हेतु जिस कर्तव्य और धर्म के मध्य जीवन भर संघर्षरत्त रहे उसके अंतिम अध्याय को अपने आँखों के सामने घटित होते देख सहम गए। वर्तमान का कष्ट भविष्य के उपहासपूर्ण अध्याय से ज्यादा कष्टकारी तो नहीं हो सकता। ये अंग पर बिंधे बाण नहीं बल्कि वर्तमान के घाव का शल्य है । भविष्य के अंग स्वस्थ हो तो इतना कष्ट तो सहना पड़ेगा।

        महाभारत का अंतिम अध्याय लिखा जा चूका है। मंथन के विषाद रूप और विचार के द्वन्दयुद्ध से एक नए भारत का उदय हो गया है। अब दक्षिणायन से निकल कर उत्तरायण में जिस सूर्य ने प्रवेश किया वह नैसर्गिक प्रकाश पुंज बिगत के कई कुत्सित विचारो के साए को जैसे अपने दर्प से विलीन  दिया है है। वर्ष का यह क्रम साश्वत और अस्वम्भावी है और समाज और देश इस से इतर नहीं है। किंतु उत्तरायण में प्रवेश की इच्छा पर अधिकार के लिए भीष्म सदृश भाव भी धारण करने की क्षमता ही नियति के चक्र को रोक सकता है।

            लगभग 58 दिन हो गए ....वर्तमान के भीष्म को क्षत विक्षत पड़े लेकिन धौर्य नहीं खोया....ये विचारो की रक्त पात काल चक्र में नियत है....कोई न कोई मधुसूदन आता रहेगा जो काल के रथ का पहिया अपने उंगली में चक्र की भांति धारण करेगा ....लेकिन वर्तमान हमेशा भीष्म की तरह कर्तव्य और धर्म के मध्य क्षत विक्षत हो भविष्य के ज्ञान किरण का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने हेतु प्रतीक्षारत रहेगा।

    आप सभी को मकर संक्रांति .... लोहड़ी.. पोंगल...बिहू.. जो भी मानते हो, उन त्योहारों की हार्दिक शुभकामनाए एवं बधाई।

Monday, 13 January 2020

तन्हाजी-ए अनसंग वारियर

         इस बात की पूरी संभावना है कि आपके पसंद-नापसन्द विचारधारा के दायरे में बंध सकता है।  कला का विस्तार काल से परे तो नही हो सकता चाहे हम दार्शनिकता की कोई भी धारणा ओढ़ ले।लेकिन जब उस धारणा के चादर से,हम जैसे ही बाहर झांके, हकीकत के झोंके से उसके एक-एक सूत बिखर जाते है।खैर...
      भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्माधर्मावुभावपि ।
कारणादेशकालस्य देशकालः स तदृशः ।।
                                      -शांतिपर्व-
  "" देशकाल का ऐसा प्रभाव होता है कि एक ही काम एक समय मे धर्म हो सकता है और वही समय बदलने पर अधर्म भी हो सकता है।"

    तो फिर अपने-अपने देशकाल के अनुसार ये आलमगीर औरंगजेब अपनी राजनैतिक कूटनीति की चाल चल दिया। स्वराज की घोषणा हो चुकी है। भगवा के कीर्ति पताका का उद्घोष "तन्हाजी" कर चुके है, हिन्दू राज्य के राजा क्षत्रपति शिवाजी के सबसे भरोसेमंद और दाहिना हाथ। उदयभान राठौड़ मुगलिया लहजे में भगवा को मिटाने की चुनौती देता है। मराठा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और मुगलिया लहजा दोनों को बहुत बारीकी से निर्देशक पर्दे पर उतार दिया है।वेश-भूषा, तत्कालीन किला, छापेमारी युद्ध कौशल, और उसपर 3-डी का प्रभाव। फ़िल्म के शुरू होते ही आप उस काल मे जैसे टहलने लगते है। फ़िल्म को देखने से पता चल जाता है कि निर्देशक ओम राउत ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उभारने में कितने प्रभावशाली रहे है।
       कहानी इतिहास के हर्फों में दर्ज है। तन्हा जी मलासुरे सिंघनाद के किले को उदयभान राठौड़ से मुक्त कराने के लिए युद्ध करता है। जिसमे सफल भी होता है। बाकी ताने-बाने, भाव-भंगिमाएं, कलात्मकता की छूट के नाम पर अपनी रचनाशीलता से पटकथा को एक पूर्ण रूप से गूंथ कर आपके सामने पेश करता है। जिसमे ज्यादातर समय फ़िल्म आपको आकर्षित करती है। युद्ध के दृश्य तो खासकर आपको जैसे बांध लेता है।

       अजय देवगन तन्हा जी के रोल में जंचे है, वही उदय भान की क्रूरता को सैफ अली खान ने पूरी तरह से जिया है। काजोल छोटी सी भूमिका में है लेकिन काफी भावपूर्ण नजर आई है। लेकिन खास तौर पर शिवाजी की भूमिका में शरद केलकर और और औरंगज़ेब की भूमिका में ल्यूक केनी की उपस्थिति दमदार नजर आता है। दोनों कि भूमिका कुल मिलाकर छोटा ही कहा जायेगा लेकिन जब भी पर्दे पर आए अपना प्रभाव जबरदस्त रूप से छोड़ते है।

      बाकी बैक ग्राउंड संगीत दृश्य को जीवंत कर देता है, जहाँ तक गीत की बात है तो गुंजाइस के अनुरूप ठीक है। बाकी आप देख के तय करे....

Friday, 10 January 2020

नई धुन

संघर्ष शायद बुद्धिमानो के बीच ज्यादा होता है।जब "एक्स्ट्रा इंटेलीजेंसिया" से दिमाग कुपोषित हो जाता है तो मस्तिष्क का झुकाव "दर्शन" से विरक्त होकर "प्रदर्शन" की ओर आसक्त हो जाता है।वैसे भी आपकी बौद्धिकता तभी लोगो को आकर्षित करती है, जब आप "जरा हट के" कुछ कहते है। फिर नामचीन विश्वविद्यालय के प्रांगण में सिर्फ सामान्य कौतूहल ही जगे तो फिर ",रिसर्च" के लिए और कोई बिना प्रांगण वाले कॉलेजों के आंगन को क्यों न "सर्च" किया जाय ? खैर...कुछ दिनों से लोक और तंत्र दोनों से अलग जाकर जो मंत्र पढ़-पढ़ कर ये देश को जगाने में लगे हुए है, उससे कौन-कौन उत्साहित है और कितनो के अंदर मुरझाई जोश में आशा के नए कोंपल प्रस्फुटित है. ये तो समय बताएगा । वैसे शायद जनता तो ज्यादातर अर्धनिन्द्र में ही रहती है ?

          लगता है अब ये  छात्र राष्ट्रकवि दिनकर के इन पंक्तियों से ज्यादा प्रभावित है--  
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार 
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार,
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।।

    अब ये तलवार न सही हाथों में हॉकी स्टिक, लाठी या रॉड के भरोसे "विचारो" की "नई-धारा" के सूत्रपात के लिए प्रयत्नशील है। इनकी इस कर्मठता और ध्येय के प्रति जिजीविषा वाकई सराहनीय है। ज्ञान के अर्जन और परिमार्जन में अगर कुछ सरकारी संपत्ति नष्ट भी हो जाये तो उसके लिए व्यथित और चिंतित नही होना चाहिए। क्योंकि इससे "बुद्धि-जीवी" के अंदर का जीव थोड़ा कुंठित होकर काटने को आतुर हो सकते है। 

    अब हम तो इस इंतजार में बैठे है कि ये सपेरा अब अपनी तुम्बे में से कौन सा "साँप" निकालेगा और लोग बिना बीन के ही उसे देख-देख कर नागिन डांस करके जमीन पर लोट-पोट होकर जनता को जगाने में लग जाएंगे।

Friday, 3 January 2020

तलाश

कुछ लोग
अंधेरा कायम रखना चाहते है,
क्योंकि
रोशनी की महत्ता समझा सके।।

ये पुरातनपंथी है
या फिर तथाकथित प्रगतिशील।
लीलते दोनों ही है जीवन को
एक में उत्सर्ग अभिलाषा है
और दूसरे की क्रांति
 एक लालसा है।।

जब हुक्मरान
वाचाल हो ,
तो जनता सिर्फ
मूक और बघिर हो सुरक्षित ।।

नीति और नियंता
तो बदलते रहते है
लेकिन हर बार
एक नए जख्म देकर।।

क्योंकि पुराने घाव भरना
शायद कभी राज की नीति
नही होती है ।
वो तो हमेशा
आज के जख्म का उसे
कारण मानती है।।

और हम भी
घाव के निशान खुजलाकर
शायद कुछ ऐसा ही तलाशते है।
इंसान खुद को भूल
जब भी कुछ और तलाशा
तो सिर्फ इंसानियत ही तो वो खोया है।।

Wednesday, 1 January 2020

नववर्ष की शुभकामनाएं

            गणनाओ के चक्रिक क्रम में प्रवेश का भान होते हुए भी  हम पुनः दुहराव की अनवरत प्रक्रिया के संग बदलते तिथी से नव के आगमन का भरोसा और आशान्वित हर्ष से खुद को लबरेज कर लेते है।अपनी गति और ताल पर थिरकते हुए एक पूर्ण चक्र का उत्सव खगोलीय पिंड की अनवरत कर्म मीमांसा का भाग है या उसी पथ पर दुहराव की प्रक्रिया में पथ का अनुसरण भी किसी प्रकार का नूतन-प्रस्फुटन है ...? स्वयं का नजरिया विरोधाभास के कई आयामो से  छिटकते हुए भी संभवतः नूतन परिकल्पना के संग ताद्य्यतम्य बनाना ही समय-सम्मत प्रतीत होता है..?

       विज्ञान में दर्शन का समावेश और दर्शन के साथ विज्ञान का सामंजस्य के बीच वर्तमान का यू ही गुजरते जाना भविष्य के लिए हर क्षण आशाओ के क्षद्म संचार से इतर कुछ भी नजर नही आता है। मन की अपनी गति और क्रम है,लेकिन विश्वास और चेतना के धुरी पर घूमते हुए कैसे उस विलगाव की गलियो में भटकने लगती है, जहां मानव समिष्टि के तमाम तम का वास होता दिखता है और उस स्याह गलियो में बेचैनियों से टकराते हुए कैसे एक दूसरे को रौंदते हुए पग की असीमित रफ्तार सामुदायिक रफ्तार की उद्घोषणा के प्रश्नवाचक गलियो से न गुजरकर सिर्फ उन राहो पर बढ़ती चली जा रही है ,जहां ऐसे किसी भो द्वंद से उसे जूझना न पड़े।

        फिर भी ऐसा तो है कि दिन और रात की उसी घूर्णन गति को पहचानते और जानते हुए भी निशा के प्रहरकाल में भी भास्कर का पूर्वोदय मन के कोने में दबा होता है। उस विश्वास का अनवरत सृजन तम के गहराते पल के साथ और गहराता जाता है। पारिस्थिक वातावरण में फैले अंधकार का साया अवश्य ही दृष्टिपटल को बाधित करता हो, लेकिन मन के कोने में दबे विश्वास की उस प्रकाशपुंज को बाधित नही कर पाता है, जिसकी अरुणोदय की लालिमा का विश्वास सहज भाव से हृदय में  संचरित होता रहता है। 

               अतः मात्र आंकड़ो में जुड़ता एक और अंक का सृजन नव वर्ष का आगमन नही है। वस्तुतः यह आगमन उस विश्वास का है जो सूर्य के प्रथम किरण के संग कमल के खिलने जैसा मानव मन भी अभिलाषा से संचित हो  प्रफ्फुलित होता है।यह सृजन है उस आशा का जहाँ प्रकृति की वसन्तोआगमन सी सूखे टहनियों पर नव पल्लव आच्छादित हो जाता है , जिस भरोसे को धारण कर सभी प्रतीक्षारत रहते है। यह दिन है स्वप्न द्रष्टाओं के उस भरोसे का जो अब भी शोषित, कुठित, दमित,विलगित और स्वयं के अस्तित्व से अपरिचित और तृस्कारित मानव के संग मानव रूप में देखने की जिजीविषा का सिंहावलोकन की अभिलाषा संजोए राह देखते है। यह दिन है उस राहो पर पड़ने वाली उन नव-रश्मि का ,जिससे समिष्टि में व्याप्त किसी भी वर्ग भेद को अपनी प्रकाश से सम रूप में आलोकित कर सके, नव वर्ष उस आशा के संचार का आगमन है। नव वर्ष उस भरोसे के संचार का दिन है जहाँ प्रतिदिन परस्पर अविश्वास की गहरी होती खाई को विश्वास की मिट्टी से समतल करने के विश्वास का प्रस्फुटन होता है।यह उन सपनों के सृजन का पल है जहाँ पुष्प वाटिका में हर कली को स्वयं के इच्छा अनुरूप प्रकृति सम्मत खिलने का अधिकार हो। कोई एक तो दिन हो जहां सभ्यताओं के रंजिस वर्चस्व में स्वयं से परास्त मानव मन सामूहिक रूप से स्वयं का विजय उद्घोष कर सके, शायद वर्तमान में नववर्ष वही एक दिन है।

         विमाओं सी उद्दीप्त असंख्य विचारों के अनवरत प्राकट्य और अवसान के मध्य नव वर्ष के प्रथम पुंज सभी के मष्तिष्क तंतुओ को इस प्रकार से आलोकित करे कि सामूहिक समिष्टि के निर्बाध विकास और सह-अस्तित्व की धारणाओं का पोषण हो सके ।उन भावो का जागृत होना शायद नव वर्ष का आगमन है।
               
सूर्य संवेदना पुष्पे:, दीप्ति कारुण्यगंधने । 
लब्ध्वा शुभम् नववर्षेअस्मिन् कुर्यात्सर्वस्य मंगलम् ॥

 .        जिस तरह सूर्य प्रकाश देता है, पुष्प देता है, संवेदना देता है और हमें दया भाव सिखाता है उसी तरह यह नव वर्ष हमें हर पल ज्ञान दे और हमारा हर दिन, हर पल मंगलमय हो ।

                    आशा और विश्वास के साथ आप सभी को नववर्ष 2020 की हार्दिक मंगल कामनाएं और शुभकामनाये।।