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Thursday, 14 September 2023

हिंदी दिवस

 सबसे पहले आप सभी को हिंदी दिवस की बधाई..!

                   हिंदी की मुखरता यह है कि यहां कोई मात्रा अथवा वर्ण "साइलेंट" नही रहता। एक बिंदु भी अपने वजूद को मुखर होकर कहता है। लेकिन अंग्रेजी में "साइलेंट" एक सामान्य बात है। तो फिर इस "साइलेंट" होने के अपने महत्व है।कई बार आप चाहते हुए भी बहुत कुछ नही कह सकते, चाहे वह आपका घर हो या दफ्तर..! वक्त वेवक्त आपको "साइलेंट" रहना पड़ता है..! सीनियर ऑफिसर किसी काम मे खोट निकाल कर आपको उपदेश दे रहे हो या घर मे श्रीमतीजी किसी बात से रुष्ट हो..! आपको पता है की यहां  "साइलेंट" रहना ही आपके हित मे है अन्यथा यह कभी भी आपके अनावश्यक तनाव का कारण बन सकता है..!  

ये "साइलेंट" की प्रवृति ही ऐसी है कि आपके प्रकृति को बनाता है..! यह हर समय संभव नही है..! जैसे अंग्रेजी के हर शब्द में "साइलेंट" नही होता है..! आपको पता रखना पड़ता है कि कब कौन सा वर्ण कहा "साइलेंट" हो गया है..! इसी "साइलेंट" की प्रवृति को पकड़ने के लिए लोग अंग्रेजी की ओर ज्यादा झुकाव रखते है..! क्योंकि हिंदी में ऐसी कोई प्रवृति नही है और न हिंदी की ये प्रकृति है कि वो कही भी "साइलेंट" रहे। जो भी आता है अपनी उपस्थिति और पहचान को पूरी मुखरता के साथ कहता है..!

           अब जिनको सफलता के सोपान पर चढ़ना है तो कहाँ "साइलेंट" रहना है, ये जानना तो जरूरी है..! जो गांव की पंचायत से लेकर देश की राजनीति में आपको हमेशा दिख जाएगा..! चाहे मुद्दे कितने भी गंभीर क्यों न हो , "साइलेंट" रहना है या बोलना है उसका कोई तय पैमाना नही होता है..! यह मौका और परिस्थिति ही निर्धारित करता है। उसी प्रकार अंग्रेजी भाषा मे कौन सा वर्ण कब "साइलेंट" हो जाएंगे इसका का कोई कायदा और कानून तो है नही। जबकि हिंदी भाषा ने, कब बिंदु का प्रयोग होगा और कब चंद्र बिंदु लगाना है या फिर आधा "र" कब नीचे लगेगा और उसे कब ऊपर बैठना है , उसके भी नियम निर्धारित कर रखे है..! अब इतने नियम कानून कहाँ तक पालन हो सकते है भला ..!

              फिर जिस राह पर चल कर सफलता मिले लोग स्वभाविक रुप से उसी राह पर चलते है..! इसलिए मुझे लगता है देश मे अंग्रेजी के प्रसार-प्रचार में इस भाषा मे निहित "साइलेंट" का खास योगदान है..!

           अब हम हिंदी भाषा पर कितना भी शोर मचाये, लेकिन अंग्रेजी को पता है कि "साइलेंट"  रह कर भी कितना विस्तार हो सकता है...है कि नही..?


Sunday, 18 June 2023

इति आदिपुरुष कथा..!!


                तुलसीदासजी रात भर बैचैनी से करवटें बदलते रहे। दिनकर के आगमन से पूर्व ही जल्दी-जल्दी स्वर्ग के किसी और छोड़ पर बना कुटिया में बाल्मीकजी से मुलाकात करने पहुंचे। महर्षि ने उनको देख गंभीर भाव से पूछ-गोस्वामीजी आज इधर का राह कैसे स्मरण हो आया..!

              तुलसीदासजी ने दंडवत प्रणाम किया और कहा- महर्षि आपके दर्शन को ही आया हूं..!

वाल्मीकिजी ने उन्हें अपने आसान के समीप लगे आसान पर बैढने का इशारा किया और पूछा- क्या कोई  विशेष प्रयोजन है.? कहकर प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे!

गोस्वामीजी ने बैठते हुए कहा-मुनिवर वो कल संध्या बेला में नारद मुनि मिले थे,वो बता रहे थे  कि पृथ्वी का दौरा करके वापस लौटे है। 

वाल्मीकि जी से स्मित मुस्कान से कहा- तो इसमें क्या खास बात है। नारदजी खोज-खबर लाने के लिए  तीनों लोक में भ्रमण करते ही रहते है।

तुलसीदास जैसे गहरे सोच में पड़ते हुए गंभीर भाव से कहा- हाँ विप्रश्रेष्ठ वो तो ठीक है, लेकिन उन्होंने बताया है कि पृथ्वीलोक के मानव ने फिर से एक बार रघुबर के चरित्र का गुणगान करने के लिए एक गाथा की रचना की है..! 

बाल्मीकजी ने मुस्कुरा कर कहा - इसमें क्या खास है..?और.. हाँ... इस बात से आप इतने गंभीर क्यों है ? बल्कि आपको तो हर्ष होना चाहिए। आखिर आपके आराध्य मर्यादा पुरूषोत्तम राम का चरित्र है ही इतना विराट की मानव क्या खुद देवता भी  इस कथा को बार-बार रचना चाहते है। और आपने भी तो इसे कलयुग में रचा था, जबकि मैंने इसे त्रेता में पंक्तिबद्ध किया..!

यह सुनकर तुलसीदास और गंभीर हो गए और बाल्मीकजी से कहा-मुनिवर बात वो नही है, बल्कि बात ये है कि इनकी गाथा का रूपांतरण उन्होंने  निकृष्ट रूप से किया है और सभी पात्रों का एक प्रकार मूल चरित्र ही बदल दिया है।

बाल्मीकजी कुछ उत्सुक होते हुए पूछे-अच्छा कैसे..?

तुलसीदास जी ने कहा- महर्षि उन्होंने रावण के साथ जो किया सो किया, लेकिन उन्होंने हनुमान को भी नही छोड़ा। इनके हनुमान एक संवाद में कहते है-जो हमारी बहनों को छेड़ेगा ,उसकी हम लंका लगा देंगे..! कहिए मुनिवर भला महावीरजी इस प्रकार से संवाद बोल सकते है..!

बाल्मीकजी मुस्कुराकर बोले- अरे गोस्वामीजी ,हनुमानजी बोलना चाह रहे होंगे कि-"उनकी हम लंका जला देंगे"..! अब आपको तो पता ही है कि पृथ्वीलोक में समय कुछ ज्यादा तेज है, जल्दी-जल्दी में बोल गए होंगे..! भावना पर ध्यान दे। 

          इस बात को सुनकर गोस्वामीजी का आवेश कम नही हुआ और बोले- हमारे राम के मूल स्वरूप को बदलकर बिल्कुल आक्रमक ही बना दिया..!

बाल्मीक जी पुनः शांत रूप से तुलसीदास की ओर देखकर कहा-आप नाहक आवेश में है, मैंने बताया न जिस भूखंड पर राम अवतरित हुए, वहां आजकल थोड़ी आक्रमकता का वेग ज्यादा है..! अब बेचारा कथाकार ऐसे आक्रमक रावण से मुकाबला करने के लिए राम को थोड़ा आक्रमक ही बना दिये तो क्या है..!वैसे राम के क्रोध का तो आपको भी ज्ञात है न..! समुद्र से राह मांगने...! इससे पहले वाल्मीकिजी और कुछ कहते तुलसीदास ने कहा- हाँ मुनिवर वो तो मुझे भी स्मरण है..!लेकिन महर्षि रावण भी तो श्रेष्ठ कद-काठी का था,आपने ही बताया है..!

बाल्मीकजी पुनः मुस्कुरा कर बोले- शायद मानव को लगा होगा की हर वर्ष पृथ्वी पर रावण के जलने से वो काला हो गया होगा और जलने से केश विन्यास तो बदल ही जाते है..! अब उनको इतनी फुरसत तो है नही की वो मुझे, आपको या किसी अन्य को पढ़कर यह जाने और समझे..! 

गोस्वामीजी को संतोष नही हो रहा जैसे, उन्होंने फिर पूछा- लेकिन मुनि सीतामाता तो चूड़ामणि ही हनुमानजी को देती है न और ये चूड़ी दिखा रहे है..!

तब हंसते हुए बाल्मीकजी ने कहा--अरे गोस्वामीजी अब जब इन्होंने कभी चूड़ामणि देखा ही नही तो क्या जानेंगे..? बल्कि नारदजी यह बता रहे थे कि जब पटकथाकार इसपर चर्चा कर रहे थे तो उनका कहना था कि हमने गलती से "चूड़ी" पर "ई" की मात्रा डालना भूल गए..! इसलिए यह "चूड़िमनी" की जगह "चूड़ामणि" हो गया..!पृथ्वीलोक का यह सारा वृतांत मुझे भी ज्ञात है..! नारदजी मुझे भी बताने आये थे..! यह सुनते ही  तुलसीदासजी जैसे कुछ चौंक गए..!

बाल्मीकजी बोलना जारी रखे-  भावना पवित्र हो तो शब्द कभी मर्यादा भी लांघ जाए तो कोई बात नही..! देखिए आपके मानस कथा में भी हनुमानजी उपस्थित रहते है और यहां भी कथाकार ने बिल्कुल हनुमानजी को देखने के लिए एक आसन रिजर्व कर दिया है। आप नाहक परेशान मत होइए..!हनुमानजी सब देख रहे है..!उनको जैसे ही लगेगा उनके प्रभु का निरादर हो रहा है..! तो हनुमान खुद ही "उन सबकी लंका लगा देंगे" जाओ आप चिंतित न हो..! 

   अरे किसकी लंका लगाने की बात कर रहे है आप..! श्रीमती जी की आवाज कान में गूंजी ..!अभी फ़िल्म देखा नही तब ये हाल है, देखने पर क्या होगा..! उठिए भी अब सुबह हो गया..!

Monday, 2 November 2020

जंगल-राज.....

 मैं "जंगल-राज" का पैरोकार हूँ...नही इसको ऐसे कह सकते है किसी भी राज्य में जंगल का पैरोकार हूँ...! जो जंगल के हितैषी नही है ..हमे पता है वो पर्यावरण के कितने बड़े दुश्मन है । अब किसी राज्य में जंगल लगाने के लिए पर्यावरण पर अलग से सरकारी धन का दुरुपयोग हो ...यह तो ठीक नही ...तो फिर...उस राज्य को जंगल मे तब्दील कर देने से सरकारी खजाने का भी भला होगा। वैसे भी जो जंगल से निर्मोही है ...वो तो  पूंजीपति के स्नेही ही माने जाते है । तो फिर वो क्यो चाहेंगे कि किसी भी राज में जंगल हो..। आखिर जंगल काट-काट कर इन्होंने ये हाल कर दिया है कि बीच-बीच मे हस्तिनापुर से फरमान जारी होता रहता है की इतने पेड़ लगाओ. ..  उतने पेड़ लगाओ...। अब हम जहां है वहाँ जमीन हो ...तब न पेड़ लगाए , लेकिन "कागज की किस्ती" जब मंझधार से निकल सकती है तो कागज पर वृक्षारोपण भी हो जाता  है।

      अगर राज में सचमुच के जंगल हो तो ऐसी समस्याओं से हमारा पाला नही पड़ेगा। अब जंगल होगी तो थोड़ी बहुत समस्याएं तो होगी ही....। कभी भालू तो कभी लकड़बघ्घा का भय स्वभाविक है। लेकिन फायदे भी तो कितने है.....बिना मेहनत के जंगल मे फल तोड़ो और खा लो...जंगल मे रोटी-रोजगार दोनों मौजूद होते है बस हौसला और पारखी नजर चाहिए...।  

          और जिन्हें जंगल से भय लगता है ...वो शहर का रुख तो कर ही लेते है। देखिए जहां जंगल नही है वहां कैसे सांस बंधक बने हुए है ...और दोष पड़ोसी पर डाल देते। लेकिन हस्तिनापुर को तो शुरू से ही दृष्टि दोष है।

           बात बराबर की है....अगर जंगल नही है तो आपकी सांसे बंधक हो सकती है और अगर जंगल हो जाये तो आप बंधक हो सकते है... ।तो फिर आपको "जंगल-युक्त" राज चाहिए या फिर आप "जंगल-मुक्त" राज के पक्षधर है.... फैसला आपका है...आपको क्या चाहिए..?

           नोट:- इस बातो का बिहार चुनाव से कोई संबंध नही है.....।

Friday, 29 May 2020

बदलते तराने..कोरोना डायरी

                  कोरोना काल ने दिन-प्रतिदिन चित्रहार और रंगोली की तरह लोगो के मन विभिन्न रागों के कई तान छेड़े और न जाने कितने रंग भरे है। लॉक-डाउन -1की शुरुआत से पहले ही हम थाली, घण्टा-घड़ियाल और शंख नाद से मोहित हो रखे थे और लगा ये कुछ दिनों की ही बात है।  तो लॉक-डाउन-1 के शुरू-शुरू में बॉबी फ़िल्म का ये गाना गूंजने लगा-
हम-तुम एक कमरे में बंद हो
और चाभी गुम हो जाये।।
            यहाँ चाभी गुम तो नही हुए लेकिन दरवाजे बंद तो हो गए। बंद दरवाजा भला कब तक अच्छा लगता।अब दिनों के बढ़ते कारवें उस रस की मधुरता को सोखने लगा। तो अब युगल स्वर लहरी खिड़कियों के झरोखे से तैर कर बाहर गूंजने लगा -
चलो इक बार फिर से
अजनबी बन जाएं हम दोनों ,
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से।।

         अब तक दिन लॉक-डाउन 2 और 3 के सफर पर निकल गया तो दिल कुछ और गमगीन भी हो चला।किन्तु इसी बीच अर्थव्यवस्था की दवाई हेतु दारू की दुकान खुल गई फिर जैसे ये धुन गूंजने लगा-चार बोतल वोडका ,काम मेरा रोज का तो किसी ने ये राग छेड़ दिया- लोग कहते है मैं शराबी हूं...।
          तो फिर जिनके लिए इन बीच दो जून के खाने नही नसीब हुए होंगे ,वो तो भगवान और इंसान को रह-रह कर ऐसे ही कोसते होंगे-
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
की कितना बदल गया इंसान।।

         गिरते-पड़ते कदम अगर दिन काटने में सक्षम दिखे तो खैर चल रहे होंगे, लेकिन जिनकी तस्वीर भयावह हो वो भला आहे भरकर कुछ यही गुनगुना रहे होंगे-
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।।

                 इस लंबे सफर के बाद फिर कुछ कुछ खुले और कुछ -कुछ बंद सा लॉक-डाउन 4 का ताला लटका दिया गया।टीवी पर प्रवासी मजदूरों की बदहाल तस्वीर रह-रह कर टीआर पी के साथ होड़ में लग गए। व्यवस्था से निराश और हताश,जिनका सबसे भरोसा टूट गया वो पलायन की व्यथा शायद फ़िल्म "भरोसा" के इसी पंक्तियों से जाहिर कर विरहा रूप में ही गया रहे होंगे -
" इस भरी दुनिया में, कोई भी हमारा न हुआ
 गैर तो गैर हैं, अपनों का भी सहारा न हुआ ।

         इस बीच  इंद्रप्रस्थ के सिंघासन से बंधे सेवक  जो खुश होकर कोरोना के चिराग से निकले जिन्न की दरियादिली समझ रहे थे और लॉक डाउन में छुट्टी के दिन में घिरने से खुशी में  फ़िल्म हेरा-फेरी का ये गाना बार-बार गाते होंगे-
देने वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के
किती किती कितना, किती किती कितना
दिक् ताना, दिक् ताना, तिकना तिकना ।।
 
              अब जैसे-जैसे तस्वीर साफ हो रही है की खाते से सारे छुटी की सफाई की योजना बन रही है शायद लगे कि सही में उनके साथ हेरा-फेरी हो गया । तो शायद बस ये गुनगुना सकते है-
हमसे क्या भूल हुई जो ये सजा हमको मिली
अब तो चारो ही तरफ बंद है दुनिया की गली।।

      किन्तु इस बीच-बीच मे कही कोरोना भी जैसे रह-रहकर  गुनगुना रहा है-
 तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा।।

    और इसकी रफ्तार को देख कर यही लग रहा है कि ये सिर्फ गुनगुना नही रहा है। बल्कि तेजी के साथ चल भी रहा है।
इसलिए संभव है तो बंद रहे सुरक्षित रहे...बाकी आपकी मर्जी..।। क्योंकि ये कोरोना काल अभी कौन-कौन से राग और रंग से मिलाएगा..कहना मुश्किल है..?

Wednesday, 19 February 2020

दौरा...एक राष्ट्राध्यक्ष का

सभी शोर मचाने में लगे है। न भारत कि ऐतिहासिक गौरव का मन मे कोई भान है और न ही अपनी सदियों पुरानी "अथिति देवो  भव" की आदर्श को अपने स्मृति में सहेज कर रखा है।जब दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से मिलता है तो स्वागत संभवतः ऐसा ही होता है। पैसे आते जाते है लेकिन ऐसे-ऐसे राष्ट्राध्यक्ष रोज-रोज कोई थोड़े ही देश मे पधारते है। जो उनके लिए बजट की चिंता की जाय। ये सिर्फ नई दीवार की तर्कसंगतता को ढूंढने में लगे है। जबकि हमे मालूम है वो दुनिया का सबसे विकसित और शक्तिशाली देश है।
         जब ओसामा को पाकिस्तान उसकी नजरो से छिपा नही सका तो बाकी चीजे तो वो खुद जान जाएगा। वो बेशक जान जाए लेकिन हमें क्या दिखाना है ,इसका तो पता हमे होना चाहिए। फिर जो नही दिखाना चाहते उसके लिए तो दीवार खड़ी करनी ही होगी।
           जब देश के अंदर बिना ईट के ही कितने दीवार खड़े है, गिनती करना मुश्किल है।फिर एक ईंट की दीवार खड़ी हो गई तो क्या फर्क पड़ता है।
          स्वागत के लिये राह पर पलके बिछा कर रखे। अनावश्यक भैहे को तान उठती दीवारों पर नजर न डाले। आंखों में खराबी आने को संभावना हो सकती है।।

Saturday, 18 January 2020

मुद्दें.....

                        मुद्दों में मुद्दा इतना ही है कि देश मे मुद्दों की कमी नही है। हम तो इसी मुद्दों पर लड़ रहे थे। अब ये भी कोई बात है कि आप मुद्दों का ट्रैक ही चेंज कर दे। किसी दौड़ में अगर कोई अपना लेन बदल देता है तो उसे डिसक्वालिफाई कर देते है। अब यहाँ सरकार की कोई नैतिकता ही नही है। मुद्दों का पूरा ट्रेक बदल दिया। आखिर देश में अब तक गरीबी हटाओ, बेरोजगारी भगाओ, भ्रष्टाचार मिटाओ, महगाई डायन मारो और पिछले कुछ वर्षों से राम मंदिर बनाना है, पाकिस्तान को सीखना है, इस मुद्दों पर ही चुनाव होता आया है।अब आपने ये क्या उसमे एन आर सी, सी ए ए जैसे मुद्दों को जबरदस्ती घुसा दिया है।अब यार भोली जनता पर भी रहम करो। आखिर जनता का टास्क तो बढ़ गया। इस तरह  अगर मुद्दों की फेहरिस्त बढ़ती जाएगी तो जो जनता पहले से मुद्दों के बोझ तले दबे हुए है,वो और भार कैसे उठाएंगे..?इसलिए तो हम साफ-साफ कह रहे है कि ये जो नए मुद्दे आपने भोली-भाली जनता के ऊपर एन आर सी और सी ए ए का डाल दिया है। उसे वापस ले ले। हम वही पुराने सास्वत मुद्दे को ही रहने दे। आखिर सरकार ही तो बनाना है, बाकी तो देश पहले भी चल रहे थे और आगे भी चलेंगे।लेकिन जो सरकार मुद्दों की सास्वतता को जड़ से मिटाने का प्रयास करे तो वो जनता के साथ सही में अन्याय करती है। पुराने मुद्दों के खत्म होने से नए मुद्दों को ढूंढना भी तो एक दुरुह काम है और फिर उसके बारे में जनता को बताना तो उससे भी कठिन। फिर बेचारी भोली-भाली जनता आखिर अपने दिनचर्या में ऐसे दबा हुआ है। फिर वो कैसे समय निकाल कर इन नए मुद्दों पर अपनी राय को कायम करे । बेशक भ्रष्टाचार कुछ कम होने की खबर हो और राम मंदिर भी न्यायालय द्वारा सुलझ गए हो। फिर भी पुराने मुद्दे कई है, आप ये नए मुद्दे उछाल कर, पार्टी तो गोते लगा ही रही है, जनता को क्यो उछालने में लगे हो...?

Friday, 10 January 2020

नई धुन

संघर्ष शायद बुद्धिमानो के बीच ज्यादा होता है।जब "एक्स्ट्रा इंटेलीजेंसिया" से दिमाग कुपोषित हो जाता है तो मस्तिष्क का झुकाव "दर्शन" से विरक्त होकर "प्रदर्शन" की ओर आसक्त हो जाता है।वैसे भी आपकी बौद्धिकता तभी लोगो को आकर्षित करती है, जब आप "जरा हट के" कुछ कहते है। फिर नामचीन विश्वविद्यालय के प्रांगण में सिर्फ सामान्य कौतूहल ही जगे तो फिर ",रिसर्च" के लिए और कोई बिना प्रांगण वाले कॉलेजों के आंगन को क्यों न "सर्च" किया जाय ? खैर...कुछ दिनों से लोक और तंत्र दोनों से अलग जाकर जो मंत्र पढ़-पढ़ कर ये देश को जगाने में लगे हुए है, उससे कौन-कौन उत्साहित है और कितनो के अंदर मुरझाई जोश में आशा के नए कोंपल प्रस्फुटित है. ये तो समय बताएगा । वैसे शायद जनता तो ज्यादातर अर्धनिन्द्र में ही रहती है ?

          लगता है अब ये  छात्र राष्ट्रकवि दिनकर के इन पंक्तियों से ज्यादा प्रभावित है--  
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार 
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार,
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।।

    अब ये तलवार न सही हाथों में हॉकी स्टिक, लाठी या रॉड के भरोसे "विचारो" की "नई-धारा" के सूत्रपात के लिए प्रयत्नशील है। इनकी इस कर्मठता और ध्येय के प्रति जिजीविषा वाकई सराहनीय है। ज्ञान के अर्जन और परिमार्जन में अगर कुछ सरकारी संपत्ति नष्ट भी हो जाये तो उसके लिए व्यथित और चिंतित नही होना चाहिए। क्योंकि इससे "बुद्धि-जीवी" के अंदर का जीव थोड़ा कुंठित होकर काटने को आतुर हो सकते है। 

    अब हम तो इस इंतजार में बैठे है कि ये सपेरा अब अपनी तुम्बे में से कौन सा "साँप" निकालेगा और लोग बिना बीन के ही उसे देख-देख कर नागिन डांस करके जमीन पर लोट-पोट होकर जनता को जगाने में लग जाएंगे।

Sunday, 5 May 2019

राजनीति और सेवा

            चुनाव का मौसम है  नेताजी हर चौक-चौराहे पर मिल जाते है।तो आज एक नेताजी से मुलाकात हो गई। नेता जी काफी आश्वस्त लग रहे थे। मुस्कुराते हुए एक नुक्कड़ पर बैठे थे..अब चर्चा चाय पर थी या न्याय पर कह नही सकते ..लेकिन थोड़ी बहुत चर्चा शुरू हो गई।अब चुनाव है तो चर्चा राजनीति की ही होगी...लेकिन मेरे द्वारा एक दो बार राजनीति शब्द का प्रयोग करते ही थोड़ा गंभीर हो गए और छूटते ही कहने लगे- आप व्यर्थ में राजनीति  ...राजनोति शब्द को दुहराए जा रहे है।
देखिये सारी बात "राज" से शुरू होती है और "राज" पर ही खत्म होती है। बाकी रही नीति की बाते तो वो तो बनती और बिगड़ती रहती है। जनता के काम आई तो नीति और नही आई तो अनीति, बहुत सीधी बात है। इसलिए चुनाव में हम राजनीति करने के लिए खड़े नही होते बल्कि सिर्फ राज करने के लिए। आश्चर्य से उनका मुँह ताकते हुए कहा तो फिर क्या आप जनता की सेवा के लिए वोट नही मांग रहे है और  फिर राजनीतिक पार्टियां क्यो कहते है? नेताजी थोड़े ईमानदार है सो फिर थोड़े गंभीरता से बोलने लगे-
  देखिये शब्दो मे उलझने से निहितार्थ नही निकलते..। अब आपने राजनीति की कौन सी परिभाषा पढ़ा है ये तो आप जाने लेकिन मुझे तो ये दो परिभाषा ही पता है-
           लासवेल के अनुसार- ‘‘राजनीति  का अभीष्ट  है कि कौन क्या कब और कैसे प्राप्त करता है।’’  या फिर
           रॉबर्ट ए. डहन कहते हैं- ‘‘किसी भी राजनीति व्यवस्था में शक्ति, शासन अथवा सत्ता का बड़ा महत्व है।’’ 
             ये दोनों बड़े विद्वान रहे है। दोनों के परिभाषा में कही सेवा का कोई जिक्र है क्या..? और आप जो बार-बार राजनीति-राजनीति रट  लगा रखे है न उसमे भी राज्य है..और राज्य होगा तो राजा होगा ही न...औऱ राजा होगा तो राज ही करेगा। सेवा करना है तो मंदिर के पुजारी बन जाये या किसी धर्म के धर्म गुरु और भगवान कि सेवा करे। इंसान तो कर्म करने के लिए ही पैदा हुआ ।आप न जाने कहाँ से सेवा ले लाये ...? मैं कोई राजनीति शास्त्र तो पढ़ा नही है। इसपर कुछ बोला नही। नेताजी बोलना जारी रखे और कहने लगे -तभी तो तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहा है -  "  कोउ नृप होई हमै का हानि " ऐसे ही तो नही कहा होगा न। कुछ न कुछ सोच कर ही लिखा होगा...और एक आप है कि सेवा...सेवा की रट लगा रखे है।
मतलब ये पार्टिया जनता की सेवा के लिए नही बल्कि राज करने के तैयार होता है..?
ही...ही...ही..उन्होंने दांत निपोर कर कहाँ- आप भी बड़े भोले है। राज-भाव और सेवा-भाव में आपको कोई समानता दिखता है? क्या ये दोनों आपको समानार्थी शब्द दिखते है।
मैने कहा - हां.. समानार्थी तो शायद नही है।
               नेताजी ने फिर कहा- तो फिर  राजनीति में आप सेवा को क्यो जबरदस्ती घुसेड़ रहे है...?चुनाव सिर्फ राज पाने के लिए ही लड़े जाते है। उसमें नीति, अनीति, विनती, मनौती,फिरौती ये सब उसको प्राप्त करने के निमित मात्र हैं। अंतिम ध्येय तो राज करना ही है।
लेकिन हम तो समझते थे नेता लोग तो सेवा करने राजनीति करने आते है।
नेताजी ने कहा कि अच्छा आप क्या करते है..?
मैंने कहा- सरकारी नौकरी में हूं।
तो नेताजी ने कहा हमलोग भी यही समझते है कि सरकारी नौकरी में भी लोग सेवा करने आते है...लेकिन हमें तो ऐसा नही लगा।
           अब नेताजी थेडे सीरियस हो गए-कहने लगे देखिये आजकल लोग अपने माँ-बाप की सेवा बिना स्वार्थ के नही करते। रिश्तेदार और आस पड़ोस को जरूरत पड़ने पर मुँह चुराकर निकल लेते। तो नेता कोई मंगल ग्रह से आते है भाई। वो भी आपकी तरह यही से है। अब कुछ लोग सरकारी नौकरी ढूंढते है तो हम जैसे कुछ अपनी नौकरी राजनीति में ढूंढते है..आपको तो बस बार  परीक्षा पास करना होता है और हमे हर पांच साल में पर्चा देना पड़ता हौ। बस फर्क इतना ही है और कुछ नही...समझे कि नही..??ही..ही...ही..।।

Monday, 5 March 2018

लोकतंत्र और सरकार


           ऐसा करना क्या ठीक रहेगा ? जनता हमारे बारे में क्या धरना बनाएगी?
            क्यों ...ऐसा क्यों सोच रहे हो? यही तो तुमलोगो में कमी है। हमेशा सकारात्मक सोचो। जैसा सोचोगे वैसा ही होगा। 
             लेकिन हमें तो जनता ने वोट नहीं दिया न ...।
           तो क्या यहाँ कोई वोट से सरकार बनता है। सीट चाहिए सीट....। और जो जीत आये है वो हमारे साथ आ रहे है तो इसमें हम क्या करे? देखो दो राज्यो में हमने जनता का दिल जीता और एक में जीते हुए उम्मीदवार का दिल जीत लिया...इसमें क्या गलत है। 
              किन्तु ये तो लोकतंत्र का मजाक उड़ाना हुआ न...।
देखो तुम ज्यादा सोच रहे हो ....लोक और तंत्र दो अलग अलग बाते है। तुम्हे पता है दोनों को क्यों एक साथ मिला कर लोकतंत्र क्यों बना है? ताकि जब लोक है तो तंत्र की फीलिंग न हो और जब तंत्र काम करने लगे तो लोक की फीलिंग न हो। इसलिए जब अभी हमारा तंत्र काम कर रहा है तो लोक की फीलिंग का ज्यादा ध्यान नहीं देना है। 
               देखो उनको उनके साथ कितने लोक है लेकिन उनका तंत्र ठीक काम नहीं कर रहा है। तभी तो सरकार बनाने से चूक रहे है।अब ये तो भावनाओ का ख्याल भी रखना पड़ता है नहीं तो बेचारी जनता दुबारा चुनाव की चक्की में पिसेगी या नहीं। हम जनता के हित के सुभेक्षु है...तभी तो ये सब कर रहे है।
       हाँ ...सो तो है....।
               तो फिर इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देना है कि जनता ने किसे वोट दिया है। बल्कि इस पर ध्यान रखना है कि सरकार कैसे बनाया जाय। बिलकुल अर्जुन जैसे चिड़िया की आँख को लक्ष्य करता है वैसे ही हम कुर्सी पर नजर रखते है।
 तुम नए कार्यकर्त्ता के साथ यही समस्या है। तुमलोग अपना फोकस साफ़ नहीं रखते । अरे भाई अब जनता को इतना फुर्सत है कि वो आके देखे किसे किसे वोट दिया है और कौन सरकार बना रहा है। इस बेचारे जनता पर इतना बोझ डालना ठीक नहीं। जब सार्वजानिक जीवन में आये हो तो कुछ तो जनता का तुम ख्याल रखो। बेचारी जनता ऐसे ही कितने उलझनों में घिरी रहती है..। और एक तुम हो की उसपर सरकार तक बनाने की बोझ डालना चाहते । बेचारे ने वोट दे दिया ये क्या कम है...। 
                और ध्यान रखो जब जनता की सेवा के लिए आये हो तो हमेशा सकारात्मक सोचो। ये देखो जो इतने दिनों तक सरकार में रहने के बाद अपनी आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाया वो जनता की आर्थिक स्थिति क्या खाक सुधरेगा। इसलिए हम पहले इस राज्य में जो भी जीत कर आये है उनकी स्थिति में सुधार लाएंगे और उनकी स्थिति जब सुधरेगी तो राज्य की स्थिति सुधरेगी और फिर देश....। है कि नहीं....।
               देखो...तुम्हे तो पता ही है पढ़ा होगा अभी अपना लोकतंत्र पूरा "मैच्युर" नहीं हुआ है। हम तो ऐसा लोकतंत्र बनाना चाहते है जहाँ "लोक" ऐसा बना दो जो "तंत्र" के बारे न सोचें या फिर "तंत्र" ऐसा कर दो जो "लोक" को सोचने ही न दे...समझे न..।
           वो अपने नेता के दूरदर्शीपन को देख थोड़ा आश्चर्यचकित और कुछ कुछ दिग्भ्रमित लग रहा है। आखिर राजनीति के क्षेत्र में इसी चुनाव में जो पाँव रखा है।

Thursday, 17 November 2016

धन -धर्म- संकट


                     धर्म संकट बड़ी है। विवेकशील होने के दम्भ भरु या तुच्छ मानवीय गुणों से युक्त होने की वेवशी को दिखाऊ। रोजमर्रा कि जरुरत से तीन पांच होने में सामने खड़े मशीन पर निर्जीव होने का तोहमत लगा  उसे कोसे या उस जड़ से आश करने के लिए खुद पर तंज करे समझ नहीं आ रहा। भविष्य के सब्ज बाग़ में कितने फूलो की खुसबू बिखरेगी उस रमणीय कल्पना पर ये भीड़ अब भारी सा लग रहा  है।इतिहास लिखने के स्याही में अपने भी पसीने घुलने की ख़ुशी को अनुभव कर हाथ खुद ब खुद कपाल पर जम आते लवण शील द्रव्य के आहुति हेतु पहुँच जाता है। इस हवन में किसका क्या स्वहा होता है और किस-किस की आहुति यह तो पता नहीं। लेकिन इस  मंथन में हो रही गरलपान खुद में कभी -कभी शिवत्व का अनुभव करा रहा है।साथ ही साथ मन चिंतित भी हो रहा है की राहु केतु  वेष बदल क्रम तोड़ शायद अमृतपान कर निकल न जाए और बाकी सब तांडव देखते रहे। तब तक कैश के दम तोड़ने की उद्घोषणा हो जाता है और फिर आशावादी इतिहास में अपने योगदान के लिये हम अपने आपको तैयार करते। 
                   किन्तु इस घटनाक्रम में बेचारा काला रंग कुछ ज्यादा ही काला हो गया है।कुछ ही काले ऐसे है जिसके प्रति अनुराग स्वतः मन को अनुनादित करता है। इस अनुराग को भी जो भी कारण हो किन्तु इसे विद्रूपता बताया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं की इससे रंग भेद के आंदोलन को बड़ा धक्का लगा है। किसी भी बहाने हो अंतर्मन में इसके प्रति अनुराग को लोग बेसक छिपा कर रखे किन्तु पाने की व्यग्रता और अपनाने के लिए सिद्धान्तों में दर्शन की प्रचुर उपलब्धता से स्वयं को संतुष्ट करने में कौन चुकता है पता नहीं। नहीं तो क्या कारण है कि बिना करवाई के हम करवाई करना ही नहीं चाहते।  किन्तु धौर्य ने अपने धौर्य पर काबू कर रखा है। कुछ इन सब चिंताओं से मुक्त होकर इसी लाइन में लगे -लगे महाप्रस्थान कर गए। अर्थ के लाइन में लगकर अनर्थ के शिकार हुए के बलिदान की गाथा नव उदय इतिहास में अवश्य अंकित होगा। गुलाबी रंग पाने की अभिलाषा वातावरण को गुलाब की खुसबू से सुगन्धित कर रखा है। ऐसे मौके जीवन में कभी कभी आते जहाँ आप साबित कर सकते की आप एकांकी नहीं है और अपने इतर समाज और देश  के बारे में भी  सोचते है।  ऐतिहासिक घटनाओ के उथलपुथल में अपना योगदान देना चाहते है। ऐसा मौका जाने न दे और इस पक्ष या उस पक्ष किसी के भी साथ रहे आपके योगदान को रेखांकित अवश्य किया जाएगा। किन्तु फिर भी इस शारीरिक कवायद में शामिल होकर फिलहाल यह परख ले की इस जदोजहद में खड़े होने की क्षमता है या नहीं। नहीं तो इस मशीन के द्वारा त्याज्य अवशेष का विशेष उपभोग नहीं कर पाएंगे। 
                         किन्तु नहीं कुछ होने से कुछ का होते रहना आशावादी मन को कल्पनाओ के रंग से रंगने में बेहतर होता है। उस पर आप काले रंग की कूँची अन्य रंगों के साथ चला सकते है ,इसमें शायद परेशानी नहीं होगी। साथ ही साथ अर्थ के अनर्थ तथा अनर्थ से अर्थ के तलाश में यात्रा हेतु यायावर रूप धर कब तक बुद्धत्व कि प्राप्ति में मशीन रूपी वट वृक्ष के दर्शन होंगे यह देखना बाकी है।

Monday, 17 October 2016

डाकिया दाल लाया .......

                         
                            प्रसन्न होने के लिए हर समय वाजिब कारण हो ऐसा तो जरुरी नहीं  है। खुशियो के प्रकार का कोई अंत नहीं है। बीतते पल बदलते रूपो में नए नए कलेवर के साथ खुद को आनंददित करने के नए -नए बहाने देते रहते है। बसर्ते आप उसको पहचानने की क्षमता रखे। फिर वो बाते जो बचपन में उसको एक झलक देखकर अंतर्मन को आनद से झंकृत करने की सम्भावना जगाता रहा उस मृतप्राय  अहसास के पुनः पल्लवित होने कि  सम्भावना वाकई सुखद लगता है।  बात आप सभी के लिए भी बराबर ही है। 
                           गुजरे दौर में इस देश समाज में जिस सरकारी कर्मचारी ने अपनी उपयोगिता का प्रत्यक्ष अहसास सभी को कराया वो डाकिया ही था। कक्षा दसवी तक न जाने इसकी भूमिका ख़ुशी और अवसाद के पलों पर उसका प्रभाव विभिन्न परीक्षाओ में विभिन्न तरह से कितनी बार वर्णित हुआ होगा इसका लेखा जोखा शायद मिले। हिंदी फिल्मो में इसका चित्रण और गीतों का दर्शन संभवतः कितना है कहना मुश्किल है। डाकिये का पराभव समाज के बदलते स्वरूप और भागते समय के साथ कही पीछे छूट सा गया और बिखरते सामजिक परिदृश्य में यह भी कही खो गया।  जब आधार स्तम्भ ही डगमगा गए तो संरचना का टिकना तो मुश्किल ही है।कभी समाज में हर तबके के लोगो के आँखों का तारा डाकिया ,जिसको देखते ही लोगो के मन अनायास ही कितने सपने सजों  लेते और साईकिल जब घर के पास न रूकती तो अपनों के बेरुखीपन को भी डाकिये का करतूत समझ लेते। फिर भी जल्द अगली बार फिर से उसका इन्तजार रहता। आज वही डाक विभाग एक उपेक्षित और असहाय सा गांव और शहर के किसी कोने में अपने वजूद से लड़ता दिखाई पर जाता है। आखिर अब इतना समय किसके पास है की एक खत के लिए सुनी अँखियों से उसकी राह निहारते रहे। जबकि बेसक अब भी दिन में चैबीस घंटे क्यों न हो।  
                           इतिहास से सबक लेने वाले लोग विवेकशील ही माने जाते है और प्याज ने कितने को रुलाया कि उसकी आह से सरकार चल बसी। इससे सबक हो या कुछ और  किन्तु लगता है अब डाकघर और डाकिये के अच्छे दिन आने वाले है। आज ही समाचारपत्र में देखा है कि अब सरकार डाक घर के माध्यम से दाल बेचने वाली है।आखिर जब दाल रोटी भी नसीब  होना दुश्वार होने लगे तो कुछ न कुछ क्रांतिकारी कदम तो उठाना ही पड़ेगा। विश्व की महाशक्ति से होड़ लेने की ख्वाहिश  पालते देश के नागरिक दाल से वंचित रहे। ये देश के कर्ता -धर्ता को आखिर कैसे शोभा देगा। व्याप्त अपवित्रता की जड़ो को पवित्र करने के लिए आखिर पहले ही  गंगा कि अविरल धारा तो डाक घरो के दहलीज तक पहुच ही चूका था। अब दाल कि खदबदाहट भी आपको डाकघर पर सुनाई और दिखाई देगा। चाहे तो आप गंगा जल के साथ ही साथ दाल भी खरीद ले ताकि अगर दाल में कुछ काले की सम्भावना नजर आये तो गंगा जल छिड़क कर उस सम्भावना को ख़ारिज कर सकते है। अब गलती से अगर डाकिया दिख जाए तो जो की सम्भावना कम है आप अपने दाल की एडवांस बुकिंग करवा ले। क्योंकि अगर डाक बाबू के नियत में खोट आ जाये तो कुछ भी संभव है। आने वाले समय में और उम्मीदे पाल सकते है की पर्व त्योहारों पर आप सीधे मनीआर्डर में दाल और अन्य उपलब्ध सामान भेजना चाहे तो भेज  सकते है। साथ ही साथ आज के भी बच्चों को डाकिया और डाकघर की उपयोगिता का पता चल जाएगा। बेसक उनके लिए हो सकता है फिर से डाकिये ऊपर निबंध आ जाए।  ऐसा भी नहीं है की यह करने से सिनेमा या संगीत की रचनाशीलता में कोई कमी आ जाएगा बल्कि उसमे नए आयामों की सम्भावना और बलबती होगा। किन्तु जब तक गीतकार कोई नया गीत नहीं रचते आप बेसक यह गुनगुना सकते है - डाकिया दाल लाया ,डाकिया दाल लाया  ....... । खुश होने के बहाने तलाशिये तनाव तो  हर जगह मुफ्त उपलब्ध है।

Wednesday, 31 August 2016

दिल्ली और बारिश

                       
                                 क्या आप दिल्ली में रहते है ? हम तो खैर नहीं है फिलहाल वहा। तो फिर आपको दिल्ली की बारिश रुलाई या आपने रास्तो पर पटे पानी के सैलाब को स्विमिंग रोड समझ उसको पार करते  समय इंग्लिश चैनल पर विजय की खुशफहमी का अहसास किया, अगर नहीं है तो उसे कोसने की जगह नगरपालिका का शुक्रिया अदा करे और इसका आनंद ले । इन रोड पर बहते धार को देखकर भावुक होने से बचे। लगता है अपने लोगो में भावुकता की कमी हो गई है तभी तो मीडिया हमें भावुक होने के बहाने देता और खुद भी भावुक हो जाता है। पहले पत्रकारिता में भावुकता कम तथष्टता ज्यादा होता था किन्तु समय कि मांग ने लगता है कुछ प्रभाव बदल दिया है ।असहिष्णुता का राग अलापते-अलापते ये खुद कही असहिष्णु तो नहीं हुए जा रहे है। ये तो हमारे सांस्कृतिक उद्घोषणा है की हम आलोचना को अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील औजार समझते है। तभी तो कबीर ने कहा -"निंदक नियरे    राखिये " और हम है की सबके सब पीछे ही पर गए। 
                              अब ऐसा भी क्या कह दिया।  बहुत छोटा सो सवाल तो पूछा ,आखिर जब दिल्ली के रोड पानी से तृप्त हो तो भला ये जानने में कोई गुनाह तो नहीं है की आखिर पहुचने के लिए और कौन से साधन लिए गए,रोड पर कार और नाव एक साथ हो इससे सुन्दर दृश्य और क्या होगा? उन्होंने तो अगर देखा जाय तो भरतीय छात्रों के अंदर किसी भी कार्य को पूरा करने की जिजीविषा को सलाम किया। और हम है की उनकी आलोचना समझ बैठे है। लगे हाथ हमने अपने सरकारों को भी कोसना शुरु कर दिया। लेकिन हम भूल रहे है की हमारे यहाँ हर साल रूप बदल-बदल कर ये सैलाब कही न कही आता ही रहता है। कही के सड़क जाम हो जाते तो कही के कही पूरा क्षेत्र ही कट जाता। इन सबसे नीति-नियंता वाकिफ है। अब अगर वो दिल्ली को दुरुस्त कर दे फिर हम दिल्ली के बाहर वाले ही कहना शुरू कर देंगे कि हमारे साथ भेद-भाव किया जा रहा है। आखिर ऐसी परिस्थिति के दिल्ली में उत्तपन्न होने के बाद ही बाकियों का दुख-दर्द समझा जा सकता है। नहीं तो उड़न  खटोला पर बैठ का इन स्थितियों का जायजा लेने जाना पड़ता है। इससे सरकारी खजाना पर बोझ पड़ता वो अलग। दिल्ली का ये सब नजारा सरकारी धन का दुरूपयोग रोकने में मददगार है हम ऐसा क्यों नहीं सोच सकते। ताज्जुब है। हमें भी ख़ुशी होती है जब सबको एक प्रकार से देखा जाता है। और रही दिल्ली की सुंदरता की बात तो यह सिर्फ राजधानी है और हम है कि दिल्ली को "राजरानी" समझने लगे है। दिल्ली सभी को मोहती है स्वभाविक रूप से विश्व के अन्य गणमान्य भी दिल्ली के इस सुदरतम नज़ारे का आनंद लेने आ सकते है। पर्यटन विभाग को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। 
                      ऐसे मीडिया भी तो दिल्ली में बारिश न हो तब समाचार और बारिश हो जाए तो समाचार। वो तो नगरपालिका से लेकर मंत्री तक खुश होंगे की अपना मीडिया देश की आलोचना सुनना नहीं पसंद नहीं करता , नहीं तो जवाव देते या न देते कैमरा तो पीछे-पीछे तो आता ही। हम है की विश्व की महाशक्ति को अपनी तकलीफ सुना-सुना कर करार पर करार करने में लगे है ऐतिहासिक दस्तावेज की किताब मोटी होती जा रही है। अब जब अगर आप ऐसा समझते है की यह आलोचना है तो हमें तो खुश होना चाहिए की दिल्ली की इस समस्या को विश्व के महाशक्ति ने अगर खुद संबोधित किया है तो इस पर भी एक करार कर ही लेगा ताकि दिल्ली को इससे निजात मिल सके। इस पक्ष को देखने में क्या बुराई है।  बाकी जो इन सैलाब में घिरे है वो चैनलो पर ये दिल्ली जैसे निम्न कोटि का सैलाब कितना देखे। 

Saturday, 24 May 2014

सब भरा-भरा है----

ये तो पूरा भरा है . . . 
                   हाँ अब हमें भी पता चल गया है। सब कुछ भरा -भरा सा ही है। अभी तक नैराश्य भाव से ग्रसित था मैं और पहली बार पता चला की अरे गिलास तो आधा नहीं पूरा ही भरा है। आधा पानी से और आधा हवा से। इस दर्शन ने सब कुछ देखने और समझने की शक्ति में जैसे अकस्मात  परिवर्तन कर दिया । मैं अब दुखी हूँ उन लोगो के लिए जो इस दर्शन से अपने आपको आत्मसात नहीं कर पाये है। अचानक लगता है जैसे कितना कुछ बदल गया है। कल तक इन विभिन्न विकास के आकड़ो पर नजर डालता तो देश की शासन व्यवस्था पर मन में सवालिया प्रश्न  हिचकोले लगाने लगते। वंचितो के समूह का तात्कालिक दायित्व से इतर सभी कुछ  संचितो के लिए विशेष रूप से किया जा रहा है ऐसा ही लगता था।किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन सा हो गया है। अभी तक के सरकार को कोसने के सिवा और कोई भी रचनात्मक सोच मन में नहीं उठते थे। किन्तु अब सभी पूर्व सरकारों के पूर्वाग्रह से मैं अपने-आपको मुक्त महसूस करने लगा हूँ। मन कितना हल्का सा लगने लगा है। 
             अब देश के अंदर निरक्षर और साक्षर से लगता है लोग बस खेल रहे है। आखिर ये समझ में क्यों नहीं आ रहा है की देश की ७०% जनता का मस्तिष्क यदि किताबो के पन्नो से भरा हुआ है तो बाकि बचे हुए जनता ने किताबी पन्नो से इतर प्रत्येक दिन के जद्दो-जहद भरी विषय के पुस्तक और आखर इन मस्तिष्क में बिठा रखे है। किताबी ज्ञान से भरी जीवन  से बेहतर है सांसारिक ज्ञान को जीवन में उतारा जाय। क्या  बेमतलब के प्रश्नचिन्ह कुछ लोगो ने अपनी शिक्षा व्यवस्था खड़ा कर रखा है? इन आकड़ो को अब बदलना चाहिए। हम सौ फीसदी साक्षर है कुछ किताबो में छपे अक्षरो से और कुछ जीवन के घिसने से बने अक्षरो से। इन फलसपों को पता नहीं पूर्ववर्ती सरकार क्यों नहीं समझ सके। आने वाला कल पता नहीं गरीबी रेखा के नीचे रहने वालो के साथ कौन सा दर्शन  पेस करे। आधी रोटी से पूरी रोटी तक पहुंकते-पहुँचते पिछले सरकार के कितने सांसद संसद के दहलीज छोड़ जाने कहा पहुंच गए। किन्तु अब तो आधी रोटी के लिए बेचैन लोगो को वो भी मिलेगा या नहीं ये कहना दुश्वर है। कही ये धारणा  योजनागत रूप न ले बैठे की जिनका पेट रोटी से नहीं भरा हुआ है उसमे अंतरियाँ  और हवा तो भरे  है। फिर रोटी कि क्या आवश्यकता है ?
         समस्या कही कुछ नहीं है। बस नजरिया ही एक समस्या है। दर्शन जीवन का अंग है। इससे रूबरू होते ही कितनी छोटी-बड़ी समस्या अपने -आप दूर हो जाती है। इसका अनुभव अब मुझे होने लगा है। सब जस के तस होने के वावजूद भी फिजा में लगता है रूमानी ख्याल तैरने लगे  है। हम भी इसमें डूबने-उतरने लगे है।  अपने वृहत अध्यात्म और दर्शन के ज्ञान-कोष पर संदेह हो रहा है। ऐसे तो पढा नहीं है।  किन्तु मुझे दुःख बस इस बात का है कि जीवन दर्शनयुक्त  ये गूढ़ बाते अभी तक किसी मास्टर ने क्यों नहीं समझाया।   गंगा की सफाई के लिए तो नए प्रोजेक्ट बन जायेगे किन्तु मैल से पटे दिमाग को स्वच्छ करने के लिए कौन से आयोग का गठन किया जाएगा ये देखना अभी बाकी है। जो समस्या में समस्या नहीं बल्कि उसका हल देखे। काश आधा भरे ग्लास में आधा हवा कॉंग्रेस ने देखा  होता तो शायद आज ऐसी दुर्गति न होती। किन्तु अब लगता है उन्हें भी सब सही दिखने लगा है।अगर नहीं तो कोई नया नजरिया पेश करे। 

Thursday, 15 May 2014

अच्छे दिन आने वाले है

काफी जल्दी में लग रहा था।  उसने दीवार के कोने में किल में टंगी कुर्ते को उतरा।  जिसके बाजू और धर के बीच बने फासले जिंदगी में उसके स्थिति को बांया कर रहे थे। बनियान में गर्मी के हिसाब से हवा आने जाने के लिए अपना रास्ता पहले ही बना रखा था। उसकी पत्नी वही बगल में बैठी दिन भर पेट में जलने वाली आग को बुझाने के लिए डब्बे में जाने क्या कौन सी जलधारा ढूंढ़  रही थी।घर के छत से आसमान झांक रहा था।
आज सुबह -सुबह कहाँ की तैयारी है ? पत्नी ने पूछा 
अरे कुछ पता भी है तुम्हे बस सवाल ही पूछोगी  और तो दिन दुनिया कि कोई खबर नहीं …। आँखों में कुछ अजीब चमक आ गया  था।
आखिर ऐसा क्या हो गया है ? उसके दिनचर्या में अचानक बदलाव को वो समझ नहीं पा  रही थी।
अरे हमारा गमछा कहाँ है। लगभग खिजते  हुए पूछा
बौरा गए हो क्या ? खांसते हुए पलट कर बोली काँधे पे ही तो रखे हो।
वो लगभग झेप कर बोला ठीक बोलती हो लगता है मैं  भी अब सठिया गया हूँ।
लेकिन बात आखिर किया है अब कुछ बोलोगे भी आखिर इतने सुबह-सुबह जा कहाँ रहे हो।
आज दिन के लिए चावल भी नहीं है ,दिन में किया बनेगा ?बेवसी उसके चेहरे पे झलक रही थी।
सब हो जाएगा अब हर दिन एक जैसा थोरे ही होता है। आँखों में विश्वास की परिछाई उभर आई थी।
किन्तु आखिर ऐसा क्या होने जा रहा है ?बीते कल की बेबसी  बातो में ज्यादा थी।
ऐसा मत सोचो इसबार कुछ तो बदलेगा।  उत्साह उसके बातो में झलक रहा था।
सालो से ऐसे ही सुन रही हूँ। क्या इसबार कोई भानुमति का पिटारा मिल गया है जो सुबह -सुबह चल  दिए हो।
कुछ ऐसा ही सोचो। उसने विश्वास दिलाने के लहजे में कहा।
अरे देख नहीं रहे हो सब उधर ही जा रहे है।
आखिर किधर ?
तुम तो बस इसी चूल्हा में उलझी रहो तो का पता चलेगा।
उसके पत्नी के चेहरे पर अविश्वसनीय भाव उभर आये।
उत्सुकता से  पूछी -क्या इस चूल्हे की उलझन को कोई सुलझा दिया है ?
बिलकुल ठीक समझी ----वही तो लाने जा रहा हूँ।
अच्छे दिन आने वाले है शायद वहां कुछ हमें भी मिल जाय। आवाज में सुन्दर भविष्य की खनक थी।
और  उसके बातों से पत्नी के चेहरे पर बेवसी पूर्ण मुस्कान उभर आये, नासमझ तो नहीं है आखिर इतने सालो से तो उसके साथ है ।  

Thursday, 27 March 2014

ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते ..

हर उलझन को ये सुलझा दे 
और सब कुछ है फिर उलझा दे 
बड़े-बड़े वादों से आगे अब 
हर चौक पे होर्डिंग लगवा दे। 
नए-नए ब्रांडो की लहरे 
थोक भाव में बेच रहे है  
जनता क्या सरकार चुने अब 
देश नहीं सिर्फ बाजार पड़े है। 
गांधी जी के बन्दर भांति 
आमजन बैठे-बैठे है 
मूड पढ़े कैसे अब कोई 
न कुछ देखे न ही सुने है। 
वोटर सब नारायण बनकर  
हवाई सिंघासन पर लेटें है 
दोनों हाथ उठे है लेकिन 
मुठ्ठी बंद किये ऐंठे  है। 
लोभ ,लालच प्रपंच में कितने 
रुई कि भांति नोट उड़े है 
सेवक सेवा कि खातिर अब 
कैसे-कैसे तर्क गढ़े है।  
बेसक कल लूट जाये नैया 
लगा दांव सब पड़े अड़े है 
आश निराश के ऊपर उठ कर 
द्वारे-द्वारे भटक फिर रहे है। 
किसकी किस्मत कौन है बदले 
आने वाला कल कहेगा 
जो करते सेवा का  दावा 
कितने सेवक वहाँ लगेगा। 
मंथर चक्र क्रमिक परिवर्तन 
सब पार्टी में अद्भुत गठबंधन 
तुम जाओ अब हम आ जाते 
ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते। 

Saturday, 1 March 2014

बदलाव की बयार

                                 वक्त वाकई काफी ताकतवर होता है। इसमें किसी को कोई शक संदेह नहीं।जनता को भी वक्त, क्रमिक चक्र कि भाँति घूम -घूम कर प्रत्येक पांच साल बाद  अपने  आपको याचक नहीं बल्कि दाता के रूप में देखने का सौभाग्य देता है।  जहाँ जनता की ताज पोशी जनार्दन के रूप में की  जाती है। अपने भाग्य को कोसने वाले ओरों की तक़दीर बदलने को तैयार है। अभी आने वाले कुछ महीने में न जाने किनका किनका वक्त बदलने वाला है। पश्चिम वाले कहते है पूर्व कि ओर देखो और अपने यहाँ लोग गाँव कि ओर देख रहे है। गाँव से हमें कितना प्यार है ये तो इसी से जाहिर होता है कि अभी तक हमने बहुत सारे बदलाव उसमे गुंजाईश के बाद भी नहीं होने दिया।  हमारे गावों में  समझदार बसते है,बेसक शिक्षितों में वो इजाफा न हुआ जो कि कागज़ को काला कर सके । उनके समझदारी के ऊपर बड़े -बड़े बुद्धूजीवी भी हतप्रभ रह जाते है। दिमाग नहीं दिल से फैसला देते है। गाँव की  उर्वरक मिट्टी पोषित कर सभी के ह्रदय को विशाल बना देता है। इसलिए छोटी -छोटी बातों पर  गाँव वाले  दिमाग कि जगह   दिल को  तव्वजो देते है।बाकी जो  शहर से  आते है पता नहीं ? बुद्धिजीवी लोग रहते  है  जो हमेशा दिमाग की  ही सुनते है। 
                          युवा वर्ग उभर रहा है ,ये देश कि ओर और देश इनकी ओर निहार रहा है बीच में बैठे देश चलाने वाले दोनों  की ओर निहार रहे है। स्वाभाविक रूप से दोनों को एक साथ निहारना कठिन काम है। दोनों ही क्षुब्ध है। लेकिन मनाने का प्रयास चल रहा है। कुछ ही दिनों में दोनों  की तकदीर बदलने वाली है। टकटकी लगाये ये बदलाव कि बयार को कलमबद्ध करने वाले ज्यादा से ज्यादा संख्या में इस काम के लिए  नियुक्तियां से प्रतिनियुक्तियां किये जा रहे। आखिर हर व्यपार का आपना-अपना मौसम होता है। अब देश  की  जनता जागरूक हो गई है। देखिये अब सीधे मैदान में आ खड़े हुए है। जनता ही लड़ती है और जनता ही लड़ाती है। ये तो अपनी -अपनी किस्मत है कि किसके लिए जनता लड़ती है और किसको जनता लड़ाती है। भाग्य बदलने कि ताबीज सभी ने अपने अपने हाथों में ले रखे है। अब गला इन ताबीज के लिए कौन -कौन बढता है ये तो आने वाला समय ही बतायेगा।
                             देश के  सीमा की रक्षा करते -करते फिर भी मन में संदेह रह गया ,समझने में थोड़ी देरी अवश्य हुई किन्तु अब ज्ञात है कि अंदर ही ज्यादा ताकतवर दुश्मन बैठे है ,देखना है कि कैसे अब इनसे लोहा लिया जाता है। अनेकता में एकता है और एकता में भी अनेकता है ये मिसाल हम सदियों से देते आये है ,बस अब पुनः एक बार दोहराना है। इन दोनों से जिनका चरित्र मेल नहीं खाता है उनका अलग रहना ही ठीक है। उदार मन के स्वामी तो हम सदैव से ही रहे है ये तो अपनी धरोहर  है माफ़ी मांगने और माफ़ी देने की उदार /अनुदार सांस्कृतक विरासत को आखिर विशाल ह्रदय के स्वामी ही आलिंगन कर सकते है। बेसक कुछ लोग पेट कि अंतड़ियां गलने से काल के गाल में समां गए तो उसपर आखिर किसका  वश होगा। "होई है ओहि जो राम रची राखा " इन बातों से हमें शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। 
                            आखिर हमने एक नये सुबह का सपना देखा है जहाँ घडी के साइरन बजते ही घर में जल रहे लालटेन कि लौ बुझा कर , कुल्हड़ में चाय पीने के बाद ,हल-बैल को छोड़ जो अभी भी बहुत कम लोगो के पास है ,रिक्शे और साईकिल  पर सवार होकर हाथों में झाड़ू लेकर देश कि हर गंदगी को साफ़ करते हुए बढ़ते जाए ,क्या सुन्दर दृश्य होगा जो इन स्वच्छ राहो पर जण -गण हाथी पर सवार हो हशियाँ -हथोड़ी के साथ काम पर एक नए भारत के निर्माण के लिए निकले  और रास्ते के किनारे -किनारे कीचड़ में उदय हो  रहे कमल नयनाभिराम दृश्य का सृजन कर रहे हो। बदलाव की  बयार है कही सपना हकीकत न बन जाए।      

Monday, 16 December 2013

मेरा गाँव और भूत का बसेरा

                     भूत बाल्यकाल से आकर्षित करता रहा है। देखने की जिजीविषा  उतनी  ही उत्कट होती थी  जितना की आज-कल दिल्ली के लोगो को दिल्ली में सरकार को देखने के लिए है।कुछ पत्रिकाओ में गल्प कथाये प्रकाशित होती थी,वैसे अभी भी होती है।जिसका विशेष रूचि के साथ अनवरत अध्यन होता था। कहानियो की अंतहीन श्रंखला वो देखने और सुनने की अभिलाषा संभवतः इन तथाकथिक बौधिक पुस्तको  में लगता तो ..?...तो पता नहीं क्या ?  भूत का अस्तित्व नहीं होता ,क्या विद्यालय की  किताबो में मन लगाने से भूतो की महिमा कम हो जाती ? शायद मन लगाने से कुछ विशेष उपाधी  मिल जाता   और उसी उपाधी को आधार बना कर  भूतो की तार्किक ब्याख्या करने  का प्रयास करता। पढ़ने वाले भी उसे किसी बुद्धिजीवी का लेख मान  उसपर कोई टिप्पणी  कर देते या कुछ नए विश्लेषण कर हमारे  भी दिल की उत्सुकता  को शांत करने में सहयोग देते। खैर ऐसा कुछ हुआ ही नहीं तो उसकी चर्चा क्यों  ? चलिए  बात मै  भूतो की कर रहा था।भूत के विषय में जो भी सीमित जानकारी था उसके ग्रहण का ज्यादा  स्रोत उपनिषद के अवधारणा की  तरह  श्रवण विधि ही था। भूत वो जो बीत गया ,भूत वो जिसकी आत्मा बेवक्त साथ छोड़ गया, भूत वो जो आकस्मात  भगवान को प्यारे हो गए।उस तनय उम्र में यमराज  से  संशय  के वावजूद उनके प्लानिंग पर संदेह उठ ही जाता था जैसे अभी सरकार के प्लानिंग को लेकर मन में सन्देह रहता है।आकस्मिक अवकाश  की तरह यमराज  भी आकस्मिक लोगो को क्यों बुलाते है ? लगता है जैसे राजनीति कब कौन से गड़े  मुद्दे उखाड़ दे वैसे ही पता नहीं यमराज के दूत  भी कब किसको गाड़ दे।
                  उन दिनों  गाँव  में भूतो का काफी सम्मान था। उनके अस्तित्व पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं था। बेसक दिन के उजाले में कोई नजर न आता हो किन्तु रात्रि काल के उसके कारनामे की चर्चा  दिन भर होती थी जैसे आजकल केजरीवाल के द्वारा दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर हो रही है। कभी-कभी स्कूल के  कक्षा में भी व्याकरण के पढाई के दौरान कालो कि व्याख्या के साथ ही सब कुछ भूल कर भूतकाल के भूतों पर ध्यान चला जाता था। फिर मास्टरजी कि गिध्ध  दृष्टि में कैद होने के बाद ही वर्तमान  में आगमन हो पाता  था।  भगवान्  श्रीकृषण ने गीता में कैसे कहा की सभी मुझसे ही इस संसार में आते है और पुनः मुझमे ही समां जाते।किन्तु वो कौन सी आत्मा भटक कर भूत बन जाते है पता नहीं।लेकिन कक्षा में लेख लिखने के दौरान जब इस तथ्य को घोषित करता की देश कि आत्मा  गाँवो  में निवास करती है, तो भूतों का आवास फिर कहाँ होगा इस पर लेश मात्र भी संदेह नहीं था। 
                 उस समय भूतो का निवास  गाँव  के बाहर  डबरे के किसी किनारे पेडो के ऊपर हुआ करता था। शायद भूतो के सोसाईटी में कोठी पीपल का पेड़ हो,इसलिए ज्यादा भूत आशियाने के रूप में पीपल का पेड़ पसंद करते। क्योंकि ज्यादा से ज्यादा  भूत पीपल के ऊपर ही होते है ऐसा कहा जाता था। हमें उस समय तो समझ में नहीं आता कि  भूत का निवास  गाँव  के अंदर क्यों नहीं होता ,वो इंसानो से इतनी नफरत क्यों करते कि इतनी दूर जा बसते है ? जबकि हमारे घर के पीछे का बागान उनके लिए उपयुक्त था ऐसा हमें लगता था ,फिर सोचता कि इंसानी दुनिया से मुक्त होने के बाद वो पुनः कुसंगति में नहीं पड़ना चाहते होंगे।   उन्मुक्त बालपन गाँवो की गोधुली की बेला,उस वक्त बेफिक्र आनंद उत्सव का समय , घर के अन्दर रहने की बंदिश से मुक्त । बाहर चौकड़ी में हुरदंग की  सामाजिक स्वीकार्यता। उधम -चोकड़ी के बाद आराम का पल ,सांसो को अपने वेग को  यथावत लाने के लिए उबड़ -खाबड़ मेड़ो पर बैठ सुस्ताने  की प्रक्रिया। जैसे -जैसे रात की सुगबुगाहट होती सूरज के अनुचर चुपके-चुपके छुपना शुरु कर देते।कुछ-कुछ अहसास  होता सूरज की अनगिनत किरणे  भले गर्मी दिखाए मगर रात का अँधेरा भी कम ताकतवर नहीं है जो  सढ़क-सढ़क के इनपर अपना कब्ज़ा जमा ही लेते है और सूरज देवता ठन्डे हो निंद्रा मग्न हो जाते।अतिबल शाली सूरज  को हनुमान जी के साथ इन अंधेरो से भी डर लगता ही होगा। इन बातो से कुछ खास मतलब तो थी नहीं, ध्येय  भूतो के दर्शन का होता।
                     हमारे  गाँव   में उस समय तक एडिसन का प्रताप नहीं छाया था। लालटेन और डिबरी का साम्राज्य शाम  होते ही दिखने लगता किन्तु ये रौशनी चाहरदीवारी को भेदने में सक्षम नहीं थी,विकास के तमाम दावो के बाद आज भी  वक्त वे वक्त के लिए  भरोसा उस पर  कायम है।गरीबी  कि तरह डिबरी कि चिंगारी बदसूरत जल रही है। शायद कुछ लोगो के लिए ये  विलुप्तप्राय अविष्कार की श्रेणी में भी हो कुछ कह नहीं सकते। घर के सदस्य इन्ही डिबरी के  चिरागों से स्याह घूँघट में लिपटी दिवा रानी के स्वागत की तैयारी में  लगे होते थे उस विशेष काल को हम भूतो  के दर्शन लीला के उपयोगी अनुपयोगी तत्व , संभावित खतरे ,अच्छे और बुड़े ,हानिप्रद या हितकारी,होनी - अनहोनी,उसके आतंक  इत्यादि गाव की देहरी पर होने वाली रामचरितमानस के वाचन की तरह  चर्चा में  मशगुल होते।कल्पनाओं की असीमित दुनिया,समय-समय पर भूत लगने की सुचना ,उसके झांड़ -फुक की जीवंत दृश्य  एक अलग ही सृष्टि  का सृजन करता था। भूत उजाले में  पेंट सर्ट में क्यों नहीं होते इसकी जिज्ञासा अनावश्यक  रूप से भी कभी नहीं हुआ।सफ़ेद साड़ी  ,लम्बे बाल , उलटी पैड ,इन सबने मन मस्तिष्क पर भूत के रेखाचित्र का अनोखा अभेद्य आकृति उकेड़ रखा था,पुरुष भूत कि जानकारी निम्न थी । खैर हमें मतलब भूतो से था न की उसके लिंग से।अच्छा है वरना  भूतो में भी समलैंगिकता को लेकर बहस  शुरू हो जाता। 
                    अपलक निहारते ,उन चौकड़ी के बीच गाँव   की अंतिम सरहद जहा से शाम के बाद उस लक्छ्मन रेखा को लांघना अनेक अनजाने संभावित खतरे को अमंत्रीत  कर सकता था।  अतः हिदायत सख्त थी किसी भी परिस्थिति में बिना बड़े बुजुर्ग की संगति के उधर का रुख नहीं करे।अब हम कोई छुई-मुई तो थे नहीं की हमें चेतावनी की बात छू पाते  और घर में सिकुड़ जाते बालपन का मन जिसके लिए मना  करो उसको करने की उत्सुकता ज्यादा होती है, मगर  इन चेतावनी ने  सही कहे तो जाने- अनजाने डर ही भूतो से विशेष लगाव का कारण बना । तुलसीदास जी ने तो कह दिया भय बिन होहु ना प्रीति । खैर  अभी भी लगता है की ज्यदातर आदेश भय के ऊपर ही ग्रहण किया जाता है।जहा इसकी आशंका नहीं हो वह लोग किसी बात को मानने के बजाय  उसे बदहजमी समझ  कर आदेशो का कई कर देते है।
                     गाँव का सरहद शाम के बाद भारत पाकिस्तान के सरहद से भी ज्यादा संवेदनशील हो जाता था। उस समय तक घर के चाहरदीवारी के भीतर शौचालय को प्रवेश नहीं दिया गया था। सभी लोगो सूर्यास्त के साथ साथ ही बाधो -जंगलो में नित्य क्रिया  कर आते थे की रात अँधेरे में कही उधर का रुख न करना पड़े।आजकल खैर ये सुविधा लगभग  सभी को उपलब्ध है। हम भारतीय रेल के समय सारणी की तरह विलम्ब से घर का रुख करते।  परिवार के और सदस्य रोज की दिनचर्या में मशगुल हो किन्तु ध्यान अवश्य  रहता था की हम उस लक्छमन रेखा की उलंघन करने का दुसाहस तो नहीं कर रहे।किन्तु जैसे पुलिस के मुस्तैद रहने के बावजूद भी आतंकी घुस आते है वैसे ही तमाम मुस्तैदी के बावजूद हम भी भूतो के मुहल्लो के सरहद तक जा पहुचते। 
                    काफी दिनों से से हमारा कार्यक्रम पूरा नहीं हो पा रहा था। बिलकुल बीस सूत्री  कार्यक्रम कि तरह। किन्तु हम कोई सरकार तो थे नहीं कि कोई नया कार्यक्रम बनाते। भूतों  को देखने के कार्यक्रम पर हमारा ध्येय अडिग था जैसे अण्णा  जन लोकपाल से लेकर अब लोकपाल पर अडिग है । जिस तरह सी बी आई जांच में छेड़ -छाड़ की  बात लिक होने पर मंत्री महोदय को बाहर जाना पड़ा , हमारे इस कार्यक्रम कि बात लिक हो जाने के कारण कुछ मित्रो ने अपने घर के दबाव में इससे बाहर रहना ही उचित समझा। किन्तु हमकुछ साथी भूतो के दर्शन से मिलने वाले भविष्य के पुण्य लाभ से अपना लोभ संवर नहीं कर सके। लक्ष्य मछली कि आँख कि तरह साफ़ था। आज अमावस्या थी इसकी जानकारी स्वतः हो गई ,कोई विशेष  पुस्तक का अध्यन नहीं करना पड़ा। एकादशी ,संक्रांति ये दैनिक जानकारी कि चीज थी उस समय,, खैर अब ये सब पता नहीं चलता। क्योंकि अब थोड़े से आधुनिक हो गए है। सभी अपने -अपने घर से तैयार हो के निकले थे। मुझे भी पता था कि आज बाबूजी कोई विशेष काम से गाँव से बाहर है ,उनके आने तक हम अपने इस अभियान में सफल हो ही जायेंगे। माँ को विश्वास में लेना हमेशा  कि तरह बहुत ही आसान काम था सो हो गया। शाम के बाद लोगो कि आवाजाही गाँव में कम हो जाती  थी  तथा जिनसे थोडा बहुत खतरे का डर था उनके ऊपर हमने अपना खुफया पुलिस  लगा ही रखा था। जनतांत्रिक व्यवस्था कि जड़ काफी पुरातन कालीन है अपने देश में बाकी तो शहर  के विस्तार में कुछ सिमट गए,शहर में तो लोग सिर्फ वोट देते है , लेकिन  गाँव में राजनीति हवा में घुलती है सो हमें उसका पता था,किनको कैसे वश में करना है ।  
                         गर्म अमावस्या कि रात ,हवा के तेज झोंको से निकलने वाली सरसराहट कि आवाज उदेश्य में सफल होने के रोमांच के साथ-साथ अंदर का डर  चेहरे पर पौष कि रात का सर्द परत सा उभर रहा था। हम हर कोई अपने अंदर के डर को सहेज कर रखने के प्रयास करते तथा दूसरे के चेहरे कि हवाइयों पर मुस्कुराने कि कोशिश करते,जैसे चुनावी हार के बाद नेता जनता के सामने मुस्कुराते । गाँव से बाहर आकर जो अंतिम रास्ता नहीं पगडण्डी कहेंगे उससे आगे बढ़ने कि हिम्मत दिल्ली में बी जे पी जैसे सरकार बानाने कि नहीं कि वैसे ही हम भी नहीं कर पाये। वैसे वो पगडंडी बेचारी अभी भी अपने -आपको रास्ते में तब्दील होने कि बाँट जोह रही है। उसी पगडण्डी के किनारे खेत के मेड़ पर हमने दिल्ली के जंतर-मंतर में धरने कि तरह बैठ गये। डर  एकता के लिए कितना जरुरी है पहली बार मुझे ज्ञात हुआ। किसी ने कोई विरोध नहीं किया और सबने वहीँ रुकने का निश्चय किया। भूतो के प्रकोपों का हमें बिलकुल समसामियक जानकारी थी। जैसे ही हम बैठे कि एक के मुह से तेज चींख निकला  और एक ने बिना समय गवाएं उसके मुँह को दबा दिया। उसकी चीखे अंदर घुट कर दम तोड़ दिया। वो मेड़ो के अरहर के कटे जड़ो से अनजान लग रहा था। क्योंकि खेतो के अलावा उसके मेड़ो पर भी अरहर बो देते है जो कि फागुन के बाद काट लिया जाता है। वो  गाँव में रहते हुए भी इन तथ्यो से अनजान था बिलकुल वैसे जैसे  राहुल गांधी राजनीति में रहते हुए राजनीति से अंजान  लगते है। इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा और बाकी हम समझ बैठे कि भूत महराज ने उसे प्रथम दर्शन दिया और वो खुशी से चीखा है। हमने हमेशा कि तरह यहाँ भी पीछे रहने के कारण अपने भाग्य को कोसा। किन्तु वास्तविक तथ्य को जानकार उसके दुःख से भी एक संतोष का ही अनुभव किया ,साथ-ही साथ उसके अल्प ज्ञान के लिये उसके  कुपित दृष्टि भी आरोपित किया ,पता नहीं क्यों?
                                 दम साधे हम बैठ गए। शांति ऐसे जैसे किसी कि शोक सभा में बैठे हो। जुगनू का प्रकाश भी अँधेरे में हौसला देने में सक्षम है पहली बार उसको महसूस किया। झींगुर कि खनकती आवाज और   उसके  मधुर संगीत के  आनंद पर अंदर बैठा डर बार -बार चोट कर रहा था। एक घंटे का समय हमने जैसे-तैसे काटा बीच -बीच में दूर पीपल के हवा के संग निकलती चिंगारी को देख भूत के उद्भव का अनुमान लगाने के साथ ही हनुमान चालीसा उलटी-सुलटी चौपाई  भी बुदबुदाने लगते ,तेज आवाज में किसी को सुन जाने कि शंका समाहित थी। आँख स्वतः बंद हो जाते उसमे हनुमान जी के लिए श्रद्धाभाव था या भूतो का डर भाव ये निश्चित नहीं कह सकते। आँखे खोलने में भी  ताकत लगता है इसका  भी एहसास उस समय हुआ जब सभी एक दुसरो को हाथ-से हाथ दबा कर इसका निश्चय किया कि कब आँखे खोले। आँखे खोलने के बाद उसी रूप में सब कुछ कही भूत जैसी कोई आकृति के दर्शन नहीं ,मन में बिठाई आकृत कभी-कभी किसी को दिख पड़ता और घिघयाते हुए कहता जैसे कोई उसे चोरी करते पकड़ा हो और उसके देखने कि क्षमता पर सवाल उठा देते जैसे केजरीवाल सरकारी लोकपाल कि क्षमता पर सवाल उठाते है। हौसला हमारा धीरे -धीरे कम होता जा रहा था किन्तु कोई कहने को तैयार नहीं था ,सभी शीला दीक्षित कि तरह हार का इन्तजार कर रहे थे। पुरे बदन और कपडे धूल से संधि कर चुके थे ,अपने परिवेश के अभिन्न अंग होने के बावजूद वर्ण व्यवस्था कि तरह उससे दुरी बनाये रखने को बाध्य किया जाता था। खैर उतने ज्ञानी हो चुके थे कि भविष्य को ध्यान देकर कि कल माँ कौन-कौन से प्रश्नो के तीर बाबूजी के सामने छोड़ेंगी हमने अपना ध्यान पूरी तरह से भूत के ऊपर केंद्रित कर रखा था। उस समय सभी के कान सतर्क हो गए जैसे पहले चुनाव-परिणाम के बाद पार्टिओ के दल-बदल को लेकर हो जाते थे। एक स्याह परछाई सभी को लगभग दिखाई पड़ रहा था किसी को किसी के देखने इस   क्षमता  पर संदेह वैसे ही नहीं था जैसे कि अपने क्रिकेट टीम को अपने देश में जितने पर नहीं होता है। वो परछाई अब धीरे-धीरे नजदीक मेड़ो को तरफ आ रहा था ,जिस पीपल पर हमने नजर टिक रखा था अब नजर उधर से पलट गई , ओबामा अफगानिस्तान से नजर हटाते बिल्कुल वैसे ही। गर्भ में छिपे भ्रूण में जैसे बेटे कि चाहत होती है हमारे मन में भी वो भूत कि तरह ही पल रहा था और पल-पल निखरने लगा। परछाई ज्यादा काली होने लगी और आकृति ने आकार लेना शुरू कर दिया। अभी तक का ज्ञान धोखा दे रहा था श्वेत-धवल आकृति के जगह ये काली सी आकृति ,मन ने इसके लिए रात के अन्धकार को कोसा। अब हमने उस आकृति के पैरो पर अन्धेरे को चीरते हुए नजर जमाया और एक फुसफुसाया अरे इसके पाँव तो सीधे है। अब वो आकृति बिलकुल दस गज पर उससे पहले हम कुछ समझते तीन शेल वाले  टॉर्च का तेज प्रकाश आँखों के ऊपर छा गया। तेज प्रकाश आँखों को वैसे ही धोखा देती है ज्यादा ऑक्सीजन मछली को। कुछ देख पाते-समझ पाते उससे पहले जोरदार चांटा घुमा,धोनी कि हेलिकॉप्टर शॉट कि तरह। गेंदवाज की  तरह हमारे पास समझने को कुछ नहीं था। चांटे का दर्द कुछ पहली बड़ी धड़कन को थामने में कारगर रहा। दिल में तस्सल्ली हुई भूत आखिर नहीं है,लेकिन दूसरे शॉट की आशंका भाप हाथ खुद-ब-खुद गाल के बाउंड्री पर जा पंहुचा । बाबूजी आज जल्दी लौट आये जो कि अंदेशा न था। इतनी रात में यहाँ क्या हो रहा है -एक तेज आवाज गूंजी ? मैं कुछ समझ पाता और मित्रो से मदद की आश में नजर उठाता ,मै अंपने-आपको अकेला पाया ,बाकी तब तक भागने में सफल हो गए मेरे मित्र के भागने कि गति  बिलकुल ऑस्ट्रेलिया के चौदह वर्षीय धावक कि तरह तेज था या उससे भी ज्यादा इसे कहना मुश्किल है। भविष्य की आशंका को दिल में धारण कर एक हाथ से गाल को  संभाले कानून के प्राकृतिक सिद्धांत का उल्लंघन से द्रवित दूसरे गाल के विषय में सोचता हुआ उनके पीछे-पीछे घर कि ओर चल दिया। और भूतों के दर्शन का इस बार का हमारा प्रयास असफल हो गया।कल सुबह के होनी अनहोनी के लिए मन ही मन भगवान् पर आश्रित हो गया।                                     

Saturday, 14 December 2013

अपने-अपने पैमाने

                               हमने अपने-अपने तराजू बना रखे है। पैमाना भी सबका अपना -अपना है। मानव इतिहास को छोड़ अपने देश के  ही इतिहास कि बात करे तो बाकई हम अद्भुत दौर में है। ग्लोबल विश्व कि अवधारणा अब डी -ग्लोबलाइज की तरफ है या नहीं ये तो कहना मेरे लिए जरा  मुश्किल है किन्तु लगता है शासन व्यवस्था का विकेंद्रीकरण में अब ज्यादा समय नहीं है।  अब  कुछ लोगो के  समूह द्वारा  अपने अपने केंद्र में सभी को स्थापित कर अपने-अपने शासन को सुचारु रूप से चलाएंगे ,ऐसा सराहणीय  प्रयास जारी है में है। हर किसी को अधिकार चाहिए। लेकिन कौन किससे  मांग रहा है या कौन किसको देने कि स्थिति में है ये पूरा परिदृश्य साफ़ नहीं हो पा रहा है 
                               जनता को स्वक्छ शासन चाहिए था। सभी ने उनसे अपना वोट माँगा। दिलदार जनता दिल खोल के अपने वोटो का दान भी किया। किन्तु अभी भी कुछ लोगो को संदेह था कि वाकई में कौन ज्यादा स्वक्छ है ,सभी के अपने-अपने पैमाने जो है। दुर्भागयवश वोटो के दान दिए हुए जनता को अब अपने लिए सरकार कि मांग करनी पर रही है। सभी दिलदार हो गए सभी देने के लिए तैयार किन्तु शासन अपने हाथ में लेने को तैयार नहीं। वाकई भारतीय राजनीति का स्वर्ण युग। जनता कि सेवा के लिए सभी भावो से निर्लिप्त बुध्त्व कि ओर अग्रसर। अब देखना बाकी है कि मिल बाट  कर सेवा कर जनता को कुछ देते है या पुनः उनसे मांगने निकल पड़ते। 
                                  अभी तक अल्पसंख्यको से तो बस धर्म या जाती विशेष में ही बटें लोगो कि जानकारी थी। किन्तु अब एक नया वर्ग उभर कर आ गया। बस साथ -साथ रहने कि ही बातें तो कर रहे ?पता नहीं ये अनुच्छेद ३७७ क्या कहता है। सरकार के  मुखिया का दिल भी  द्रवित हुआ जा रहा है आखिर दकियानुसी लोगो के पैमाने पर इन्हे क्यों तौले । पता नहीं कानून बंनाने वाले इस धारणा  पर कैसे पहुचे होंगे कि ऐसे वर्ग अपनी पैठ बनाएगा जो इतने सालो पहले ही इसे अपराध घोषित कर दिया। प्रेम हर धारणा  को तोड़ सकता है ऐसी धारणा  क्यों नहीं कायम कर पाये। अवश्य पैमाने कि गडबडी है।ऐसे समय में जब मानव समुदाय में प्रेम बढ़ाने  की जरुरत है लोग प्रेम करने वाले को दूर करने में लगे है। 
                                   शायद लगभग  ३२  प्रतिशत से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय माप-दंड के अनुसार गरीबी देश में छाई है ,अपने राष्ट्रीय पैमाने पर ये आंकड़ा लगभग २९.८ प्रतिशत अपने खुद के बनाये रेखा से निचे है। इनका भी अपना वर्ग विशेष समूह है। इनको समय -समय पर सम्बोधित भी किया जाता है। कई बार रेखा को बढ़ाया जाता है तो कई बार उसे घटाया जाता है। आखिर सरकार भी क्या करे जब भी गरीबो क कम दिखने का प्रयास करती है ,गरीबो से प्यार करने वाले दल उनका आकड़ा कम नहीं होने देते। आखिर उनका भी अपना पैमाना है। 
                                ऐसे भी अब विशेष कोई समस्या इस देश में है नहीं। हर जगह उनको दूर करने का प्रयास हो ही रहा है ,किन्तु मिडिया मानने  को तैयार नहीं है और वो भी अपने बनाये पैमाने में उसे उछालते रहती है। आखिर उनका भी कोई वर्ग विशेष है। उनके भी अधिकार है।जनता जो सोई है आखिर उसे जगायेगा कौन ? 
                              फेहरिस्त लम्बी है आप भी अपने पैमाने पर उसे जांच ले  ताकी अपने अधिकार नाप सके। 

Saturday, 28 September 2013

इज्जत का जनाजा है ...


इज्जत का जनाजा है 
बेशर्म आसुं बहा बहा रहे है,
बहरों की बाराती में
देखों भोपूं पे कई गा रहे है। ।

कौन किससे अर्ज करे
हर हाथों में शिकायत का लिफाफा है,
जिनको बिठाया है गौर करे
रौशन नजर उनका कहीं जाया है। ।

खुशहाली को बयां कैसे न करे
गोदाम अनाजों से नहाया है,
कमबख्त अंतरियों को खुद गलाते  है
अब तक कार्ड नहीं बनाया है। ।

मानणीयोँ को मान देना न भूले
कभी कदम बहक जाते है,
जम्हुरिअत इनसे ही जवां है
वरना कौन इसमें कदम बढ़ाते है। ।

हर कोई खफा है इन झोको से 
ये लौ बहक न जाये कही ,
आशियाने जो बनाये है ख्वावो के 
पल भर में धधक न जाये कही। ।  

Sunday, 25 August 2013

स्वर्ग-नरक

                                                                                                                                                                                   (चित्र :गूगल साभार )


एक रोज सुबह -सुबह दरबार में,लाल-पीले यमराज ,
बोले अबतक क्यों नहीं आया,  चित्रगुप्त महराज।।

उनको बोलो जाकर जल्दी,सभी बही खता ले आएगा,
पृथ्वी लोकआयोग का फाइल जल्द यहाँ भेजवायेगा।।

कुछ दिनों से देख रहा हु, कुछ तो गड़बड़झाला है,
यमलोक के कामो पर अब  उगली उठने वाला है। । 

जिसने जो भी कर्म किये है वैसा ही उपदान करो ,
जैसे भी हो लंबित मामले जल्दी से निपटान करो।।

तब तक भागे-भागे पहुचे वहा चित्रगुप्त महराज,
भाव-भंगिमा चिंतित मुद्रा, बोले जय महराज।।

 बोले जय महराज गजब क्या अब घटना बोलू ,
नहीं मिल रहे फ़ाइल् अब क्या मुह मै खोलू।।

समझ कुछ नहीं आ रहा कैसे ये सब हो गया ,
मानव लोकआयोग का फ़ाइल् ही केवल खो गया।। 

थी नामे कई बड़ी मानव, जिस पर था इल्जाम बड़ा ,
कैसे उसने सेंध लगाया द्वारपाल था जब खड़ा ।।

लगता है लंबित मानव ने कोई नई  युक्ति लगाया 
दीमक से साठ-गांठ या द्वारपाल रिश्वत से मिलाया। ।  

यमराज की चडी त्योंरिया ,गरजे तब भरे  दरबार ,
कोई केस न लो मानव का लिख भेजो ब्रह्म के द्वार। 

पृथ्वी लोक के बाकी जीवात्मा वैसे ही चलेगा, 
मानव को करो वर्जित तब यमलोक बचेगा। । 

पृथ्वी लोक के आत्मा भी अब स्वक्छ नहीं रह पाता 
दूषित हवा पानी सब लेकर यहाँ संक्रमण फैलता।।

जिसका जो है कर्म का लेखा ,ब्रह्मा को सब भेजवाओ,
ले-लो साथ महेश का गण और वही सजा दिलवाओ। ।  

तब विश्वकर्मा ने  पृथ्वी पर ही  दोनों रूप बनाया , 
मानव अपने कर्मो का फल तब से यही है  पाया।।