कुरुक्षेत्र का मैदान ....युद्ध का दसवां दिन ...
विषाद की वायु से पूरा वातावरण रत्त । विधवा विलाप और पुत्र शोक संतप्त विलाप से कंपित सिसकारियां मातम और रूदन की प्रतिध्वनि संग एक क्षत्र पसर गया।आज के युद्ध के समापन की घोषणा हो चुकी है। क्या कौरव क्या पांडव सभी के रथ एक ही दिशा में भाग रहे है।रक्त और क्षत-विक्षत लाश ने कुरुक्षेत्र के मैदान पर अपना एकाधिकार कर रखा है। महापराक्रमी, महाधनुर्धर, परशुराम शिष्य, गंगापुत्र, देवव्रत भीष्म वाणों की शैया पर पड़े हुए है। कौरव के सेना का सेनापति यूँ लाचार और बेवस ...अब तक कुरुक्षेत्र का मैदान इनके गांडीव की कम्पन से दहल रहा था वो बलशाली असहाय सा....।भीष्म अब कौरव और पांडव के मिश्रित सेना से घिर चुके थे।
वाणों की शेष शैय्या पर इस रूप में भीष्म को देख दुर्योधन के चेहरे का क्रोध स्पष्ट परिलक्षित था। वह मन में भीष्म के घायल से जितना द्रवित नहीं है उससे ज्यादा भविष्य के पराजय की आहट का डर वह सशंकित था। यह भय क्रोध का रूप धर आँखों में उभर रहा है। पांडवों में संताप पितामह को लेकर स्पष्ट था, जहाँ अर्जुन का मन कर्मयोग और निजत्व मर्म को लेकर संघर्षरत्त दिख रहा ...वही बलशाली भीम भीष्म के इस रूप को देखकर सिर्फ अकुलाहट मिश्रित दुःख से अश्रुपूर्ण हो रखा था..तो धर्मराज युधिष्ठिर अब इस कालविजयी योद्धा से श्रेठ ज्ञान की कुछ याचना से चरणों में करबद्ध हो अपने आँखों के अश्रु की धार को रोक रखा है। नकुल सहदेव आम मानव जनित शोक के वशीभूत हो बस अपने अश्रुओं को निर्बाध रूप से बहने के लिए छोड़ रखा है।
भीष्म यदि वर्तमान है।तो बाकी कौरव दक्षिणायन में विवेक पर जम आये अहंकार और दुर्बुद्धि की परत । वही पांडव भविष्य का उत्तरायण जो इस हठी सिला को परास्त कर विवेक पर घिर आये तम की परिछाइयो को परास्त कर मानव के नैसर्गिक सौंदर्य को निखार कर लाने को युद्धरत। तभी तो नारायण नर रूप धर स्वयं रथ के सारथी का दायित्व ले लिया। देवकी नंदन भी वही भीष्म की इस अवस्था को देख भविष्य के गर्भ में छिपे भारत के अध्याय को जैसे खंगाल रहे है।
किन्तु अब युधिष्ठिर से नहीं रहा जा रहा। पितामह आखिर आप इस वाण शैय्या पर कब तक ऐसे पड़े रहेंगे। दोनों पक्ष के क्या ज्येष्ठ क्या अनुज क्या सभासद क्या आम जन ....सभी को भीष्म की पीड़ा ये दर्द ..ये कराह जैसे रह रह कर दिल को क्षत विक्षत कर रहा है। हर हाथ इस याचना में जुड़ रहे है कि कुरु श्रेष्ठ अपनी इच्छा मृत्यु के वरदान को अभी वरन कर ले। खुद को इस पीड़ा से मुक्त करे ।
किन्तु भीष्म ये जानते है कि इस जम्बूदीप पर अज्ञान का जो सूरज अभी दक्षिणायन में है, इस भूमी को इस रूप में असहाय छोड़ चल जाना तो उनके स्वाभिमान को शोभा नहीं देगा। कही आने वाले कल इतिहास में यह नहीं कहे की भीष्म ने हस्तिनापुर के सिंघासन से बंध कर जो प्रतिज्ञा लिया वो तो धारण कर निभा गए किन्तु भीष्म जैसे महाज्ञानी के अपने भी मानवोचित धर्म को निभाने हेतु जिस कर्तव्य और धर्म के मध्य जीवन भर संघर्षरत्त रहे उसके अंतिम अध्याय को अपने आँखों के सामने घटित होते देख सहम गए। वर्तमान का कष्ट भविष्य के उपहासपूर्ण अध्याय से ज्यादा कष्टकारी तो नहीं हो सकता। ये अंग पर बिंधे बाण नहीं बल्कि वर्तमान के घाव का शल्य है । भविष्य के अंग स्वस्थ हो तो इतना कष्ट तो सहना पड़ेगा।
महाभारत का अंतिम अध्याय लिखा जा चूका है। मंथन के विषाद रूप और विचार के द्वन्दयुद्ध से एक नए भारत का उदय हो गया है। अब दक्षिणायन से निकल कर उत्तरायण में जिस सूर्य ने प्रवेश किया वह नैसर्गिक प्रकाश पुंज बिगत के कई कुत्सित विचारो के साए को जैसे अपने दर्प से विलीन दिया है। वर्ष का यह क्रम साश्वत और अस्वम्भावी है और समाज और देश इस से इतर नहीं है। किंतु उत्तरायण में प्रवेश की इच्छा पर अधिकार के लिए भीष्म सदृश भाव भी धारण करने की क्षमता ही नियति के चक्र को रोक सकता है।
लगभग 58 दिन हो गए ....वर्तमान के भीष्म को क्षत विक्षत पड़े रहे लेकिन धौर्य नहीं खोया....ये विचारो की रक्तपात काल चक्र में नियत है....कोई न कोई मधुसूदन आता रहेगा जो काल के रथ का पहिया अपने उंगली में चक्र की भांति धारण करेगा ....लेकिन वर्तमान हमेशा भीष्म की तरह कर्तव्य और धर्म के मध्य क्षत विक्षत हो भविष्य के ज्ञान किरण का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने हेतु प्रतीक्षारत रहेगा।
आप सभी को मकर संक्रांति .... लोहड़ी.. पोंगल...बिहू.. जो भी मानते हो की हार्दिक शुभकामनाए एवं बधाई।