Saturday, 28 December 2019

चिलका--झील....पानी ही पानी

         समय की रफ्तार नियत है। किंतु सोच की रफ्तार अनियत है। 2019 का रश्मि रथ वर्ष की अंतिम राह पर अग्रसर है। फिर ये नूतन और पुरातन वर्ष के संक्रमण काल में सुई की घड़ी अपनी नियत रफ्तार से टकटकी लगाए दौर रहा है।
      
              जाजपुर प्रवास को लगभग चार वर्ष हो गए। केन्द्रीय सेवा में आप यायावरी ही करते रहते है।ये आपको देश के विभिन्न क्षेत्रों की विविधता से रूबरू होने के कई मौके देता है। फिर आप उस सेवाकाल में खुद के लिए समय निकाल कर उसे अपने नजरिये से देखने और समझने का प्रयास करते है।आस-पास के दर्शनीय क्षेत्रो में जगन्नाथ मंदिर पूरी, कोणार्क का सूर्य मंदिर, लिँगराज मंदिर भुवनेश्वर जो कि विश्वविख्यात है उसके साथ-साथ आस-पास ही कई और विख्यात बौद्ध स्थल और स्थानीय तौर पर प्रसिद्ध का भ्रमण हो चुका। किंतु अब भी कुछ जगह बाकी रह रह गए थे , जिसका भ्रमण बाकी था। उसमें सबसे प्रमुख नाम चिलका झील है। 

         जाजपुर रोड से चिलका ज्यादा नही बस दो सौ बीस किमी है। अगर आप यहां आने से  पूर्व गूगल बाबा के सानिध्य में कुछ पल बिताते हैं तो आपको पता चलेगा कि "चिलका झील" के नाम से बेसक प्रसिद्ध हो, लेकिन भोगोलिय परिभाषा में ये "लैगून या अनूप" कहलाता है।अनूप अथवा लैगून किसी विस्तृत जलस्रोत जैसे समुद्र या महासागर के किनारे पर बनने वाला एक उथला जल क्षेत्र होता है जो किसी पतली स्थलीय पेटी या अवरोध (रोध, रोधिका, भित्ति आदि) द्वारा सागर से अंशतः अथवा पूर्णतः अलग होता है। यह लगभग ग्यारह सौ वर्ग किमी की दायरे में फैला हुआ है।खैर

      ऐसे भी ये वर्षांत वनभोज के रूप लोग एक दिन अवश्य घर से बाहर भ्रमण करना चाहते है। तो बैठे-बैठे अकस्मात चिलका के विस्तृत फैले जल प्रवाह की ओर ध्यान चला गया।अवकाश का स्वीकृति सामान्यतः एक दुरूह क्रिया है।फिर भी जैसा कि  राहुल सांकृत्यायन कहते है-"बाहरी दुनिया से अधिक बधाये आदमी के दिल मे होती है"। तो मैंने दिल की बाधाएं से पार पाते हुए मौखिक आवेदन प्रस्तुत कर दिया और एक दिन की हामी मुँह बाये सीपी के मुंह मे एक ओंस की बूंदों गिरने जैसा लगा ।वैसे तो अगर योजनाबद्ध अवकाश के आवेदन हो तो एक के साथ आगे-पीछे दिनों के उपसर्ग और प्रत्यय के रूप में कुछ और इजाफा हो जाते है। किंतु अनियोजित कार्य मे ध्येय पर ही ज्यादा ध्यान होता है, इसलिए उसका प्रयास ही नही किया।खैर
      
      यहां जाजपुर रोड से वाहन के द्वारा ही भ्रमण ज्यादा उपयुक्त  है सो पूर्व परिचित वाहन मालिक से संपर्क कर गाड़ी की उपलब्धता सुनिश्चित कर लिया।सर्दी का मौसम यहां काफी खुशनुमा और रूमानी है।जिसमे आप सर्दी से डरकर रजाई में खुद को छुपाने का प्रयास नही करते।जब देश का उत्तरी क्षेत्र भीषण सर्दी से ठिठुर रहा है । यहां एक अदद स्वेटर फिलहाल की शीत ऋतु से गुफ्तगू करने में मशगूल है।सुबह सवेरे छह बजे हम अपने आवास से उन आगंतुक पक्षियों से मिलने अपनी गाड़ी से निकल गए। जाजपुर रोड से लगभग बारह किमी की दूरी तय करने के बाद हावड़ा- चेनाई राष्ट्रीय राजमार्ग एन एच-16 के ऊपर आ गए। रोड की स्थिति कमोबेश आप अच्छा कह सकते है। यदि आप किसी अन्य स्थान से ओडिशा के भ्रमण पर है तो आपके लिए भुवनेश्वर या कटक ज्यादा मुफीद है। वैसे चिलका में रेलवे स्टेशन है किंतु कोई भी प्रमुख गाड़ियां यहां रुकती नही है। जाजपुर रोड से पानिकोइली, कटक, भुवनेश्वर होते हुए हम राष्ट्रीय राजमार्ग-16 पर हम खुर्दा रोड के रास्ते बढ़ चले। भुवनेश्वर से लगभग सत्तर किमी की यात्रा के पश्चात मुख्य राजमार्गों से काटती हुई एक अन्य मार्ग दिखा जिसपर चिलका की ओर तीर का निशान इंगित कर रहा था कि अब हम झील के आसपास पहुँच चुके है। तटीय क्षेत्र के अनुरूप पूरा परिदृश्य नारियल के पेड़ और अन्य वनिस्पतियो के आच्छादित आपको आह्लादित कर सकता है।कोई दस मिनट के बाद अब हम चिलका तट पर पहुँच चुके, अब समय दिन के लगभग ग्यारह बज गए ।वैसे अगर आप जगन्नाथ पूरी दर्शन के लिए जाते है तो वहां से लगभग नब्बे किमी की दूरी पर "सदपदा" नामक स्थान भी  चिलका झील के भ्रमण के नाम पर आपको गाइड ले जा सकते है, जो कि मुख्यतः समुद्र और चिलका झील का मुहाना है और डॉल्फिन के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन चिलका में चिलका झील का भ्रमण आपको ज्यादा आनंदित करेगा।"चिलका विकास प्राधिकरण" के तहत यहां का विकास कार्य संचालित है। 

        विशाल जलराशि के निकट हम पहुच गए। दूर तक फैले झील आपको प्रकृति में समाहित सौंदर्य के अप्रितम कल्पना लोक में लेकर चल देता है। बादलो को चीरते सूर्य की बिंब नाव के धार के तरंगों पर जैसे लग रहा है जैसे किसी अनुगुंजी संगीतो पर थिरकने में लगी हुई है। पक्षी यही धरती के है या किसी और लोक में हमें विचरण करा रहा है, इसी कल्पना के पंख पर हम उड़ने लगे, तब तक साथ आये ड्राइवर ने कहा ये- ये टिकट काउंटर है यहां पर आप टिकट लेकर बढ़े ,मैं यही इंतजार करूँगा। आंख खोले हुए भी शायद तंद्रा की अवस्था हो सकती है, इसको अभी महसूस किया। वैसे भी अज्ञेय ने एक जगह लिखा  हैं - “वास्तव में जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करता हूँ, उस से ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूं।” 

            यहां "सी डी ए" संचालित बोटिंग की व्यवस्था है, साथ ही साथ आस-पास के  लोगो के रोजगार का एक प्रमुख स्वय के बोट पर्यटक को झील के सौंदर्य का भ्रमण कराते है। किंतु "सी डी ए" संचालित बोटिंग में क्षमता के अनुरूप पर्यटक के आने के बाद खुलती है। लेकिन प्राइवेट बोट आपके अनुरूप ही चलेगी। किन्तु इसमे आपका पर्स कुछ ज्यादा ढीला होगा। अब समय और पर्स दोनों के तुलनात्मक भाव कर आप किसी बोट में भ्रमण कर सकते है।छोटो बोट की क्षमता दस से सोलह लोगो की होती है, जबकि "सी डी ए" संचालित बड़ी बोट की क्षमता लगभग पचास से साठ की है।

                 अब एक सौ अठारह नंबर के नाव पर बुकिंग की प्रक्रिया के बाद झील के तट पर पहुच गए।नाविक "कालिया" वहां अपने बोट के साथ हमे मिल गया।ये बोट लगभग दस लोगो की क्षमता के अनुरूप हम सभी उसमे सवार हो गए। अब बोट किनारा छोड़ झील की यात्रा पर निकल गया। वन-भोज के इरादे से हम निकले ,इसलिए घर से खाने के टिफ़िन हमारे साथ चला। वैसे यहां आपको कोई अच्छा होटल नही मिलेगा दूसरा समय अलग से जाया होता है। इसलिए नाव अपने मांझी और पतवार के साथ चलते ही हमने वन-भोज की जगह चिलका में "जल-भोज" के लिए बैठ गए। इसी दौरान कालिया हमे बताया कि किनारे इसकी गहराई तीन फुट तक है जबकि चिलका की सबसे ज्यादा गहराई लगभग तीस से चालीस फुट तक है। वो खुद मछवारे के परिवार से है और ये नाव खेना उसके रोजगार से ज्यादा उसका शौक है। क्योंकि पेशे से वह राज्य सरकार के प्राथमिक स्कूल में शिक्षक है। अभी स्कूल में छुट्टियां होने के कारण वो यहां है। कुछ भावुक सा होता बोला बचपन से इन्ही पानी के आसपास पला-बढ़ा है, इसलिए मौका मिलते ही वो पानी मे पहुच जाता है।कभी-कभी तो वो मछली की खोज में तीन से चार दिन इसी नाव पर गुजारते है।खाने-पीने का सामान सब साथ ही होता है। यह कहते हुए वह पानी के बीच होते हुए भी जैसे कही और विचरण करने लगा। शायद प्रतिकूल या अनुकूल कोई भी स्थिति हो , किसी के सानिध्य में बिताए कल, रह-रह कर हमें अपनी ओर खींचता है। बोट ने अपनी रफ्तार पकड़ ली, सुदूर तक  निगाहे बस पानी मे तैरने लगा।धरती और आकाश का मिलन तो क्षितिज कहलाता है।किंतु यहां पानी और आकाश की नीलिमा कब एक दूसरे के संग मिल करवटे बदलते है सब कुछ अविस्मरणीय, अद्भुत सा प्रकृति में समाई अनंत अदृश्य मनोरम छटा से आप सिर्फ विस्मृत से होते जाते है। कही नेपथ्य जैसे लगा "मिलन" फ़िल्म का गीत-" सावन का महीना पवन करे शोर" चिलका के हवाओ में तैरने लगा।अब तक लगभग झील के अंदर पांच किमी की यात्रा कर एक छोटे से पत्थरो के द्विप पर पहुँच गए। जिसे "चढ़ाईहाड़ा' के नाम से जानते है। पानी के बीच पत्थरो पर दो-चार फ़ोटो क्लिक कर अब आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए पानी के अंदर अब हल्की श्याम और श्वेत उबर-खाबड़ परिछाई जैसे तैरने लगी। हमे लगा जैसे और किसी द्विप के नजदीक आ गए। यहां झील की गहराई अब कम होकर तीन से चार फुट हो गया। तब तक कालिया ने बताया कि इसे ही "नालंबना द्वीप" कहते है। ये पक्षियों के लिए प्रसिद्ध है।ऐसा अनुमान है कि प्रवासी पक्षीयो   की लगभग 205 प्रजातियाँ  इस मौसम यानी दिसम्बर से फरवरी में  इस झील पर आती है।सर्दियों में यह झील कैस्पियन सागर, ईरान, रूस और दूर स्थित साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों का निवास स्थान बन जाती है। अब जहां देश मे एन आर सी और सी ए बी पर कितने लोग स्वयं के पहचान को लेकर सशंकित हो रहे है। वही ये सभी पक्षियां विभिन्न सुदूर भागो से आकर यहां बेखबर होकर जल-क्रीड़ा में मग्न है। इसके आगे अब जाना मना है, क्योंकि आगे पंक्षियों के संवर्धन के कारण प्रवेश निषेध है।स्वयं के लिए सशंकित इंसान और जीवो के पहचान के लिए कितना संवेदनशील है, इस विरोधभाष मे दिमाग को उलझने का यहाँ कोई औचित्य नही नजर आया। विस्तृत फैले क्षेत्र में सिर्फ पानी ही पानी एक समतल सतह पर कही कोइ चिन्ह या निशान नही बता रहा है। लेकिन इन जलराशि के मध्य सुखी बांस बल्ली बिल्कुल तन कर खड़ा है। जैसे चिलका के मध्य यह अपनी हरियाली को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास रत है। कालिया ने बताया चिलका की यात्रा में यही इनके दिशा निर्देशक तंत्र है।समय अपनी रफ्तार से भगा जा रहा था। इसलिए अब आगे बढ़ कर कालीजाई द्वीप में कालीजाई देवी के मंदिर  में आ गए। मंदिर के हुंडी में आने वाला चढ़ावा अभी भी पास के "बालू गाँव" ,के राजा के वंशज को जाता है। मान्यता है कि उसी राजा ने देवी की मंदिर स्थापित किये।जिसके विषय मे कई किवंदतियां प्रसिद्ध है,किन्तु वो कहानी फिर कभी। काली जय द्विप लगभग ढाई-तीन किमी में फैला हुआ पहाड़ी क्षेत्र है। इसके भी आसपास विविध प्रवासी पंक्षियों की जमघट लगा हुआ है।सतपड़ा, बालुगाँव, रंभा और बारकुल से होते हुए नौकासवारी के माध्यम से आप चिल्का झील के महत्व को महसूस कर सकते हैं।बीच झील के किनारे आपको आईएनएस चिलका "भारीतय नौसेना" पूर्वी तट का मुख्यालय भी है। जहां विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण चलते है । किन्तु उसके लिए आप समय की प्रचुर मात्रा अपने साथ लेकर चले। यहां घूमते-घूमते समय अब मुठ्ठी से रेत की भांति फिसलने लगा। ऊपर आसमान में सूरज भी लगा जैसे थक कर निढाल हो रहा है। और यहां से लगभग पांच घंटे की यात्रा कर वापस जाजपुर भी लौटना है। इसलिए नाव के संग-संग प्रवासी पक्षियों के संग हम वापसी की यात्रा पर चल दिये। 

Saturday, 2 November 2019

छठ ...यादें

            यहाँ काली पूजा की महत्ता है। काफी भव्य और लगभग दस दिनों का आयोजन रहता है। यहां रहते हुए इसका भी एहसास बचे खुचे समय मे समय निकाल कर करने चल दिये। घर के बगल में बड़ा सा मैदान है और रंगारंग कार्यक्रम की भी व्यवस्था है। भीड़ भरे आयोजन स्थल पर चहलकदमी बता रही है कि यहाँ के लोग इस आयोजन का भरपूर लुफ्त उठा रहे है।

            लेकिन मन का कोना इस आयोजन के तड़क-भड़क के बीच जैसे खामोशी की चादर ओढ़ रखा है। शरीर बेशक यहां भ्रमर कर रहा है लेकिन मन यायावरी कर गाँव के आंगन में बार-बार भटक कर पहुँच जा रहा है।क्योंकि आज खरना की पूजा है। विधिवत चलने वाले बहुदिनी व्रत "छठ" का एक पड़ाव।
     
            इस बार छठ में घर से दूर होना, लगता है कि कटे जड़ के साथ तना बस इधर से उधर डोल रहा है। छठ का महात्म्य क्या है ये तो बस वही जानता है जिसने किसी न किसी रूप में उसके संसर्ग में आया है और छठ को जिया है। घर से इस समय दूर रहना, जैसे लग रहा है अस्तित्वहीन होकर शून्य में भटक रहा हूँ। बीच-बीच मे मन शरीर को यही जैसे छोड़ गाँव के आंगन में विचरने लगता है। गोबर की निपाई से आँगन का कोना-कोना छठ की खुसबू से दमक रहा है।अभी तक पता नही कितने चक्कर बाजारों के लग गए होते। वैसे तो सुप पथिया, मिट्टी के बर्तन माँ पहले से ही व्यवस्था कर के रखती थी।लेकिन उसके बाद भी सांध्य पहला अरग के निकलने से पहले तक जैसे भागमभाग लगा ही रहता। फिर सारे फल, सब्जी, ईंख सब तो आ ही गया। तब तक माँ कहती अरगौती पात तो है ही नही। अरे वो समान के लिस्ट में तो लिखाया था। तब तक मैं भाग कर कहता ओह रुको अभी लेकर आता हूँ। पूजा त्योहार तो कई है लेकिन छठ अद्भुत...। 

             चार पांच दिन पहले से गेहूं धो कर सूखने लगता। छत बड़ा सा है। आस-पड़ोस के भी महिलाएं वही अपना गेहूं सुखाने आ जाती। माँ कहती - ईय एक टा गीत गायब से नई। वही आबाज आता। काकी अहाँ शुरू करु न। बस उसके बाद सनातन लोकगीत परंपरा की तरह जो बचपन से सुनते आ रहे है। माँ धीरे-धीरे गुनगुनाना शुरू कर देती- उगो हे दीनानाथ....मारबो रे सुगवा धनुष से...कांचही बांस के बहँगीय...और माटी के संग गुंथी हुई अक्षुण्ण अनगिनत और न जाने कितने मैथिली और भोजपुरी के गीत। उधर कही से शारदा सिन्हा की आवाज भी  घर की चहारदीवारी को लांघ कर एहसास कराता रहता कि पूरा परिवेश ही जैसे छठमय हो रखा है। एकांकी व्रत की धार कैसे सामूहिकता में सबको बांध सागर की तरह छठ के घाट पर सब एकसाथ आत्मसात हो जाते है, यही छठ की परम्परा अनवरत अब भी सामाजिक और आर्थिक बदलाव के बदलते माहौल में भी अब तक खुद को जीवंत रखे हुए है।

                दीपावली की रात के प्रथम सूर्योदय में भगवान भास्कर की किरण में कुछ अद्भुत छटाएँ होती है और लगता है जैसे छठ की दिव्यता फैलने लगा।  बिना किसी के बताए लगता है कि वातावरण में स्वतः उद्घोष हो गया। तैयारी तो न जाने हर छठ व्रती अपने स्तर पर कब से करता है लेकिन अब तैयारी अपने अंतिम स्तर पर आ जाता है। हर घर, हर गली, हर सड़क हर बाजार छठ की प्रकृति प्रदत्त तैयारी से एक अलग भब्यता परोसने लगता है। जबकि कुछ भी विशेष नही सब के सब वही आस पड़ोस खेत खलिहान और बगीचे में मिलने वाला। अत्यधिक की गुंजाइश बेसक लेकिन कम से कम भी पूर्णता से पूर्ण ही दिखता है।

               छठ का घाट सिर्फ व्रतियों के भगवान भास्कर को अर्ध्य नही है, बल्कि एकल व्रत की धार सामूहिक समष्टि को कैसे एक तट पर साथ रहने की अवधारणा को अब भी सहोजे रखा है सबसे अद्भुत है। 
             और इस सबके बीच अपने गाँव घर से दूर छठ के माहौल में इस तरह तल्लीन होना, चेतन अस्तित्व के ऊपर अवचेतन छठ की अनगिनत रूपो का उभरना-विचरना, मन को छठ के होने तक यू ही यायावरी कर पता नही यादों को कुरेद रहा है या फिर नही होते हुए भी वही लेकर जा रहा है। पता नही क्या.....?

Friday, 23 August 2019

जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

आनंद का क्षण है। बादल झूम-झूम कर बरस रहे है।आखिर हो भी क्यों नही...आज बाल गोपाल का जन्मोत्सव जो है। तो फिर आज कृष्ण के ऊपर लोहिया जी का लिखा लेख याद आ रहा है। जिसमे लोहिया अपने चिंतन में कहते है-

                कृष्ण के पहले भारतीय देव , आसमान के देवता है। निसंदेह अवतार कृष्ण के पहले शुरू हो गया । किन्तु त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनाने की कोशिश करता रहा।इसलिए उसमे आसमान की देवता का अंश अधिक है। द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करता रहा।कृष्ण देव होता हुआ सदैव मनुष्य बना रहा। कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितप्रज्ञ" का,ऐसे मनुष्य का जो अपनी शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता हो अर्थात "कूर्मोङ्गनीव" जो कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है, अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से पुरी तरह हटा लेता है।

          तो फिर जन्माष्टमी के इस अवसर पर आनंद के असीम संसार मे तिरोहित होने के साथ-साथ कृष्ण के गीत को भी कर्मरूपी चिंतन करते रहे ।।

        जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।।

Friday, 16 August 2019

मंगल मिशन....

                   मिशन मंगल कुल मिला कर एक अच्छी फिल्म है। इसरो के सफल अंतरिक्ष कार्यक्रम "मार्स ऑर्बिटर मिशन" से जुड़े वैज्ञानिको के जुनून,लक्ष्य के प्रति समर्पण, प्रतिकूल कारको में मध्य दृढ़ इच्छाशक्ति के वास्तविक जादुई यथार्थ का फिल्मांकन और उसे थियेटर के बड़े पर्दे पर देखने का एक अलग ही आनंद है। इसकी सफलता का अनुमान इसके प्रथम प्रयास में सफल होने के साथ - साथ इसके बजट के संकुचन का भी है। तभी तो जहा किसी शहर में ऑटो का किराया प्रति किलोमीटर 10 रुपया पड़ता है, वही मंगलयान प्रति 8 रुपये किमी के दर से अपने लक्ष्य तक पहुच गया। खैर

      अब आते है फिल्म पर । लंबी स्टार कास्ट में सभी कलाकारों को समुचित स्पेस दिया गया है।फ़िल्म के अंत मे क्लिपिंग से ये पता चलता है कि इस "मंगलयान" के प्रोजेक्ट से लगभग 2700 वैज्ञानिक और इंजीनयर जुड़े हुए थे। स्वभाविक है कि उसमें कुछ साथ किरदारो के मध्य इस फ़िल्म का ताना-बाना बुना गया है।जिसमे पांच मुख्य महिला किरदार है।जो कि इस अभियान के विभिन्न प्रोजेक्ट को लीड कर रही है। साथ मे तीन पुरुष कलाकार है।फिर आप अंदाज लगा सकते है कि किसके लिए कितना स्पेस है। लेकिन कहानी के अनुरूप फ़िल्म में सभी की अपनी मौजूदगी है। कहानी छोटी लेकिन इतिहास बड़ी है। सीनियर सायंटिस्ट राकेश धवन जिसकी भूमिका में अक्षय कुमार है।  एक असफल अभियान के बाद तात्कालिक इसरो के एक बंद प्रोजेक्ट "मंगल मिशन" भेज दिए जाते है। पिछले असफल प्रोजेक्ट डायरेक्टर तारा शिंदे जो कि असफल अभियान में खुद को जिम्मेदार मानती है भूमिका को निभाया है विद्या बालन ने इसी तरह सोनाक्षी सिन्हा,तापसी पन्नू,कीर्ति , शरमन जोशी,विक्रम गोखले, दिलीप ताहिल, एच् डी दत्तात्रेय आदि ने विभिन्न किरदारो को जिया है। जहाँ मध्याह्न से पहले फ़िल्म की पटकथा किरदारो को बुनने में समय लगाता है लेकिन साथ ही साथ कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। वैज्ञानिको के विभिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि को रचने में कहानीकार के अपने दर्शन हो सकते है। लेकिन वो आपको उबाऊ या बोरिंग नही लगेगा। संजय कपूर एक अरसे बाद दिखे है और अपने पुराने गाने"अंखिया मिलाऊ कभी कभी अँखिका चुराऊ पर थिरकते मिलेंगे। लेकिन किरदार कुछ "कन्फ्यूज़्ड" सा है। दत्तात्रेय अपनी भूमिका से काफी आकर्षित करते है और इस उम्र में भी जिस ऊर्जा से भरे है लगता है अभी-अभी एयर फोर्स से रिटायर हुए है। दतात्रेय एयर फोर्स में विंग कमांडर से रिटायर है और बाद में फिल्मों से जुड़ गए। बाकी अदाकारी सभी कलाकारों की अपनी किरदार के अनुरूप है। मध्याह्न के बाद फ़िल्म अपनी गति में रहती है।इस तथ्य को जानते हुए भी यह इसरो का एक सफल मिशन है आपकी नजरे पर्दे पर अंत तक लगी रहती है। कुछ सांकेतिक डायलॉग अच्छे या खराब या किस परिपेक्ष्य में फिल्मकार ने दिखाया है ये आप खुद फील देख कर तय कर सकते है। फ़िल्म का बैक ग्राउंड संगीत बढ़िया है। निर्देशक ने पूरी कोशिश की है और सेट डायरेक्टर ने एक इसरो ही उतार दिया है।

      इसरो के पचास साल पर इसरो के वैज्ञानिकों के प्रयास और सफलता कि उद्घोषणा करती यह फ़िल्म है, यह उस जिजीविषा और अदम्य उत्साह की गाथा को रुपहले पर्दे पर प्रस्तुत करता है, जिसमे ज्यादातर हीरो पर्दे के पीछे ही रह जाते है। बाकी कमिया भी कई है लेकिन सिर्फ अच्छे को ही कभी-कभी देखने का अपना ही मजा है और वो भी स्वतंत्रता दिवस के बिजी मौके पर आपको किसी फिल्म के पहले दिन के दूसरे शो का आपको टिकट मिल जाये तो...।।

Monday, 10 June 2019

भारत- एक समीक्षा

               सीधे और सपाट शब्दो मे कहूँ तो फ़िल्म में मनोरंजन के मसाले भरपूर है,लेकिन वो टुकड़े-टुकड़े में थोड़ा बहुत मनोरंजन करता है।लेकिन एक पूरे फ़िल्म के रूप में कही भी बांधने में मुझे तो नही लगता है कि सफल हो पाया है।अली अब्बास जाफर के निर्देशन के कारण आज "भारत मैच छोड़"  "भारत फ़िल्म" को देखने चल दिया।लेकिन सलमान के साथ पिछली दो फ़िल्म "सुल्तान" और "टाइगर जिंदा है" के मुकाबले यह काफी कमजोर मूवी है।कहानी में कोई विशेष तारतम्य नही है बस बटवारे के पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में आप भावनात्मक रूप से जितना महसूस कर पाते है, उतनी देर बांधती है, अन्यथा दुहराव ज्यादा और काफी झोल-झाल है। सलमान अपने नाम के अनुरूप है और कैटरीना पहले की भांति खूबसूरत, दिसा पाटनी की जगह एक्स,वाय, जेड कोई भी होती कुछ फर्क नही पड़ता। अन्य कलाकार छोटी-छोटी भूमिका में आकर्षित करते है और अपना प्रभाव छोड़ते है।फिर भी कहानी के तौर पर एक समग्र रूप से उभर नही पाते है।लेकिन अपने पूर्व की सारे इमेज को तोड़कर कोई सामने आता है तो वो सुनील ग्रोवर है और हिस्सो में तो लगता है ये उसी की फ़िल्म है। गीत संगीत में विशेष कुछ नही है।

               आप जहां से चाहे फ़िल्म की शुरुआत कर सकते है औऱ कही भी छोड़ कर जा सकते है। निर्देशक खुद ही कहानीकार है तो वो कहानी ठीक से सुना नही पाए और कहानी में कसाव के नाम पर कुछ भी नही है। कोरियन फ़िल्म के री-मेक को इस देश के मिट्टी के अनुसार ढाल पाने में असफल ही कहा जायेगा। कॉमेडी का तड़का लगाने लगाने का पूरा प्रयास रहा है और कुछ जगह आपको यह गुदगुदाता है। लेकिन भारत की यात्रा फ़िल्म के अनेक पड़ाव पर आपको पहले से ही आभास हो जाएगा जिसके कारण कहानी में रोमांच नाम की कोई बात नही रहती है।

              बाकी भाई की फ़िल्म है तो उनको चाहने वाले उन्हें निराश नही करते है।ये बॉक्स ऑफिस के कलेक्सन से पता चलता है।लेकिन पिछले कुछ सालों में आई फिल्मो में सलमान की सबसे कमजोर फ़िल्म है। बाकी आप देख कर उसमें अपने लायक कुछ देखे।

Sunday, 12 May 2019

अबकी बार...किसकी सरकार

चुनाव जारी है। कही भाग-भाग के लोग मत का दान कर रहे है तो कही दान का नाम से ही भय खा रहे है। दिल्ली वाले इस भय से ज्यादा ग्रसित दिख रहे है ।आज छठवें चरण में लगता है दिल्ली की पीढ़ी लिखी जनता शायद चुनाव को बेमतलब की कवायद समझता है।

               वैसे भी दिल्ली वालों को पता है कि कही पर कितना भी मतदान करे....सरकार तो दिल्ली में ही बननी तय है। फिर इस कर्कश सूर्य के ताप से बच कर ही रहा जाए.....खैर...
सोचा अब अंतिम चरण में सिर्फ़ 59 सीटे ही बच गई है । सो अब दावे और प्रतिदावे का दौर जारी है।बाकी 23 मई को पता ही चल जाएगा कि जनता ने किसके साथ न्याय किया और किसके साथ अन्याय...। चोर ने चोर-चोर का शोर मचाया या चौकिदार ही चोर निकला इसपर फैसला अब हो रखा है।जनता अवश्य न्याय करेगी....आखिर जनता ही तो जनार्दन है....।

              23 मई खास तो होगा। इतिहास में यह दिन बेंजामिन फ्रेंकलिन के द्वारा "बाय-फोकल" के आविष्कार के लिए दर्ज है। आप उस बाई-फोकल लेंस से आने वाले 23 मई को देखेंगे तो कैसे दशा और दिशा दिखेगा। आखिर दूर और नजदीक दोनों देखने का सामर्थ्य है इसमें। वैसे कही पढ़ रहा था कि 23 मई को हिटलर का भी अंत हुआ था।वैसे हर ओर एक हिटलर तो है ही...??फिर अंत किसका..?

             किन्तु फिर भी देश के इतिहास में फिर से एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन की घटनाक्रम अंकित हो जाएगा। संविधान के भावना से छेड़छाड़ , जनता की अवमानना, असहिष्णुता गाथा पर कुछ समय के लिए कौमा लग जायेगा। विजयी नेता जनता के विवेक और उनमें भरोसे के लिए धर्म और जात-पात के बंधन से ऊपर उठकर देश के विकास में अपना अमूल्य वोट देने के लिए बधाई दे रहे होंगे।अच्छे दिन आये या नही आये अच्छे दिन लाने के मंसूबो पर कोई संदेह नही करने के लिए जनता विजयी दल की ओर से फिर से धन्यवाद के पात्र बनेगे...।

                लेकिन इसी बीच  कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार , आर्थिक विशेषज्ञ, प्रगतिशीलता के वाहक साहित्यकार वही दूसरी ओर इसे पुनः अप्रत्याशित कह कर नए जनादेश की अवहेलना तो नही करेंगे,लेकिन नए शब्द गढ़ कर जनता के विवेक पर प्रश्रचिन्ह अवश्य लगा रहे होंगे। 

                       सीटों की लड़ाई में उलझे विचारधारा का मार्ग जो भी लेकिन जनता वोट देके सरकार बनाने का मार्ग तो बना ही देती है, इसलिए आप जनता के विवेक पर कोई प्रश्न चिन्ह नही लगा सकते । सरकार तो साफ-साफ बनती दिख रही हैं लेकिन किसकी ....? मैंने तो बता दिया...अब आप ही बताये.....।

Sunday, 5 May 2019

राजनीति और सेवा

            चुनाव का मौसम है  नेताजी हर चौक-चौराहे पर मिल जाते है।तो आज एक नेताजी से मुलाकात हो गई। नेता जी काफी आश्वस्त लग रहे थे। मुस्कुराते हुए एक नुक्कड़ पर बैठे थे..अब चर्चा चाय पर थी या न्याय पर कह नही सकते ..लेकिन थोड़ी बहुत चर्चा शुरू हो गई।अब चुनाव है तो चर्चा राजनीति की ही होगी...लेकिन मेरे द्वारा एक दो बार राजनीति शब्द का प्रयोग करते ही थोड़ा गंभीर हो गए और छूटते ही कहने लगे- आप व्यर्थ में राजनीति  ...राजनोति शब्द को दुहराए जा रहे है।
देखिये सारी बात "राज" से शुरू होती है और "राज" पर ही खत्म होती है। बाकी रही नीति की बाते तो वो तो बनती और बिगड़ती रहती है। जनता के काम आई तो नीति और नही आई तो अनीति, बहुत सीधी बात है। इसलिए चुनाव में हम राजनीति करने के लिए खड़े नही होते बल्कि सिर्फ राज करने के लिए। आश्चर्य से उनका मुँह ताकते हुए कहा तो फिर क्या आप जनता की सेवा के लिए वोट नही मांग रहे है और  फिर राजनीतिक पार्टियां क्यो कहते है? नेताजी थोड़े ईमानदार है सो फिर थोड़े गंभीरता से बोलने लगे-
  देखिये शब्दो मे उलझने से निहितार्थ नही निकलते..। अब आपने राजनीति की कौन सी परिभाषा पढ़ा है ये तो आप जाने लेकिन मुझे तो ये दो परिभाषा ही पता है-
           लासवेल के अनुसार- ‘‘राजनीति  का अभीष्ट  है कि कौन क्या कब और कैसे प्राप्त करता है।’’  या फिर
           रॉबर्ट ए. डहन कहते हैं- ‘‘किसी भी राजनीति व्यवस्था में शक्ति, शासन अथवा सत्ता का बड़ा महत्व है।’’ 
             ये दोनों बड़े विद्वान रहे है। दोनों के परिभाषा में कही सेवा का कोई जिक्र है क्या..? और आप जो बार-बार राजनीति-राजनीति रट  लगा रखे है न उसमे भी राज्य है..और राज्य होगा तो राजा होगा ही न...औऱ राजा होगा तो राज ही करेगा। सेवा करना है तो मंदिर के पुजारी बन जाये या किसी धर्म के धर्म गुरु और भगवान कि सेवा करे। इंसान तो कर्म करने के लिए ही पैदा हुआ ।आप न जाने कहाँ से सेवा ले लाये ...? मैं कोई राजनीति शास्त्र तो पढ़ा नही है। इसपर कुछ बोला नही। नेताजी बोलना जारी रखे और कहने लगे -तभी तो तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहा है -  "  कोउ नृप होई हमै का हानि " ऐसे ही तो नही कहा होगा न। कुछ न कुछ सोच कर ही लिखा होगा...और एक आप है कि सेवा...सेवा की रट लगा रखे है।
मतलब ये पार्टिया जनता की सेवा के लिए नही बल्कि राज करने के तैयार होता है..?
ही...ही...ही..उन्होंने दांत निपोर कर कहाँ- आप भी बड़े भोले है। राज-भाव और सेवा-भाव में आपको कोई समानता दिखता है? क्या ये दोनों आपको समानार्थी शब्द दिखते है।
मैने कहा - हां.. समानार्थी तो शायद नही है।
               नेताजी ने फिर कहा- तो फिर  राजनीति में आप सेवा को क्यो जबरदस्ती घुसेड़ रहे है...?चुनाव सिर्फ राज पाने के लिए ही लड़े जाते है। उसमें नीति, अनीति, विनती, मनौती,फिरौती ये सब उसको प्राप्त करने के निमित मात्र हैं। अंतिम ध्येय तो राज करना ही है।
लेकिन हम तो समझते थे नेता लोग तो सेवा करने राजनीति करने आते है।
नेताजी ने कहा कि अच्छा आप क्या करते है..?
मैंने कहा- सरकारी नौकरी में हूं।
तो नेताजी ने कहा हमलोग भी यही समझते है कि सरकारी नौकरी में भी लोग सेवा करने आते है...लेकिन हमें तो ऐसा नही लगा।
           अब नेताजी थेडे सीरियस हो गए-कहने लगे देखिये आजकल लोग अपने माँ-बाप की सेवा बिना स्वार्थ के नही करते। रिश्तेदार और आस पड़ोस को जरूरत पड़ने पर मुँह चुराकर निकल लेते। तो नेता कोई मंगल ग्रह से आते है भाई। वो भी आपकी तरह यही से है। अब कुछ लोग सरकारी नौकरी ढूंढते है तो हम जैसे कुछ अपनी नौकरी राजनीति में ढूंढते है..आपको तो बस बार  परीक्षा पास करना होता है और हमे हर पांच साल में पर्चा देना पड़ता हौ। बस फर्क इतना ही है और कुछ नही...समझे कि नही..??ही..ही...ही..।।

Saturday, 4 May 2019

फोनी का प्रस्थान ..

तुलसीदास जी सुन्दरकाण्ड मे कहते है:-

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ।।

फोनी अब अपने चरम से गरज कर  कलिंगनगर पर छा गया और लगता था उन्नचासो प्रकार के वायु ने यह अपना डेरा डाल दिया । अब यहां हरि का प्रेरणा था या कुछ और...कह नही सकते।  वायु का वेग लग रहा जैसे सभी को उड़ा कर ले जाने के लिए आतुर है।

किंतु इस तूफान में जहां कुछ पेड़ अपनी जड़ से उखड़ गए वही ये आम अपने अपने डालियो से जुड़े रहने के लिए जद्दोजहद में लगा रहा। प्रकृति अपने संहार की प्रवृति के साथ जहां तांडव नृत्य करता रहा  ,वही उसकी कृति अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही थी। फिर उद्भव और संहार दोनों प्रकृति की ही लीला है तो फिर "कर्म कर्म प्रधान विश्व रची रखा " के अनुसार ये आम भी अपनी टहनी से लिपटे रहने में संघर्षरत रहा।

       अब  इसकी जड़ उखड़ने तक अपने तने के अस्तिव पर भरोसा करता रहा और फिर फोनी के आघात से विलगाव होने से बच ही गया। वैसे भी अपने जड़ से जुड़े रहने में जो भरोसा करते है उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह जल्द नही लगता....है कि नही??

     

Saturday, 26 January 2019

गणतंत्र दिवस की सुभकामनाये

आप स्वतंत्र है कि आप अपने गणतंत्र पर कई प्रश्न चिन्ह लगा सकते है....??? यह एक कारण अपने आप में आपको बधाई का पात्र बनाता है....।
 बेशक आप व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को आप अपने इच्छा अनुरूप नहीं पाकर मायूस भी हो सकते है। आस्था और स्वाभिमान के घर्षण से उठे ताप आपको अंदर तक धधका रहा हो ...ये भी हो सकता है। अपेक्षाओ के किसी भी स्तर से असंतुष्ट होने के कई कारण आप गिना सकते है। चूकते रोजगार के अवसर और महंगाई के तले लिलती जिंदगी से भी  निराश होने के भरपूर वजह सभी के पास है। किसानों के आत्म हत्या से लेकर संसाधनों के असुन्तलित वितरण पर आप क्षोभ जता सकते है।  अनगिनित कारण है जिस पर आप अपने इर्द गिर्द मायूसी की परिछाई से खुद को घिरे हुए देख सकते है।
        लेकिन सिर्फ एक वजह काफी है आपके मुस्कुराने के लिए की आप एक समृद्ध लोकतंत्र के नागरिक है। आप खुश हो सकते है कि आप प्रश्न करने के लिए स्वतंत्र है और आप खुद पर हंस भी सकते है कि आपके दिल में जितने भी शंका के बादल घर कर रखा है उसमें हम सभी का प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी न किसी रूप में इस बादल के सृजन योगदान तो रहता ही है। खैर फिर भी ये तसल्ली तो दे ही सकते है कि अपेक्षाओ का संसार रचने की पूरी स्वतंत्रता तो आखिर है.....।
          आप एक बार पुनः मुस्कुरा सकते है कि गणतंत्र के 70वे वर्षगाँठ में गण और तंत्र के बीच के रिश्ते पर कही कोई विरोधभास तो नहीं है....? समझ के विकसित होने में देशप्रेम की निष्ठां से सरोबार होकर आस्था के कई पायदानों से चढ़ते हुए कब मुठ्ठी भर सामूहिक चेतना देश के कई भागों को अपनी इच्छा से  अवचेतन कर देने में नहीं झिझकता है ....इस विकसित भाव पर भी प्रसन्न हो सकते है।.इस  गणतंत्र के निरपेक्ष रूप पर अभिमान करने के सभी के पास अपने कारन है।
   अतः पुनः आप सभी को 70वे गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई......।

Tuesday, 15 January 2019

उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक

                      पिछली फिल्म "केदारनाथ"देखते समय "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" का ट्रेलर देख ये निश्चित था कि इसे देखना है।क्योंकि फ़िल्म की कहानी का विषय वस्तु ही कुछ ऐसा है कि वो पहली नजर से ही आपको आकर्षित करने की क्षमता रखता है।किंतु दिन और समय निश्चित नही था। क्योंकि हमारे दिन की निश्चिन्तता पर अनिश्चिन्तता के बादल सदैव भ्रमण करते रहते है।खैर

        वैसे तो हर किसी के फ़िल्म देखने का नजरिया और पसंद व्यक्तिगत होता है।लेकिन अच्छे और घटिया का लेबल जहाँ बॉक्स ऑफिस का निर्धारण करता है वही समीक्षकों की राय भी काफी मांयने रखता है। मेरा अपना मानना है कि यह फ़िल्म किसी को पसंद आएगी तो किसी को बहुत ।लेकिन अगर मैं सीधे और सरल शब्दों में कहूँ तो यह फ़िल्म धमाकेदार और मनोरंजक है। 

               फ़िल्म अपनी पहली ही शॉट से आकर्षित करता है, जहाँ उत्तर-पूर्व के जंगलों का फिल्मांकन बैक ग्राउंड संगीत के साथ आपको बांध लेता है।जैसा कि नाम से ही इसकी कहानी जाहिर है।किंतु निर्देशक ने पूर्व के घटनाक्रम को एक सूत्र में पिरोते हुए कुल पांच अध्यायों में घटनाक्रम को फ़िल्मता है और कही से भी कोई सूत्र इन अध्यायों में आपको खलेगा नही। सारे घटनाक्रम फ़िल्म ने समाचार और कहानी के रूप में ऐसे पिरोये हुए है कि वो आपके सामने तैरने लगेंगे।

          ऐसे फिल्मो के स्क्रीनप्ले में भावनाओ के विभिन्न रंगों दर्शाने की गुंजाइश कम होती है। फिर आप अगर इसको जबरदस्ती शामिल करते है तो यह बोझिल बनाने के अलावा कुछ और नही करता। इसलिए युद्ध की पृष्ठभूमि पर "बॉर्डर" को छोड़ हाल के वर्षों में और कोई दूसरी फिल्म ने ऐसा कोई छाप नही छोड़ा। न ही बॉक्स ऑफिस पर और न ही समीक्षकों की नजर में। इस रूप में अगर देखे तो "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" ने अपना लक्ष्य और नजरिया साफ रखा। निर्देशक आदित्य धर ने बेशक कहानी के घटनाओं को जोड़ने में जो एक कलात्मक कल्पनाशीलता लिया होगा वो कही से भी आपको खलेगा नही। चाहे मुख्य किरदार की घरेलू वजह से दिल्ली पोस्टिंग हो या फिर कुछ दृश्य राजनैतिक परिदृश्यों पर हो।लेकिन आपको अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ भी नही दिखेगा। फ़िल्म शुरुआत से ही निर्देशक के गिरफ्त में रहता है और वो कही से भी भटकते नही दिखते है। निर्देशक क्या दिखाना चाहता है और उन कहानी को कैसे पिरोना है ये भी स्पष्ट है। शायद स्क्रीनप्ले और निर्देशन दोनों आदित्य धीर का है,इसलिए वो क्या चाहते है उनको पहले से स्पष्ट है। इस प्रकार की एक्शन पृष्टभूमि जिसका क्षेत्रीय भूभाग का आधार कश्मीर  हो तो समझिए फ़िल्म के सफल और असफलता में सिनेमेटोग्राफर की कैमरे के पीछे भूमिका अहम होती है। कई बार सिर्फ घूमते कैमरे कहानी को कैसे कहते है ,वो आपको इस फ़िल्म में देखने को मिलेगा। इस फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर मितेश मीरचंदानी ने फिर से एक बार दिखाया कि फ़िल्म "नीरजा" के लिए फ़िल्म फेयर का बेस्ट सिनेमेटोग्राफर अवार्ड उनको ऐसे ही नही दिया गया था। ऐसे भी उनका मानना है कि " यदि कहानी की मांग दृश्य की प्रमुखता है, तब तो वो केंद्र में है नही तो उनका काम कहानी का पूरक है  और यह काम दर्शकों का ध्यान दृश्य की ओर सिर्फ खींच कर नही किया जा सकता है।"

        जहां तक इस फ़िल्म के कलाकार और अभिनय की बात है तो सभी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।वैसे मुख्य रूप से शुरू से अंत तक विकी कौशल छाये हुए है और अभिनय की गहराई का इसी से पता चलता है कि किसी भी दृश्य में वो आपको अभिनय करते हुए नही लगेंगे ।इससे पूर्व फ़िल्म राजी इनका मैंने देखा था उसमें एक पाकिस्तानी सेना के रूप में रम जाना और अब मेजर विहान सिंह शेरगिल के रोल में, फिर दो अलग चरित्र में जब आपको कोई सामंजस्य नही दिखेगा तो आप समझ जाएं कि उनके अभिनय में कितनी गहराई है। फ़िल्म "संजू" और उससे पूर्व "विककी डोनर" में उनके अभिनय को समीक्षकों ने सराहा है।वैसे मैने ये दोनों फ़िल्म देखी नही इसलिए कुछ कहना मुश्किल है।अन्य कलाकारों में मोहित रैना को अच्छा स्पेस दिया गया है और मोहित मेजर करण के रूप में जंचे भी है। इससे पूर्व टी वी धारावाहिक "देवो के देव महादेव" में मुख्य भूमिका निभाने वाले मोहित रैना के महादेव वाले मुस्कान भी इसमें आपको नजर आएंगे। बाकी यामी गौतम और कीर्ति कुलकर्णी भी आपको प्रभावित करेगा।परेश रावल तो खैर परेश रावल ही है तो उनके विषय मे क्या कहा जाय, वो आपको अजित डोभाल के समकक्ष रोल में दिखेंगे। वैसे प्रधानमंत्री के रूप में रजित कपूर काफी मंजे कलाकार है।क्योंकि इनको जब दूरदर्शन पर "व्योमकेश बक्शी" धारावाहिक प्रसारित होता था तभी से देख रहा हूँ। बाकी आप देख के आकलन करे।

                  इस फ़िल्म की सबसे खूबी ये है कि ये देशभक्ति और देशप्रेम पर लंबे चौडे भाषण नही देता है। एक सैनिक की हृदय- भावना, मानवीय-संवेदना,मानसिक द्वंद को बहुत सहजता से दर्शकों के सामने रख देता है।कर्तव्य के प्रति समर्पण विभिन्न रूपो में शायद हर कोई रखता हो लेकिन उस जिजीविषा को सिर्फ एक सैनिक ही जीता है जो यह जानता है कि जहां ऐसे हर क्षण काल के आगोश में खेल कर जीवन प्रकाश का पताका फैलाया जाता है।और सब जानते समझते यह खेल आसान नही है। फिर मेजर शेरगिल के शब्दों में "कई बार जितने के लिए सैनिक के शौर्य और पराक्रम से ज्यादा सैनिक के जज्बातों की होती है।"

                       अब अंत मे हर बातों में राजनैतिक तड़का लगाने  की परिपाटी जो आज कल चला हुआ है उससे यह फ़िल्म भी अछूता नही है। सीमा विहीन विश्व की कल्पना के इतर अगर आप वर्तमान में है, चाहे कितना भी उदारवादी क्यो न हो तो भी आप देशविहीन नही हो सकते । तो फिर वर्तमान की सीमा और संप्रभुता को खुद के विचारों से चुनौती देने से पूर्व एक बार इस फ़िल्म को देखे और विचार करे कि यह भारतीय सेना का शौर्य गाथा का फिल्मांकन है या फिर कोई दरबारी बंदन।।