Saturday, 7 March 2015

अब हम चलते है ।

कही कुछ ठिठक गया
जैसे समय, नहीं मैं । 
नहीं कैसे हो सकता
जब समय गतिशील है
फिर कैसे ठिठक गया,
अंतर्विरोध किसका
काल  या मन का ?
मन तो समय से भी
ज्यादा गतिमान है
फिर कौन ठिठका
काया जड़ या चेतन मन ?
समय का तो कोई बंधन है ही नहीं
फिर ये विरोधाभास क्यों
मन को समझाने का
या खुद को बहलाने का?
पता नहीं क्या
बस अब हम चलते है । 

27 comments:

  1. हो ली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-03-2015) को "होली हो ली" { चर्चा अंक-1911 } पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर चित्रण !!!

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  3. sahi bat aur chalne ka nam hi hai jindgi ....

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  4. बहुत ही सुंदर और लाजवाब रचना।

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  5. Nice Article sir, Keep Going on... I am really impressed by read this. Thanks for sharing with us. Bank Jobs.

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  6. मन रुक जाये तो चलना मुश्किल होता है ... काल की गति तो निरंतर है ...

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  7. बढ़िया अभिव्यक्ति , मंगलकामनाएं आपको !

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  8. बहुत सुन्दर सार्थक सृजन, बधाई

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  9. मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्त्ति ...
    आज पत्रिका के 'Web Blog' कालम में आपके ब्लॉग की 'कुछ लिखने का बना लो मन' नाम से चर्चा पढ़कर अच्छा लगा ...
    हार्दिक बधाई!

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