सच है की कोई इसलिए शहादत नहीं देता की हम पत्थर की दीवार बन जाए। ये शहादत तो इसलिए है की पत्थर नहीं तो उसके प्रतीक जो हम बनते ही जा रहे है उस जड़ मानसिकता को झकझोर सके ।संवेदना की चिंगारी को प्रज्वलित करने के लिए हर बार सैनिको को आखिर रक्त की आहुति क्यों देना पड़ता है।जब तक इसप्रकार की कोई घटना नहीं होती हम यंत्रवत सा बस चलते रहते है।किन्तु प्रतिकार या खुद को सुरक्षित रखने की भाव जब गाहे बगाहे इन घटनाओ के बाद हम प्रयास करते ,स्वयम्भू बुद्धिजीवी एक नए व्याख्यान के साथ खड़े हो जाते है।
कलात्मक एवं काव्यात्मक लेखनी से मन तो मोहा जा सकता है,लेकिन सच के आवरण पर पूरी तरह झूठ का पर्दा पड़ा रहे ये बहुत समय तक संभव नहीं रहता। ऐसा लगता है महान विचारक बन उभरने का भाव तो कही नहीं इस तरह सोचने को मजबूर करता है और आत्मकुंठित हो लगता है की समग्र रूप में देख रहे है। लेकिन संभवतः लिक से हटने की चाहत से विचार सुदृढ़ नहीं हो सकते बल्कि उस महान विचार की पुष्टि भी आम जान मानस की सहमति आवश्यक कारक होता है। अपनी उपस्थिति इस भीड़ में दिखाने के लिए ये आवश्यक है कि प्रचलित अवधारणाओं से हटकर ही चले। व्याख्यानों में लंबे और छरहरे वाक्यो से नापाक मनसूबे से प्रेरित तत्व प्रभावित नहीं होते ,किन्तु गोली की एक आवाज कई को थर्रा देती है। तभी तो हम इस दिग्भ्र्मितता की स्थिति से बाहर नहीं निकल पा रहे है की आखिर हमें करना क्या चाहिए।दुश्मन अपने इरादे में सफल होता जा रहा और बहुतों अभी तक अपने स्वस्वार्थ प्रेरित क्षद्म मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहे है। बेसक उदार विचारो के उदार लोग अगर कुछ ठोस कहने और करने की स्थिति में न भी हो तो किसी खास परिस्थिति को खास रूप में आकलन करने की कोशिस का ही प्रयास रहे तो बेहतर होगा। सामान्य रूप में देखने का प्रयास अंततः नुकसान देह हो सकता है। जिसका विकृत परिणाम सभी के ऊपर बराबर ही होगा। चाहे को किसी भी विचारधारा से प्रेरित हो।
कलात्मक एवं काव्यात्मक लेखनी से मन तो मोहा जा सकता है,लेकिन सच के आवरण पर पूरी तरह झूठ का पर्दा पड़ा रहे ये बहुत समय तक संभव नहीं रहता। ऐसा लगता है महान विचारक बन उभरने का भाव तो कही नहीं इस तरह सोचने को मजबूर करता है और आत्मकुंठित हो लगता है की समग्र रूप में देख रहे है। लेकिन संभवतः लिक से हटने की चाहत से विचार सुदृढ़ नहीं हो सकते बल्कि उस महान विचार की पुष्टि भी आम जान मानस की सहमति आवश्यक कारक होता है। अपनी उपस्थिति इस भीड़ में दिखाने के लिए ये आवश्यक है कि प्रचलित अवधारणाओं से हटकर ही चले। व्याख्यानों में लंबे और छरहरे वाक्यो से नापाक मनसूबे से प्रेरित तत्व प्रभावित नहीं होते ,किन्तु गोली की एक आवाज कई को थर्रा देती है। तभी तो हम इस दिग्भ्र्मितता की स्थिति से बाहर नहीं निकल पा रहे है की आखिर हमें करना क्या चाहिए।दुश्मन अपने इरादे में सफल होता जा रहा और बहुतों अभी तक अपने स्वस्वार्थ प्रेरित क्षद्म मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहे है। बेसक उदार विचारो के उदार लोग अगर कुछ ठोस कहने और करने की स्थिति में न भी हो तो किसी खास परिस्थिति को खास रूप में आकलन करने की कोशिस का ही प्रयास रहे तो बेहतर होगा। सामान्य रूप में देखने का प्रयास अंततः नुकसान देह हो सकता है। जिसका विकृत परिणाम सभी के ऊपर बराबर ही होगा। चाहे को किसी भी विचारधारा से प्रेरित हो।
संभवतः कुछ लोग इस तरह के घटना से व्यथित नहीं होते इसलिए उनमे विचलन न होना अस्वभाविक नहीं है किन्तु ऐसी शहादत पर कुछ व्यथित तो होते ही है इसलिए विचलन स्वभाविक है। इस विचलन को शब्दो को चासनी में उड़ेलकर वाक्यों की लंबी शृंखला से कम नहीं किया जा सकता। हर घटना को अंदर की बातो से तौलना और सामान्य रूप में लेने प्रयास काफी घातक हो सकता है। जब भी आप इस वाकये से एकाकार हो तो सैनिको की बलिदान को बलिदान के ही रूप में देखे।वास्तव में ये बहादुर जवान हमें पत्थर की दीवार से बाहर निकल संजीदा होकर सोचने हेतु ही बलिदान दिए की अगर खोखली विचारधारा से बाहर निकल संजीदा होकर हम न सोचे तो कल शायद इतना बहस करने का समय हमारे पास न हो।
राष्ट्रवाद से सम्बंधित अवधारणाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। किन्तु हम जिस समाज और काल को जीते है उसी की प्रचलित अवधारणों के अनुसार ही आचरण की अपेक्षा करते है।बीते कल की विवेचना और भविष्य की रुपरेखा पर कल्पित रंगों का आवरण आज में बदरंग हुए दीवारों की तस्वीर नहीं बदलेगा। सैनिक राष्ट्र के नाम पर सदियो से बलिदान होते आये है और आगे भी होते रहेंगे। इस बलिदान पर आँखे नम बेसक न हो किन्तु बलिदानो के विभिन्न निहितार्थ अगर निकालने में हम व्यस्त रहेंगे तो यह नापाक मनसूबे के खिलाड़ियो की बहुत बड़ी विजय होगी चाहे वो देश के अंदर हो अथवा शत्रु देश हो। बुराई से ग्रस्त मानव मन कई कमजोरी धोतक हो सकता है किन्तु देश और देशभक्ति के मामले में भी संजीदा होता है इसकी कई कहानी प्रचलित है। भाषा तो विचार के आदान-प्रदान का माध्यम भर है और जरुरी है की जब आप किसी से संवाद करना चाहते है तो उसे आपकी भाषा का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। अथवा जिस भाषा में अगला संवाद कर रहा हो उस भाषा की जानकारी आपको होना चाहिए। बेसक भावुकता हमें समग्र मानववाद , युद्ध और विनाश जाने कितने विषय हमारे जेहन में तरंगे बन झिकझोड़ने लगता है और हम इसी बात पर भावुक हो इंसान और इंसानियत की दुहाई देते हुए अपने को कमजोर साबित करने में उलझ बैठते है। ये सत्य है की युद्ध हमेशा बेनतीजा रहा हो किन्तु ये भी उतना ही सत्य है की युद्ध का भय शत्रु को वार्ता के मेज तक खीच के लाते है। कम से कम कायरता तो हमारे शब्दो में नहीं दिखनी चाहिए, हथियार के जवाव में हमेशा हथियार ही चला है। ताकतवर हथियार ही घुटने टेकने को मजबूर करता है। इस बात को कौन कैसे परिभाषित करेगा की यहाँ कौन नौटंकी कर रहा है। वो जो मीडिया में बैठ कर इस तरह के हमलो का जबाब देने को तैयार है या वो जो शब्दो की बाजीगरी करते हुए इस हरकत को सामान्य ठहराने का प्रयास कर रहा है। दोनों में से कोई भी सरहद पर इन स्थितियों में अपने को नहीं पायेगा सामने तो बस सैनिको की छाती ही होगा। किन्तु उस करवाई को भरोसा हम जैसे के विचार ही मजबूती प्रदान करेंगे। बेशक भावनाओ की बेईमानी नहीं होने दे अपने विचार को स्थापित करने के लिए कही ऐसे-ऐसे तर्क अथवा कुतर्क गढ़ बैठे की विभिन्न अनगिनत पाटो में पहले से बटें इन जनसमूहों पर देश का आवरण जो चढ़ा हुआ है उसके तंतुओ को कमजोर करने के आप आरोपी हो। बलिदान होने वाले सैनिक आखिर हमारे भाई है ,ये फिर अपने आपको न दोहराये इसको तो हमें ही अंतिम स्तर पर जाकर सोचना होगा।एक ऐसे कुचक्र का शिकार हो जान गवाते सैनिक और हम समझने में भी अक्षम हो की इसे युद्ध या क्या समझे, वास्तव में उस राष्ट्र के नागरिकों के ढुलमुल विचार सरकारी नीति के रूप में परिलक्षित होता है । विचारों के ऊपर जमे पुराने धुंध को हटाने का समय है और बदलाव स्वभाविक प्रक्रिया है।
सभी शहीद को शत -शत नमन।
सभी शहीद को शत -शत नमन।
true tribute to legends..merey paas shabd nahi!
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