कितने विश्वास ....
अति विश्वास ? के भवर में ,
डूबते और निकलते है ,
कि तैर कर बस हमने पार कर लिया ,
इस प्रकृति पे अपना
अधिकार कर लिया।
और देखो वो बैठ कर
मुस्कुराता है.....
कहकहा शायद नहीं ,
क्योंकि अपनी रचना पर
कभी-कभी........
हाँ कभी-कभी शायद पछताता है,
कि हमने क्या बनाया था
आज ये क्या बन गए है।
जितने भी आकृति उकेडी है ,
सब एक ही नाम से,
अब तक जाने जाते है।
पर ये इंसान जाने क्यों ?
सिर्फ हिन्दू-मुसलमां ही कहाँ ,
न जाने कितने सम्प्रदायों में
खुद को बांटते चले जाते है।
भ्रम के जाल में ,
उलझे दोनों परे है अब।
रचना खुद को रचनाकार समझ बैठा ,
और जिसने सींचे है इतने रंग
वो सोचता हरदम
कब फिसली मेरी कूची
कि ये हो गया बदरंग। ।