कितने विश्वास ....
अति विश्वास ? के भवर में ,
डूबते और निकलते है ,
कि तैर कर बस हमने पार कर लिया ,
इस प्रकृति पे अपना
अधिकार कर लिया।
और देखो वो बैठ कर
मुस्कुराता है.....
कहकहा शायद नहीं ,
क्योंकि अपनी रचना पर
कभी-कभी........
हाँ कभी-कभी शायद पछताता है,
कि हमने क्या बनाया था
आज ये क्या बन गए है।
जितने भी आकृति उकेडी है ,
सब एक ही नाम से,
अब तक जाने जाते है।
पर ये इंसान जाने क्यों ?
सिर्फ हिन्दू-मुसलमां ही कहाँ ,
न जाने कितने सम्प्रदायों में
खुद को बांटते चले जाते है।
भ्रम के जाल में ,
उलझे दोनों परे है अब।
रचना खुद को रचनाकार समझ बैठा ,
और जिसने सींचे है इतने रंग
वो सोचता हरदम
कब फिसली मेरी कूची
कि ये हो गया बदरंग। ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-12-2013) को "जब तुम नही होते हो..." (चर्चा मंच : अंक-1455) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार .......
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
ReplyDeleteवाह सुन्दर, गहन सोच...
ReplyDeleteभावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने..
ReplyDeleteसुंदर भावों की अभिव्यक्ति !!
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