जीवन में पाने की भाग दौड़
या दौड़ते हुए जीवन खोने की होड़
पता नहीं क्या ,
आज कुछ वक्त निकल आया
जाने कैसे ,
वक्त का मै या फिर मेरा वक्त ,
दो पल चैन से गुजारूं।
अपने मन के आँगन में
कुछ वक्त आज मै इसको निहारूं।
झाँका जो धीरे से
मन के झरोखे में ,
धुंधली परत जाने क्या
भर आया था उस कोने में।
मटमैले रंगों का ढेर था जमा
कबसे न देखा उसका था निशाँ।
खर पतवार जाने कैसे कब घुस आये थे
इस दौड़ में कब मन से लिपट समाये थे।
कभी इसको माँ -बाबूजी ने
करीने से सजाया था ,
वक्त के साथ इस आँगन में झांकना
ये भी बताया था।
किन्तु आपा-धापी में
ये सब छुट गया ,
इसकी स्वच्छता का ध्यान
खुद में रखना भूल गया।
इस गंदगी के छीटें
सफलता से बेशक न डिगाते है ,
औरों की बात क्या अपनों के ही नजर में
शायद गर्त तक गिरातें है।
सबसे पहले बैठ कर
अब इस को बुहारुङ्गा ,
शीतल विचारो से सींच
उसे और निखारुंगा।
शरीर के साथ-साथ
मन भी स्वच्छ साफ़ रहे
समय गुजरे अपने रफ़्तार से
इसमें झांकना निर्बाध रहे। ।
या दौड़ते हुए जीवन खोने की होड़
पता नहीं क्या ,
आज कुछ वक्त निकल आया
जाने कैसे ,
वक्त का मै या फिर मेरा वक्त ,
दो पल चैन से गुजारूं।
अपने मन के आँगन में
कुछ वक्त आज मै इसको निहारूं।
झाँका जो धीरे से
मन के झरोखे में ,
धुंधली परत जाने क्या
भर आया था उस कोने में।
मटमैले रंगों का ढेर था जमा
कबसे न देखा उसका था निशाँ।
खर पतवार जाने कैसे कब घुस आये थे
इस दौड़ में कब मन से लिपट समाये थे।
कभी इसको माँ -बाबूजी ने
करीने से सजाया था ,
वक्त के साथ इस आँगन में झांकना
ये भी बताया था।
किन्तु आपा-धापी में
ये सब छुट गया ,
इसकी स्वच्छता का ध्यान
खुद में रखना भूल गया।
इस गंदगी के छीटें
सफलता से बेशक न डिगाते है ,
औरों की बात क्या अपनों के ही नजर में
शायद गर्त तक गिरातें है।
सबसे पहले बैठ कर
अब इस को बुहारुङ्गा ,
शीतल विचारो से सींच
उसे और निखारुंगा।
शरीर के साथ-साथ
मन भी स्वच्छ साफ़ रहे
समय गुजरे अपने रफ़्तार से
इसमें झांकना निर्बाध रहे। ।