Monday, 15 October 2012

हकीकत

कालीखो से घिरे दीप को न देख
इस लौ को थोड़ा और जगमगाने दे,

दबी हुई थी हवा, अब बहक गई है    
रोक मत कदम बहक जाने दे।

ये गरम हवा का झोका ही सही,
दिलो में जमे बर्फ तो गलाने  दे।

हर रोज एक नई तस्वीर छपती है
थक जाय  नैन पर उसे निहारने दे।

 जो  ढूंडते अब  एक अदद जगह
 रौशनी से उनका चेहरा तो नहाने  दे।

न्याय की तखत पे बैठे है जो
उनके बदनीयत की बैशाखी अब हटाने  दे।

दिलो में घुट रही है धुआ लोगो के
इन्ही चिंगारी से आशियाना जलाने दे।

जो भीर रहे शासक से, सिरफिरे ही सही
नियत से क्या हकीकत तो जान लेने  दे।

Monday, 8 October 2012

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

जिस धरा के अंग अंग में रास ही बसी  हो,
प्रेमद्विग्न अप्सरा भी जहा कभी रही हो।
फिसल परे जहा कभी नयन मेघो के,
ऐसा  रंग जिस फिजा  में  देव ने भरा हो।
बचे नहीं कोई यहाँ इसके महक से ,
कभी किसी ने  कदम जो  यहाँ  रखा हो।
इन्ही वादियों में बिखरे मनका न गूँथ सकूँ  
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

थी खनकती तार वो जिसमे सुर संगीत है,
शब्द में न उतर सका ये वो मधुर गीत है।
वो हसीन लम्हों ने छेड़ा जो तान था ,
गुन्जनो के शोर सा  छलकता गान था।
थी हसी समा जैसे मोम से पिघल गए ,
चांदनी हसीन रात जाने कबके  ढल गए ,
जलज पात जिन्दगी कैसे स्याही सवार दू।
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

रूप को ख्याल कर, क्या उसे आकार  दू
रूह में जो बस गए कैसे साकार  दू।
आभा उसका ऐसा की शब्द झिलमिला गए
केसुओ की छाव में नयन वही समा गए ।
चांदनी यु लहरों पे हिचकोले खाती है।
दूर दूर बस वही नजर आती है।
कायनात की नूर कैसे कुछ पदों में शार दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पहली बार उससे यू टकराना,
वो नजर की तिक्छ्नता पर साथ  शर्माना।
कदम वो  बडा चले पर झुक गयी नजर,
धडकते दिल की अक्स भी मुझे  दिखी जमीं पर।
भों तन गई मगर पलक झिलमिला गए,
अर्ध और पूर्ण विराम सुरमा में समां गए।
वाक्य न बन सका कैसे विराम दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पल पल वो पल ,पल के संग बंध गए,
छण बदलकर आगे आगे दिनों में निखर गए।
हर पल अब नजर  को किसी की तलाश था,
वो चमन भी जल रहा इसका एहशाश था।
प्यास थी अब बड़  चली दुरी मंजूर नहीं,
कदम खुद चल परे जिधर हो तेरा यकीं।
ऐसे एहशास कैसे अंतरा में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू ,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

ठहर गए वक्त तब मेजो के आर पार ,
मिल रहे थे सुर दो कितने रियाज के बाद।
थी सड़क पे भीर भी और शोर भी  अजीब था ,
टनटनाते चमच्चो में भी सुर संगीत था .
और फिर साथ साथ हाथ यु धुल रहे ,
मिल गए लब भी और होठ थे सिल गए ,
उस सिसकती अंतरा को किस छंद में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
                                                  .

Sunday, 7 October 2012

मोहताज

दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

महल मिला बडेरा को या नहर कोई पी  गया,
गरीब की दवा को भी कोई यु ही लिल गया।
गाय के  चारे को जो रोटी समझ के खा गये 
तोप के गोले भी जो युही पचा गए   ।।
आदर्श घर न मिल सका उसका क्या काज है,, 
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

जमी  असमान हो या   खेत खलिहान हो ,
 ताबूतो को भी ले गए या तेलगी का काम हो ।
जहा नजर घुमाये हम , ये भिखारी छा गए
इनको  देख के अब  भिखारी भी  शर्मा गए।।
सत्यम की बात हो या खेलगांव का राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

रोटियो को मांगते गरीब हमने देखा है
जिनके पास कमी नहीं वो अमीर देखा है।।
ऐसे अमीर बढ गए जो मन के गरीब  है,
जिनके पास सब कुछ,पर लूट ही नसीब है।।
जनता अब जानता  है सबको पहचानता है,
पैसे वाले भूखे नंगे बेल अब मांगता है।
आज नहीं तो कल अब खतम इनका राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

Sunday, 30 September 2012

तेरी दुनिया




भीर हाथ बांधे  खरी, वो परा लहू से सना
थी  निगाहें ढूंडती  सभी की,कौन है यु  परा।
न मिला एक हाथ ऐसा,जो की देता साथ,
बैचैन आंखे सभी कोई अपना न हो काश।
बच न पाया, बच ही जाता,कम्बखत जो कुछ ऐसा होता।
की लहू का रंग सबका, मजहबो सा जुदा  होता।।


तेरी बनाई  दुनिया तेरे बनाये लोग,
तेरे ही नाम से लड़ रहे और सब रहे है भोग।
है तेरी नियत में खोट ऐसा हमको लगने लगा 
भूल न जाये हम तुझे इसलिए यह इल्म दिया।
इस जहा में तेरी रचना और भी कितने परे 
पर हमें अब तू बता तेरे नाम पे कितने लड़े।।


है सभी के अब जहन में, कौन  अपना और पराया 
किसको भेजा तू यहाँ और कौन कही और से आया।
जो ना इसपे अब तू जागा ,देर बहुत हो जायेगा 
तेरी दुनिया यु रहेगी, पर कौन यहाँ बच पायेगा।
जो तेरे बन्दे न हो तो कायनात का क्या करोगो
तुम भी खुद को  ढूंढ़ते, फिर हमें ही याद करोगे।।

Tuesday, 25 September 2012

फिक्स डायरेक्ट इनकम (एफ डी आई)

                          बात तो सही है अगर हरा भरा सावन सालों भर किसी के लिए है तो वो हमारा  मीडिया ही है  कभी मंदी नहीं छाता है,इनके रोजगार के लिए सरकार कोई न कोई योजना समय समय अपने पिटारे से खोलती रहती है।और ये मीडिया वाले को तो समझ तो आता नहीं बस लगते है आलोचना करने। आलोचना -समालोचना भी ऐसा की अंत तक कोई निष्कर्स  नहीं निकलता और अंतिम ओवर में निर्णय सीधे दर्शको  के हाथ में छोर देते है।अगर निर्णय ये हम जैसे ढाई आखर पड़े हुए को ही करना है तो इतने ज्ञानी जानो को बुलाने की क्या जरुरत है हमें ही बुला लिया करे।

                         अब देखिये ये एफ डी आई(फिक्स डायरेक्ट इनकम ) का क्या सुन्दर नीति लागु किया तो सभी को उसमे संशय सरकार के नियत में दिख रहा है।जिनकी नियत में खुद खोट हो उनको तो दुसरे में भी खोट नजर आएगा ही,अब ऐसे सक्की लोगो के कारण सरकार अपना राजधर्म तो छोड़ नहीं सकती।इसलिए  तुलसीदासजी ने रामायण में कहा है"जेहि के रही भाबना जैसी प्रभु मुरत देखि तिन्ह तैसी " अब बाकि पार्टियों के भावना में ही खोट है तो सरकार क्या कर सकती है। और ये समाचार प्रबंचक भी सरकार के आलोचना में अस्तुतिगान को 24x7 चलाने में लगे हुए है, समाचार पे समाचार ,सीधी बात से प्राइम टाइम और विशेस तक ये एफ डी आई का मुद्दा छ गया। आखिर अभी भी कुछ पार्टी जनता और गरीबो के हित से अपने आप को अलग नहीं रखा है,इसलिए समाजबादी हनुमान हमेसा संजिबानी लिए तैयार है आखिर इस रंछेत्र में सरकार इन्ही गरीबो के हित के कारन ही तो है। फिर ये भी तो कहा गया है "बड़े सनेह लघुन्ह पर करही।गिरी निजि सिरनि सदा त्रीन धरही।। ये गुनी ज्ञानी सरकार इस बात को समझती है तभी तो ये गरीब किसानो के लिए इतना प्रयास रत है की अपने आपको दाव पर भी लगा दी।तभी तो ये जानते हुए भी की पेड़ पर पैसा नहीं लगता ,ये  पेड़ में फल को सडा कर सीधे पैसे उगने की नीति बनाये ताकि हमारे किसान को कोई समस्या ही न रहे।इसलिये तो इस नीति को एफ डी आई(फिक्स डैरेक्ट इनकाम) की नीति कहा गया है।लेकिन बाकि सभी बिपक्छी पार्टियो को सब गलत ही दीखता है।

                     सभी चिंतित है ,पता नहीं ये सरकार  आखिर क्यों किसानो के लिए इतना परेशान है और क्यों आखिर किराने और रहरी वालो से हमारी सरकार नाराज हो रखा है।हमें तो यही नहीं समझ आ रहा है की अगर एफ डी आई  जायेगा क्या परेशानी हो जाएगी। एक महोदय का कहना है की ये किरना और रहरी वाले ख़तम हो जायेगे।अजीब बात है सरकार तो गरीबी उन्मूलन के लिए पता नहीं कितना कार्क्रम चला रही है ,नए-नए मानक तय किया जा रहा है,पर कम्बखत न गरीब कम हो रहे है और न ही गरीबी।अगर इस एफ डी आई से ये कम हो जायेगा तो इसमें परेशानी क्या है।ये तो भला हो वोलमार्ट महोदय का की उन्होंने इस महान सेवा का बीरा हमारे लिए अपने कंधो पर उठाने को तैयार बैठे है।बरना आजकल कौन से कंपनिया इस तरह के सामाजिक कार्य में अपना सहयोग देती है।ये सरकार बहुत सोच समझकर फैसला किया है क्योकि फिक्स डैरेक्ट इनकाम  (एफ डी आई) ये तो नाम से ही जाहिर है।फिर भी बे-बजह सभी गरीबी की डीग्री लिए पड़े -लिखे लोग हमारे पी एम के सर्ट उतारने में लगे हुए है।अगर इतने बड़े अर्थशास्त्री कोई शास्त्र सम्मत बात बता रहे है तो उसे समझाने की कोसिस करनी चाहिए।भाई देश में इतना अनाज हर साल होता है पर सरकार आपके घर तो रखेगी नहीं और रखने का गोदाम बना नहीं सकते क्योकि विपक्छ तो सिर्फ 2जी और कोयला कौन खा रहा है उसी के पीछे परे है ,इनको गोदाम बनाने का समय दे तब ना।कितना अच्छा सुबिचार है की ये कंपिनया गोदाम बना कर उसे जमा करेगी उससे भी नहीं होगा तो अपने देश के गोदाम में जमा कराएगी आखिर "अन्न देबो भव "बर्बाद करना तो पाप है,ये गेरुआ बस्त्र बाले भी नहीं समझ रहे।उनकी मति क्यों मारी गई।टाई सुट में जब रंग बिरंगी गाड़ियो  में सीधे खेत से सामान उठेगा तब हमारे किसान के  प्रफुलित मनोदसा को कोई समझाने की आखिर कोशिश  क्यों नहीं कर रहा? ये सब छोटे मोटे बनिया हमारी किसानो की ऊपर उठते देखना नहीं चाहते इस लिए पानी  पी कर हमारे ज्ञानी अर्थशास्त्री के पीछे पर गए। जबकि ये बार बार बताया जा रहा है की हम 1991 की हाल पर है और उस अवस्था से अभी के बजिरे आला बहार लाये थे ,अब तब से अभी तक का जमा पूंजी अगर 2जी ,कोमंवेल्थ ,कोयला में खर्च हो गया है तो कही न कही से पैसा लाना होगा न ,आखिर ये जमा भी इन्ही ने क्या था।
           आपने देखा नहीं कोमन्वेल्थ के समय किस प्रकार से झुग्गी झोपड़ी खत्म हो गया और आज दिल्ली कैसी है ,इन सब बातो को समझाते हुए भी नियत पर संदेह करे यह ठीक नहीं।जिसे घोटाले का नाम देकर बेवजह बदनाम करने की कोसिस की जा रही है ,दरअसल ये घोटाले की नीति देश के कोष को लम्बे समय तक सुरक्षित  रखने की नीति है।जिसे विशेष   परिस्थिति के लिए हर सरकार अपने समय में जारी करती है।आखिर देश का खजाना जब खाली होगा तब इसे उपयोग में लाया जायेगा,अफवाहों से बचने की कोशिस करे।ये मंत्रीगण देश की जनता को बढिया से जानती है और उनको पता है की कुछ लोगो के अत्यधिक ज्ञान की डफली जो बजाये घूम रहे है उनको फोर देंगे,आप भी भुलावे में न आये इनकी नेकनीयती पर संदेह न करते हुए समझने की कोशिश करे।