Wednesday, 24 July 2013

भूलते अतीत

भूलते नायक 
                     हर समाज अपने इतिहास से सबक ग्रहण करता है. भूतकाल के गलतियो को वर्तमान में मंथन कर भविष्य की रुपरेखा तैयार करना प्रगति का निशानी है. इसी मंथन के क्रम में अपने अतीत के नायको को याद कर उनके प्रति देश तथा समाज अपनी कृतज्ञता जाहिर करता है. किन्तु अपने यहाँ इतिहास से सबक लेना तो दूर कुछ परम्परा का निर्वाहन भी इस रूप में करते है जिससे की इसको ढोना प्रतीत होता है. स्वाभाविक रूप से जब भारस्वरूप  किसी को ढोया जाय तो कुछ तो हमसे छुटेंगे ही .  
                  देश के स्कूलों में या अन्य सार्वजनिक मंचो से अपने अतीत के वीर सेनानियों को समय-समय पर याद  करना अपने लिए गौरव तथा उन हुतात्माओ के प्रति श्रधांजली की परम्परा अब ज्यादातर कोनो से खोती जा रही है. शायद अब रश्मो का निर्वाहन भी हम करने में सक्छ्म नहीं लग रहे है. स्वतंत्रता संग्राम की लम्बी लड़ाई में शहीद हुए अनगिनत नायको में अब लगता है कुछ एक नाम को छोड़कर बाकि को भुलाने की कवायद की जा रही है. पत्रकारिता के सभी  स्तंभ अभी तक अपने कर्तव्यों में पीडियो को उनके योगदान का स्मरण कराते आ रहे है,अब लगता है खुद को इससे विस्मृत करते जा रहे है. 
             आज एक राष्ट्रिय समाचार पात्र पड़ते हुए अचानक एक विषेश  आलेख पर नजर गया.  शीर्षक था आजाद की जन्मदिन पर विशेष . कमजोर स्मृति, न किसी समाचार चैनलो पर किसी प्रकार का प्रसारण,न ही बच्चे के स्कूलों में कोई आयोजन पड़ने देखने से लगा की आज दिनांक २ ४  जुलाई को शायद इस महान क्रन्तिकारी का जन्मदिन हो. किन्तु आलेख पड़ने से मन में कुछ छोभ उत्पन्न हुआ . क्योंकि वीर क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन २३ जुलाई ही थी . ऐसा लगा जैसे संपादक महोदय खानापूर्ति कर रहे है. आम जन की भी रूचिया विग्रह ,आग्रह अब इस कदर बदल गई है की बीती पीडियो का योगदान देश समाज के प्रति न होकर खुद के लिए किया गया कार्य प्रतीति होता है. इन रुचियों को पोषक अब मीडिया अपने जरूरतों के अनुसार दिन ब दिन करते  जा रहा है.  देश के स्वतंत्रा में अपना सर्वस्व त्याग करने वाले इन वीर नायको को अगर इतनी जल्दी विस्मृत करने लगे तो भविष्य सोचनीय है . 
         किसी भी क्रन्तिकारी का रास्ता और विचारधारा बहस का विषय हो सकता है किन्तु उनके योगदान को नाकारा नहीं जा सकता . जो समाज इस प्रकार का रास्ता चुने , आने  वाले पीढ़ी के साथ एक प्रकार का धोखा है . आजादी के कितने दीवानों ने अपने आपको कुर्वान कर दिया उसकी कोई संख्या नहीं है, उनमे से कुछ को ही जान पाए. अतीत के अंधेरो से उन्हें ढूंडने की अब किसी को न ही समय है और न ही लगाव। .  किन्तु जिन आजादी के मतवालों को उस समय का आजाद हिंदुस्तान नमन किया था कम से कम हम उन्हें तो विस्मृत न होने दे. जिनको समाज ने ये जिम्मेदारी दी है की समय समय पर आने वाली पीढ़ी को इनके योगदान की जानकारी देते रहे, वो खुद पाटो में इनको बाट दिया।
      शायद वीर आजाद इनमे से किसी के भी पालो में अपने आपको नहीं पाते है . किन्तु अभी भी बहुतो की यादो में वे है .
"शहीदों की चिता पर लगेंगे हर बरस मेले ,
वतन पे मिटने वालो का यही बाकी निशां होगा ."
उन दिवानो के निशान पर बहुत जल्द कृतघ्नता का मैल चढने लगा है ,कही निशान मिट न जाये। 

Sunday, 21 July 2013

दोषी कौन ?

                     खाट जिसकी रस्सीयां  उसी के नस की तरह ढीली है।खाट की लकड़ी भी अब हड्डियो की तरह कमजोर हो रखा है। उसी का भार उठा रखा है क्योकि उसने बड़े जतन से अपने लिए वो खाट बनाया था।बड़ा ही निर्जीव खाट किन्तु खाट  की संवेदना सजीव। चारो तरफ काफी भीड़-भाड़  है। मिटटी का घर किनारे गोबड़  का ढेर, प्रेमचंद साहित्य का गाँव  अभी भी साठ साल बाद वैसे ही जीवंत तथा  मुखर है, जैसे  सरकार ने उनकी साहित्य की संवेदना को उसी रूप में रख उस अवस्था से कोई छेड़ -छाड़ न कर  सच्ची श्रधान्जली दे रखी है।  जाने कौन किसका मजाक  उडाता हुआ? निचे एक पटिये पर महिला बेसुध पड़ी है। दो दिन हो गए जब  उसका  बेटा मर गया या मारा गया । सन्नाटा पसरा  है मौत अपने साथ उसे ले के आया। कल तक बच्चो की किलकारी से परेशान उसका दादा अब आवाज को जैसे अपने पथरीली आँखों से दूंड  रहा है।
                    लगता है क्या,पड्सो  की ही तो बात है।भोलवा को भूख लगी थी । उसकी मतारी उसको  कुछ देने के बजाय चमाटा  खिलाये जा रही थी। तब तक खांसते-खांसते नाक से धुवा छोड़ते पूछा-
                 का बात है भोलवा की माँ नाहक काहे पिट रही हो ?
               कपडे से झांकते काया  को समटने का प्रयास करते उसकी माँ  बुदुदाई -अब कुछ रहे तो न दे। बिहाने से दो-दो बार डकार गया है।अब दोपहरिया बित  जाये तो कुछ बनाये अभी कहा से लाये।
              बुड़े की पूरी उम्र कटते -कटते अब दहलीज पर आ गयी। परिवर्तन के नाम पर देखा तो बहुत कुछ किन्तु शायद अभी उसको या उसके जैसो को और इंतजार भाग्य ने या लिखने वाले ने  लिखा है। उसे पता है पोते के पेट में जो आग लगी उसकी उष्णता कितनी तीब्र है।
            उसी को ठंडक पहुचाने के लिए तो उसने उसे स्कूल भेजना शुरु किया। शिक्षा  तो जरुरी है इसमें तो उसे कोई संदेह नहीं था। किन्तु सामाजिक विकास के गाड़ी  पर कभी भी सवार होने का मौका नहीं मिला। किसको दोष दे? चलो स्कूल में ज्ञान मिले न मिले अन्न तो मिलता है।समय चक्र का क्या कहना कभी कहते थे शिक्षा  होगी तो खाना अपने आप मिलेगा किन्तु अब खाना लेने  पर शिक्षा  मिलता है। 
           आज उसके हाथ में सरकार के बड़े अफसर एक कागज का टुकरा थमा गए। भोलवा पेट की आग को ठंडा करने में खुद ही ठंडा हो गया।
         सोच रहा अगर भोलवा घरे में ऐसे चल बसता तो कोई पूछने भी नहीं आता,बस साथ में यही के दो चार पडोसी होते,किन्तु आज तो काफिला है गाँव में। भोलवा तो का कुर्वानी दे दिया की  पुरे घर ही अब संबर जायेगा।
               किन्तु बुड्ढा अभी भी ललाट की उभरी  नसों पर जोर मार रहा है, ऊपर आती जाती सांसो से ही पूछने की कोशिस   में।दुलधूसरीत काले पन्ने पर कुछ  कालिख प्रश्न गली में फडफड़ा कर उड़ रहे। प्रश्न मुह बाये है,मुह पर हाथ है कोई आवाज नहीं बस दिमाग झनझना रहा है  -भगवान मारता तो किसी से कुछ कह भी नहीं सकते, अच्छा है भोलवा की जान लेकर भोलवा के भाई को दो निवाला मिल गया। लेकिन क्या भोलवा के भाई को अपने जीते जी वहां पेट में ठंडक पहुचने भेज पायेगा? किन्तु भोलवा के जाने का दोषी कौन है ,उसकी मतारी ,वो खुद या कोई और ...........? सोचते -सोचते नजर उस कागज के टुकरे पे था, हर अंको के गोले में जैसे भोलवा का चेहरा दिख रहा हो ....

Wednesday, 17 July 2013

सपनो की हत्या

                               त्रासदी ,विडंबना ,दुर्भाग्य क्या कहा जाय। इतने इतने बच्चो का बेवक्त इस दुनिया से रुखसत। उन फूलो की मौत ,उन चिरागों का बुझना जिसको लेके कितने उम्मीदे  पाल रखी होगी। सपनो की अकाल त्रासदी। न जाने कौन गुदरी का लाल कल का कलाम होता,कौन इनमे रामानुजन की राह चलता ,किसको शास्त्री जी की  कर्मठता अपनी और खिचती। जिन लोगो के आंशु पसीने के रूप में निकल कर बह गए उनके ही बच्चे  थे, अब आंशु बचे भी नहीं होंगे क्या बहायेंगे ये बेचारे। अरमानो की पूरी स्वपन महल न जाने किनके करतूतों की वजह से  उजाड़ गयी। क्या अपराध था इन बच्चो का क्या ये गरीब थे, या इन्होने ज्यादा भरोसा कर बैठा की कोई उसको उबरने का प्रयास कर रहा है।कमबख्त अपने ही घरो के आनाजो पर भरोसा क्या होता ,थोड़ी पेट ही खली होती, भूख से कुछ समय बिलखते,कुपोषण दूर करने गए खुद ही धरती से दूर हो गए।
                            सामान्य घटना तो नहीं है ,इसलिए असामान्य रूप से सभी मीडिया के बिभिन्न स्तरो पर चर्चा का केंद्रबिंदु है। घटना के बाद की प्रतिक्रियाओ से लगता है जैसे अब हम इन बातो के इतने अभ्यस्त  हो गए है की इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असामान्य रूप से संवेदनाये अपने -अपने स्वार्थ,हितो को देखते हुए असंवेदनशील रूप से व्यक्त किया जा रहा है।
चलो लौट जाये 
                                क्या सिर्फ व्यवस्थापक दोष के ही कारण ऐसे घटनाओ की पुर्नावृति हो रही है या समाज के हर स्तर पर हम सब किसी न किसी रूप में इस के लिए जिम्मेदार है विचारणीय है। किसी भी देश का बाल पूंजी इस प्रकार से काल के गाल में समां जय तो भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगना अश्वाम्भावी है। या इस तरह के प्रबंधो के निहित बच्चो को देश का भविष्य मानने में संकोच तो हम नहीं कर रहे है। आंकड़े कहते है की लगभग ४ ७ % बच्चे कुपोषण के शिकार है उनमे से कितने इस प्रकार के प्रबंध के तहत है उन आंकड़ो से क्या सिर्फ बैचैनी होती है की पता नहीं ये बच्चे कब इसका शिकार हो जाये।
                                  हर घटना के बाद की जाँच की औपचरिकता पुनः इसके बाद भी दोहराया जायेगा। जिन माँ के गोद इसके कारन सुनी हो गई उनका क्या? गरीबी की मार से दबे इन परिवार के लोग अब ऐसे मार से दब गए जिसमे उनको उबरने में वर्षो लगेंगे। किसी भी मुवावजे की सूरत ऐसे नहीं हो सकती जिसमे अपने से जुदा बच्चो की तस्वीर ये परिवार वाले देख सके।                                  

देश का भविष्य ?
                घटनाओ से हमें सबक सिखने की आदत नहीं। चाहे ये घटना हो या कोई और। प्राकृतिक या मानव निर्मित। ऐसे लगता है हम सिर्फ घटना सुनने के लिए या फिर सहने के लिए है।हर के बाद किसी और के होने की इंतजार का एक रोग लगा हुआ है तभी तो रोकने के नाम पर सिर्फ कागजो का दोहन कर उसे पुनरुत्पाद हेतु खोमचे वाले के पास दे आते।इस भ्रम में  न रहे की इन घटनाओ का कोई आर्थिक आधार है ये किसी भी वर्ग के लोगो को कभी भी डस कर अपना शिकार बना सकते है। जैसे ये फूल खिलने से पहले मुरझा गए।  

Monday, 15 July 2013

जीवन क्या.................?

जीवन  क्या ............... ?
पुष्प की अभिलाषा है,
या रस से भरी मधुशाला है,
खिली गुलाब की पंखुरियां है,
या काँटों से भरी पुष्प की डलियाँ है।।

जीवन  क्या ................... ?
शांतनु का प्रेम- प्रलोभ है,
या भीष्म का राज निर्लोभ है,
कृष्ण का निष्काम कर्म योग है,
या अर्जुन का मोह संशय वियोग है।।

जीवन क्या  ...................?
एकलव्य से गुरु के दक्षिणा याचना है,
या द्रोणाचार्य की शिष्य से संवेदना है ,
दुर्योधन की भार्त्र कपट लीला है
या लांछित कर्ण की दानशीला  है।।  
   
 जीवन क्या  ...................?
उत्तरा की नींद का आगोश है,
या अभिमन्यु का चक्रब्यूह प्रवेश है,
ध्रितराष्ट्र का अंध-पुत्र मोह है,
या युधिष्ठिर का अर्ध-सत्य संयोग है।।

जीवन क्या ...................... ?
कैकई की त्रिया-हठ कोप भवन वास है,
या पुरुषोत्तम राम का त्याग बनवास है ,
कामुक इंद्र की छल-प्रपंच लीला है,
या गौतम शापित अहिल्या की शीला है।।

जीवन क्या .......................... ?
हजारो तारो का  अकुलित प्रकाश है, 
या उद्योदित रवि का अट्टहास है ,
चाँद की शीतलता का मधुर पान है, 
या अग्नि की तीब्रता का विषद ज्ञान है।।

जीवन क्या ......................... ?
खुशियों का ज्वार है,
या गम की तरल धार है,
आकंछाओ की अभिव्यक्ति है,
या मृगतृष्णा से खुद की मुक्ति है।।

जीवन क्या  ........................?

Sunday, 14 July 2013

फुटपाथ

नीचे जिन कंक्रीट के रास्ते पर 
दौड़ती सरपट सी गाडिया 
शायद  उनपर  चलते बड़े लोग ।   
पर ऊपर भी साथ लगा 
है कुछ का आशियाना 
संभवतः समय से ठुकराए लोग।
पेट की भाग दौड़ में 
कारो और  सवारियो की रेलम पेल में 
दिन के भीड़  में गुम  हो जाते है।
आहिस्ता-आहिस्ता सूरज खामोशी की ओर 
चका चौंध और आशियाना जगमग
कुछ कुछ रुकती रफ़्तार है ।
पसीना में भींगी दो जून की रोटी 
हलक में उतारा है गुदरी बिछा दी 
पसर गए भूल कर आज,कल के लिए।
पहुचने के वेग मन के आवेग में 
न खुद पे यकी, होश है नहीं कही
रास्ते  को छोड़ा और जा टकराया है।
नींद में ही चल दिए,कुछ समझ भी न पाया 
फुटपाथ पर ऐसे ही  जिन्दगी मौत पाया है।
आज सब कुछ कल सा ही वही दौड़ती गाड़ी
बस पसरे हुए गुदरी का रंग बदल गया है ।।