Wednesday, 31 May 2017

फरफराते पन्ने....

              भय का आवरण क्या सामाजिक चेतना से हट गया है? नव समाज के लोकतान्त्रिक पुरोधा और सामाजिक शास्त्र के नीति नियंता इस बदलाव को देख पा रहे है ? और यदि देख पा रहे है तो क्या जानबूझकर शुतुरमुर्ग की नियति पर चल रहे है..? दोनों ही स्थिति, वर्तमान की गंभीरता को दर्शाता है। गाँव की गलियो से निकलने वाले कच्चे रास्ते विकास की जिस गति से कंक्रीटों में बदलते जा रहे है ये संक्रमण कही मन मष्तिष्क को वैसे ही कंक्रीट तो नहीं बना रहा है? विकास की हर दहलीज लांघता आज का समाज को इतनी फुर्सत नहीं की इस बदलाव को समझने की चेष्टा करे।मनोविज्ञान की कसौटी पर मानवीय प्रवृति के बदलाव का आंकलन को विज्ञानं के कसौटी पर परखने का प्रयास हो या विज्ञानं के रास्ते इन संचेतना की बदलाव को दर्शन से समझने का प्रयास हो।वर्तमान का सच सामाजिक मानवीय व्यवहार के भावों को जोड़ने वाले तंतुओ के क्षीण होते शक्ति को दर्शाता है। जहाँ भीड़ में तब्दील होते व्यवहार किसी के प्रति किसी भी हद तक दुराग्रही हो सकता है, जो किसी भी स्तर तक गिर विक्षिप्त भाव को रह रह कर उजागर कर देता है। बात सिर्फ दिल्ली की क्यों ?  कही भी नजर दौड़ाइए इस हिंसक प्रवृति की मानसिकताएं आप चारो ओर देख सकते है।
  कट ऑफ मार्कसो की लांघती दीवारों की पीढ़ी ज्ञान की उस वास्तविक चुनौतियों को चुनौती दे रहा है, जहाँ मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के दर्शन को स्वीकार करता है।  उसके ज्ञान और विवेक में अंतर इस चुनौतीपूर्ण व्यवस्था में खुद के जद्दोजहद में मिट सा गया लगता है  । जहाँ प्रश्न किये जाने की गुंजाइश और टिप्पणी को त्वरित प्रतिक्रिया के साथ सब कुछ समय से पूर्व निपटाने का प्रयास हो रहा है। समय की अवधारणा के बदलते मायने तेज बदलती दुनिया में  सह-अस्तित्व के वैचारिक धरातल को किस तरह से बदल रहा ऐसे घटनाएं बस बानगी मात्र ही है।संवाद की एकांगी अवस्था है जहाँ सब कहने का ही प्रयास कर रहे है, सुनने की क्षमता शायद लॉप होता ज रहा है।
       कहते है मृत्यु से बढ़कर कोई सत्य नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर जीवन है। जिसके ऊपर मानव सृष्टि के उद्भव से लेकर आज तक सिर्फ और सिर्फ इस सफर के पड़ाव में मानव व्यवहार पर दर्शनों के असीमित व्यख्या है। किंतु यह  सत्य कितनी आसानी से भीड़ बन हवाओ में विचरण कर रहा है जहा जिंदगी की कीमत क्या है? शूल सा प्रश्न चुभता है और उसके लिए कही ताकने झाँकने की जरुरत नहीं है। बड़ी आसानी से हम अपने सुविधानुसार विवेचना कर आगे तेजी से कदम बढ़ाते जा रहे है। ये त्वरित चाल सिर्फ उन्ही कदमो में है जो या तो खुद को काफी आगे निकल जाने का मुगालता पाल रखे है या जिनको लगता है हम काफी पीछे छूट गए तो किसी बंदिशों से विद्रोही तेवर है। समष्टि की अवधारणा जब बंटे हुए अस्तर सी अनेक परतों में दबी कुचली सी हो और हर कोई अपने ही अस्तर को दुरुस्त करने के लिए अपने सुई और धागे का इस्तेमाल कर रहा हो, यक़ीन मानिये वो बेहद ही बदरंग होगी। हम अपने विशष्ट शैली में अवधारणा के मानदंड पर उसका विबेचना करते रहे मूल जड़ तक जाने की हमारी चेतना न हमें गवाही देता और न वर्तमान का गर्म हवा मौका। हमारा विवेक इस कदर विकेन्द्रित होता जा रहा सत्य की पुष्टि के मायने , विचार और धारा पर सवार होकर सबके सामने उभरता है ।
      बेहतर है कि इन छोटी छोटी घटनाओं को वर्तमान ढाँचे के आईने में न देखे। किसी घटनाओं के तत्कालीन कारण को सिर्फ कानून व्यवस्था और राज्य की भागीदारी की आलोचना कर आगे बढ़ते जाने की प्रवृति काफी भयानक और विकृत हो सकता है। रोग की जड़ में जाने का न कोई प्रयास है न कोई जरुरत । क्योंकि आज में जीने की हम आदि हो गए है। अंदर से सब इतने डरे सहमे है कि कल का सच्चाई मुँह बाए सामने खड़ी है और हम है "अल्टरनेटिव रास्ते" की तलाश में खानापूर्ति कर वक्त जाया करने में लगे है।
     वर्तमान का सच काफी कड़वा और घिनौना है और हम नाक और कान बंद कर आगे बढ़ने की असफल चेष्टा कर रहे। सामाजिक मान्यताओं के पुस्तक के पन्ने ऐसे हरकतों से तड़प कर फरफरा रहे है और एक एक कर बिखर रहे है। हम पन्नो को सहेजने की जगह सिर्फ जिल्द बदलने में लगे है।
      

Sunday, 28 May 2017

बैगपाइपर

                एक राजा था । काफी वर्षो से राज्य कर रहा था।उसे जो राज्य की विरासत मिली थी उसने काफी मेहनत से उसे सवारने का प्रयास किया। उसका राज्य पहले की अपेक्षा काफी मजबूत भी हो गया।लोग मेहनत कर अपना रोजी रोटी भी चला रहे थे।पहले तो कुछ पडोसी राज्यो ने परेशान भी किया किन्तु जब लगा की इससे टकराना ठीक  नहीं तो अमन चैन से ही आगे बढ़ाना उचित समझा।किन्तु बीच बीच में ऐसा कुछ हरकत कर जाता की राजा और प्रजा दोनों बेचैन हो जाते। इसी में कुछ लोग जो राजा के विरोधी थे।अब राजा के खिलाफ प्रलाप जनता के बीच करने लगे। रोज रोज अब जनता के बीच जाकर राजा के विरुद्ध कोई न कोई आरोप लगा देते। जनता जो की अपने में व्यस्त रहता पहले तो अनसुना रहा,लेकिन हर रोज कुछ न कुछ सुनकर अब उसके मन में भी संदेह उठने लगा। राजा के गुप्तचर उसको इस बात की सुचना समय समय पर देते रहते किन्तु वह अपने काम में व्यस्त रहता और कुछः नहीं कहता। अब जो यह देखते तो उनके मन में भी शंका उठने लगा। हर रोज राजा के खिलाफ कोई न कोई प्रवंचना होता और राजा है कि कुछ कहता नहीं। राजदरबार और उसके मातहत को भी राजा के इस व्यवहार पर शंका होने लगा। अब कुछ लोग सोचने भी लगे कही कुछ गड़बड़ तो नहीं। आखिर राजा कुछ कहता क्यों नहीं।
              दिन बीतने लगे।धीरे धीरे प्रजा भी राजा के व्यवहार पर शंका करने लगे। अब अगर दूसरे राज्य द्वारा कुछ कर दिया जाता तो विरोधी इसके लिए अब राजा की निष्ठां पर प्रश्न उठाने लगे। जनता भी धीरे धीरे अब दैनिक कार्य कलापो से ऊपर उठ राष्ट्रभक्ति स्वाभिमान ,संस्कृति के मूल्याङ्कन में विचार विमर्श शुरू कर दिया। विरोधी ने राजा के अब तक के कार्य का मूल्यांकन करना शुरू किया। अब जनता के मन में भी शंका के कीड़े पनप चुके थे। सो उन्होंने विरोधीयो के किये जा रहे मूल्यांकन को सही मानने लगे। इसका आधार किया है और किसकी तुलना में मूल्याङ्कन है इससे अब किसी को कोई मतलब नहीं था। मन में अब जो ज्वार उठ रहे थे उसमे वास्तविकता कम और भाव ज्यादा थे। धीरे धीरे प्रजा और खिलाफ होने लगा। विरोधी के बात पर अब प्रजा यकिन  करने लगा। लोगो ने एक तरह से बिना राजपठ के उसे राजा मानने लगे।
         अब राजा को ये पता चला की जनता में उसके प्रति अविश्वास हो गया तो उसने अपने सभी दरबारियों को बुलाकर मंत्रणा करना शुरू किया। इस तरह से जब प्रजा विरोध में हो तो कितने दिन तक राज पाठ सुरक्षित रहेगा। यह सोचकर उसने यह निर्णय लिया की क्यों न विरोधी नेता को राज्य सौप दिया जाय और देखे ये राज्य की खुशहाली के लिए किया करता है। यह कहकर उसने अपने पूरे मंत्री परिषद् के साथ इस्तीफा देकर विरोधी नेता को राज्य सौपने की घोषणा कर दी।
           इस फैसले के साथ ही पूरे राज्य में ख़ुशी मि लहर फ़ैल गई। चारो ओऱ ढोल नगर बजने लगे आतिशबाजियों से पूरा राज्य गूँजने लगा। लोगो को लगा की अब मसीह आ गया और जिस स्थिति में है उससे बहुत बेहतर उनकी स्थिति हो जायेगी। विरोधी नेता ने राज्य ग्रहण के साथ ही शब्दों के सुनहरें भविष्य रच दिया।लोगो ने कहना शुरू किया कि जो इतना अच्छा बोलता और सोचता है तो कितना अच्छा काम करेगा।  उसने अपने सबसे काबिल लोगो को अपने मंत्री परिषद् में रखा ।बेसक जनता न पसंद करते हो।किन्तु अब राज्य तो उनके पास था। लोगो के आँखों में वादों के लंबे पेहरिस्त तैरने लगे। तत्परता ऐसी की लगने लगा सब कल ही पूरा हो जाएगा।
             अब राजा बनते ही उसे कुर्सी में छिपे कांटे चुभने लगे। सो वो समझ यहाँ से बाहर रहने में ही भलाई है। यह सोचकर उसने पडोसी और अन्य  देशो का भ्रमण शुरू कर दिया। जनता को भरोसा दिया की जब रिश्ते पड़ोसी के साथ मधुर होंगे तो तनाव नहीं होगा और तनाव नहीं होगा तो हम विकास पर ध्यान देंगे। फिर अपना राज्य खूब विकास करेगा। जनता ने उसकी इस सोच का दिल खोल के स्वागत किया और मगन हो सुन्दर भविष्य के सपने संजोने लगे। किन्तु कुछ दिन बीतने पर जनता को अपनी हालात में कोई सुधार नहीं नजर आया। जनता सवाल करती उससे पहले राजा कोई नया दांव खेल देता और जनता फिर ताली बजाने लगती। बीच बीच में कुछ काम जो पिछले राजा ने अधूरे छोड़ रखे थे उसके पूरा होते ही मुस्कुराकर खूब जनता का अभिवादन लेता था। किंतु जैसे ही जनता अब मूल्यांकन करती फिर से कुछ ऐसा कर देता की समर्थक ताली पीटते किन्तु जनता के हाल जस के तस थे। करते करते कुछ वर्ष बीत गए किन्तु जनता की हालत जस तस बल्कि और ख़राब होने लगी। जनता अपनी मन की बात कहना चाहता है लेकिन राजा झरोखे से अपनी मन की बात सुनाकर गायब हो जाता।
           किन्तु जनता सब कुछ के बाद अब भी खुश और मोहित है। उसे कर्म के फल का कोई मलाल नहीं है उसे पता है उसका राजा रात रात भर जगता है।खूब सोचता है और बाते करता है।सभी को अपनी मन की बात भी बताता है। किन्तु कुछ लोग अब पहले वाले राजा को ढूंढने में लगे है। लेकिन अब भी एक लंबी लाइन है जो "बैगपाइपर" के पीछे है। राजा एक नई धुन बजा देता और भीड़ पीछे पीछे होकर मदमस्त हो खूब ढोल नगारे पीटने लगता। दुखी और व्यथित लोगो के अब आवाज उसमे ग़ुम हो जाते।
         पहले वाला राजा अब भी उसी राज्य में है। जो कभी काम के बोझ से मुस्कुरा तक नहीं पाता था । अब कभी कभी जनता को देख मुस्कुरा देता है। जनता अब समझ नहीं पा रहा है कि यह राजा की नाकामयाबी देख कर मुस्कुरा रहा है या जनता की स्थिति देख कर...???

Sunday, 14 May 2017

मातृ दिवस पर कुछ पंक्तियां....।।

कुछ लिखू
पर क्या लिखूं
अक्षरों की दुनिया से जाना
एक दिन तुम्हारे लिए भी है।
पर तुम मेरे लिए
सदैव से वैसे ही हो ,
अक्षरों और शब्दों से परे हो
तुम अर्थ और तात्पर्य से बड़े हो ,
क्षण,पल,अवधि की सीमा
एक दिन में कैसे समायेगा ?
मेरे निर्माण, पोषण और वर्तमान का भाव
बस एक दिन में कैसे आएगा ?
मैं एक दिन में कैसे कहूँ-क्या कह?
मैं हु तब भी तुम हो
मैं नहीं हूँ तब भी तुम हो ।
मेरी सृष्टि की रचैयित तुम
तुम ही पालनकर्ता
मेरी जीवन की धुरी तुम
तुम ही मेरे परिक्रमा की कक्षा हो ।
शब्दो की क्षमता नहीं
मेरे भाव को समेट सके
व्योम की सीमाहीन अनंत सी
कैसे तुम्हे समझ सके।
जीवन के प्यास में
अमृत की धार हो
बस और क्या कहे
संपूर्ण जीवन की सार हो।
क्या कहूँ मै ?
बहुत कुछ है पर पता नहीं
क्या कहूँ मैं ?

Saturday, 15 April 2017

संतोष ...।

            झमाझम बारिश हो रही थी। पता नहीं क्यों बादल भी पुरे क्रोध से गरज रहा था। पल भर में मंदिर का परिसर जैसे खाली हो गया। कई को अंदर इसी बहाने कुछ और वक्त मिल गया।पूजा का थाल लिए लोग या तो अंदर की ओर भाग गए या कुछ ने प्रागण में बने छत के नीचे ठिकाना ढूंढा तो किसी ने अपने छाते पर भरोसा किया। महिलाएं हवा से अपनी पल्लू संभाली तो किसी ने  पूजा की थाल को इन पल्लू से ढक लिया । आखिर भगवान् को भोग लगाना है। पंडित जी अब थोड़ा इन्तजार करने लगे, क्योंकि भक्तजन तीतर बितर हो गए।
        इन सबके बीच वो लड़का अब भी मंदिर के बाहर यूँ ही खुले आसमान के नीचे खड़ा है। बारिश से पूरा बदन भींग रहा है। बदन के कपडे शरीर से लिपट अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है। पेट या पीठ पता नहीं चल रहा। एक दो ने भागते भागते उसे छत के नीचे छुपने के लिए कहा भी। लेकिन जैसे अनसुना कर वो बारिस का ही इन्तजार कर रहा था। कुछ झिरकते हुए उससे बचते निकल गए।
       उसका चेहरा किसी ताप से झुलस सा गया हो ऐसा ही दिख रहा । पानी की बूंद सर से गुजर पेट को छूते छूते जमीन में विलीन हो रहा । इस बारिश के बूंदों को पेट से लिपटते ही चेहरे से समशीतोष्ण वाष्प निकल रहा  है। ओंठो से टकराते पानी की बूंदों को जैसे गटक ही जाना चाहता है। वो अब भी वही खड़ा है।
        बारिस की बुँदे अब थमना शुरू हो गया।
 मंदिर अंदर से पंडित जी ने लगभाग चिल्लाते हुए आवाज लगाया -सभी भक्तजन अंदर आ जाए....। भगवान् के भोग का समय हो गया।
लोग निकलकर मंदिर के अंदर प्रवेश करने लगे। किसी के हाथ प्रसाद के थाल, किसी ने मिठाई का पैकेट तो कोई फल का थैला लटकाए अंदर बढ़ने लगे।
       वो अब भी वही खडा हो उन प्रसादो को गौर से देख रहा था ,एकटक निगाहे उसी पर टिकी हुई है ।बीच बीच में ओंठो पर लटके बूंदों को अब भी गटकने की कोशिश कर रहा है ।
          "शायद भगवान उससे ज्यादा भूखे है".....उसके चेहरे पर पता नहीं क्यों संतोष की हलकी परिछाई उभर आई है।

Thursday, 6 April 2017

उलझे ख्वाव ....

किसी दिन अँधेरे में
चाँद की लहरों पर होकर सवार
समुन्दर की तलहटी पर
उम्मीदों की मोती चुगना ।।

किसी रात गर्म धुप से तपकर
आशाओं के फसल को
विश्वास के हसुआ से
काटने का प्रयत्न तो करना ।।

बिलकुल मुश्किल नहीं है
रोज ही तो होता है और
दफ़न हो जाते जिन्दा यूँ ही कई ख्वाव
अपने अरमानो के चिता तले ।।

दिन के उजालो में
जब अंधेरे की रौशनी छिटक जाती है
और हम देख कर भी
देख नहीं पाते या देखना नहीं चाहते ।।

लफ्फाजी के गुबार में
अपनी आकांक्षाओं का अर्थ तलाशते रहते है और
बुझते रहते हर रोज ही कई  अरमानो के दिये
दिन के उजाले में किसे दीखता है ये ?

रिस चुके आँखों में रेगिस्तान का बंजर
कहाँ दीखता किसी को
और कभी मापने की कोशिश तो करे
पुस  की रात में जठराग्नि की ताप को।।