Monday, 9 October 2017

आज के निहितार्थ का द्वन्द

                  हम चिंतित नहीं होते,  ये कुछ अक्षरों के ज्ञान का सगल है कि बहुत अनुत्पादक होने के बाद भी हम कुछ ऐसा सोचने को विवश होते है जिसका सरोकार जितना हमसे होता है उतना ही समाज से। बहुउदेशिय सरोकार की धार जब एकल सम्मुख बहने लगे और सहयोगी धार का रुख मुड़ जाए या आप ये समझिए की एकांगी राह की और उन्मुख होने लगे तो स्वयं का अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा ही देती है । अपने मुख्य धारा की बहाव को भी उसी मात्रा में प्रभावित करती है। उसके शुष्क होते भाव अगर बैचैनी की छाया से ग्रसित नहीं कर रहा है तो भविष्य के अंधकार को भांपने में हम सक्षम नहीं हो पा रहे है।
       वर्तमान हमेशा से भूत और भविष्य के अन्तर्विरोधों से द्वन्द करता आया है। सभ्यता का विकास जिस काल चक्र की धुरी पर अग्रसर है वह उसका आदि और अंत वैचारिक सभ्यता के उदय के साथ से ही विवादस्पद भविष्य की रुपरेखा तय करता आया है।  या फिर इस मतैक्य के साथ एक सीधी रेखा के समुख्ख गमनशील विचार आखिर कैसे वस्तुनिष्ठ होकर भावनाओ की अहमियत दरकिनार कर श्याम गुफा की अग्रसर होता जा रहा है।
      यह भी अहम है कि आखिर भविष्य जब भावरहित हो संबंधों के बीच बंधनों को ढूंढने का प्रयास करे तो एक घर की छत से लटक रहे पंखे दीवारों की सोभा बढ़ाते कलात्मक रौशनी के बल्व या ड्राइंग रूम की सोभा बढ़ाते खूबसूरत कुर्सी और गद्देदार सोफे का संबंध उस घर से जितना सरोकार रखता है । इंसानी सरोकार भी उतने में सिमट कर कही रह न जाए। 
         कितना विरोधभास है कि सभ्यता के चरम की ओर गमनशील समाज जब विज्ञानं के सतत विकास के साथ सुख सुविधाओं के नए आयाम को ढूंढ रहा है । वही दूसरी और इंसान इंसानी चेतना के नित्य विकृत होते जा रहे चेहरे से आए दिन रु आबरू होता आ रहा है। इस सिमटते दुनिया में जब भाव और विचार जिसकी कोई वैज्ञानिक आयाम में इकाई नहीं है बढ़ती दुरियो का निर्धारण आखिर कैसे किया जाय? वर्तमान की अटखेलियां कई कर्कश ध्वनियों का उत्सर्जन कर रही है उस शोर को ख़ारिज कर आखिर हम कौन सा राह तय करना चाहते है? या फिर आत्मकेंद्रित भाव जहाँ स्व का निर्धारण भी असमंजस की स्थिति पैदा कर रहा है वहां समुच्चय बोध का निर्धारण भी आखिर किस प्रकार से किया जाय ? पारस्परिक सहयोग और प्रेम का जितना सरोकार वैश्विक स्तर पर किये जाने का प्रयास हो रहा है, उतने ही स्तरों पर एकांगी चेष्टा की धार यह प्रदर्शित कर रहा है कि बुनियादी स्तर पर भावो का विरूपण ऐसा हो गया है कि सामूहिक रूप से भविष्य का क्रन्दन कौन सुनेगा इसका सरोकार अब मतलब की बात नहीं है।
    फिर बिडम्बना तो ये भी है कि हम इकाइयों में जन्म से बटना शुरू हो जाते है। परिवार की इकाई, समाज की इकाई, नगर की इकाई, जिले की इकाई, राज्य की इकाई और फिर देश होते हुए विश्व की इकाई। इन मध्य में पड़ने वाले वैश्विक स्तर पर छितराये जाती, धर्म, सेक्ट इत्यादि को आप छोड़ भी दे तो। अर्थात विकास के क्रम में बटते इकाई जब बाटते बाटते इस स्तर पर आ जाए जहाँ अस्तित्व की तलाश का प्रयास होने लगे फिर भविष्य पर नजर लगाना जरूरी हो जाता है।
     वर्तमान के वैज्ञानिक रोबोट में भी भाव और संवेदना के संचार में अध्ययनरत है और इंसान में जैसे ये गुण शुष्क होता जा रहा है। भाव भंगिमाओं के नए नए आवरण चढ़ा जब हम एक दूसरे से ही अजनबी सा व्यवहार करने लग रहे है।समझ की अवधारणा बदलती जा रही हो फिर समझना तो दुःसकर होगा ही। फिर ये भी समझना होगा की आखिर हम समझना क्या चाहते है? क्या मत मतान्तर के नाम पर स्वजन निर्मूल का भाव धरा जाय या सर्वश्रेष्ठ की नस्ल की स्थापना के लिए अन्य का निर्बाध आघात किया जाय अपनी समकालीन श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए प्रतिरोधी भाव धर भूतकाल की भांति पलभर में एक समूह और स्थान को संज्ञा शून्य कर दिया जाय?
    वर्तमान इन रोगों से ग्रस्त है चाहे वो किसी भी इकाई और स्तर पर हो। मानवीय मष्तिष्क के इन संवेदनात्मक तंतुओ का जिस प्रकार से क्रमिक क्षय हो रहा है। वहां आने वाली पीढ़ी उसको ढूंढने का सिर्फ प्रयास ही करता रहेगा बाकी समाज,धर्म,देश-राष्ट्र कही अपने होने के निहतार्थ पर स्वयं से प्रश्न करता हुआ किसी जीवाश्म की तरह परिवतिर्त हो सिसकियाँ बहा रही होगी। 

Tuesday, 15 August 2017

शुभकामनये ..........

हम एक अभिसप्त समय के मूक दर्शक बनते जा रहे है। बहुत सारे सवाल जब शूल की भांति मन के हर नस में अपनी पीड़ा उड़ेलना चाहता है, हम दार्शनिकता का भाव भर विचार शृंखला से टकराना छोड़ कही कोने में दुबकने  ज्यादा आकर्षित होने लगते है । किंतु दम तो हर कोने में घुट रहा है, अंतर इतना ही है कि उस विषैली फुफकार जो लीलने के लिए तैयार बैठा है, कब उसके साँसों में घुल कर स्वयं को विषाक्त करता जा रहा है, इस क्षमता को पड़खने की मष्तिष्क की तंतू कब की विकलांग हो गई है, शायद हम में से बहुतो को आभास भी नहीं हो पा रहा है।
        घटनाओं का दौर प्रारब्ध की सुनियोजित कर्म क्रिया का प्रतिफल मान स्वीकार करने की भाव में सब बंधे से लग रहे है। नहीं तो कान्हा के धरती पर कई कान्हा यूँ ही कालिया नाग का ग्रास बन कर विलुप्त हो जाए और फिर भी विचारो की टकराहट बौद्धिक विकास के चरम पर परिलक्षित करने में विवेकवान और विवेकहीन के अंतर को पाट दे तो वर्तमान के अंधेरे को शायद इस चका चौंध भरी प्रकाश में देखना संभव भी नहीं है।
      युगों को पाटते जब वर्तमान का कलयुग और आधुनिक काल के स्वतंत्रता के इकहत्तरवे वर्ष में जब आदिम युग की संभावनाओं और उसका प्रहसन ऐसे ही चल रहा हो जहा जीवन और मृत्यु के बीच बात और विचार के अंतर को समझने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है तो , किस विचारो के उन्नत पक्ष पर हम गौरवान्वित हो शंका से भरे कई सशंकित प्रश्न यूँ ही हवा में तैर रही है।
        सच भ्रामक होता जा रहा है और हकीकत को देखने की क्षमता का क्रमश ह्रास, फिर आगे क्या...?
शायद हम आगे भी यूँ ही विभिन्न भाव भंगिमा के साथ सच को और दृढ होकर अस्वीकार करने की क्षमता को शायद विकसित करने का प्रयास करेंगे ......क्योंकि बहुत कुछ होने के बावजूद भी पता नहीं क्यों लगता है कि शायद कुछ हुआ नहीं...। सभी अब भी अपने अपने प्रारब्ध से ही खेल रहे है।
      किन्तु विशेष अवसरों पे सुभकामनाओं की कामना शायद कुछ बदलाव लाये।
     ।।स्वतंत्रतादिवस की आप सभी को हार्दिक सुभकामना।।

Saturday, 8 July 2017

स्व आलाप .....

किसी खामोश और तन्हा शाम
जब सूर्य की किरणें
समंदर के लहरो से खेलते खेलते
उस में खो जाएँगी ।
दूर दूर तक फैली
उदास सी रेत की चादर
पल पल सिसकते हुए
ओंस सी भीग जायेगी ।

फिर भी एक मधुर स्मित सी रेखा
जो अधर पे उभर जाए
अमावस की काली रात को भेदने के लिए
बस उतना ही काफी है।
कभी कभी इन चेहरों को
मष्तिष्क में उलझी नसों के परिछाई से
आजाद रहने की मोहलत तो दो।

शब्दे एहसास का भाव भर है
हकीकत की इबारत नहीं ।
सब मुस्कुराते से मुखौटे से लगते ही है
क्यों न तुम भी
एक मुस्कुराता मुखौटा ही लगा लो ।
हकीकत से टकराने की अब
न ही इच्छा है न सामर्थ्य ।।

आज नहीं तो कल
हम यूँ ही उलझेंगे जैसे
तुम अंतरात्मा की आवाज होगी
और मैं दुनिया का शोर ।
चिल्लम पों मचाएंगे एक साथ
जो प्रतिध्वनि धीरे धीरे फैलेगी चहुँ ओर
हर के लिए उसमे
अपने जीवन का संगीत दिखेगा ।
क्योंकि सुर मिलकर
आजकल एकाकार कब होते ।
कर्कश की कर्कशता में हम घुल गए
यही तो सर्वोत्तम आलाप है।।




Saturday, 24 June 2017

मैं.....

जब 'मैं' , 'मैं' नहीं होता हूँ ।
तो फिर क्या ?
तो क्या मेरे अस्तित्व का विस्तृत आकाश
अनंत तक अंतहीन होता है ?
या अनंत में विलीन होता है ?
या मेरे वजूद के संगीत की सप्तक
किसी के कानों में मूर्त एकाकार होता है।
'मैं' मुक्त, साकार.. क्या निराकार भी होता है?
शायद हाँ  या ना दोनों ।
मेरे, 'मैं' के नहीं होने से,
कैसे
अनगिनत जुगनुओं सी मद्धिम
झिलमिलाती प्रकाशपुंज
अनवरत मुझ में समाहित और प्रवाहित होता है ।
ऐसा हमेशा होता तो नहीं
हाँ पर कभी कभी होता है ।
जहाँ 'मैं', स्वयं के 'मैं' से
मुक्त होकर सबो में या सभी को स्वयं में
समाहित कर विलीन हो जाता हूँ ,
और उन तस्वीरों में बिखरे
रंगों को तलाशता हूँ
जो प्रकृति प्रद्दत तीव्रता की तरंग को
अपना समझ एक दूसरे को
निगलने को आतुर दीखते है ।
मुझे औरो का , 'मैं' , न जाने क्यों
मुझे मुझ सा, खुद के, 'मैं', से
युक्त सा दीखता है ।
पर ऐसा हमेशा नहीं होता
शायद खुली आँखों से
कभी कभी हम स्वप्न्न में विचरते है ।
तब शायद मेरा 'मैं', मुझसे
त्यक्त होकर विचरता है।
यह विचरण कितना आनंद विभोर करता है
किन्तु यह स्वप्न भी स्वप्न जैसा जाने क्यों होता ?
सच में मैं
खुद के 'मैं' से, मुक्त होना चाहता हूँ
इस दिवा स्वप्न्न के स्वप्न्न में विचरण भी
अहा...कैसा आनंद!
उस आनंदवन की तलाश है ।।

Friday, 23 June 2017

पारिवारिक कलह:: एक लघु दृष्टि

                        इस बदलते समय और समाज में परिवारिक कलह जैसे बहुत ही सामान्य सी घटना हो गई है। आये दिन इसके विकृत रूप का परिणाम कई शीर्षकों में अखबारों के किसी पन्ने में दर्ज होता रहता है। महानगरीय जीवनशैली में जैसे इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा ही दे रहा है। जहाँ एक दूसरे की दिल की बात को सुनने  और समझने के लिए किसी के भी पास वक्त नहीं है। एक ऐसे सुख की तलाश में सभी बेतहासा भाग रहे है जहाँ शुष्क और रेतीले सा अंत तक यह छोड़ फैला हुआ है।
                         किसी परिवार में सामान्यतः  एक कसक और  द्वन्द किसी भी बात को लेकर शुरू हो जाता है और उस संघर्ष में कई बार इंसान का पशुत्व का चेहरा उभर आता है। जो कभी कभी इस चेहरे पर हावी हो जाता है। इस द्वन्द की छटपटाहट में कैसे आपका आचरण पाशविक हो जाता है इस बिंदु पर पहुचने के लिए कई बार आप को एकांत के ठन्डे सागर में गोता लगाना  पड़ता है। जहाँ समय के साथ स्वयं के "मैं" सा कई धब्बे दिल और मन पर उभर आते है।अनन्य प्रकार के आरोहो अवरोधो के झोखे में कई गन्दगी की परत आपके मन को मैला कर देती है। जब आप दर्पण में खुद को देखते है चेहरे का प्रतिबिम्ब तो उभर आता है मगर उपके पीछे छिपे कालिख की हलकी परत भी देखने में हम समर्थ नहीं हो पाते है। कई बार हम खुद को स्वयं में ही सर्वज्ञ मान आस पड़ोस को कोई अहमियत नहीं देते। अपने दिल में चलने वाला उफान इतना होता है की और भी इसी मनोव्यथा से भी गुजर सकता है इसकी हमको रत्ती भर भी परवाह नहीं रहता है। नतीजतन जो घर आपको स्वर्गिक सुख का अनुभूति देता है वही आपको नरक की सी यातना का पर्याय लगने लगता है। फिर हम ऊपर वाले को कोसने लगाते है।हमारे मुह से दर्शन और फिलॉसफी की उक्तियां से क्षिद्रनिविशि बन अपने हमसंगिओ की गलतिया ढूढने बैठ जाते है। इस बात का हमें थोड़ा भी भान  नहीं होता की इस नारकीय अवस्था के मूल में  स्वयं का भी आचरण ही किसी न किसी रूप में जिम्मेदार है। 
                  पारिवारिक कलह कई परिवार को उसके वजूद से मिटा देता है। जहाँ कई छोटी छोटी बाते आगे चलकर नासूर का रूप ले लेता है। इस अवस्था का अगर आरम्भ देखा जाए तो कही भी उसी मूल भाव से शुरू होता है जहाँ हम एक दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगते है। यह अविश्वास पहले तो परिछाई का रूप ले मजाक के तौर पर एक दूसरे के जीवन में दखल देता है। किंतु कब यह मजाक मलिन रूप धर हमारे मष्तिष्क में कब गहन अंधकार का सृजन कर देता है इसका हमको जरा भी आभास नहीं होता है। परस्पर अविश्वास की वो परिछाई अब दिन पर दिन अनेक रूपो में  जीवन के किसी न किसी पहलु को अपने आगोश में ढकती रहती है। इसके परिछाई के पड़ने से हमारे हाव भाव के बदल जाने की प्रक्रिया को अन्य अगर हमें चेताता भी है तो अगले को ही बदल जाने को हमारा मन देखने लगता है।
                आपसी विश्वास की जड़ झूठ के छीटे से हमेशा कमजोर होता है। झूठ और किसी बात को खुद में छिपकर रखना में बहुत अंतर है। झूठ आप के मन मष्तिष्क को खुद को सच न समझ पाने की प्रवृति बढ़ता है। यह जानते हुए भी की कहा गया झूठ किसी न किसी रूप में निकलकर कभी न कभी सामने आ ही जाता है। तब उस छोटे से झूठ से कोई फर्क तो नहीं पड़ता किन्तु यह भावना का उभार अविष्वास की उस खाई की ओऱ ले जाता जो भरने की जगह और चौड़ा होता जाता है।
                     जीवन में किसी बात की अहमियत सिर्फ मुह से बोल देने भर से नहीं होता। अहमियत को हमेशा महसूस करना उसकी उपयोगिता की आदर करना उस भाव को समझना उससे कही ज्यादा होता है। कान में पड़े शब्द कानो से गूंज कर कर हवा में विलीन हो जाते है, किन्तु दिल पर बने भाव और गहरा होकर दिल को सहलाता रहता है। इसलिए किसी की  मधुर शब्दो के प्रति उल्लसित होने से ज्यादा जरुरी है की उसको  भावो को पढ़ने की चेष्टा करे। निर्मूल बातो को बार बार दुहराने से एक खतरा अगले को उस कार्य के प्रति प्रेरित हो जाने का भी होता है, क्योंकि उसे अब तक के किये अपने सकारात्मक कार्य के प्रति खुद में वितृष्णा का भाव भरने लगता है। किसी भी दम्पति को इसलिए एक दूसरे के ऊपर आवेश में ही सिर्फ व्यर्थ के आरोप लगाने से खुद में कई बार विचार करना चाहिए। सबसे बेहतर है कि जब दो पक्ष ही तैश की अवस्था में हो तो एक को अपने ऊपर काबू रखने के गंभीर प्रयास करना चाहिए।अन्यथा कलह की कालिख से पूरा परिवार अन्धकार ग्रस्त और बच्चे अवसाद ग्रस्त हो सकते है।
                  जब आप इस स्थिति में हो की यह तय है कि कलह के रोज रोज घर में उत्पन्न होने के कोई न कोई कारन आ ही जाते है तो आप अपना प्राथमिकता में बदलाव ले आये। बेसक आपकी प्राथमिकता आपका पति या आपकी पत्नी हो सकती है। अगर दोनों एक दूसरे की प्राथमिकता में है तो पहली बात तो अनबन की कही कोई गुंजाइश नहीं है । जब अनबन होने लगे तो आप इस बात को महसूस करे की दोनों ने अपने अपने ढंग से अपने प्राथमिकता को दूषित किया है। अतः यह बेहतर है कि अब आप इस प्राथमिकता को बदल कर अपने प्राथमिकता में बच्चे को ले आये ताकि आप दोनों का फोकस बच्चे पर हो।
                इस आपसी कलह का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम बच्चे के मन मष्तिष्क पर पड़ता है। कितनी भी विकृत परिस्थिति हो आप का प्रयास यह अवश्य होना चाहिए की बच्चे के सामने आप इसका चर्चा न करे। अन्यथा आप दोनों के प्रति बच्चे के मन में एक विलगाव पैदा होगा। क्रोध में कहे गए अकारण शब्द बच्चो के मष्तिष्क पर सदा बैठ जाएगा जिसे आप गभीर प्रयास के बाद भी नहीं मिटा ।
                      इस बात के आंकलन साफ़ बताते है कि किसी परिवार की आर्थिक स्थिति पारिवारिक कलह का कभी भी गंभीर  कारण नहीं रहा है। आज के बदलते समीकरणों में बदलती प्राथमिकताओं के साथ एक दूसरे के मनो भाव को सही ढंग से नहीं पढ़ पाने और समझने की वजह ज्यादा ही आपसी संबंधों को प्रभावित करता है। एक दूसरे को मजाक मजाक में निचा दिखने की प्रवृति, दोनों परिवारों के अहमियत का भाव, दोनों की उपयोगिता के निर्धारण में वाद विवाद, आर्थिक पक्ष में दृष्टिकोण में टकराहट, भविष्य की योजना पर विवाद इत्यादि कई कारण है जो एक दूसरे के रिश्ते के बंधन को किसी न किसी रूप में प्रतिदिन प्रभावित करता है। जिसको अगर समय रहते दोनों पक्ष अनुभव नहीं कर पाते तो रिश्ते की कड़वाहट किसी भी रूप में परिणत हो जाता है। जिसका परिवार को दंश झेलना पड़ता है।
                   पति पत्नी किसी भी परिवार के धुरी होते है। दोनों की उपयोगिता परिवार के लिए अपरिहार्य है। कोई ज्यादा नहीं है और कोई कम नहीं है। इसलिए एक दूसरे की भावना को समझते हुए एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। बड़ी बातें तो दोनों पक्षो को स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है, जरुरत इस बात की होती है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के छोटी सी छोटी बात को सुने और समझे। जिससे दोनों के मन में एक दूसरे की भाव को पढ़ने और सम्मान करने के आदि हो सके। जिससे की आपका परिवार सही अर्थों में खुशहाल रहे।