Saturday, 2 November 2019

छठ ...यादें

            यहाँ काली पूजा की महत्ता है। काफी भव्य और लगभग दस दिनों का आयोजन रहता है। यहां रहते हुए इसका भी एहसास बचे खुचे समय मे समय निकाल कर करने चल दिये। घर के बगल में बड़ा सा मैदान है और रंगारंग कार्यक्रम की भी व्यवस्था है। भीड़ भरे आयोजन स्थल पर चहलकदमी बता रही है कि यहाँ के लोग इस आयोजन का भरपूर लुफ्त उठा रहे है।

            लेकिन मन का कोना इस आयोजन के तड़क-भड़क के बीच जैसे खामोशी की चादर ओढ़ रखा है। शरीर बेशक यहां भ्रमर कर रहा है लेकिन मन यायावरी कर गाँव के आंगन में बार-बार भटक कर पहुँच जा रहा है।क्योंकि आज खरना की पूजा है। विधिवत चलने वाले बहुदिनी व्रत "छठ" का एक पड़ाव।
     
            इस बार छठ में घर से दूर होना, लगता है कि कटे जड़ के साथ तना बस इधर से उधर डोल रहा है। छठ का महात्म्य क्या है ये तो बस वही जानता है जिसने किसी न किसी रूप में उसके संसर्ग में आया है और छठ को जिया है। घर से इस समय दूर रहना, जैसे लग रहा है अस्तित्वहीन होकर शून्य में भटक रहा हूँ। बीच-बीच मे मन शरीर को यही जैसे छोड़ गाँव के आंगन में विचरने लगता है। गोबर की निपाई से आँगन का कोना-कोना छठ की खुसबू से दमक रहा है।अभी तक पता नही कितने चक्कर बाजारों के लग गए होते। वैसे तो सुप पथिया, मिट्टी के बर्तन माँ पहले से ही व्यवस्था कर के रखती थी।लेकिन उसके बाद भी सांध्य पहला अरग के निकलने से पहले तक जैसे भागमभाग लगा ही रहता। फिर सारे फल, सब्जी, ईंख सब तो आ ही गया। तब तक माँ कहती अरगौती पात तो है ही नही। अरे वो समान के लिस्ट में तो लिखाया था। तब तक मैं भाग कर कहता ओह रुको अभी लेकर आता हूँ। पूजा त्योहार तो कई है लेकिन छठ अद्भुत...। 

             चार पांच दिन पहले से गेहूं धो कर सूखने लगता। छत बड़ा सा है। आस-पड़ोस के भी महिलाएं वही अपना गेहूं सुखाने आ जाती। माँ कहती - ईय एक टा गीत गायब से नई। वही आबाज आता। काकी अहाँ शुरू करु न। बस उसके बाद सनातन लोकगीत परंपरा की तरह जो बचपन से सुनते आ रहे है। माँ धीरे-धीरे गुनगुनाना शुरू कर देती- उगो हे दीनानाथ....मारबो रे सुगवा धनुष से...कांचही बांस के बहँगीय...और माटी के संग गुंथी हुई अक्षुण्ण अनगिनत और न जाने कितने मैथिली और भोजपुरी के गीत। उधर कही से शारदा सिन्हा की आवाज भी  घर की चहारदीवारी को लांघ कर एहसास कराता रहता कि पूरा परिवेश ही जैसे छठमय हो रखा है। एकांकी व्रत की धार कैसे सामूहिकता में सबको बांध सागर की तरह छठ के घाट पर सब एकसाथ आत्मसात हो जाते है, यही छठ की परम्परा अनवरत अब भी सामाजिक और आर्थिक बदलाव के बदलते माहौल में भी अब तक खुद को जीवंत रखे हुए है।

                दीपावली की रात के प्रथम सूर्योदय में भगवान भास्कर की किरण में कुछ अद्भुत छटाएँ होती है और लगता है जैसे छठ की दिव्यता फैलने लगा।  बिना किसी के बताए लगता है कि वातावरण में स्वतः उद्घोष हो गया। तैयारी तो न जाने हर छठ व्रती अपने स्तर पर कब से करता है लेकिन अब तैयारी अपने अंतिम स्तर पर आ जाता है। हर घर, हर गली, हर सड़क हर बाजार छठ की प्रकृति प्रदत्त तैयारी से एक अलग भब्यता परोसने लगता है। जबकि कुछ भी विशेष नही सब के सब वही आस पड़ोस खेत खलिहान और बगीचे में मिलने वाला। अत्यधिक की गुंजाइश बेसक लेकिन कम से कम भी पूर्णता से पूर्ण ही दिखता है।

               छठ का घाट सिर्फ व्रतियों के भगवान भास्कर को अर्ध्य नही है, बल्कि एकल व्रत की धार सामूहिक समष्टि को कैसे एक तट पर साथ रहने की अवधारणा को अब भी सहोजे रखा है सबसे अद्भुत है। 
             और इस सबके बीच अपने गाँव घर से दूर छठ के माहौल में इस तरह तल्लीन होना, चेतन अस्तित्व के ऊपर अवचेतन छठ की अनगिनत रूपो का उभरना-विचरना, मन को छठ के होने तक यू ही यायावरी कर पता नही यादों को कुरेद रहा है या फिर नही होते हुए भी वही लेकर जा रहा है। पता नही क्या.....?

Friday, 23 August 2019

जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

आनंद का क्षण है। बादल झूम-झूम कर बरस रहे है।आखिर हो भी क्यों नही...आज बाल गोपाल का जन्मोत्सव जो है। तो फिर आज कृष्ण के ऊपर लोहिया जी का लिखा लेख याद आ रहा है। जिसमे लोहिया अपने चिंतन में कहते है-

                कृष्ण के पहले भारतीय देव , आसमान के देवता है। निसंदेह अवतार कृष्ण के पहले शुरू हो गया । किन्तु त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनाने की कोशिश करता रहा।इसलिए उसमे आसमान की देवता का अंश अधिक है। द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करता रहा।कृष्ण देव होता हुआ सदैव मनुष्य बना रहा। कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितप्रज्ञ" का,ऐसे मनुष्य का जो अपनी शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता हो अर्थात "कूर्मोङ्गनीव" जो कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है, अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से पुरी तरह हटा लेता है।

          तो फिर जन्माष्टमी के इस अवसर पर आनंद के असीम संसार मे तिरोहित होने के साथ-साथ कृष्ण के गीत को भी कर्मरूपी चिंतन करते रहे ।।

        जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।।

Friday, 16 August 2019

मंगल मिशन....

                   मिशन मंगल कुल मिला कर एक अच्छी फिल्म है। इसरो के सफल अंतरिक्ष कार्यक्रम "मार्स ऑर्बिटर मिशन" से जुड़े वैज्ञानिको के जुनून,लक्ष्य के प्रति समर्पण, प्रतिकूल कारको में मध्य दृढ़ इच्छाशक्ति के वास्तविक जादुई यथार्थ का फिल्मांकन और उसे थियेटर के बड़े पर्दे पर देखने का एक अलग ही आनंद है। इसकी सफलता का अनुमान इसके प्रथम प्रयास में सफल होने के साथ - साथ इसके बजट के संकुचन का भी है। तभी तो जहा किसी शहर में ऑटो का किराया प्रति किलोमीटर 10 रुपया पड़ता है, वही मंगलयान प्रति 8 रुपये किमी के दर से अपने लक्ष्य तक पहुच गया। खैर

      अब आते है फिल्म पर । लंबी स्टार कास्ट में सभी कलाकारों को समुचित स्पेस दिया गया है।फ़िल्म के अंत मे क्लिपिंग से ये पता चलता है कि इस "मंगलयान" के प्रोजेक्ट से लगभग 2700 वैज्ञानिक और इंजीनयर जुड़े हुए थे। स्वभाविक है कि उसमें कुछ साथ किरदारो के मध्य इस फ़िल्म का ताना-बाना बुना गया है।जिसमे पांच मुख्य महिला किरदार है।जो कि इस अभियान के विभिन्न प्रोजेक्ट को लीड कर रही है। साथ मे तीन पुरुष कलाकार है।फिर आप अंदाज लगा सकते है कि किसके लिए कितना स्पेस है। लेकिन कहानी के अनुरूप फ़िल्म में सभी की अपनी मौजूदगी है। कहानी छोटी लेकिन इतिहास बड़ी है। सीनियर सायंटिस्ट राकेश धवन जिसकी भूमिका में अक्षय कुमार है।  एक असफल अभियान के बाद तात्कालिक इसरो के एक बंद प्रोजेक्ट "मंगल मिशन" भेज दिए जाते है। पिछले असफल प्रोजेक्ट डायरेक्टर तारा शिंदे जो कि असफल अभियान में खुद को जिम्मेदार मानती है भूमिका को निभाया है विद्या बालन ने इसी तरह सोनाक्षी सिन्हा,तापसी पन्नू,कीर्ति , शरमन जोशी,विक्रम गोखले, दिलीप ताहिल, एच् डी दत्तात्रेय आदि ने विभिन्न किरदारो को जिया है। जहाँ मध्याह्न से पहले फ़िल्म की पटकथा किरदारो को बुनने में समय लगाता है लेकिन साथ ही साथ कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। वैज्ञानिको के विभिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि को रचने में कहानीकार के अपने दर्शन हो सकते है। लेकिन वो आपको उबाऊ या बोरिंग नही लगेगा। संजय कपूर एक अरसे बाद दिखे है और अपने पुराने गाने"अंखिया मिलाऊ कभी कभी अँखिका चुराऊ पर थिरकते मिलेंगे। लेकिन किरदार कुछ "कन्फ्यूज़्ड" सा है। दत्तात्रेय अपनी भूमिका से काफी आकर्षित करते है और इस उम्र में भी जिस ऊर्जा से भरे है लगता है अभी-अभी एयर फोर्स से रिटायर हुए है। दतात्रेय एयर फोर्स में विंग कमांडर से रिटायर है और बाद में फिल्मों से जुड़ गए। बाकी अदाकारी सभी कलाकारों की अपनी किरदार के अनुरूप है। मध्याह्न के बाद फ़िल्म अपनी गति में रहती है।इस तथ्य को जानते हुए भी यह इसरो का एक सफल मिशन है आपकी नजरे पर्दे पर अंत तक लगी रहती है। कुछ सांकेतिक डायलॉग अच्छे या खराब या किस परिपेक्ष्य में फिल्मकार ने दिखाया है ये आप खुद फील देख कर तय कर सकते है। फ़िल्म का बैक ग्राउंड संगीत बढ़िया है। निर्देशक ने पूरी कोशिश की है और सेट डायरेक्टर ने एक इसरो ही उतार दिया है।

      इसरो के पचास साल पर इसरो के वैज्ञानिकों के प्रयास और सफलता कि उद्घोषणा करती यह फ़िल्म है, यह उस जिजीविषा और अदम्य उत्साह की गाथा को रुपहले पर्दे पर प्रस्तुत करता है, जिसमे ज्यादातर हीरो पर्दे के पीछे ही रह जाते है। बाकी कमिया भी कई है लेकिन सिर्फ अच्छे को ही कभी-कभी देखने का अपना ही मजा है और वो भी स्वतंत्रता दिवस के बिजी मौके पर आपको किसी फिल्म के पहले दिन के दूसरे शो का आपको टिकट मिल जाये तो...।।

Monday, 10 June 2019

भारत- एक समीक्षा

               सीधे और सपाट शब्दो मे कहूँ तो फ़िल्म में मनोरंजन के मसाले भरपूर है,लेकिन वो टुकड़े-टुकड़े में थोड़ा बहुत मनोरंजन करता है।लेकिन एक पूरे फ़िल्म के रूप में कही भी बांधने में मुझे तो नही लगता है कि सफल हो पाया है।अली अब्बास जाफर के निर्देशन के कारण आज "भारत मैच छोड़"  "भारत फ़िल्म" को देखने चल दिया।लेकिन सलमान के साथ पिछली दो फ़िल्म "सुल्तान" और "टाइगर जिंदा है" के मुकाबले यह काफी कमजोर मूवी है।कहानी में कोई विशेष तारतम्य नही है बस बटवारे के पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में आप भावनात्मक रूप से जितना महसूस कर पाते है, उतनी देर बांधती है, अन्यथा दुहराव ज्यादा और काफी झोल-झाल है। सलमान अपने नाम के अनुरूप है और कैटरीना पहले की भांति खूबसूरत, दिसा पाटनी की जगह एक्स,वाय, जेड कोई भी होती कुछ फर्क नही पड़ता। अन्य कलाकार छोटी-छोटी भूमिका में आकर्षित करते है और अपना प्रभाव छोड़ते है।फिर भी कहानी के तौर पर एक समग्र रूप से उभर नही पाते है।लेकिन अपने पूर्व की सारे इमेज को तोड़कर कोई सामने आता है तो वो सुनील ग्रोवर है और हिस्सो में तो लगता है ये उसी की फ़िल्म है। गीत संगीत में विशेष कुछ नही है।

               आप जहां से चाहे फ़िल्म की शुरुआत कर सकते है औऱ कही भी छोड़ कर जा सकते है। निर्देशक खुद ही कहानीकार है तो वो कहानी ठीक से सुना नही पाए और कहानी में कसाव के नाम पर कुछ भी नही है। कोरियन फ़िल्म के री-मेक को इस देश के मिट्टी के अनुसार ढाल पाने में असफल ही कहा जायेगा। कॉमेडी का तड़का लगाने लगाने का पूरा प्रयास रहा है और कुछ जगह आपको यह गुदगुदाता है। लेकिन भारत की यात्रा फ़िल्म के अनेक पड़ाव पर आपको पहले से ही आभास हो जाएगा जिसके कारण कहानी में रोमांच नाम की कोई बात नही रहती है।

              बाकी भाई की फ़िल्म है तो उनको चाहने वाले उन्हें निराश नही करते है।ये बॉक्स ऑफिस के कलेक्सन से पता चलता है।लेकिन पिछले कुछ सालों में आई फिल्मो में सलमान की सबसे कमजोर फ़िल्म है। बाकी आप देख कर उसमें अपने लायक कुछ देखे।

Sunday, 12 May 2019

अबकी बार...किसकी सरकार

चुनाव जारी है। कही भाग-भाग के लोग मत का दान कर रहे है तो कही दान का नाम से ही भय खा रहे है। दिल्ली वाले इस भय से ज्यादा ग्रसित दिख रहे है ।आज छठवें चरण में लगता है दिल्ली की पीढ़ी लिखी जनता शायद चुनाव को बेमतलब की कवायद समझता है।

               वैसे भी दिल्ली वालों को पता है कि कही पर कितना भी मतदान करे....सरकार तो दिल्ली में ही बननी तय है। फिर इस कर्कश सूर्य के ताप से बच कर ही रहा जाए.....खैर...
सोचा अब अंतिम चरण में सिर्फ़ 59 सीटे ही बच गई है । सो अब दावे और प्रतिदावे का दौर जारी है।बाकी 23 मई को पता ही चल जाएगा कि जनता ने किसके साथ न्याय किया और किसके साथ अन्याय...। चोर ने चोर-चोर का शोर मचाया या चौकिदार ही चोर निकला इसपर फैसला अब हो रखा है।जनता अवश्य न्याय करेगी....आखिर जनता ही तो जनार्दन है....।

              23 मई खास तो होगा। इतिहास में यह दिन बेंजामिन फ्रेंकलिन के द्वारा "बाय-फोकल" के आविष्कार के लिए दर्ज है। आप उस बाई-फोकल लेंस से आने वाले 23 मई को देखेंगे तो कैसे दशा और दिशा दिखेगा। आखिर दूर और नजदीक दोनों देखने का सामर्थ्य है इसमें। वैसे कही पढ़ रहा था कि 23 मई को हिटलर का भी अंत हुआ था।वैसे हर ओर एक हिटलर तो है ही...??फिर अंत किसका..?

             किन्तु फिर भी देश के इतिहास में फिर से एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन की घटनाक्रम अंकित हो जाएगा। संविधान के भावना से छेड़छाड़ , जनता की अवमानना, असहिष्णुता गाथा पर कुछ समय के लिए कौमा लग जायेगा। विजयी नेता जनता के विवेक और उनमें भरोसे के लिए धर्म और जात-पात के बंधन से ऊपर उठकर देश के विकास में अपना अमूल्य वोट देने के लिए बधाई दे रहे होंगे।अच्छे दिन आये या नही आये अच्छे दिन लाने के मंसूबो पर कोई संदेह नही करने के लिए जनता विजयी दल की ओर से फिर से धन्यवाद के पात्र बनेगे...।

                लेकिन इसी बीच  कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार , आर्थिक विशेषज्ञ, प्रगतिशीलता के वाहक साहित्यकार वही दूसरी ओर इसे पुनः अप्रत्याशित कह कर नए जनादेश की अवहेलना तो नही करेंगे,लेकिन नए शब्द गढ़ कर जनता के विवेक पर प्रश्रचिन्ह अवश्य लगा रहे होंगे। 

                       सीटों की लड़ाई में उलझे विचारधारा का मार्ग जो भी लेकिन जनता वोट देके सरकार बनाने का मार्ग तो बना ही देती है, इसलिए आप जनता के विवेक पर कोई प्रश्न चिन्ह नही लगा सकते । सरकार तो साफ-साफ बनती दिख रही हैं लेकिन किसकी ....? मैंने तो बता दिया...अब आप ही बताये.....।