Tuesday, 15 January 2019

उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक

                      पिछली फिल्म "केदारनाथ"देखते समय "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" का ट्रेलर देख ये निश्चित था कि इसे देखना है।क्योंकि फ़िल्म की कहानी का विषय वस्तु ही कुछ ऐसा है कि वो पहली नजर से ही आपको आकर्षित करने की क्षमता रखता है।किंतु दिन और समय निश्चित नही था। क्योंकि हमारे दिन की निश्चिन्तता पर अनिश्चिन्तता के बादल सदैव भ्रमण करते रहते है।खैर

        वैसे तो हर किसी के फ़िल्म देखने का नजरिया और पसंद व्यक्तिगत होता है।लेकिन अच्छे और घटिया का लेबल जहाँ बॉक्स ऑफिस का निर्धारण करता है वही समीक्षकों की राय भी काफी मांयने रखता है। मेरा अपना मानना है कि यह फ़िल्म किसी को पसंद आएगी तो किसी को बहुत ।लेकिन अगर मैं सीधे और सरल शब्दों में कहूँ तो यह फ़िल्म धमाकेदार और मनोरंजक है। 

               फ़िल्म अपनी पहली ही शॉट से आकर्षित करता है, जहाँ उत्तर-पूर्व के जंगलों का फिल्मांकन बैक ग्राउंड संगीत के साथ आपको बांध लेता है।जैसा कि नाम से ही इसकी कहानी जाहिर है।किंतु निर्देशक ने पूर्व के घटनाक्रम को एक सूत्र में पिरोते हुए कुल पांच अध्यायों में घटनाक्रम को फ़िल्मता है और कही से भी कोई सूत्र इन अध्यायों में आपको खलेगा नही। सारे घटनाक्रम फ़िल्म ने समाचार और कहानी के रूप में ऐसे पिरोये हुए है कि वो आपके सामने तैरने लगेंगे।

          ऐसे फिल्मो के स्क्रीनप्ले में भावनाओ के विभिन्न रंगों दर्शाने की गुंजाइश कम होती है। फिर आप अगर इसको जबरदस्ती शामिल करते है तो यह बोझिल बनाने के अलावा कुछ और नही करता। इसलिए युद्ध की पृष्ठभूमि पर "बॉर्डर" को छोड़ हाल के वर्षों में और कोई दूसरी फिल्म ने ऐसा कोई छाप नही छोड़ा। न ही बॉक्स ऑफिस पर और न ही समीक्षकों की नजर में। इस रूप में अगर देखे तो "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" ने अपना लक्ष्य और नजरिया साफ रखा। निर्देशक आदित्य धर ने बेशक कहानी के घटनाओं को जोड़ने में जो एक कलात्मक कल्पनाशीलता लिया होगा वो कही से भी आपको खलेगा नही। चाहे मुख्य किरदार की घरेलू वजह से दिल्ली पोस्टिंग हो या फिर कुछ दृश्य राजनैतिक परिदृश्यों पर हो।लेकिन आपको अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ भी नही दिखेगा। फ़िल्म शुरुआत से ही निर्देशक के गिरफ्त में रहता है और वो कही से भी भटकते नही दिखते है। निर्देशक क्या दिखाना चाहता है और उन कहानी को कैसे पिरोना है ये भी स्पष्ट है। शायद स्क्रीनप्ले और निर्देशन दोनों आदित्य धीर का है,इसलिए वो क्या चाहते है उनको पहले से स्पष्ट है। इस प्रकार की एक्शन पृष्टभूमि जिसका क्षेत्रीय भूभाग का आधार कश्मीर  हो तो समझिए फ़िल्म के सफल और असफलता में सिनेमेटोग्राफर की कैमरे के पीछे भूमिका अहम होती है। कई बार सिर्फ घूमते कैमरे कहानी को कैसे कहते है ,वो आपको इस फ़िल्म में देखने को मिलेगा। इस फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर मितेश मीरचंदानी ने फिर से एक बार दिखाया कि फ़िल्म "नीरजा" के लिए फ़िल्म फेयर का बेस्ट सिनेमेटोग्राफर अवार्ड उनको ऐसे ही नही दिया गया था। ऐसे भी उनका मानना है कि " यदि कहानी की मांग दृश्य की प्रमुखता है, तब तो वो केंद्र में है नही तो उनका काम कहानी का पूरक है  और यह काम दर्शकों का ध्यान दृश्य की ओर सिर्फ खींच कर नही किया जा सकता है।"

        जहां तक इस फ़िल्म के कलाकार और अभिनय की बात है तो सभी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।वैसे मुख्य रूप से शुरू से अंत तक विकी कौशल छाये हुए है और अभिनय की गहराई का इसी से पता चलता है कि किसी भी दृश्य में वो आपको अभिनय करते हुए नही लगेंगे ।इससे पूर्व फ़िल्म राजी इनका मैंने देखा था उसमें एक पाकिस्तानी सेना के रूप में रम जाना और अब मेजर विहान सिंह शेरगिल के रोल में, फिर दो अलग चरित्र में जब आपको कोई सामंजस्य नही दिखेगा तो आप समझ जाएं कि उनके अभिनय में कितनी गहराई है। फ़िल्म "संजू" और उससे पूर्व "विककी डोनर" में उनके अभिनय को समीक्षकों ने सराहा है।वैसे मैने ये दोनों फ़िल्म देखी नही इसलिए कुछ कहना मुश्किल है।अन्य कलाकारों में मोहित रैना को अच्छा स्पेस दिया गया है और मोहित मेजर करण के रूप में जंचे भी है। इससे पूर्व टी वी धारावाहिक "देवो के देव महादेव" में मुख्य भूमिका निभाने वाले मोहित रैना के महादेव वाले मुस्कान भी इसमें आपको नजर आएंगे। बाकी यामी गौतम और कीर्ति कुलकर्णी भी आपको प्रभावित करेगा।परेश रावल तो खैर परेश रावल ही है तो उनके विषय मे क्या कहा जाय, वो आपको अजित डोभाल के समकक्ष रोल में दिखेंगे। वैसे प्रधानमंत्री के रूप में रजित कपूर काफी मंजे कलाकार है।क्योंकि इनको जब दूरदर्शन पर "व्योमकेश बक्शी" धारावाहिक प्रसारित होता था तभी से देख रहा हूँ। बाकी आप देख के आकलन करे।

                  इस फ़िल्म की सबसे खूबी ये है कि ये देशभक्ति और देशप्रेम पर लंबे चौडे भाषण नही देता है। एक सैनिक की हृदय- भावना, मानवीय-संवेदना,मानसिक द्वंद को बहुत सहजता से दर्शकों के सामने रख देता है।कर्तव्य के प्रति समर्पण विभिन्न रूपो में शायद हर कोई रखता हो लेकिन उस जिजीविषा को सिर्फ एक सैनिक ही जीता है जो यह जानता है कि जहां ऐसे हर क्षण काल के आगोश में खेल कर जीवन प्रकाश का पताका फैलाया जाता है।और सब जानते समझते यह खेल आसान नही है। फिर मेजर शेरगिल के शब्दों में "कई बार जितने के लिए सैनिक के शौर्य और पराक्रम से ज्यादा सैनिक के जज्बातों की होती है।"

                       अब अंत मे हर बातों में राजनैतिक तड़का लगाने  की परिपाटी जो आज कल चला हुआ है उससे यह फ़िल्म भी अछूता नही है। सीमा विहीन विश्व की कल्पना के इतर अगर आप वर्तमान में है, चाहे कितना भी उदारवादी क्यो न हो तो भी आप देशविहीन नही हो सकते । तो फिर वर्तमान की सीमा और संप्रभुता को खुद के विचारों से चुनौती देने से पूर्व एक बार इस फ़िल्म को देखे और विचार करे कि यह भारतीय सेना का शौर्य गाथा का फिल्मांकन है या फिर कोई दरबारी बंदन।।

Monday, 31 December 2018

नववर्ष की शुभकामनाएं ---


            गणनाओ के चक्रिक क्रम में प्रवेश का भान होते हुए भी  हम पुनः दुहराव की अनवरत प्रक्रिया के संग बदलते तिथी से नव के आगमन का भरोसा और आशान्वित हर्ष से खुद को लबरेज कर लेते है।अपनी गति और ताल पर थिरकते हुए एक पूर्ण चक्र का उत्सव खगोलीय पिंड की अनवरत कर्म मीमांसा का भाग है या उसी पथ पर दुहराव की प्रक्रिया में पथ का अनुसरण भी किसी प्रकार का नूतन-प्रस्फुटन है ...? स्वयं का नजरिया विरोधाभास के कई आयामो से  छिटकते हुए भी संभवतः नूतन परिकल्पना के संग ताद्य्यतम्य बनाना ही समय-सम्मत प्रतीत होता है..?

       विज्ञान में दर्शन का समावेश और दर्शन के साथ विज्ञान का सामंजस्य के बीच वर्तमान का यू ही गुजरते जाना भविष्य के लिए हर क्षण आशाओ के क्षद्म संचार से इतर कुछ भी नजर नही आता है। मन की अपनी गति और क्रम है,लेकिन विश्वास और चेतना के धुरी पर घूमते हुए कैसे उस विलगाव की गलियो में भटकने लगती है, जहां मानव समिष्टि के तमाम तम का वास होता दिखता है और उस स्याह गलियो में बेचैनियों से टकराते हुए कैसे एक दूसरे को रौंदते हुए पग की असीमित रफ्तार सामुदायिक रफ्तार की उद्घोषणा के प्रश्नवाचक गलियो से न गुजरकर सिर्फ उन राहो पर बढ़ती चली जा रही है ,जहां ऐसे किसी भो द्वंद से उसे जूझना न पड़े।

        फिर भी ऐसा तो है कि दिन और रात की उसी घूर्णन गति को पहचानते और जानते हुए भी निशा के प्रहरकाल में भी भास्कर का पूर्वोदय मन के कोने में दबा होता है। उस विश्वास का अनवरत सृजन तम के गहराते पल के साथ और गहराता जाता है। पारिस्थिकी वातावरण में फैले अंधकार का साया अवश्य ही दृष्टिपटल को बाधित करता हो, लेकिन मन के कोने में दबे विश्वास की उस प्रकाशपुंज को बाधित नही कर पाता है, जिसकी अरुणोदय की लालिमा का विश्वास सहज भाव से हृदय में  संचरित होता रहता है।

               अतः मात्र आंकड़ो में जुड़ता एक और अंक का सृजन नव वर्ष का आगमन नही है। वस्तुतः यह आगमन उस विश्वास का है जो सूर्य के प्रथम किरण के संग कमल के खिलने सा मानव मन भी अभिलाषा से संचित हो  प्रफ्फुलित होता है।यह सृजन है उस आशा का जहाँ प्रकृति की वसन्तोआगमन सी सूखे टहनियों पर नव पल्लव आच्छादित हो जाता है , जिस भरोसे को धारण कर सभी प्रतीक्षारत रहते है। यह दिन है स्वप्न द्रष्टाओं के उस भरोसे का जो अब भी शोषित, कुठित, दमित,विलगित और स्वयं के अस्तित्व से अपरिचित और तृस्कारित मानव के संग मानव रूप में देखने की जिजीविषा का सिंहावलोकन की अभिलाषा संजोए राह देखते है। यह उस राह पर पड़ने वाला वह नव-रश्मि है जिसमे समिष्टि में व्याप्त किसी भी वर्ग भेद को अपनी प्रकाश से सम रूप में आलोकित कर सके, नव वर्ष उस आशा के संचार का आगमन है। नव वर्ष उस भरोसे के सृजन का दिन है जहाँ प्रतिदिन परस्पर अविश्वास की गहरी होती खाई को विश्वास की मिट्टी से समतल करने के विश्वास का प्रस्फुटन होता है।यह उन सपनों के सृजन का पल है जहाँ पुष्प वाटिका में हर कली को स्वयं के इच्छा अनुरूप प्रकृति सम्मत खिलने का अधिकार हो। कोई एक तो दिन हो जहां सभ्यताओं के रंजिस वर्चस्व में स्वयं से परास्त मानव मन सामूहिक रूप से स्वयं का विजय उद्घोष कर सके, शायद नव वर्ष वही एक दिन है।
         विमाओं सी उद्दीप्त असंख्य विचारों के अनवरत प्राकट्य और अवसान के मध्य नव वर्ष के प्रथम पुंज सभी के मष्तिष्क तंतुओ को इस प्रकार से आलोकित करे कि सामूहिक समिष्टि के निर्बाध विकास और सह-अस्तित्व की धारणाओं का पोषण कर सके उस भाव का जागृत होना शायद नव वर्ष का आगमन है।
             
सूर्य संवेदना पुष्पे:, दीप्ति कारुण्यगंधने ।
लब्ध्वा शुभम् नववर्षेअस्मिन् कुर्यात्सर्वस्य मंगलम् ॥

 .        जिस तरह सूर्य प्रकाश देता है, पुष्प देता है, संवेदना देता है और हमें दया भाव सिखाता है उसी तरह यह नव वर्ष हमें हर पल ज्ञान दे और हमारा हर दिन, हर पल मंगलमय हो ।
                    आशा और विश्वास के साथ आप सभी को नववर्ष 2019 की हार्दिक मंगल कामनाएं और सुभकामनाये।। 

Tuesday, 18 September 2018

बिग बॉस में जुगलबंदी

                 शायद 83 का वर्ष रहा होगा। घर मे नया-नया टेपरिकोर्ड ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराया । तब तक बगल के घर मे ग्रामोफोन पर गाने सुनने से ज्यादा उसके डिस्क के ऊपर कुत्ते को ग्रामोफोन में गाने की तस्वीर आकर्षित करता था। खैर...। नए टेपरिकोर्ड के संग उसके कैसेट स्वभाविक थे। टी-सीरीज का उदय हो चुका था। प्राम्भिक रूप से बस इतना ध्यान है कि मुकेश के गाये रामचरितमानस के कैसेट बजते थे। फिल्मी गाने गिने चुने थे। इसी बीच भजन गंगा के केसेट ने बजना शुरू कर दिया और ठुमक चलत राम चन्द्र के साथ ही अनूप जलोटा का नाम पैजनिया की भांति बजने लगा। फिर तो शायद ही ऐसा होगा कि कोई नया भजन का एलबम घर नही आया हो। आवाज की सात्विकता का प्रभाव ऐसा था कि उनके गाये गजल पर भी भजन के ही भाव सुनने में आता था। भजन संध्या सुपरहिट हो चुका था। समय के धार के साथ अनूप जलोटा कही किनारे लग गए। 

                  अब वर्षो बाद अनूप जलोटा जसलीन के संग बिग बॉस में दिखे है। बार-बार उनका गाया भजन "श्याम पिया मोहे रंग दे चुनरिया" गूंज रहा है। शायद उनके कीर्तन का ही प्रताप है कि "बिग बॉस" ने अपने घर मे "विशेष रिश्ते" के डोर के साथ अनूप जलोटा संग जसलीन को आमंत्रित कर दिया। अब देखे की प्रेम-चुनर का रंग  उतरता है या कब बिग बॉस का घर छूटता है। "कलर" ने अपने इस घर मे कई रंग भरे है। स्वभाविक है प्रेम का रंग ही सभी को नजर आ रहे है। तभी तो दोनों छह गए है। देखिए अब इस घर मे दोनो की जुगलबंदी में कौन सा राग निकलता है।


Wednesday, 5 September 2018

रुपये की लीला...

                     रुपया आजकल रोज गिर रहा है। कुछ चैनल इसपर विशेष चिंतित है और कुछ डॉलर के मुकाबले भाव बताकर चुप हो जाते है। अब तक के इतिहास में ऐसा नही हुआ है। फिर कोई भी इतिहास बनाने वाली घटना को ऐसे नकारत्मक भाव मे प्रस्तुत करना इनकी मानसिकता को दर्शाता है। रोज-रोज ऐसे थॉडे ही न होता है। हम तो इसी बात पर खुश है कि ईन ऐतिहासिक घटनाक्रम के गवाह हम भी बने है। खैर....।।  साथ ही साथ ये भी सुनने में आया है... हो सकता है अफवाह हो ....कि जिन्होंने रुपये के चाल पर विशेष नजर रखा है  उनके ऊपर इनकम टैक्स वालो की भी विशेष नजर है।
                      मूझे लग रहा है कि आर्थिक नीतियों के सूत्रधार ने कुछ नए सूत्र खोजे है। भले अब तक कुछ लोग इसे महज कागज का एक टुकड़ा न मान इसके अवमूल्यन को राष्ट्र का अवमूल्यन मानते रहे। लेकिन वो विचार भी भला कोई विचार है जो कि स्थिर और दृढ़ रहे। मांग में तरलता का सिद्धांत अर्थशास्त्र में  काफी प्रमुख है और जब सबकुछ अर्थशास्त्र  से प्रेरित है तो विचारो पर उसका प्रभाव तो स्वभाविक है। इसलिए अब लुढ़कते रुपये में शायद नया दर्शन हो।
                       जिस प्रकार से काला धन जमा करने में सभी प्रेरित थे और नॉटबंदी के बाद भी ज्यादातर बच निकले, तो फिर ये रुपये गिर रहे है या जानबूझकर गिराया जा रहा है ...कुछ कहना मुश्किल है। बेशक आप गिरते रुपये को देख ये धारणा बना रहे हो कि सरकार रुपये को संभाल नही पा रही है। लेकिन मुझे लगता है कि अब कुछ नए नीति का सूत्रपात हुआ है कि जब तक आपका रुपये से मोह भंग नही होता तब तक इसका लुढ़कना जारी रहेगा।
                       आपको दुखी और निराश होने की जरूरत नहीं है । कुछ डॉलर पॉकेट में आ जाये फिर देखिए कैसे लुढ़कते रुपये को देख दिल खुश होता है। वैसे भी रुपये को हाथ का मैल ही कहते रहे है और इस मैल को रगड़ रगड़ कर साफ कर ले नही तो भावी योजना में अभी तो सिर्फ रुपया लुढ़क रहा है। हो सकता है कही लुढ़कते- लुढ़कते गायब ही न हो जाय...क्या पता..?

Thursday, 30 August 2018

जंगल मे मारीच

कुछ शोर और क्रंदन है,
शहर के कोलाहल में
ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में
जंगलो की सरसराहट है।
वो चिंतित और बैचैन है
अपनी "ड्राइंग रूम" में
की अब पलाश की ताप से
शहर क्यो जल रहा है ?
व्यवस्था साँप की तरह फुफकारता तो है
लेकिन प्रकृति के इन दुलारो को
विष-पान किसने कराया है ?
लंबी-लंबी गाड़ियों से रौंदते
इन झोपड़ियों में पहुंच कर
यहाँ के जंगलों में
ये जहर किसने घोला है?
मतलबों के बाजार में
कब कौन खरीदार बन
व्यापार करने लगे, कहना मुश्किल है ।
चेहरे पर नकाब कोई न कोई
हर किसी ने लगा रखा है
फिर व्यवस्था के संग विरोध
या फिर विरोध की व्यवस्था...?
इसलिए तो अब तक
इन जंगलो में मारीच घूमते है
वो हमको और हम उनको छलने मेंलगे रहते है ।।