Sunday, 21 July 2013

दोषी कौन ?

                     खाट जिसकी रस्सीयां  उसी के नस की तरह ढीली है।खाट की लकड़ी भी अब हड्डियो की तरह कमजोर हो रखा है। उसी का भार उठा रखा है क्योकि उसने बड़े जतन से अपने लिए वो खाट बनाया था।बड़ा ही निर्जीव खाट किन्तु खाट  की संवेदना सजीव। चारो तरफ काफी भीड़-भाड़  है। मिटटी का घर किनारे गोबड़  का ढेर, प्रेमचंद साहित्य का गाँव  अभी भी साठ साल बाद वैसे ही जीवंत तथा  मुखर है, जैसे  सरकार ने उनकी साहित्य की संवेदना को उसी रूप में रख उस अवस्था से कोई छेड़ -छाड़ न कर  सच्ची श्रधान्जली दे रखी है।  जाने कौन किसका मजाक  उडाता हुआ? निचे एक पटिये पर महिला बेसुध पड़ी है। दो दिन हो गए जब  उसका  बेटा मर गया या मारा गया । सन्नाटा पसरा  है मौत अपने साथ उसे ले के आया। कल तक बच्चो की किलकारी से परेशान उसका दादा अब आवाज को जैसे अपने पथरीली आँखों से दूंड  रहा है।
                    लगता है क्या,पड्सो  की ही तो बात है।भोलवा को भूख लगी थी । उसकी मतारी उसको  कुछ देने के बजाय चमाटा  खिलाये जा रही थी। तब तक खांसते-खांसते नाक से धुवा छोड़ते पूछा-
                 का बात है भोलवा की माँ नाहक काहे पिट रही हो ?
               कपडे से झांकते काया  को समटने का प्रयास करते उसकी माँ  बुदुदाई -अब कुछ रहे तो न दे। बिहाने से दो-दो बार डकार गया है।अब दोपहरिया बित  जाये तो कुछ बनाये अभी कहा से लाये।
              बुड़े की पूरी उम्र कटते -कटते अब दहलीज पर आ गयी। परिवर्तन के नाम पर देखा तो बहुत कुछ किन्तु शायद अभी उसको या उसके जैसो को और इंतजार भाग्य ने या लिखने वाले ने  लिखा है। उसे पता है पोते के पेट में जो आग लगी उसकी उष्णता कितनी तीब्र है।
            उसी को ठंडक पहुचाने के लिए तो उसने उसे स्कूल भेजना शुरु किया। शिक्षा  तो जरुरी है इसमें तो उसे कोई संदेह नहीं था। किन्तु सामाजिक विकास के गाड़ी  पर कभी भी सवार होने का मौका नहीं मिला। किसको दोष दे? चलो स्कूल में ज्ञान मिले न मिले अन्न तो मिलता है।समय चक्र का क्या कहना कभी कहते थे शिक्षा  होगी तो खाना अपने आप मिलेगा किन्तु अब खाना लेने  पर शिक्षा  मिलता है। 
           आज उसके हाथ में सरकार के बड़े अफसर एक कागज का टुकरा थमा गए। भोलवा पेट की आग को ठंडा करने में खुद ही ठंडा हो गया।
         सोच रहा अगर भोलवा घरे में ऐसे चल बसता तो कोई पूछने भी नहीं आता,बस साथ में यही के दो चार पडोसी होते,किन्तु आज तो काफिला है गाँव में। भोलवा तो का कुर्वानी दे दिया की  पुरे घर ही अब संबर जायेगा।
               किन्तु बुड्ढा अभी भी ललाट की उभरी  नसों पर जोर मार रहा है, ऊपर आती जाती सांसो से ही पूछने की कोशिस   में।दुलधूसरीत काले पन्ने पर कुछ  कालिख प्रश्न गली में फडफड़ा कर उड़ रहे। प्रश्न मुह बाये है,मुह पर हाथ है कोई आवाज नहीं बस दिमाग झनझना रहा है  -भगवान मारता तो किसी से कुछ कह भी नहीं सकते, अच्छा है भोलवा की जान लेकर भोलवा के भाई को दो निवाला मिल गया। लेकिन क्या भोलवा के भाई को अपने जीते जी वहां पेट में ठंडक पहुचने भेज पायेगा? किन्तु भोलवा के जाने का दोषी कौन है ,उसकी मतारी ,वो खुद या कोई और ...........? सोचते -सोचते नजर उस कागज के टुकरे पे था, हर अंको के गोले में जैसे भोलवा का चेहरा दिख रहा हो ....

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