नीचे जिन कंक्रीट के रास्ते पर
दौड़ती सरपट सी गाडिया
शायद उनपर चलते बड़े लोग ।
पर ऊपर भी साथ लगा
है कुछ का आशियाना
संभवतः समय से ठुकराए लोग।
पेट की भाग दौड़ में
कारो और सवारियो की रेलम पेल में
दिन के भीड़ में गुम हो जाते है।
आहिस्ता-आहिस्ता सूरज खामोशी की ओर
चका चौंध और आशियाना जगमग
कुछ कुछ रुकती रफ़्तार है ।
पसीना में भींगी दो जून की रोटी
हलक में उतारा है गुदरी बिछा दी
पसर गए भूल कर आज,कल के लिए।
पहुचने के वेग मन के आवेग में
न खुद पे यकी, होश है नहीं कही
रास्ते को छोड़ा और जा टकराया है।
नींद में ही चल दिए,कुछ समझ भी न पाया
फुटपाथ पर ऐसे ही जिन्दगी मौत पाया है।
आज सब कुछ कल सा ही वही दौड़ती गाड़ी
बस पसरे हुए गुदरी का रंग बदल गया है ।।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने.
ReplyDelete