चौतरफा शोर और कोलाहल
भीड़ भरे राहे,
रौंदते कदम व सरपट चक्के
रौंदते कदम व सरपट चक्के
अनजान से मंजिल तक,
अनगिनत ये मूक दर्शक
कतार बंद बैठे
जाने किस इन्तजार में।
खामोश लब याचना भरे कातर दृष्टि
उसकी ख़ामोशी उस कोलाहल में भी
जाने कितना कुछ कहती है,
शब्दों में कुछ पनपता नहीं
पर निगाहे चीत्कार करती है।
खनकती है टकराकर
जब कटोरी की दुनिया से सिक्के
अकुलाहट भरे लब
सूखी टहनियाँ सी
फ़रफ़राती है।
फ़रफ़राती है।
इस रंगमंच पे गढ़े है
ये कैसे अनगढ़े पात्र भी
इनको देख, गढ़ने वाले भी
शिलाओं में मुँह छिपाते है।
इन्हे देख पुनर्जन्म पे
हम यकीं शायद करते है ,
क्योकिं प्रारब्ध का गढ़ भाव
सब बस आगे-ही-आगे
बढ़ते जाते है।
इन्हे देख पुनर्जन्म पे
हम यकीं शायद करते है ,
क्योकिं प्रारब्ध का गढ़ भाव
सब बस आगे-ही-आगे
बढ़ते जाते है।
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