संघर्ष के दौर में विभिन्न प्रकार के लहरे हिचकोले लेते रहेंगे। पर इन लहरों पर सवार होकर कोई सागर लांघ जाए ऐसा तो नही होता और कोई डर के तट पर ही बैठा रह जाये यह भी नही हो सकता। फिर इस संक्रमण के दौर में संघर्षरत वीर हतोत्साहित हो जाये तो क्या?क्या आश्चर्य नही की संक्रमण से ग्रसित शरीर खुद के इलाज की जगह भस्मासुर बन इधर-उधर छुप रहा है,तो फिर उसका मंतव्य और प्रयोजन क्या हो सकता है?
इसलिए कोविडासुर संक्रमण के दौर में, सिर्फ बीमारी नही बल्कि इसे काल और समय का संक्रमण समझे ।साझा संस्कृति की गंगा-जमुना तहजीब की वकालत करते उदारपंथी इसको समझने की कोशिश करे कि गंगा तो अब भी अपने देश और मानव धर्म की निष्ठा के साथ वैसे ही अक्षुण है। किंतु जमुना की रवायत में अब भी कालिया नाग के जहर का असर है।जिसका प्रदर्शन रह-रह कर होता रहता है।
जब काल संक्रमित होता है तो समय की धार में नदियों के बहाव के तरह गंदगी और दूषित पदार्थ कही किनारे में जमा होने लगते है।ये वैसे ही गंदगी की तरह मैले मटमैले धार में झाग बन उबल रहे है। ये पत्थर चलाते पुरुष और महिला उसी दूषित और संक्रमित मानसिकता के परिचायक है।जिनके लिए देश के मुख्य राह की जगह सिर्फ अपने एकांगी रास्ते का अनुसरण करना है।यह सिर्फ एक विरोध की नकारात्मक प्रदर्शन नही है।बल्कि उस आदिम सोच की हिंसात्मक प्रवृति और विचार जो अब भी जेहन में पोषित है। जिसके लिए वसुधैव कुटुम्बकम कोई मायने नही रखता है। बल्कि राष्ट्र रूपी गंगा की धारा जो प्लावित हो रही है, उसमे संक्रमित हो रखे प्रदूषित सोच और उस अनर्गल प्रलाप का धोतक है। जिसे हम विभिन्न वाद और निरपेक्षता के ढाल में और पनपने दे रहे है।स्वभाविक रूप से नदी की धार को काट कर अलग कर दिया जाय तो वह अपने स्वत्रन्त्र इकाई के रूप से किसी और रूप में परिवर्तीत हो जाती है।विगत यह हो चुका है और उसका परिणाम सब देख रहे है।इसलिए यह तो स्वयं सिद्ध है ।अतः इस दूषित मानसिकता के स्वच्छता अभियान के लिए निश्चित ही शारीरिक संक्रमण के साथ-साथ मानसिक संक्रमण को भी नियोजित किया जाय और इसके लिए भी प्रयोजन आवश्यक है।
आश्चर्य नही की इतने बड़े कुनबे में एक आवाज आती है उन मूर्खो और जोकरों के लिए, तो क्या अन्य बाकी आदर्श और सिद्धान्त की ढोल पीटने वाले इस बार मूक या बधिर हो गए है।एक आवाज तो नक्कारखाने में तूती की तरह विलुप्त हो जाएगी। फिर मीडिया उस एक के आवाज को कोरस के रूप में गाने लगता है।सहृदय उदार दिखने के लोलुप आत्मप्रवंचना में उसे उसे सिर्फ कुछ लोगो के करतूत के रूप में देखे तो आश्चर्य है। फिर इतना तो लगता है इस मानसिकता को या तो पढ़ पाने में अक्षम है या फिर उदारवाद के दिखावा में वास्तविकता से दूर रहना ही श्रेयस्कर समझ रहे है।
असमंजस का यह दौर जितना किरोना के कारण भयावह नही है उससे ज्यादा भयावह तो वो सोच और मानसिकता है जो इस कोविडासुर के कारण अस्पष्ट रूप से कई जगह परिलक्षित हो रहा है।समय रहते सभी प्रकार के संक्रमण को इलाज नही होता है तो ये किसी न किसी रूप में रह-रह कर देश को बीमार करते रहेंगे। क्योंकि संक्रमित शरीर से कही ज्यादा खतरनाक संक्रमित सोच और बीमार मानसिकता है।
समसामयिक और सार्थक आलेख।
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