Wednesday, 8 January 2025

सोहबत !

कुत्ता रो रहा था
वही गांव के किनारे
जहाँ इंसानो की बस्ती है !
कुछ कुत्तो को पकड़
आज ले गए थे
आपने साथ
अपनी सोहबत में रखने के लिये !
शायद इसी से
कॉप उठा था उसका अंतरात्मा
की ये कुत्ते भी
इंसानी फितरत
न सिख ले !
हम तो अब तक
काटते आये है भौंकने के बाद
ये काट खाएंगे
अब इंसान की तरह
जो काटने से पहले कभी भौंकते नही !


ड्रॉप या एटेम्पट !

  अयोध्या बाबू विगत तीन साल से कोलकाता में है। सरकारी सेवा के स्थानांतरण क्रम में यह अभी इनका ठिकाना है। इस सेवा की अपनी दिनचर्या है और उनका ऑफिस सुबह साढ़े नौ से शाम छः बजे तक होता है। अयोध्या बाबू  उससे इतर  खुद के लिए खुद की निर्धारित दिनचर्या निर्धारित कर रखे है और उसके लिए स्वतः सजग रहते है।इसी के तहत सुबह टहलना उनका शगल और शौक है। वो कहते है कि ये सुबह का एक घंटा सिर्फ और सिर्फ उनका है, जिसमे वो खुद से बात करते है, खुद को देखते है । नही तो दुनियादारी के कवायद में कभी ठीक से देखे ऐसा मौका भला कहा मिलता है।वैसे तो पारिवारिक जिम्मेदारियों की अपूर्णता को भरने में ही परिवार के मुखिया की पूर्णता समझा जाता है।लेकिन फिर भी यह एक घंटा वो सुबह के भ्रमण में खुद से संवाद के लिए रखते है। इसी दिनचर्या अनुसार अयोध्या बाबू सुबह पांच बजे के आस पास जग गए।

               अप्रैल के महीने में कोलकाता के आसमान में अभी सूरज का आगमन नही हुआ है, लेकिन उसकी आहट से ही रात का साया जैसे ड़र से सिमटने लगा है ।स्वास्थ के प्रति सचेत लोगो की पदचाप अब घर के सामने वाले रोड से आने लगा है। सुबह लगभग साढ़े चार बजे से पक्षियों की चहचहाट की तीव्रता में अब धीमा हो गया है। जैसे सबको जगाने के बाद अब  किसी और काम पर निकल गए हो। कोलकाता के जिस इलाके  में  वो रहते है, वहाँ अमूमन वनिस्पतियो की संख्या अन्य क्षेत्र के तुलना में ज्यादा है। खेलकूद वाले पार्क के साथ-साथ कई वनिस्पतियो वाले पार्क भी है। इसी के कारण चिड़िया जो कई शहरों से विलुप्त होते  जा  रहे सिटी ऑफ जॉय में इन चिड़ियों का रैन बसेरों अभी भी ज्यादा है और कोलकाता का यह क्षेत्र उनमे से एक है।
           
            अमृत के बारहवीं  बोर्ड का परीक्षा हो चुका है और आईआईटी जेईई के लिए अध्यनरत है।  पहला प्रयास जनवरी में हो चुका है और परिणाम अपेक्षानुरूप नही आया। तो फिर अप्रैल में होने वाले दूसरे प्रयास के लिए लग गया। जनवरी से अब तक कभी बोर्ड परीक्षा तो कभी आईआईटी प्रवेश परीक्षा के दरम्यान अपनी तैयारी के तालमेल बैठता हुआ अध्यन करता आ रहा है। अब कुछ दिन हो गए और बारहवीं के परिणाम भी घोषित हो चुके है, परिणाम अपेक्षानुरूप अच्छा  आया और प्रसन्न है, किन्तु अब भी सारा ध्यान अप्रेल के दूसरे प्रयास के जेईई के परिणाम पर टिका हुआ है।
            वैसे तो अयोध्या बाबू बच्चे के दिन प्रति दिन के कार्यकलापों पर नजर रखते है,  लेकिन  विशेष कुछ टोका टाकी नही करते। बस बीच-बीच मे पुछ लिया करते है कि कैसा तैयारी चल रहा है और वो संक्षिप्त सा उत्तर देता है- ठीक चल रहा है पापा !
फिर वो पूछते- ठीक या अच्छा ..?
तो फिर अमृत एक संक्षिप्त उत्तर देता - अच्छा ही है !

              आज जब वो सुबह  बाहर टहलने के लिए निकलने वाले थे, तभी अमृत अपने कमरे से निकलकर आया। सामान्यतः उनके बाहर निकलने के समय वह अपने कमरे में ही अध्यनरत रहता है। इसलिए आज  इस समय अमृत को  देखकर उन्हें लगा कि कुछ कहना चाहता है। इससे पहले की वो कुछ पूछते, लगभग रुआंसा होता हुआ अमृत बोला- रिजल्ट आउट हो गया है..!
            पिछले दो तीन दिन से जेईई प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित होने की चर्चा चल रही थी और बच्चे बेसब्री से इसका इंतजार कर रहे थे। ताकि परिणाम के अनुरूप अपनी योजना भविष्य के लिए तैयार करे..!
           वैसे तो अयोध्या बाबू अमृत के चेहरे के भाव से ही समझ गए कि परिणाम क्या हुआ है । किन्तु  उसके मन पर घिरे उजास की परिछाई जो चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा है, उसको नजरअंदाज करते हुए अपने जूते के फीते बांधते हुए उन्होंने पूछा- क्या हुआ..?
अमृत लगभग रुंधे गले से बोला - नही हुआ...!
     अमृत के चेहरे पर घिर आये निराशा के भाव तो बिल्कुल स्पष्ट ही दिख रहे थे, उसके लिये अयोध्या बाबू को  मनोविज्ञान के किसी विशेष अध्ययन की जरूरत तो है नही। आखिर पचास दशक तक जिंदगी के थपेड़े किसी भी  किताब से ज्यादा ज्ञान दे देता है। वैसे भी स्कूली पढ़ाई का विज्ञान पहले सिंद्धांत देता है और फिर प्रयोग द्वारा सिद्ध करने का प्रयास करता है। लेकिन जीवन अनुभव का विज्ञान तो पहले जिन्दगी की प्रयोगशाला में सिद्ध होता है और फिर उसके अनुरूप सिद्धान्त गढ़ता  है।

            तो अयोध्या बाबू को समझते देर नही लगा कि अमृत दिन-रात एक करके जिस लक्ष्य के लिए समर्पित है, वो उसकी पहुंच से अभी दूर है।परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद का समय एक ऐसी मानसिक उहापोह की रचना कर सकता है, जहां दिल में उठते हतोत्साह की धड़कन, रेत के तूफान की तरह भविष्य के लिए संजोए कई सपनो को रेत के टीले के अंदर दफन कर सकता है।  मन मे उठते उदासी की लहर  को अगर सही समय पर शांत नही किया गया तो यह कई बार बच्चों का भविष्य भी इस तरह के परिणाम से निकले भंवर में घिर कर विलीन हो जाते है। आये दिन इस प्रकार के खबर समाचार पत्रों में छपते रहते है।
         अयोध्या बाबू सुलझे हुए व्यक्तित्व के है। बेटे के भविष्य निर्माण के लिए सजग है, लेकिन अपेक्षाओं का बोझ कभी बेटे पर जाहिर नही होने देते। बल्कि समय-समय पर हमेशा सिर्फ हौसलावर्धन करते रहते है और जब कभी अमृत में अपनी तैयारियों को लेकर कुछ अनावश्यक तनाव में देखते तो मुस्कुराते हुए कवि "नागार्जुन" के कविता के ये दो पंक्ति जोर-जोर से बोलते-
“जो नहीं हो सके पूर्ण काम,
मैं उनको करता हूँ प्रणाम”!
        फिर वो अमृत से कहते बोलो। तो वो भी साथ-साथ इसे दोहराता । ऐसे ही बातों-बातों में  अयोध्या बाबू अमृत  से कहते-,देखो बेटा, भगवान श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान यूँ ही नही दिया। वो जानते थे आने वाले काल में हर कोई महत्वाकांक्षा और अपेक्षा के बोझ तले दबा होगा।कई बार अपेक्षाओं का भार इतना बढ़ जाएगा कि जीवन दूभर हो जाएगा। इसलिए  उसको संतुलन में लाने के लिए गीता सार ही उपयुक्त होगा। इसलिए गीता के मर्म को याद रखो। वो कहते सिर्फ अपने लक्ष्य और कर्म के प्रति समर्पित रहो ।वैसे भी फल तो आज के समय मे कुछ ही  है और उसके लिए प्रयासरत  तो कई है। फिर मुस्कुरा देते।

             लेकिन जैसे ही अयोध्या बाबू कहते- देखो बेटा इस लिए बार-बार एक ही मर्म को दोहराया जाता है की कर्म करो और फल की इच्छा मत करो। तो कभी-कभी अमृत कहता- पापा गीता में क्या सिर्फ इतना ही नही लिखा है,मैं भी बीच-बीच मे पढ़ता हूँ।
तो अयोध्या बाबू मुस्कुराकर कह देते- हाँ बेटा गीता में सिर्फ इतना ही नही लिखा है,बल्कि ये तो पूरे जीवन का अलग-अलग अध्याय ही है, लेकिन जीवन के जिस अवस्था  मे तुम हो वहां बस कर्म योग के इसी मर्म का ध्यान रखना काफी है।बाकी भी आगे काम आएंगे।
इसलिए बेटा सिर्फ अपना बेहतर करने का प्रयास करो, अगर इसमे नही हुआ तो इसका अर्थ है कोई और बेहतर प्रयास तुम्हारे इंतजार में है। फिर जोर-जोर से कविता पाठ करने लगते-
“जो नहीं हो सके पूर्ण काम,
मैं उनको करता हूँ प्रणाम”
    अमृत थोड़ा निश्चिंत होकर, मानो जेठ के सूरज पर अचानक से बादल घूमर आने से जैसे गर्मी से राहत का अनुभव होता , उसी निश्चिंत भाव से अपने  अध्यन में लग जाता।

        एक दिन अमृत के तैयारी के ऊपर  बातचीत के क्रम में अयोध्या बाबू अपनी पत्नी से कहते है- अभिभावक बच्चों के भविष्य के प्रति सजग और सचेष्ट रहे यहां तक तो ठीक है, किन्तु जब अपनी अधूरी इच्छा को पूरा करने की अपेक्षा का बीज अपने मन मे पनपने देते है तो कई बार बच्चे अपने ऊपर लादे गए इस अपेक्षा के बोझ से उबर नही पाते है।क्योंकि  यह अपेक्षा का बीज तो एक परजीवी पौधे की तरह है, जो एक बार दिमाग में पनप गया तो आपके दिल को चूसकर  दायरा इतना बड़ा बना देगा कि उसकी घनी परिछाई में बच्चे उसमे जैसे कही खो जाते है।

अयोध्या बाबू की इन बातो को सुनकर सुनकर उनकी पत्नी कुछ नही बोली। सिर्फ यह सोचती रही क्या अयोध्या बाबू घुमाफिराकर उनको तो कुछ कहना नही चाहते।

वैसे भी आये दिन समाचार चैनलों में इस प्रवेश परीक्षा से पूर्व ही बच्चों के आत्महत्या के खबर से मन  सशंकित रहता है। वो कभी-कभी इस समाचार को देखकर कहते हुए अपनी धर्म पत्नी से कहते- पता नही अभिभावक बच्चों को सिर्फ खिलने देना चाहते है या फिर खिलने के बाद इन फूल का माला अपने गले मे डालना चाहते है। तो उनकी पत्नी उनके बातों पर गौर किये बिना कहती- अब बच्चों के आत्महत्या में आप फूल और माला की क्या चर्चा करने लगे। अयोध्या बाबू इसपर बिना कुछ कहे मौन ही रहते।

       तो जैसे ही आज सुबह-सुबह अमृत ने यह कहा की नही हुआ  ! अयोध्या बाबू अंदर से निराश तो बहुत हुए, ये निराशा इस बात का नही था कि उनको बच्चे से कोई ढेर सारी अपेक्षा थी, बल्कि इस बात का था कि अमृत ने परिश्रम में कोई कोर-कसर नही छोड़ा था। लेकिन दिल के भाव को चेहरे पर आने नही दिया।
       तभी अमृत की मम्मी  रसोई घर से  दो कप चाय ट्रे में लेकर वहां पहुंच गई। टहलने से पूर्व लगभग नित्य का नियम है कि एक कप गर्मा गर्म चाय पीकर ही बाहर निकलते है। वैसे तो सर्दी के मौसम में सुबह-सुबह इस एक चाय की तासीर अमृत से कम नही होता। लेकिन अन्य मौसम चाहे वो अप्रेल या मई क्यों न हो, आदत में सुमार चीज की तासीर लगभग एक जैसा ही होता है।
  जैसे ही अमृत के मम्मी यह सुनी की - नही हुआ.! वो हाथ मे चाय का ट्रे पकड़ी हुई ऐसे देखने लगी जैसे कोई बहुत बड़ी अनहोनी हो गई है।
       सामान्यतः माताएं आजकल बच्चों के भविष्य के प्रति कुछ ज्यादा संवेदनशील हो गई है। इस संवेदनशीलता के तह में कब बच्चे के भविष्य से ज्यादा अपनी अहम की पूर्ति की लताये पनप जाती उनको पता ही नही चलता। बच्चों के भविष्य के प्रति अनावश्यक सजगता कब बच्चों पर भार बनकर उसे अवसाद में धकेल देता है, वो भी पता नही चलता।कभी माँ तो कभी पिता इस रूप में पेश आते तो कभी दोनों।
     खासकर आर्थिक रूप से मध्यमवर्गीय परिवार में यह एक सामान्य गुण या कहे अवगुण विकसित हो गया है। बाकी आर्थिक रूप से झूझ रहे परिवार में तो बच्चे बचपन से ही संघर्ष में तपकर निकलते है। बेशक प्रवेश परीक्षा में कम उत्तीर्ण होते है और नही भी होते है तो संघर्ष के जज्बा से प्रेरित ही रहते है । अवसाद के लक्षण इनको छूने में थोड़ा हिचकिचात  है।जबकि आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार कई बार इसके बल पर बच्चे का भविष्य अनुकूल करने में सफल हो जाते है।
     जैसे ही अयोध्या बाबू ने अमृत के माँ को हाथ मे ट्रे लिए मूर्तिवत देखा, वो समझ गए कि मन मे संजोये हुए शीशमहल अमृत के इस कथन का बोझ  नही ढो सका और भरभराकर ढह गया है। इसके पहले की उसके बोझ से ट्रे भी गिर जाए उन्होंने चेहरे पर अनावश्यक मुस्कुराहट लाते हुए कहा- क्या हुआ चाय दो !
अमृत की मम्मी चेहरे पर उभर आये तनाव को छिपाने का असफल प्रयास करते हुए एक कप चाय उनकी ओर बढ़ा दिया और वही रखे सेंटर टेबल पर ट्रे सहित चाय का कप रख दिया। फिर अमृत की ओर देखते हुए पूछा - क्या कह रहे थे बेटा, क्या नही हुआ ? क्या परीक्षा का परिणाम निकल गया ? मैं इतने दिन से बार-बार कह रही थी! ठीक से पढ़ाई करो..ठीक से पढ़ाई करो। लेकिन मेरा कोई सुने तब तो। आजकल के बच्चे तो खुद को ही बहुत होशियार समझने लगते है। लो अब...अब क्या करोगे..? एक ही सांस में वर्तमान और भविष्य से सभी संबंधित प्रश्न पूछ बैठी।

आयोध्या बाबू आंखों के भंगिमा से उनकी द्रुत गति पर रोकने का प्रयास करते रहे ! लेकिन जिसके सपने सुबह के चिड़ियों की चहचहाट में टूटू जाये तो उनका ध्यान उस शोर पर होता है, वो चेहरे का भाव कम और आवाज पर ध्यान ज्यादा देते है।
अयोध्या बाबू थोड़ा संयत से बोले- अरे आखिर ऐसा क्या हो गया, जो सुबह-सुबह इतना बोल रही हो।आखिर पूरी बात तो सुनो।
उनकी पत्नी कुछ न बोल ट्रे से कप उठाकर चाय पीने लगी। तो अयोध्या बाबू अमृत की ओर देखते हुए बोले- तो रिजल्ट कब निकला !
अमृत ने फिर संक्षिय सा उत्तर दिया- रात में ! लगभग बारह बजे के आसपास।
       अयोध्या बाबू समझ गए कि अमृत के रात की नींद इस परिणाम के इंतजार में रूठा हुआ था और अब परिणाम अमृत से रूठ गया है !अर्थात यह एक ऐसी परिस्थिति में पहुंच गया है, जहां अवसाद इसे अपने गिरफ्त में लेने को तैयार बैठा होगा। उसपर अमृत के मम्मी की प्रतिक्रिया लगभग उसे उस घेरे की ओर धकेल ही दिया है।अमृत वही चुपचाप नजरे नीचे किये खड़ा है और पैर के अंगूठे से फर्स को कुरेद रहा है। कमरे में एक खामोशी पसर गई है, सिर्फ घर के बाहर रोड से बीच-बीच मे पदचाप की आवाज आ रही है। अयोध्या बाबू  अपने जूते का फीता बांध सीधे होकर सोफा पर बैठ गए है और चाय का कप हाथ मे लिया। अमृत की मम्मी वही सामने वाले सोफा पर चुपचाप बैठे जैसे कही और खो गई है।
            एक घूंट चाय पीने के बाद अमृत की ओर देखकर कहते है- तो फिर अब क्या सोचा है ? अमृत कुछ कहता उससे पहले अमृत की माँ थोड़ी उत्तेजित होकर बोली- तो अब क्या, अब कॉलेज में एडमिशन लेगा, जिसमे भी होता है ले लेगा, कही से आखिर इंजिनीरिंग तो करेगा!
              काफी समय से चुप खड़ा अमृत अपनी माँ की इस बात पर तुरंत बोला- मैं एड्मिसन नही लूंगा, मुझे कोई अच्छा कॉलेज नही मिलेगा । कहकर फिर अंगूठे फर्स को कुरेदने का प्रयास करने लगा।
तो अयोध्या बाबू फिर से अमृत की ओर उन्मुख होकर बोले तो फिर क्या चाहते हो ?
अमृत ने कहा- मैं "ड्राप" लूंगा !
अयोध्या बाबू थोड़ा गंभीरता से पूछे- ड्राप मतलब...?
अमृत- मैं एक "एटेम्पट" और लेना चाहता हूं !
अयोध्या बाबू इस पर स्मित मुस्कान के साथ बोले- "ड्राप"या "एटेम्पट" यह तो स्पष्ट होना  चाहिए! क्योंकि कई बार हमारे द्वारा प्रयुक्त शब्दो के अर्थ हमारे परिणाम या फल को प्रभावित करता है।
अमृत अयोध्या बाबू का आशय समझते हुए इस बार आवाज में थोड़ी दृढ़ता के साथ बोला - एटेम्पट ! फिर अपनी मम्मी की ओर देखा। वो अयोध्या बाबू और अमृत के बीच इस बातचीत को निर्रथक समझ इसके ऊपर कोई ध्यान नही दे रही थी।
        तबतक अयोध्या बाबू अपनी धर्मपत्नी को देखते हुए बोले- एक और प्रयास करना चाहता है तो क्या दिक्कत है।
वो बोली मैं कब बोल रही हूं कि कोई दिक्कत है, हाँ बच्चे का ध्येय और लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए।
       अयोध्या बाबू मुस्कुराते हुए बोले- बेटा असफलता एक स्वभाविक प्रक्रिया है। जीवन मे अलग-अलग मोड़ पर इससे सामना होता ही रहता है। बड़ी बात ये है कि उसको स्वीकार कर फिर से एक बार लक्ष्य निर्धारित कर पिछले गलतियों से सबक ले प्रयास करना ही असली विजय है और यही गीता मर्म भी है। इसलिए फिर से एक बार उसी जोश और जुजुन के साथ फिर से एक औऱ प्रयास में लग जाओ। फिर से नागार्जुन की कविता के दो पंक्तियों ऊंचे स्वर में अपनी आदत अनुसार पाठ करने लगे-
“जो नहीं हो सके पूर्ण काम,
मैं उनको करता हूँ प्रणाम”!
         आयोध्या बाबू का चाय का कप खाली हो चुका और सामने उनकी धर्मपत्नी चाय पीने में लगी हुई है। अमृत चेहरे पर छाई उदासी के बादल जैसे अयोध्या बाबू के शब्दों से कही विलीन हो गए। चहरे पर एक आत्मविश्वास की किरण तैरने लाग।
           अयोध्या बाबू उठकर सुबह के भ्रमण पर निकल गए और अमृत अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिया। चिड़ियों की चहचहाट अन्य दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा गूंज रही है।

  

Sunday, 14 April 2024

मैदान.....रिव्यू...!!

           अगर आप मैदान अभी तक नही गए है तो अवश्य जाइये। मैदान पर तीन घंटा बिताना आपमे एक जोश और स्फूर्ति भर देगा। मैदान पर दौड़ते ही ये आपको भारतीय फुटबॉल के पचास से साठ के दशक में ले कर चला जायेगा । तत्कालीन भारत में खेल की स्थिति और उसमें मुख्य रूप से फुटबॉल का यह एक क्रमिक इतिहास है और इसे भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम दशक कहा जाता है। यह मैदान उस इतिहास की बानगी है कि खेल या कोई और क्षेत्र क्यों न हो उसमें राजनीति हमेशा भारी रही है। लेकिन यही मैदान दस्तावेज के कई ऐसे पृष्ठ भी दर्ज कर रखा जहां खेल के प्रति समर्पण में राजनीति परास्त हो गया है।

                         तो अभी तक आप समंझ गए होंगे कि मैं फ़िल्म मैदान की बात कर रहा हूँ। शायद फ़िल्म में  प्रोमोशन की कमी हो या फिर मेरी स्वयं की उदासीनता इसका नाम मैंने नही सुना। जब अचानक से लोकतांत्रिक संवाद के तहत इस निर्णय पर पहुंचा गया कि आज कोई फ़िल्म  देखी जाय तो संवाद में अपनी उस्थिति दर्ज कराते हुए बेटे ने कहा--चलिए फ़िल्म मैदान देखते है। तो असहमति कोई कारण न था। आखिर धरना का निर्माण स्वयं के आकलन से चाहिए न कि किसी और कि धरना का विश्लेषण कर।

                         थियेटर खाली-खाली सा ही था। संभवतः अभी दर्शक इधर आकर्षित नही हुए है या फिर वीकेंड का इंतजार है। वैसे तो खेल की पृष्ठभूमि पर कई हिंदी  फ़िल्म बने है।। उसमें भी कई बॉयोपिक है जिसमे मेरीकॉम, एम एस धोनी, दंगल इत्यदि कई नाम है। जहां चक दे इंडिया हॉकी पर आधारित था, वही मैदान फुटबॉल के खेल पर आधारी है। दोनो ही फ़िल्म के कहानी का केंद्र बिंदु  कोच है। लेकिन अंतर इतना ही है कि फ़िल्म चक दे इंडिया का कोच काल्पनिक है जो हकीकत लगता है वही फ़िल्म मैदान का कोच वास्तविक है और फ़िल्म में भी कही से फिल्मी नही लगता है।

                         तो फ़िल्म "मैदान" भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी और कोच एस ए रहीम पर आधारित है। इस कोच के साथ फ़िल्म की यात्रा करते हुए तत्कालीन कोलकाता, हैदराबाद को काफी करीब से देखते है और रह-रह कर भारतीय खिलाड़ी और खेल में व्याप्त विभिन्न असंगति को समझना हो तो आप पाएंगे ये सब कुछ पूर्ववत है। इसके बावजूद की परिस्थितियों में बदलाव दृष्टिगोचर है।कोलकाता में रहते हुए, फ़िल्म में पचास-साठ के दशक के कोलकाता को देखना एक अलग अनुभव है और इसे कितनी सूक्ष्मता से उभरा गया है यह फ़िल्म देखने पर ही पता चलेगा।

                          पूरी फिल्म का केंद्रबिंदु कोच रहीम साहेब है।मैदान’ की कहानी आजाद भारत की फुटबॉल टीम के कोच सैयद अब्दुल रहीम और उनकी टीम पर आधारित है। फिल्म में जज्बा, जुनून और इमोशन सब दिखाया है।लगभग एक सौ अस्सी मिनट की फ़िल्म आपको बांधने में सफल रहता है। यह जानते हुए भी की यह एक स्पोर्ट्स ड्रामा है और अंत भी प्रेडिक्टेबल है, फिर भी अंत तक आप बंधे रहते है। मुख्य भूमिका अर्थात रहीम कोच की भूमिका में अजय देवगन खुद है और आप कह सकते है कि वो सिर्फ खुद को साबित कर रहे है। उनकी पत्नी की भूमिका में  प्रियामणि अच्छी है। बाकी सभी पात्रों का चयन बिल्कुल पात्र के अनुरूप है और शायद वास्तविकता के करीब। लेकिन रहीम साहेब के अलावा फिल्म जिन पात्रों के इर्द-गिर्द फ़िल्म घूमता है उसमें एक मुख्य पात्र राय चौधरी है और इसकी भूमिका निभाया है गजराज राव । यह आपको अलग से प्रभावित करते है। फिर सुभन्कर के पात्र में  रुद्रमणि घोष तो ऐसे लगते है कि किरदार की आत्मा उनमें प्रवेश कर लिया हो। वैसे भी रुद्रमणि घोष बंगला फ़िल्म के अभिनेता होते हुए भी राजनीति में काफी सक्रिय है।

                            जी स्टूडियो के तहत बने इस फ़िल्म का  निर्देशन किया है अमित शर्मा ने। मुख्यतः विज्ञापन फ़िल्म बनाते है लेकिन इससे इन्होंने बोनी कपूर द्वारा प्रोड्यूस फ़िल्म बधाई हो का निर्देशन किया था,  जिसे काफी सराहा गया। और यह फ़िल्म इनको और स्थापित करेगा इसमें कोई संदेह नही है। संवाद लेखन काफी उत्कृष्ट है। "जब नींव कमजोर हो तो छत बदलने से कुछ नही होगा", यही एक खेल है जिसमे भाग्य की रेखा हाथ से नही बल्कि पैर से लिखा जाता है, कहने को एक सबसे छोटा है लेकिन यही सबसे बड़ा भी है आदि कई डायलॉग आपका ध्यान फ़िल्म में कहानी के स्थिति के अनुरूप आपका ध्यान खीचेंगे। बाकी संगीत "ए आर रहमान" का है और आप जानते है नाम ही काफी है।बैकग्राउंड संगीत बिल्कुल उनके ट्रेडमार्क का है, गीत गुंजाइश के अनुरूप है और फ़िल्म में अच्छे लगते है।

                             तो कुल मिलाकर यह एक स्वस्थ मनोरंजक, प्रेरणास्रोत, पारिवारिक फ़िल्म है और यह सब आनंद आपको फ़िल्म की समीक्षा पढ़ने में नही बल्कि फ़िल्म को देखने मे आएगा...है किन्ही  ?

Thursday, 14 September 2023

हिंदी दिवस

 सबसे पहले आप सभी को हिंदी दिवस की बधाई..!

                   हिंदी की मुखरता यह है कि यहां कोई मात्रा अथवा वर्ण "साइलेंट" नही रहता। एक बिंदु भी अपने वजूद को मुखर होकर कहता है। लेकिन अंग्रेजी में "साइलेंट" एक सामान्य बात है। तो फिर इस "साइलेंट" होने के अपने महत्व है।कई बार आप चाहते हुए भी बहुत कुछ नही कह सकते, चाहे वह आपका घर हो या दफ्तर..! वक्त वेवक्त आपको "साइलेंट" रहना पड़ता है..! सीनियर ऑफिसर किसी काम मे खोट निकाल कर आपको उपदेश दे रहे हो या घर मे श्रीमतीजी किसी बात से रुष्ट हो..! आपको पता है की यहां  "साइलेंट" रहना ही आपके हित मे है अन्यथा यह कभी भी आपके अनावश्यक तनाव का कारण बन सकता है..!  

ये "साइलेंट" की प्रवृति ही ऐसी है कि आपके प्रकृति को बनाता है..! यह हर समय संभव नही है..! जैसे अंग्रेजी के हर शब्द में "साइलेंट" नही होता है..! आपको पता रखना पड़ता है कि कब कौन सा वर्ण कहा "साइलेंट" हो गया है..! इसी "साइलेंट" की प्रवृति को पकड़ने के लिए लोग अंग्रेजी की ओर ज्यादा झुकाव रखते है..! क्योंकि हिंदी में ऐसी कोई प्रवृति नही है और न हिंदी की ये प्रकृति है कि वो कही भी "साइलेंट" रहे। जो भी आता है अपनी उपस्थिति और पहचान को पूरी मुखरता के साथ कहता है..!

           अब जिनको सफलता के सोपान पर चढ़ना है तो कहाँ "साइलेंट" रहना है, ये जानना तो जरूरी है..! जो गांव की पंचायत से लेकर देश की राजनीति में आपको हमेशा दिख जाएगा..! चाहे मुद्दे कितने भी गंभीर क्यों न हो , "साइलेंट" रहना है या बोलना है उसका कोई तय पैमाना नही होता है..! यह मौका और परिस्थिति ही निर्धारित करता है। उसी प्रकार अंग्रेजी भाषा मे कौन सा वर्ण कब "साइलेंट" हो जाएंगे इसका का कोई कायदा और कानून तो है नही। जबकि हिंदी भाषा ने, कब बिंदु का प्रयोग होगा और कब चंद्र बिंदु लगाना है या फिर आधा "र" कब नीचे लगेगा और उसे कब ऊपर बैठना है , उसके भी नियम निर्धारित कर रखे है..! अब इतने नियम कानून कहाँ तक पालन हो सकते है भला ..!

              फिर जिस राह पर चल कर सफलता मिले लोग स्वभाविक रुप से उसी राह पर चलते है..! इसलिए मुझे लगता है देश मे अंग्रेजी के प्रसार-प्रचार में इस भाषा मे निहित "साइलेंट" का खास योगदान है..!

           अब हम हिंदी भाषा पर कितना भी शोर मचाये, लेकिन अंग्रेजी को पता है कि "साइलेंट"  रह कर भी कितना विस्तार हो सकता है...है कि नही..?


Sunday, 18 June 2023

इति आदिपुरुष कथा..!!


                तुलसीदासजी रात भर बैचैनी से करवटें बदलते रहे। दिनकर के आगमन से पूर्व ही जल्दी-जल्दी स्वर्ग के किसी और छोड़ पर बना कुटिया में बाल्मीकजी से मुलाकात करने पहुंचे। महर्षि ने उनको देख गंभीर भाव से पूछ-गोस्वामीजी आज इधर का राह कैसे स्मरण हो आया..!

              तुलसीदासजी ने दंडवत प्रणाम किया और कहा- महर्षि आपके दर्शन को ही आया हूं..!

वाल्मीकिजी ने उन्हें अपने आसान के समीप लगे आसान पर बैढने का इशारा किया और पूछा- क्या कोई  विशेष प्रयोजन है.? कहकर प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे!

गोस्वामीजी ने बैठते हुए कहा-मुनिवर वो कल संध्या बेला में नारद मुनि मिले थे,वो बता रहे थे  कि पृथ्वी का दौरा करके वापस लौटे है। 

वाल्मीकि जी से स्मित मुस्कान से कहा- तो इसमें क्या खास बात है। नारदजी खोज-खबर लाने के लिए  तीनों लोक में भ्रमण करते ही रहते है।

तुलसीदास जैसे गहरे सोच में पड़ते हुए गंभीर भाव से कहा- हाँ विप्रश्रेष्ठ वो तो ठीक है, लेकिन उन्होंने बताया है कि पृथ्वीलोक के मानव ने फिर से एक बार रघुबर के चरित्र का गुणगान करने के लिए एक गाथा की रचना की है..! 

बाल्मीकजी ने मुस्कुरा कर कहा - इसमें क्या खास है..?और.. हाँ... इस बात से आप इतने गंभीर क्यों है ? बल्कि आपको तो हर्ष होना चाहिए। आखिर आपके आराध्य मर्यादा पुरूषोत्तम राम का चरित्र है ही इतना विराट की मानव क्या खुद देवता भी  इस कथा को बार-बार रचना चाहते है। और आपने भी तो इसे कलयुग में रचा था, जबकि मैंने इसे त्रेता में पंक्तिबद्ध किया..!

यह सुनकर तुलसीदास और गंभीर हो गए और बाल्मीकजी से कहा-मुनिवर बात वो नही है, बल्कि बात ये है कि इनकी गाथा का रूपांतरण उन्होंने  निकृष्ट रूप से किया है और सभी पात्रों का एक प्रकार मूल चरित्र ही बदल दिया है।

बाल्मीकजी कुछ उत्सुक होते हुए पूछे-अच्छा कैसे..?

तुलसीदास जी ने कहा- महर्षि उन्होंने रावण के साथ जो किया सो किया, लेकिन उन्होंने हनुमान को भी नही छोड़ा। इनके हनुमान एक संवाद में कहते है-जो हमारी बहनों को छेड़ेगा ,उसकी हम लंका लगा देंगे..! कहिए मुनिवर भला महावीरजी इस प्रकार से संवाद बोल सकते है..!

बाल्मीकजी मुस्कुराकर बोले- अरे गोस्वामीजी ,हनुमानजी बोलना चाह रहे होंगे कि-"उनकी हम लंका जला देंगे"..! अब आपको तो पता ही है कि पृथ्वीलोक में समय कुछ ज्यादा तेज है, जल्दी-जल्दी में बोल गए होंगे..! भावना पर ध्यान दे। 

          इस बात को सुनकर गोस्वामीजी का आवेश कम नही हुआ और बोले- हमारे राम के मूल स्वरूप को बदलकर बिल्कुल आक्रमक ही बना दिया..!

बाल्मीक जी पुनः शांत रूप से तुलसीदास की ओर देखकर कहा-आप नाहक आवेश में है, मैंने बताया न जिस भूखंड पर राम अवतरित हुए, वहां आजकल थोड़ी आक्रमकता का वेग ज्यादा है..! अब बेचारा कथाकार ऐसे आक्रमक रावण से मुकाबला करने के लिए राम को थोड़ा आक्रमक ही बना दिये तो क्या है..!वैसे राम के क्रोध का तो आपको भी ज्ञात है न..! समुद्र से राह मांगने...! इससे पहले वाल्मीकिजी और कुछ कहते तुलसीदास ने कहा- हाँ मुनिवर वो तो मुझे भी स्मरण है..!लेकिन महर्षि रावण भी तो श्रेष्ठ कद-काठी का था,आपने ही बताया है..!

बाल्मीकजी पुनः मुस्कुरा कर बोले- शायद मानव को लगा होगा की हर वर्ष पृथ्वी पर रावण के जलने से वो काला हो गया होगा और जलने से केश विन्यास तो बदल ही जाते है..! अब उनको इतनी फुरसत तो है नही की वो मुझे, आपको या किसी अन्य को पढ़कर यह जाने और समझे..! 

गोस्वामीजी को संतोष नही हो रहा जैसे, उन्होंने फिर पूछा- लेकिन मुनि सीतामाता तो चूड़ामणि ही हनुमानजी को देती है न और ये चूड़ी दिखा रहे है..!

तब हंसते हुए बाल्मीकजी ने कहा--अरे गोस्वामीजी अब जब इन्होंने कभी चूड़ामणि देखा ही नही तो क्या जानेंगे..? बल्कि नारदजी यह बता रहे थे कि जब पटकथाकार इसपर चर्चा कर रहे थे तो उनका कहना था कि हमने गलती से "चूड़ी" पर "ई" की मात्रा डालना भूल गए..! इसलिए यह "चूड़िमनी" की जगह "चूड़ामणि" हो गया..!पृथ्वीलोक का यह सारा वृतांत मुझे भी ज्ञात है..! नारदजी मुझे भी बताने आये थे..! यह सुनते ही  तुलसीदासजी जैसे कुछ चौंक गए..!

बाल्मीकजी बोलना जारी रखे-  भावना पवित्र हो तो शब्द कभी मर्यादा भी लांघ जाए तो कोई बात नही..! देखिए आपके मानस कथा में भी हनुमानजी उपस्थित रहते है और यहां भी कथाकार ने बिल्कुल हनुमानजी को देखने के लिए एक आसन रिजर्व कर दिया है। आप नाहक परेशान मत होइए..!हनुमानजी सब देख रहे है..!उनको जैसे ही लगेगा उनके प्रभु का निरादर हो रहा है..! तो हनुमान खुद ही "उन सबकी लंका लगा देंगे" जाओ आप चिंतित न हो..! 

   अरे किसकी लंका लगाने की बात कर रहे है आप..! श्रीमती जी की आवाज कान में गूंजी ..!अभी फ़िल्म देखा नही तब ये हाल है, देखने पर क्या होगा..! उठिए भी अब सुबह हो गया..!

Saturday, 17 June 2023

"आदिपुरुष"..!!

                 


                     मैं इसके इंतजार में था की रिलीज हो और देखे। सप्ताहांत में मौका भी था। सामान्यतः फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म देखने से पहले न देखता हूँ और न सुनना पसंद है। किंतु पता नही कितने फिल्मों के बाद ऐसा हुआ है कि सोसल मीडिया पर जहां भी जा रहा हूँ, यही फिल्म छाया हुआ दिख रहा है। 

                    बहुत दिनों के बाद ऐसा हुआ है कि फ़िल्म अपने टीजर के साथ-साथ रिलीज होते ही जैसे सबको मंत्र मुग्ध कर दिया है। हर कोई फ़िल्म निर्देशक और पटकथा लेखक की जमकर कसीदे गढ़ रहा  है। वैसे तो कथा पहले से ही मौजूद था सिर्फ संवाद पर उन्होंने अपना पसीना बहाया है। पसीने से लिपटे संवाद में लवण की मात्रा तो आना ही था और बॉलीबुड इस मामले में पहले से ही नमकीन है। 

                       फ़िल्म निर्माता-निर्देशक के मेहनत का अंदाज आप लगाइए, कैसे उन्होंने मशक्कत करके युगों के फासले को पाट दिया। दर्शक तो इसी से भाव-विभोर लग रहे है, जब उनको अनुमान था कि वो त्रेता की पृष्ठभूमि रचेंगे। लेकिन उनकी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब उन्होंने देखा कि अरे कलयुगी भी क्या कहे, बिल्कुल बॉलीबुडी-युगी के धरातल पर कथानक और संवाद को पिरो दिया है। कितना दुष्कर कार्य है और वो भी इस वर्तमान दौर में जब कोई कब आहत हो जाए, हमे पता ही नही चलता। रचनाकार वाकई बधाई के पात्र है कि उन्होंने आहत और अनाहत के बीच के माध्यम मार्ग रचा है।अब देखे आगे इसपर कौन चलता है। खैर..फ़िल्म की बात।

                     यह देख और पढ़-सुनकर इन महान कला के विभूतियों के प्रति मेरा मन श्रद्धा से भर गया। आखिर किसी के मूल रूप का अनुकृति भी कोई "क्रिएटिविटी" होती है। "क्रिएटिविटी" तो वो है जो "आदिपुरुष" के साथ वर्तमान के इन कला-महापुरुषों ने किया है। ताकि देखते ही आपका मष्तिष्क सृजनशील होकर इस विश्लेषण में लग जाये कि आखिर "आदिपुरुष" वाकई "राम-गाथा" है या कुछ और..! और जो आपके विचारों को झकझोर कर रख दे वही तो असली सृजन है।साथ ही साथ यह विश्लेषण आपको आनंदित करके रख देगा और आपको आनंदमय कर दे, यही तो निर्देशक का धर्म है। 

                आप बेशक इन बॉलीवुड के सृजनशील उद्द्मियो पर प्रश्नचिन्ह लगाए, लेकिन मैं तो इनको मन ही मन नमन करता हूँ।इस "कलात्मक-सृजनात्मकता" की पराकाष्ठा का  अनुमान तो मैं इसी बात से लगा लिया कि दो-चार लाइन पढ़ते ही पूरा फ़िल्म आंखों के सामने चलने लगा।

                  इससे पहले की दो चार लाइन इनके गुणगान स्वरूप मैं कुछ और लिखता , तभी किसी कोने से मेरे कान में जैसे ये आवाज गूंजने लगा-" पैसा मेरा, निर्देशन मेरा, कलाकार और वीएफएक्स भी मेरा और बजेगा भी मेरा"....तुझको क्या.? तो कैसी लगी..!

                 अब बीड़ू भाई तुम ही जानो, अपुन तो अब तक देखा नही है....!

Wednesday, 15 February 2023

फिक्र...!!


फिक्र इतना ही हो कि 

फिक्र में, फिक्र हो..!

जिक्र इतना ही हो कि

जिक्र में, जिक्र हो..!

यूँ ही बातों में जब सिर्फ

बात ही होती है..!

कई बात, सिर्फ बातों के लिए

साथ होती है..!

फलसफा तो कई हम

यूं ही, उधेर बुनते रहते है..!

अपनी क्या कहे,

सिर्फ सुनते रहते है!

हर हाथ धनुष और तीरों से

सजे-सजे से हर ओर दिखते है!

निगाहें टिकी और कही

पर तीर कही और चलते है!

ये दौर कुछ भ्रम सा

और, भरमाया हुआ सा दिखता है!

हलक में आवाज तो है,

लेकिन, चीत्कार भी दबाया हुआ सा लगता है!

कोई किसी और के लिए,

भला, भलां यहाँ करेगा किया?

फिक्र में हमें खुद के सिवा

और दिखेगा क्या..?

इसलिए फिक्र में, 

सिर्फ फिक्र न हो..!

चलो ऐसा करे, फिक्र में,

कहीं हम तो, कहीं तुम भी हो !!

Sunday, 1 August 2021

हैप्पी फ्रेंडशिप डे

             सोशल मीडिया के आने के बाद बाकायदा अब हर एक "डे" रह-रहकर उभरता रहता है और व्यक्तिगत तौर पर कहूँ तो मुझे पहले इस तरह के "डे" कभी मनाने की बात तो दूर वो याद भी आता ऐसा नही लगता...! किन्तु अब रिश्तों की भावपूर्णता पूरे सिद्दत से मोबाइल स्क्रीन पर उभर के आता है....! अगर हकीकत में परस्पर उसका आधा भी भाव समन्वय हो जाये तो विभिन्न रिश्तों के चादर पर कई जगह पैबंद की गुंजाईश ही नही होती..खैर!

            अब बाते "फ्रेंडशिप डे" यानी "मित्रता दिवस" की..! इस प्रकार के "डे" में एक खाशियत यह भी है कि वस्तुतः यह अपने इंग्लिश नामकरण के साथ प्रचलित होता है, जैसे "फादर्स डे" , "मदर्स डे" इत्यादि और फिर हम हिंदी भाषी अपने भाषानुरूप अनुवाद कर इस दिन के अहमियत को दर्शा कर रिश्तों के बंधन के प्रति अपना समर्पण दर्शाते हैं। समय की धार में  रिश्तों के प्रति समर्पित रहने वाले भाव अब रिश्तों से ज्यादा दिन के प्रति समर्पित दिखने लगा है....खैर..!

              आज "फ्रेंडशिप डे" यानी कि मित्रता दिवस है। अब यह दिन राम-सुग्रीव की मित्रता के दिन की याद है या फिर कृष्ण-सुदामा और न जाने कितने कथा है, उनमे से किसका अनुसरण है..पता नही..! 

               पहले दो लोगो के बीच परस्पर मित्रता भी विधि-विधान पूर्ण था। जब राम-सुग्रीव की मित्रता हुई तो अग्नि को साक्षी माना गया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है-

तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।

पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ ।।

            अर्थात तब हनुमान्जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर तथा अग्नि को साक्षी देकर परस्पर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी।

                 यह मित्रता जोड़ने के रिवाज हमने बचपन मे अपने  गांव में देखा है.! हम उम्र जिसे आप साधारणतया दोस्त समझते है, वो सिर्फ सहपाठी होते थे, दोस्त नही..! दो लड़कों या लड़की में दोस्त बनने की बाकायदा एक  विधिपूर्ण और वैविध्यता से भरा कार्यक्रम होता था। दोनों परिवारों के सम्मुख दोस्त बनने का रस्म पूरा किया जाता था। किसी से दोस्ती का बंधन गाँठना कोई सामान्य प्रचलन की बात नही थी। अब जो दो लड़के आपस मे दोस्त बनते वो एक दूसरे को नाम नही लेते, बल्कि दोस्त, बालसंगी,मीत इत्यादि कहकर बुलाने का रिवाज होता था। उसी प्रकार दो लड़की आपस मे एक दूसरे को बहिना, सखी प्रीतम, कुसुम, इत्यादि रूप से बुलाते थे।जिनका महत्व किसी रिश्ते-नाते से कम नही होता था। समझिए दो लोगो के बीच मित्रता को भी एक सामाजिक स्वीकृति प्राप्त था और उस मित्रता को निभाना भी धर्मोचित भार..!

       समय ने रफ्तार पकड़ लिया, शोशल मीडिया पर मित्र की सूची अब फेस बुक और व्हाट्सएप पर जैसे-जैसे लंबे होते जा रहे और मित्र शब्द से निकलने वाले भाव वैसे-वैसे सिमटते जा रहे है...! खैर...अब बदलते समय मे मित्रता निभाने की अपेक्षा भी कुछ ही लोग पालते है, अब तो मित्र सूची के अनुसार उनको जान ले वही बहुत है। फिर भी चलन है औऱ वर्तमान का परिपाटी भी समयानुसार अपना रूप बदलता रहता है। तो इसी को कायम रखते हुए इस सूची में जिन मित्रो को जानता और पहचानता हूँ और उन मित्रो को जिन्हें न जानता हूँ और न पहचानता हूं.... उन सभी को " हैप्पी फ्रेंडशिप डे"...!!

Sunday, 20 June 2021

फादर्स डे...... बस यूं ही...

                भाव जब शब्द से परे हो तो उसे उकेडने का प्रयास जदोजहद से भरी होती है। हर समय मन में खटका उठता है ओह यह रंग तो छूट ही गया। फिर उस तस्वीर के ऊपर एक और कोरा कागज एक नए तस्वीर की तैयारी।

                        हर तस्वीर में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। यह जानते हुए भी समग्र को समेटने का प्रयास निष्फल ही होगा ।फिर भी प्रयास करना है यह प्रथम पाठ भी अबोध मन पर उन्ही का लेखन है। जब अनुशासन के उष्म आवरण की गर्मी दिल में एक बैचैनी देता तो आँखों से सब कष्ट हर लेने का दिलाशा भी उनके व्यक्तित्व के आयाम में छिपे रहते थे। जो वर्षों बाद इन तुच्छ नजरो को दृष्टिगोचर हो पाया। निहायत सामान्य से व्यक्तिव्य में असामान्य जीवन के कई पहलूँ को लेकर चलना सामान्य व्यक्तिव्य नहीं हो सकता। शून्य के दहलीज से सारा आसमान को छू लेने के यथार्थ को मापने के पारम्परिक  पैमाने इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रतिफल का आज जिस मधुरता के रस में  घुला हुआ हमें मिला है  उसमे उनके स्वयं के वर्तमान की आहुति से कम क्या होगा? वो ऋषि की तपोसाधना और उसके बरदान स्वरूप हमारा आज।

                       मुख से निकले शब्द .....अंतिम सत्य और प्रश्न चिन्ह की गुंजाइश पर मष्तिष्क खुद ही प्रश्न निगल जाए ....। बेसक कई बार अबोध मन का प्रतिरोध की भाव दिल में ही सुलग कर रह जाय । किन्तु मन में बंधे भरोसे के ताल में सब विलीन हो जाते। आँखों के सम्मोहित तेज का भय या श्रद्धा या कुछ और ...जो कहे पर हम सबके आँख सदा मिलने से कतराती ही रही। उस तेज का सामना करने का सामर्थ्य ......बेसक इस प्रश्न का उत्तर अनुत्तरित ही रहा। लेकिन जीवन दर्शन से भरी बातें अब भी कानो को वैसे ही तृप्त करता है, जैसे कभी वो इस पौधे को सींचते समय दर्शन के जल से इन नन्हे पौधों को सींचा करते थे।

                          कई बार गीता पढ़ा लेकिन यथार्थ का अनुभव वस्त्र के तंतू बिखरने के बाद ही चला । जब सब कुछ होने पर भी शून्य दीखने लगा । किंतु  फिर वो अनुभति जो कदम कदम पर साथ चलने का अहसास और किकर्व्यविमूढ़ भाव पर दिशा दर्शन का भाव ....मुक्त काया का साथ याथर्थ तो पल पल है।.........अब भी वो साथ है। यह संवेदना से भरे भाव न होकर ...याथर्थ का साक्षत्कार है। जिसे शब्दो की श्रृंखला में समेटना आसान नहीं है।

                        उधार में लिए गए नए रवायत को जब हमारा आज उस समृद्ध संस्कृति की मूल्यों को ढोने में अक्षम है तो फिर कम से कम एक दिन के महत्व को प्रश्नों के घेरे में रखना पिल्हाल आज तो संभवतः अनुचित ही है...?

          यह भाव दिन और काल से परे है। फिर भी.......

Monday, 10 May 2021

कोरोना काल

 अपेक्षाओं का संसार असीमित है....सिमित साधनों के साथ कैसे और आखिर कब तक सामंजस्य बिठाया जाय....?

                भय का दोहन हो रहा है या दोहन की बढती प्रवृति भय का कारण है...इसी असमंजस और उहापोह में बढ़ते जा रहे है । आंकड़ो की कुल रफ्तार और वास्तविक स्थिति के बीच न कही कोई चर्चा है और न ही कोई रूपरेखा दिखता है। 

                  इन उलझनों के बीच भी नियत दिन अपने तय समय पर आकर उस दिन की भाव भंगिमा के अनुसार हमे आभूषणों के साथ नाट्य कला के मंचन के लिए  स्वयं को सुस्सजित करना ही पड़ता है। दिन भर मंचन की सामूहिक प्रक्रिया का निष्पादन करने के पश्चात पुनः पीछे मुड़कर देखे तो सब कुछ वैसे ही उजड़ा उजड़ा दीखता जब कारीगर नाटक स्थल से उसके सजावट के तड़क भड़क वाले वस्त्र को मंच से खोलने के बाद दीखता है। बिलकुल हकीकत सदृश्य नंग धरंग । दृश्य को देख उसका विश्लेषण करने में असमर्थ .....पहले हम हकीकत के रंगमंच पर थे या अब जो नाट्य सदृश्य दिख रहा है वो ही वास्तविक रंगमंच है...कहना मुश्किल है?लेकिन हम जैसो के लिए तो "न दैन्य न पालनयम" के भाव ही सर्वोत्तम विकल्प है।

             अब सबकुछ धीरे-धीरे ही सही किन्तु रफ्तार पाने का जुनून तो अब भी पूर्ववत है।लेकिन भय का आवरण हर ओर यथावत अपनी परिछाई में जकड़ रखा है और भय के कारण भी पर्याप्त है। एक सामान्य धारणा है "क्वांटिटी के बढ़ते ही क्वालिटी घटने लगता है" तो कोरोना के बढ़ते क्वांटिटी ने इसके प्रति उपजे भय के क्वालिटी में उत्तरोत्तर ह्रास करता जा रहा है। लेकिन ये भाव रूपक है वास्तविकता नही। फिर भी उम्मीद से बेहतर विकल्प और दूसरा कोई नही है। 

                  अतः फिर भी आपको उम्मीद के संग अब भी होशियार और सचेत रहने की जरूरत है जब तक बाजी आपके हाथ न आ जाये।जरूरत न हो तो घर पर रहे और बाहर निकले तो मास्क और दूरी का अवश्य ध्यान रखे।बाकी आपकी मर्जी......

  "#कोरोना_डायरी_35(फेसबुक)

Thursday, 14 January 2021

मकर-संक्रांति की शुभकामनाएं

 कुरुक्षेत्र का मैदान ....युद्ध का दसवां दिन ...

विषाद की वायु से पूरा वातावरण रत्त । विधवा विलाप और पुत्र शोक संतप्त विलाप से कंपित सिसकारियां  मातम और रूदन की प्रतिध्वनि संग एक क्षत्र पसर गया।आज के युद्ध के समापन की घोषणा हो चुकी है। क्या कौरव क्या पांडव सभी के रथ एक ही दिशा में भाग रहे है।रक्त और क्षत-विक्षत लाश ने कुरुक्षेत्र के मैदान पर अपना एकाधिकार कर रखा है।  महापराक्रमी, महाधनुर्धर, परशुराम शिष्य, गंगापुत्र, देवव्रत भीष्म वाणों की शैया पर पड़े हुए है। कौरव के सेना का सेनापति यूँ लाचार और बेवस ...अब तक कुरुक्षेत्र का मैदान इनके गांडीव की कम्पन से दहल रहा था वो बलशाली असहाय सा....।भीष्म अब कौरव और पांडव के मिश्रित सेना से घिर चुके थे। 

              वाणों की शेष शैय्या पर इस रूप में भीष्म को देख दुर्योधन के चेहरे का क्रोध स्पष्ट परिलक्षित था। वह मन में भीष्म के घायल से जितना द्रवित नहीं है उससे ज्यादा भविष्य के पराजय की आहट का डर वह सशंकित था। यह भय क्रोध का रूप धर आँखों में उभर रहा है।  पांडवों में संताप पितामह को लेकर स्पष्ट था, जहाँ अर्जुन का मन कर्मयोग और निजत्व मर्म को लेकर संघर्षरत्त दिख रहा ...वही बलशाली भीम भीष्म के इस रूप को देखकर सिर्फ अकुलाहट मिश्रित दुःख से अश्रुपूर्ण हो रखा था..तो धर्मराज युधिष्ठिर अब इस कालविजयी योद्धा से श्रेठ ज्ञान की कुछ याचना से चरणों में करबद्ध हो अपने आँखों के अश्रु की धार को रोक रखा है। नकुल सहदेव आम मानव जनित शोक के वशीभूत हो बस अपने अश्रुओं को निर्बाध रूप से बहने के लिए छोड़ रखा है।

             भीष्म यदि वर्तमान है।तो बाकी कौरव  दक्षिणायन में विवेक पर जम आये अहंकार और दुर्बुद्धि की परत । वही  पांडव भविष्य का उत्तरायण जो  इस हठी सिला को परास्त कर विवेक पर घिर आये तम की परिछाइयो को परास्त कर मानव के नैसर्गिक सौंदर्य को निखार कर लाने को युद्धरत। तभी तो नारायण नर रूप धर स्वयं रथ के सारथी का दायित्व ले लिया।  देवकी नंदन भी वही भीष्म की इस अवस्था को देख भविष्य के गर्भ में छिपे भारत के अध्याय को जैसे खंगाल रहे है।

                  किन्तु अब युधिष्ठिर से नहीं रहा जा रहा। पितामह आखिर आप इस वाण शैय्या पर कब तक ऐसे पड़े रहेंगे। दोनों पक्ष के क्या ज्येष्ठ क्या अनुज क्या सभासद क्या आम जन ....सभी को भीष्म की पीड़ा ये दर्द ..ये कराह जैसे रह रह कर दिल को क्षत विक्षत कर रहा है। हर हाथ इस याचना में जुड़ रहे है कि कुरु श्रेष्ठ अपनी इच्छा मृत्यु के वरदान को अभी वरन कर ले। खुद को इस पीड़ा से मुक्त करे ।

      किन्तु भीष्म ये जानते है कि इस जम्बूदीप पर अज्ञान का जो सूरज अभी दक्षिणायन में है, इस भूमी को इस रूप में असहाय छोड़ चल जाना तो उनके स्वाभिमान को शोभा नहीं देगा। कही आने वाले कल इतिहास में यह नहीं कहे की भीष्म ने हस्तिनापुर के सिंघासन से बंध कर जो प्रतिज्ञा लिया वो तो धारण कर निभा गए किन्तु भीष्म जैसे महाज्ञानी के अपने भी मानवोचित धर्म को निभाने हेतु जिस कर्तव्य और धर्म के मध्य जीवन भर संघर्षरत्त रहे उसके अंतिम अध्याय को अपने आँखों के सामने घटित होते देख सहम गए। वर्तमान का कष्ट भविष्य के उपहासपूर्ण अध्याय से ज्यादा कष्टकारी तो नहीं हो सकता। ये अंग पर बिंधे बाण नहीं बल्कि वर्तमान के घाव का शल्य है । भविष्य के अंग स्वस्थ हो तो इतना कष्ट तो सहना पड़ेगा।

        महाभारत का अंतिम अध्याय लिखा जा चूका है। मंथन के विषाद रूप और विचार के द्वन्दयुद्ध से एक नए भारत का उदय हो गया है। अब दक्षिणायन से निकल कर उत्तरायण में जिस सूर्य ने प्रवेश किया वह नैसर्गिक प्रकाश पुंज बिगत के कई कुत्सित विचारो के साए को जैसे अपने दर्प से विलीन  दिया  है। वर्ष का यह क्रम साश्वत और अस्वम्भावी है और समाज और देश इस से इतर नहीं है। किंतु उत्तरायण में प्रवेश की इच्छा पर अधिकार के लिए भीष्म सदृश भाव भी धारण करने की क्षमता ही नियति के चक्र को रोक सकता है।

            लगभग 58 दिन हो गए ....वर्तमान के भीष्म को क्षत विक्षत पड़े रहे लेकिन धौर्य नहीं खोया....ये विचारो की रक्तपात काल चक्र में नियत है....कोई न कोई मधुसूदन आता रहेगा जो काल के रथ का पहिया अपने उंगली में चक्र की भांति धारण करेगा ....लेकिन वर्तमान हमेशा भीष्म की तरह कर्तव्य और धर्म के मध्य क्षत विक्षत हो भविष्य के ज्ञान किरण का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने हेतु प्रतीक्षारत रहेगा।

आप सभी को मकर संक्रांति .... लोहड़ी.. पोंगल...बिहू.. जो भी मानते हो की हार्दिक शुभकामनाए एवं बधाई।

Monday, 2 November 2020

जंगल-राज.....

 मैं "जंगल-राज" का पैरोकार हूँ...नही इसको ऐसे कह सकते है किसी भी राज्य में जंगल का पैरोकार हूँ...! जो जंगल के हितैषी नही है ..हमे पता है वो पर्यावरण के कितने बड़े दुश्मन है । अब किसी राज्य में जंगल लगाने के लिए पर्यावरण पर अलग से सरकारी धन का दुरुपयोग हो ...यह तो ठीक नही ...तो फिर...उस राज्य को जंगल मे तब्दील कर देने से सरकारी खजाने का भी भला होगा। वैसे भी जो जंगल से निर्मोही है ...वो तो  पूंजीपति के स्नेही ही माने जाते है । तो फिर वो क्यो चाहेंगे कि किसी भी राज में जंगल हो..। आखिर जंगल काट-काट कर इन्होंने ये हाल कर दिया है कि बीच-बीच मे हस्तिनापुर से फरमान जारी होता रहता है की इतने पेड़ लगाओ. ..  उतने पेड़ लगाओ...। अब हम जहां है वहाँ जमीन हो ...तब न पेड़ लगाए , लेकिन "कागज की किस्ती" जब मंझधार से निकल सकती है तो कागज पर वृक्षारोपण भी हो जाता  है।

      अगर राज में सचमुच के जंगल हो तो ऐसी समस्याओं से हमारा पाला नही पड़ेगा। अब जंगल होगी तो थोड़ी बहुत समस्याएं तो होगी ही....। कभी भालू तो कभी लकड़बघ्घा का भय स्वभाविक है। लेकिन फायदे भी तो कितने है.....बिना मेहनत के जंगल मे फल तोड़ो और खा लो...जंगल मे रोटी-रोजगार दोनों मौजूद होते है बस हौसला और पारखी नजर चाहिए...।  

          और जिन्हें जंगल से भय लगता है ...वो शहर का रुख तो कर ही लेते है। देखिए जहां जंगल नही है वहां कैसे सांस बंधक बने हुए है ...और दोष पड़ोसी पर डाल देते। लेकिन हस्तिनापुर को तो शुरू से ही दृष्टि दोष है।

           बात बराबर की है....अगर जंगल नही है तो आपकी सांसे बंधक हो सकती है और अगर जंगल हो जाये तो आप बंधक हो सकते है... ।तो फिर आपको "जंगल-युक्त" राज चाहिए या फिर आप "जंगल-मुक्त" राज के पक्षधर है.... फैसला आपका है...आपको क्या चाहिए..?

           नोट:- इस बातो का बिहार चुनाव से कोई संबंध नही है.....।

Saturday, 19 September 2020

होमो सेपियन्स- अतीत से वर्तमान तक

             इतिहास कई अवधारणाओं का संश्लेषित निचोड़ है, जिसमे हर इतिहासकार स्वयं के मनोवैज्ञानिक भाव की चाशनी में लपेट कर परोशते है। यह कभी  अंतिम निष्कर्ष पर नही पहुंचता और भविष्य की संभावनाओं को कभी खारिज नही करता।यह भाव हर एक इतिहासकार के अपने सामाजिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक विचार या शैक्षिणिक गतिविधियों के बारीक तंतुओ के मध्य उपलब्ध साक्ष्यों के विश्लेषण में स्वतः पनपता है। इस मायने में यह कथन ठीक है-"इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है ।इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है"। लेकिन जिस समय काल खंड में इसे लिखा जा रहा है उस काल खंड के राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था शायद इस पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते है।किन्तु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भविष्य के कल्पित रागों के लिए हम हमेशा से वर्तमान में मंथन,भूत में छेड़े गए सुरो का ही करते रहे है।इतिहास वास्तव में सिर्फ सूचना और घटनाओ का दस्तावेजीकरण या आंकड़ो का एकत्रीकरण न होकर इन दस्तावेजों से छन कर निकले दर्शन है।जो मानव के वर्तमान और भविष्य के चिंतन के लिए कई प्रकार के नए मार्ग प्रसस्त करता है।

                   इस क्रम में यह पुस्तक" सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कुछ इसी प्रकार के भविष्य के दर्शन  के भूत की उकेडी गई रेखाओ को मिलाकर वर्तमान में एक रूप रेखा प्रस्तुत करता है।इसलिये लेखक ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है कि लगभव 70,000 वर्ष पहले होमो सेपियन्स से संबंधित जीवो ने एक विस्तृत संरचनाओं को रूप देना शुरू किया,जिन्हें संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है।इन मानवीय संस्कृतियो के उत्तरवर्ती विकास को इतिहास कहा जाता है।जिसे इतिहास के तीन क्रांतियों ने आकर दिया:- संज्ञानात्मक क्रांति-लगभव 70,000 वर्ष पहले,कृषि क्रांति-लगभग 12,000 वर्ष पहले तथा अंत मे वैज्ञानिक क्रांति जो कि 500 वर्ष पहले शुरू हुआ।साथ ही साथ यह भी स्पष्ट करता है कि इतिहास को न तो निश्चयात्मक मानकर समझाया जा सकता है,न ही उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है क्योंकि वह अराजक होता है।

                     युवाल नोवा हरारी द्वारा लिखित यह पुस्तक "सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कई मायनों में महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए नही है कि इतिहास की विद्वतापूर्ण बाते शोधार्थी के लिए नए दरवाजे खोलती है,बल्कि महत्वपूर्ण इसलिये है कि एक आम पाठक होने के नाते आप कई ऐसे तथ्यों से टकराते है,जो आप के अब तक के बने धारणाओं को गहरे तक झकझोर देता है।किसी भी किताब को पड़खने की कसौटी यह नही है कि कितने क्लिष्ट तथ्यों के साथ आपको अवगत कराता है,बल्कि उसकी कसौटी तो संभवतः यही है कि एक आम पाठक जब इसको पढ़े तो अपने भाषा मे उन तथ्यों के साथ कैसे तारतम्य स्थापित कर पाता है और विचार श्रृंखला को किस हद तक प्रभावित करता है।उसपर भी इतिहास सामान्य रूप में बीती घटनाओ का एक उदासीन वर्णन अवश्य है,लेकिन उद्देश्यहीन तो कतई नही।किन्तु जब आपको इतिहास इस रूप में मिले जो कि कहानियों की श्रृंखला हो और तथ्यों का व्यापक स्पष्टीकरण  तो यह स्वभाविक रूप से आपको आकर्षित करता है। वैसे भी मानव उद्भव से लेकर वर्तमान समय तक इतिहास को समग्र रूप से समेटना संभवतः एक दुरूह क्रिया है।लेकिन मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास जिस रूप में  लेखक ने दार्शनिक रूप में इतिहास का क्रमिक वृतांत दिया है,आपको कई बिंदुओं पर प्रभावित करता है, तो कई पुराने विचार श्रृंखला को गहरे तक झकझोरता है।यह पुस्तक मुख्य रूप से इन प्रश्नों पर केंद्रित है, जैसे कि:- इतिहास और जीव विज्ञान का क्या संबंध है?क्या इतिहास में इंसाफ है?क्या इतिहास के विस्तार के साथ लोग सुखी हुए?

मानव उत्तरोत्तर विकास करता हुआ एक कल्पित समुदाय में परिणत हो गया है। यह विचार करने योग्य है कि उपभक्ताबाद और राष्ट्रवाद हमसे यह कल्पना करवाने के लिए अतिरिक्त श्रम करते है कि लाखों अजनबी उसी समुदाय का हिस्सा है,जिसका हिस्सा हम है,हमारा एक साझा अतीत है साझा हित और एक साझा भविष्य है।लेखक बीच-बीच मे कुछ समीचीन अनुत्तरित प्रश्न भी इस दौरान उठाये है।जैसे कोई भी समाज सच्चे अर्थों में सार्वभौमिक नही था और किसी भी साम्रज्य ने वास्तव में सम्पूर्ण मानव जाति के हितों की पूर्ति नही की।क्या भविष्य में कोई साम्राज्य इससे बेहतर करेगा?

                    पुस्तक का पहला अध्याय ही लेखक ने "एक महत्वहीन प्राणी" के नाम से शुरू किया है।जिसमे यह स्थापित करने का प्रयास है कि मानव की उत्पत्ति एक स्वभाविक जैव वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रतिफल है और अंतिम अध्याय "होमो सेपियन्स का अंत" से समाप्त है।इसके बीच मे अतीत में मानव का उद्भव, विकास प्रक्रिया, कृषि क्रांति से होता हुआ कैसे मानव पैसे की खुशबू से आकर्षित होता हुआ, विभिन्न मजहबो के उद्भव के साथ सम्राज्यवादी आकांक्षाओं से होता हुआ विज्ञान के साथ गठबंधन कर पूंजीवादी पंथ की ओर अग्रसर है,इसपर विस्तृत चर्चा करता है। मुद्राओं का चलन और पैसे के इतिहास के निर्णायक मोड़ एक नए दृषिटकोण को रूपांतरित करता है।जब वो कहते है कि पैसे के इतिहास में निर्णायक मोड़ तब आया , जब लोगो ने उस पैसे पर विश्वास हासिल किया,जिसमे अन्तर्निहित मूल्य का आभाव था।पैसा आपसी भरोसे की अब तक ईजाद की गई सर्वाधिक सार्वभौमिक और सर्वाधिक कारगर प्रणाली है।इसलिए कहते है कि "भरोसा वह कच्चा माल है,जिसमे तमाम तरह के सिक्के ढलते है।"

                      किंतु हर जगह और काल के दौरान मानव की खुशी के पर्याय को यथार्थ के साथ रख कर इसे विशेष रूप से रेखांकित करता है कि दस हज़ार वर्ष पहले के होमो सेपियन्स और वर्तमान के होमो सेपियन्स के खुशी में वाकई कोई बदलाव आया है, जहां सिर्फ दर्शन है। दुख और सुख के धर्मो के तुलनात्मक दर्शन की चर्चा करते समय लेखक बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित नजर आते है, जब बौद्ध ध्यान साधनाओ का वर्णन करते हुए कहते है कि- दुख से लोगो को मुक्ति उस वक्त तक नही मिलती,जब वो इस या उस क्षणभंगुर आनंद को अनुभव कर रहे होते,वह मुक्ति तब मिलती है,जब वे अपनी तमाम अनुभूतियों की अनित्य या अस्थायी प्रवृति को समझ लेते है और उनकी लालसा करना बंद कर देते है। किन्तु इसी बात को श्रीमद भागवतम के एक श्लोक में निम्न प्रकार से कहा है- इस संसार के सभी अन्न, धन, पशु और स्त्रियां भी किसी को संतुष्ट नही कर सकता है,यदि उसका मन अनियंत्रित इच्छाओ का दास है।इन दर्शनों पर उतनी चर्चा नही है।

                  आप माने या न माने लेकिन लेखक तो आपको एक नाचीज वानर ही मानता है,जो कि दुनिया का मालिक बन बैठा है। इसलिए यह रेखांकित किया है कि जीवविज्ञान के मुताबिक लोगो का 'सृजन' नही किया गया था। वे विकास की प्रक्रिया के उपज है। और उनका विकास निश्चय ही 'समान' रूप से नही हुआ है।समानता की धारणा पेचीदा ढंग से सृजन की धारणा से गुंथी है। जिस तरह लोगो का कभी सृजन नही हुआ था, उसी तरह जीव विज्ञान के मुताबिक, ऐसा कोई सृजनकर्ता भी नही है,जिसने लोगो को कोई चीज 'प्रदान' की हो।सिर्फ एक प्रयोजनहीन ,अंधी विकास प्रक्रिया है,जिससे व्यक्तियों का जन्म होता है।पुस्तक सिर्फ मानव की नही पारिस्थितिकी के साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं पर इस मानव के विस्तृत नकारात्म प्रभाव की चर्चा करते है,जो कि एक विनाश के मार्ग पर अग्रसर है।

                  इस किताब में लेखक द्वारा छोटे-छोटे दृष्टांत और किवदंती का उल्लेख अपने बातो के क्रम में और पठनीय बनाता है। जब ईश्वर के अवधारणा पर चर्चा करते हुए वाल्तेयर का कथन उल्लेख करता है- "यह सही है कि ईश्वर नही है,लेकिन यह बात मेरे नौकर को मत कहना ,नही तो रात में वह मेरी हत्या कर देगा। 

                इसे उपन्यास कहे या कथेतर इतिहास या साहित्य की कोई और विद्या कहे, है रोमांचक।  चार सौ पचास पृष्ठों की इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद मदन सोनी ने क्या है।पुस्तक पढ़कर मनन करने योग्य है इसलिए इसपर विशेष प्रतिक्रया हेतु पुनः अध्ययन करना पड़ेगा।क्योंकि कुछ विचार को समझने के लिए काल की धुरी पर गमन और मनन साथ-साथ करना पड़ता है।फिर भी अंत मे एक पठनीय और विशेष जानकारियों से युक्त एक अच्छी पुस्तक है।

Sunday, 16 August 2020

चेतन चौहान.......श्रद्धांजली


             चेतन चौहान का क्रिकेट कैरियर बचपन के धुंधलके तस्वीरों में बैठा हुआ है। जब क्रिकेट की दुनिया रेडियो के इर्द-गिर्द घूमती थी।हमे याद है कि उस समय टेस्ट मैच की रंनिंग कॉमेंट्री को सुनने वाले साथ में कॉपी और पेन रखते थे और टेबल उनका मैदान होता था।किसी स्कोरर की तरह बाकायदा हर गेंद पर उसे लिखते थे। उस समय कितने गेंद पर उनका खाता खुलेगा ये क्रिकेट प्रेमियों में चर्चा और हो सकता हो "ऑफ-ग्राउंड सट्टे" की शुरुआती दौर हो।

                 उस समय तक चेतन चौहान के नाम से हम वाकिफ हो गए थे।लेकिन वो क्रिकेट में हमारे लिए तब तक सामान्य ज्ञान के प्रश्न के रूप में बदल चुके थे और इसका प्रदर्शन अपने आप को ज्यादा जानकर इसे बाउंसर के रूप में फेंक कर कहते-अच्छा बताओ ऐसा कौन सा बैट्समैन है जो अपने क्रिकेट कैरियर में एक भी शतक नही बनाया? बैट्समैन होते हुए शतक न बनाने के कारण सबसे ज्यादा ज्यादा याद किये जाने वाले में शायद चेतन चौहान ही होंगे।

         वक्त के साथ उन्होंने मैदान बदल दिया, किन्तु राजनीति के पिच पर बनाये गए उनके स्कोर के बनिस्बत भी वो हमेशा संभवतः वो एक क्रिकेटर के रूप में ही याद किये जायेंगे।भगवान दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे।ॐ शांति..

Tuesday, 11 August 2020

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

 आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।इस अवसर पर प्रखर राजनीतिक विचारक और दार्शनिक डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा श्रीकृष्ण पर लिखे उनके लेख पढ़िए।उपरोक्त्त लेख "लोहिया के सौ वर्ष" नामक पुस्तक से लिये गए संपादित अँश है।।।
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    त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनने की कोशिश करता है।इसलिए उनमे आसमान के देवता का अंश कुछ अधिक है।द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बने रहने की कोशिश करता है।कृष्ण सम्पूर्ण और अबोध मनुष्य है।निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी।  कृष्ण देव होता हुआ निरंतर मनुष्य बनता रहा।देव और निस्व और असीमित होने के नाते कृष्ण में जो असंभव मनुष्यताएं है,जैसे झूठ,धोखाऔर हत्या,उनकी नकल करने वाले लोग मूर्ख है उसमें कृष्ण का क्या दोष?कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितिप्रज्ञ" का, ऐसे मनुष्य का जो अपने शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता है।"कूर्मोङ्गनीव" बताया है ऐसे मनुष्य को।कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है,अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है।'कूर्मोगानीव' और 'समग्र-अंग-एकांग्री' मनुष्य को बनना है।यही तो देवता की मनुष्य बनने की कोशिश है।
            कृष्ण बहुत अधिक हिंदुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिंदुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार मिट्टी के साथ सने हुए है।मिट्टी से अलग करने पर वो बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते है।त्रेता का राम हिंदुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है।द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम एकता का देव है। राम उत्तर- दक्षिण और कृष्ण पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कृष्ण को वास्ता पड़ा अपने ही लोगो से।एक ही सभ्यता के दो अंगों में से एक को लेकर भारत की पूर्वी-पश्चिम एकता कृष्ण को स्थापित करनी पड़ी।काम मे पेच ज्यादा थे।तरह-तरह की संधि और विग्रह का क्रम चला।न जाने कितने चालाकिया और धूर्तताये भी हुईं। राजनीति का निचोड़ भी सामने आया -ऐसा छनकर जैसा फिर और न हुआ।
             यो हिंदुस्तान में और भी देवता है,जिन्होंने अपना पराक्रम भागकर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने।यह पुराना देश है।लड़ते-लड़ते थके हड्डियों को भागने का अवसर मिलना चाहिए।लेकिन कृष्ण थकी पिंडलियों के कारण नही भागा । वह भागा जवानी की बढ़ती हुई हड्डियों के कारण।अभी हड्डियों को को बढ़ाने और फैलाने का मौका मिलना चाहिए था।लेकिन भागा भी बड़ी दूर द्वारका में। तभी तो उसका नाम "रणछोड़दास" पड़ा।कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल के छापामार लडाई की तरह थी,वार करो और भागो।अफसोस यह है कि कुछ भक्त लोग भागने में ही मजा लेते है।
        कृष्ण त्रिकालदर्शी थे।उसने देख लिया होगा कि उत्तर-पश्चिम में आगे चलकर यूनानियों, हूणों,पठानों,मुगलो आदि के आक्रमण होंगे।इसलिए भारतीय एकता के धुरी का केंद्र कही वही होना चाहिए,जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर सके।लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध धुरी बदला चुकायेगी और सैकड़ो वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण के भूमि के नजदीक यानी कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी।किन्तु अशक्त अवस्था मे त्रिकालदर्शी ने देखा,शायद यह सब कुछ हो,लेकिन कुछ न कर सका हो।वह हमेशा के लिए कैसे अपने देशवासियों को ज्ञानी और साधु दोनों बनाता।वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था।रास्ते मे भी शायद त्रुटि थी।त्रिकालदर्शी को यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नही अनाड़ी भी चलेंगे और वे कितना भारी नुकसान उठाएंगे ।राम के रास्ते चलकर अनाड़ी का भी अधिक नही बिगड़ता,चाहे बनना भी कम होता है।
             राम त्रेता के मीठे, शांत और सुसंस्कृत युग के देव है।कृष्ण पके,जटिल,तीखे और प्रखर बुद्धि-युग का देव है।राम गम्य है जबकि श्रीकृष्ण अगम्य है। कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के।अब भी तब की गोपियां और जो चाहे वे,उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रासविभोर हो सकते है और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते है।साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण, जय-अजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यय भाव का सुरीला दर्शन उसके वाणी से सुन सकती है।संसार मे एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।
                कौन जाने कृष्ण तुम थे या नही।कैसे तुमने राधा लीला को कुरु लीला से निभाया।लोग कहते है कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नही।बताते है कि महाभारत में राधा नाम तक नही।बात इतनी सच नही,क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण को पुरानी बातें साधारण तौर पे बिना नामकरण के बताई है।सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नही किया करते,जो समझते है वे,और जो नही समझते वे भी।महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता हैं।राधा का वर्णन तो वही होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी उसका दास है।रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है।न जाने हजारो वर्षो से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण!

                                (------   1955,जुलाई; "जन" से-////)

Sunday, 28 June 2020

गतिशील लोकतंत्र

वो बहरे है..
सबने कहा हाँ बहरे है ।
वो अंधे है..
सबने कहा हाँ अंधे है।
वो गूंगे है...
सबने कहा हाँ गूंगे है।

चुनावी मंथन में
मशवरा अब अंत पर है ।
बोलो तो सुन नही पाएंगे,
दिखाओ तो देख नही पाएंगे,
अधिकार मांग नही पाएंगे,
तो फिर दिक्कत कहाँ है..?
और चुनावी प्रचार शुरू हो गया।

जो पार्टी जीती ...
उसने कहा ऐसा कुछ नही है
जनता जनार्दन है..।
हारने वाले पार्टी ने अब तक
मतदाता को बापू के बंदर ही समझ है।
किन्तु इसमे शक नही की
गतिशील लोकतंत्र उन्नति के पथ पर अग्रसर है।।

Sunday, 21 June 2020

पितृ दिवस...दिन से परे भाव

            भाव जब शब्द से परे हो तो उसे उकेडने का प्रयास जदोजहद से भरी होती है। हर समय मन का भाव स्वयं में द्वंद करता है । इसलिए भगवान कृष्ण ने मन को "द्वंदातीत" कहा है।फिर शब्दो मे इसका संशय हमेशा बना रहता है कि जीवन के अद्भुत रंगों में कोई-न-कोई रंग छूट ही जाता है। फिर उस तस्वीर के ऊपर एक और कोरा कागज एक नए तस्वीर की तैयारी।

               हर तस्वीर में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। यह जानते हुए भी समग्र को समेटने का प्रयास निष्फल ही होगा ।फिर भी प्रयास करना है यह प्रथम पाठ भी अबोध मन पर उन्ही का लेखन है। जब अनुशासन के उष्म आवरण की गर्मी दिल में एक बैचैनी देता तो आँखों से सब कष्ट हर लेने का दिलाशा भी उनके व्यक्तित्व के आयाम में छिपे रहते थे। जो वर्षों बाद इन तुच्छ नजरो को दृष्टिगोचर हो पाया। निहायत सामान्य से व्यक्तिव्य में असामान्य जीवन के कई पहलूँ को लेकर चलना सामान्य व्यक्तिव्य नहीं हो सकता। शून्य के दहलीज से सारा आसमान को छू लेने के यथार्थ को मापने के पारम्परिक  पैमाने इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रतिफल का आज जिस मधुरता के रस में  घुला हुआ हमें मिला है  उसमे उनके स्वयं के वर्तमान की आहुति से कम क्या होगा? वो ऋषि की तपोसाधना और उसके बरदान स्वरूप हमारा आज।

                  मुख से निकले शब्द .....अंतिम सत्य और प्रश्न चिन्ह की गुंजाइश पर मष्तिष्क खुद ही प्रश्न निगल जाए ....। बेसक कई बार अबोध मन में प्रतिरोध की भाव दिल में उष्णता का अनुभव दे । किन्तु मन में बंधे भरोसे के ताल में सब विलीन हो जाते। आँखों के सम्मोहित तेज का भय या श्रद्धा या कुछ और ...जो कहे पर हम सबके आँख सदा मिलने से कतराती ही रही। उस तेज का सामना करने का सामर्थ्य  अनुत्तरित ही रहा। लेकिन जीवन दर्शन से भरी बातें अब भी कानो को वैसे ही तृप्त करता है, जैसे कभी वो जीवन दर्शन के जल से इन नन्हे पौधों को सींचा करते थे।

                    कई बार गीता पढ़ा लेकिन यथार्थ का अनुभव वस्त्र के तंतू बिखरने के बाद ही चला । जब सब कुछ होने पर भी शून्य दीखने लगा । किंतु  फिर वो अनुभति जो कदम कदम पर साथ चलने का अहसास और किकर्व्यविमूढ़ भाव पर दिशा दर्शन का भाव, अब भी मुक्त काया के साथ यथार्थ तो पल पल है।अब भी वो साथ है। यह संवेदना से भरे भाव न होकर यथार्थ का साक्षत्कार है। जिसे शब्दो की श्रृंखला में समेटना आसान नहीं है।

                       उधार में लिए गए नए रवायत को जब हमारा आज, उस समृद्ध संस्कृति की मूल्यों को ढोने में अक्षम है तो फिर कम से कम एक दिन के महत्व को प्रश्नों के घेरे में रखना  आज तो संभवतः अनुचित ही है...?

                        यह भाव एवम भावना दिन और काल से परे है, जो सास्वत सत्य की तरह सांसो में प्रत्येक क्षण घुला हुआ रहता है। फिर भी.......पितृ दिवस की शुभकामनाएं।।

Sunday, 7 June 2020

बढ़ते आकंड़े.....कोरोना डायरी

                 आंकड़ो के बढ़ते उफान से भावनाओ को विचलित न होने दे,सिर्फ संवेदनशील होने की जरुरत है। आपका व्यस्त दिनचर्या आपको इसकी इजाजत नहीं देगा ।क्योकि आप चाहते हुए भी खुद से मजबूर है और शासन,अर्थ की व्यवस्था से मजबूर है। यह भी खबर में चलचित्र की भांति आएगा, आरोपो और प्रत्यारोपो के बीच समय खबरनवीस को खबर पर बने रहने की इजाजत नहीं देगा । क्योंकि समय की अपनी रफ़्तार है जिसके किसी भी नोक पर आप रुक नहीं सकते। 

                    हम एक  अँधेरी साया के तले सफर कर रहे है, खैर मना सकते है कि इस पर भी सब कुछ दिखने का आप भ्रम पाले हुए है। यह कुछ "वादों" को लेकर सिर्फ "विवादो"  का कारण है ऐसा नहीं , जीवन को जीने के लिए जीवन को खोने के संघर्ष की गाथा पुरातन से नवीनतम की धुरी पर काल चक्र की भांति अग्रसर है।  हम फिर भी अभिमान से अतिरंजित है......धरती को सींचकर जीवन फसल उगाने वाले किसान हो या श्रम साध्य वर्ग की पलायन गाथा हो।जो  जीवन दृष्टि की तलाश में कैसे कितने कदम मंजिल पूर्व ही ठहर गए या मंजिल की तलाश में कहीं विलीन हो गये।जीवन निर्वहन के लिए याचनाओं के वाचक समूह की रक्तिम सिचाई परती हृदयकथा सी है।

                     मैं वाकई इससे भ्रमित हूं ...सीमाओं के बंधन में चिंता की लकीरें खिंच रही है...जो स्वयं के विरोधाभासी द्वन्द की रेखा लगाती है....? फिर आप अपने ही लोगो से ऐसा व्यवहार इस कोरोना काल मे करते है,जो स्वयं में अपेक्षित नही होता है। शासन से बंधे होने की दुश्वारियां आपके समग्र मष्तिष्क को हर बदलते आदेश के साथ कितना दिग्भ्रमित करता है...जो सिंघासन से बंधे होते है, वो अनुभव करते है। एक ही समय के लिए एक ही तथ्य के अर्थ को आप कैसे सुविधानुसार व्यख्या करते है, ये जानते हुए भी की इन तथ्यों का सत्य और असत्य के किसी मानदंड से कोई सरोकार न होकर सिर्फ आप निष्पादन की प्रक्रिया को पूरा कर रहे है। फिर इन विरोधाभाषी चिंत्तन में पड़ते है तो कई प्रकार के विरोधाभास में विचरण करते है।

                  यह समय विरोधाभास का है, इसलिए ज्यादा भ्रमित न हो और संभव हो तो घर मे रहे और बाहर निकले तो मास्क लगाए।ताकी आपका विरोधाभासी चेहरा किसी को नजर न आये और आप कोरोना से सुरक्षित भी रहे.....है कि नही....आप भी सोचिये ...।।

Friday, 29 May 2020

बदलते तराने..कोरोना डायरी

                  कोरोना काल ने दिन-प्रतिदिन चित्रहार और रंगोली की तरह लोगो के मन विभिन्न रागों के कई तान छेड़े और न जाने कितने रंग भरे है। लॉक-डाउन -1की शुरुआत से पहले ही हम थाली, घण्टा-घड़ियाल और शंख नाद से मोहित हो रखे थे और लगा ये कुछ दिनों की ही बात है।  तो लॉक-डाउन-1 के शुरू-शुरू में बॉबी फ़िल्म का ये गाना गूंजने लगा-
हम-तुम एक कमरे में बंद हो
और चाभी गुम हो जाये।।
            यहाँ चाभी गुम तो नही हुए लेकिन दरवाजे बंद तो हो गए। बंद दरवाजा भला कब तक अच्छा लगता।अब दिनों के बढ़ते कारवें उस रस की मधुरता को सोखने लगा। तो अब युगल स्वर लहरी खिड़कियों के झरोखे से तैर कर बाहर गूंजने लगा -
चलो इक बार फिर से
अजनबी बन जाएं हम दोनों ,
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से।।

         अब तक दिन लॉक-डाउन 2 और 3 के सफर पर निकल गया तो दिल कुछ और गमगीन भी हो चला।किन्तु इसी बीच अर्थव्यवस्था की दवाई हेतु दारू की दुकान खुल गई फिर जैसे ये धुन गूंजने लगा-चार बोतल वोडका ,काम मेरा रोज का तो किसी ने ये राग छेड़ दिया- लोग कहते है मैं शराबी हूं...।
          तो फिर जिनके लिए इन बीच दो जून के खाने नही नसीब हुए होंगे ,वो तो भगवान और इंसान को रह-रह कर ऐसे ही कोसते होंगे-
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
की कितना बदल गया इंसान।।

         गिरते-पड़ते कदम अगर दिन काटने में सक्षम दिखे तो खैर चल रहे होंगे, लेकिन जिनकी तस्वीर भयावह हो वो भला आहे भरकर कुछ यही गुनगुना रहे होंगे-
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।।

                 इस लंबे सफर के बाद फिर कुछ कुछ खुले और कुछ -कुछ बंद सा लॉक-डाउन 4 का ताला लटका दिया गया।टीवी पर प्रवासी मजदूरों की बदहाल तस्वीर रह-रह कर टीआर पी के साथ होड़ में लग गए। व्यवस्था से निराश और हताश,जिनका सबसे भरोसा टूट गया वो पलायन की व्यथा शायद फ़िल्म "भरोसा" के इसी पंक्तियों से जाहिर कर विरहा रूप में ही गया रहे होंगे -
" इस भरी दुनिया में, कोई भी हमारा न हुआ
 गैर तो गैर हैं, अपनों का भी सहारा न हुआ ।

         इस बीच  इंद्रप्रस्थ के सिंघासन से बंधे सेवक  जो खुश होकर कोरोना के चिराग से निकले जिन्न की दरियादिली समझ रहे थे और लॉक डाउन में छुट्टी के दिन में घिरने से खुशी में  फ़िल्म हेरा-फेरी का ये गाना बार-बार गाते होंगे-
देने वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के
किती किती कितना, किती किती कितना
दिक् ताना, दिक् ताना, तिकना तिकना ।।
 
              अब जैसे-जैसे तस्वीर साफ हो रही है की खाते से सारे छुटी की सफाई की योजना बन रही है शायद लगे कि सही में उनके साथ हेरा-फेरी हो गया । तो शायद बस ये गुनगुना सकते है-
हमसे क्या भूल हुई जो ये सजा हमको मिली
अब तो चारो ही तरफ बंद है दुनिया की गली।।

      किन्तु इस बीच-बीच मे कही कोरोना भी जैसे रह-रहकर  गुनगुना रहा है-
 तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा।।

    और इसकी रफ्तार को देख कर यही लग रहा है कि ये सिर्फ गुनगुना नही रहा है। बल्कि तेजी के साथ चल भी रहा है।
इसलिए संभव है तो बंद रहे सुरक्षित रहे...बाकी आपकी मर्जी..।। क्योंकि ये कोरोना काल अभी कौन-कौन से राग और रंग से मिलाएगा..कहना मुश्किल है..?

Wednesday, 27 May 2020

भ्रमित काल...कोरोना डायरी

             आखिर अब लग रहा है कि कोविडासुर अपने उद्देश्य में सफल होने लगा है। इससे लड़ने के मोर्चे और व्यूह रचना हमे खुद के व्यूह में जैसे उलझाने लगा है। अलग-अलग सेनापति कोविडासुर पर प्रहार करने की जगह आपस मे ही तलवार भाजना शुरू कर दिया है। इस मायावी के विरुद्ध मति भ्रम के शिकार अब हम ज्यादा लगने लगे है।

               जब तक ये समझ बनी,शायद कुछ देर हो गई,की घर के लिए घर छोड़ने वाले भी घर की राह पकड़ेंगे । फिर भी जब चलने की व्यवस्था हुई तो कही ट्रेन बेचारे प्रवासियों को पहुचाने में अपनी ही पटरियों के चक्कर काट कही से कही और भटके जा रहे है। तो कही लॉक- डाउन और लॉक-अप के बीच प्रशासन झूल रहा रहा है।जो पीड़ित है वो स्वास्थ के व्यवस्था से दुखी है और जो अपीढ़ित है वो साशन की व्यवस्था से दुखी है।व्यवस्था बार-बार खुद की बदलती व्यवस्था से दुखी है..।

              दो गज की दूरी में रहने की बाध्यता हवा में जाते ही हवा हवाई हो गई है।आखिर इतने बड़े युद्ध को लड़ने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता है और पैसे उसके लिए जरूरी है। नियंता को लगता है कि पैसे हवा में ज्यादा उड़ते है और उससे पहले ही दवा कि जगह दारू का प्रयोग सफल भी हो रखा है..?

             कोविडासुर ने तो अभी तक अपने गुणों को नही छोड़ा,लेकिन हमने बचने के उपाय को रह-रह कर बदलते जा रहे है। कभी "होम-क्वेरेंटीन" तो कही "पेड- क्वेरेंटीन" तो कही "हॉस्पिटल-क्वेरेंटीन",कही हथेली पर मुहर तो कही खुद के भरोसे और नही तो अंत मे बाकी को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है।इसने जैसे कुएं में भांग घोल दिया और पूरी व्यवस्था और नागरिक अपने-अपने मस्ती में झूमने लगे है।

              लॉक डाउन अपनी मर्यादा से बाहर निकल कर अपने अर्थ तलाश रहा है और कोविडासुर बेझिझक अपनी रफ्तार कायम कर रखा है। देश भी अपनी रफ्तार को कायम रखना चाह रहा है। वैसे भी अब शायद हम यह मान बैठे है कि  हमें तो कुछ करना नही, बाकी जो करेगा कोविडासुर ही करेगा। तो बेहतर है इंतजार करने से की हम भी चलते रहे ।क्योंकि लगता है हमने  इस श्लोक से ज्यादा सिख लिया है-"चराति चरतो भगः" अर्थात चलेने वाले का भाग्य चलता है और अब सब संभवतः भाग्य भरोसे ही तो चल रहा है।

            किन्तु अगर आपके लिए संभव है तो चले नही घर मे रहे....बाकी आपकी मर्जी....।।