Saturday, 31 August 2013

अस्तित्व


कुछ शेष रह जाते यहाँ
यादो की परछाई में
कुछ के निशां भी नहीं होते  
बह जाते है वक्त की पुरवाई में। 
किसकी किस्मत क्या  है
ये तो बस बहाना है,
गुजरे कर्मो को इस लिबास से
ढकने का रिवाज पुराना है। 
खुद में रहकर ही ,
खुद के लिए जो  गुजर जाते है ,
उन मजारो पर देखो जाकर
वहाँ घास-फूसों का आशियाना है। 
अपने आप को छोड़कर जो
औरों के लिए दर्द  लेते है 
अपनी पलकों के नींद किसी और को देते है
जिनका हाथ किसी गैर का सहारा है 
कंधो पे भार खुद का नहीं 
अरमानों का बोझ कई का संभाला है 
जो आवाज है कई 
हकलाती जुवानों का 
जिनके कानों में गूंजती है टीस 
किसी के कराहने का। 
उनके अस्तित्व ढूंढे नहीं जाते
वो सोते है गहरी नींद में
और लोग रोज उन्हें जगाने वहाँ आते 
झुके हाथों से नमन उन्हें करते है 
तुम हो साथ मेरे बस ऐसा कहते है। । 
इन बातों को शब्दों में गढ़ना कितना आसान  है ,
लगता नहीं कोई इससे अंजान है , 
हम उनसे अलग नहीं कोई 
किन्तु सोच शायद, कभी कर्म में बदल जायेगे 
कोई अस्तित्व हम भी गढ़ जायेंगे। । 

Wednesday, 28 August 2013

शुभ-जन्माष्टमी

आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना 


अब आडम्बर कोई नहीं,सब तेरा प्रभु इंतजार करे ,
कुछ शुक्ल नहीं दिखता बस चारो ओर अज्ञान भरे। 

कल्कि का कालिख उड़ रहा सब ओर तम  अँधेरा है,
भीग रहे कितने नयने यहाँ छाया अँधियारा गहरा  है। 

कर्तव्य का कोई मोल नहीं मोह ने सबको लीला है, 
गीता ज्ञान की बाते सिर्फ टकराती मंदिर शिला है। 

जो लाँघ चले मंदिरशाला तेरे विकृत गुणगान करे 
चौसंठ कला नहीं कोई बस रसिया कह सम्मान करे। 
  
इस बार फिर तू आएगा हम मधुर धुन पर नाचेंगे
कितने ही बिकल विलापो को बस कुछ पल ही  ढाकेंगे। 

अबकि आकर मुरली मनोहर कुछ ऐसा चक्र चला देना 
शिश अलग अज्ञान का कर पुनः ज्ञान रवि फैला देना। 

Monday, 26 August 2013

मै सिर्फ मै हूँ

सफ़र कितना कर लिया 
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा 
कितने अणुओं -परमाणुओं के 
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका 
तरल हो कब तक था उबला 
जैसे किसी संताप से निकला  
फिर भी चलता रहा अब तक 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक। 
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे 
सींचा है पञ्च तत्व पग में 
मन का पाया विस्तार अनंत 
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर 
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित 
सत तत्व का सब  अक्स  धुल रहा जैसे  
रह गया बस राख का रज जैसे  
थी  मुझमे असीम आकांक्षा 
और था सामर्थ्य भी 
अनंत व्योम को खुद में समाहित 
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे  
महाउद्देश्य से भटक गया , 
"हम" है अब भी  कितना दूर मुझसे 
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में  रह गया। । 

Sunday, 25 August 2013

पुनरावृती ...?

समंदर के किनारे ,
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

जो आया है खुशी  में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर  मोह  जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
 इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई  इबारत  की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

स्वर्ग-नरक

                                                                                                                                                                                   (चित्र :गूगल साभार )


एक रोज सुबह -सुबह दरबार में,लाल-पीले यमराज ,
बोले अबतक क्यों नहीं आया,  चित्रगुप्त महराज।।

उनको बोलो जाकर जल्दी,सभी बही खता ले आएगा,
पृथ्वी लोकआयोग का फाइल जल्द यहाँ भेजवायेगा।।

कुछ दिनों से देख रहा हु, कुछ तो गड़बड़झाला है,
यमलोक के कामो पर अब  उगली उठने वाला है। । 

जिसने जो भी कर्म किये है वैसा ही उपदान करो ,
जैसे भी हो लंबित मामले जल्दी से निपटान करो।।

तब तक भागे-भागे पहुचे वहा चित्रगुप्त महराज,
भाव-भंगिमा चिंतित मुद्रा, बोले जय महराज।।

 बोले जय महराज गजब क्या अब घटना बोलू ,
नहीं मिल रहे फ़ाइल् अब क्या मुह मै खोलू।।

समझ कुछ नहीं आ रहा कैसे ये सब हो गया ,
मानव लोकआयोग का फ़ाइल् ही केवल खो गया।। 

थी नामे कई बड़ी मानव, जिस पर था इल्जाम बड़ा ,
कैसे उसने सेंध लगाया द्वारपाल था जब खड़ा ।।

लगता है लंबित मानव ने कोई नई  युक्ति लगाया 
दीमक से साठ-गांठ या द्वारपाल रिश्वत से मिलाया। ।  

यमराज की चडी त्योंरिया ,गरजे तब भरे  दरबार ,
कोई केस न लो मानव का लिख भेजो ब्रह्म के द्वार। 

पृथ्वी लोक के बाकी जीवात्मा वैसे ही चलेगा, 
मानव को करो वर्जित तब यमलोक बचेगा। । 

पृथ्वी लोक के आत्मा भी अब स्वक्छ नहीं रह पाता 
दूषित हवा पानी सब लेकर यहाँ संक्रमण फैलता।।

जिसका जो है कर्म का लेखा ,ब्रह्मा को सब भेजवाओ,
ले-लो साथ महेश का गण और वही सजा दिलवाओ। ।  

तब विश्वकर्मा ने  पृथ्वी पर ही  दोनों रूप बनाया , 
मानव अपने कर्मो का फल तब से यही है  पाया।।