Sunday, 29 June 2014

आसमां से परे

आसमां से परे
एक आसमां की तलाश है, 
सुदूर उस पार क्षितिज के 
जहा धरती और गगन 
मिलने को बेकरार है।  
और जो अब तक मिल नहीं पाये 
बस और थोड़ा दूर 
न जाने अब तक कितने फासले नाप आये 
किन्तु फिर भी वही  दुरी, पास-पास है।  
और इसपर पनपते जीव ने 
उस धरती से  कांटे नहीं तो 
आसमां के शोलो को ही 
बस दिल में बसाया है। 
हैरत नहीं की उसने भी 
इन दोनों के प्यार को बस 
छद्म ही पाया है। 
प्रतीत होता है और है का अंतर 
सबने ज्ञान से अर्जित किया है, 
प्रेम की पहली परिभाषा ही 
अब यहाँ दूरियों में अर्पित किया है। 
जिसको किसी की चाह नहीं 
हर किसी ने दुसरो में वही देखा है। 
मैं  प्रेम का सागर हूँ 
बाकी में सिर्फ  नफरत की ही रेखा है। 
न देखे इस आसमां से बरसते शोलों को
या धरा पर चलते फिरते शूलों को,  
चलो इससे परे कोई आसमां ढूंढेंगे  
जहाँ धरती गगन एक दूसरे को चूमेंगे। । 

Monday, 26 May 2014

आशा भरी पहल


                              इतिहास गतिमान है। बिलकुल समय की धार की तरह। हर वक्त पल-पल का लेखा जोखा कही न कही रखा जा रहा है। अंतर बस इतना है की कुछ पल स्वर्ण अक्षरो में दर्ज होते है और कुछ के लिए बस नीली स्याही उकेड़ दी जाती है। वक्त की धूल भरी कितनी भी मोटी  परत उसके ऊपर क्यों न चढ़ जाए स्वर्ण अक्षरो में दर्ज समय अपनी चमक यो ही बिखेर देते है बाकी इतिहास के पन्नो में धूल धूसरित हो जाते है। बदले हुए स्थिति इतिहास के कई मान्यताओ को बदल कर रख देता है। पुराने पन्नो को पलटने से बेहतर है की कोई नए अध्याय की शुरुआत की जाय।उसमे दर्ज तथ्यों के ऊपर ही मंथन छोड़ या तो अब नए कायदे शुरू करने का समय है या नहीं तो कम से कम  इसे तो परखा तो जा ही सकता है। हेकड़ी भरी एक उद्घोषणा लाखो कड़ोरो के मन को आलादित कर सकता है किन्तु वो जीवन से जुड़ी मानवता के बंधन को बस तार-तार ही करती है। यूँ तो भारतीय इतिहास उन मनीषियों और मानवता के रक्षको से भरा परा है जो  सम्पूर्ण सृष्टि समुच्चय को ही अपने वाणी और कर्तव्य से उद्घोषित  करता रहा है।
                          तमाम कड़वे अनुभव के वावजूद भी नयी सुबह के उम्मीद का दामन न छोड़ने कि सोच  ही मानव समाज को एक नयी दिशा और ऊर्जा  देता है। आग्रह और पूर्वाग्रहों के बीच का कोई न कोई रास्ता तो अख्तियार करना ही होगा। असंवाद की दीर्घकालिक परिणीति सिर्फ और सिर्फ अविश्वास की खाई को और गहडा ही कर सकता है। उस अंधकूप की ओर जहाँ उम्मीद की कोई स्याह किरण भी न दिखाई पड़े , कदम बढ़ाना किसी के भी हित में नहीं होगा। अपने हितो की रक्षा और दूसरों के हितो का सम्मान ही इस देश की युगो पुरानी परमपराएँ है। बदलती मान्यताओ के साथ भी हमने अपने परम्परा को कायम रखा है। एक नयी पहल एक नए युग का सृजन कर सकता है। भविष्य के गर्भ में छिपे परिणाम को अभी तो जानना कठिन है किन्तु यदि नेकनीयत से कोई भी कदम उठाया जाता है परिणाम सकारात्मक होते है। विगत अनुभव अवश्य ही ऐसे विचारो के ऊपर ग्रहण लगते हो किन्तु अपनी ओर  से एक पहल सामने वाले को पुनः एक बार सोचने को मजबूर तो करेगा। इतिहास इस बात का साक्षी है की युद्ध की अंतिम परिणति भी शांति के के मेज वार्ता पर ही हुई है। फिर कदम को उतना बढाने से पूर्व क्यों न एक बार पुनः मिल बैठ कर प्रयास किया जाय। बेसक ये अतिश्योक्तिपूर्ण हो किन्तु कितना अच्छा हो यदि मानव सीमा से आजाद हो पाते। 

Saturday, 24 May 2014

सब भरा-भरा है----

ये तो पूरा भरा है . . . 
                   हाँ अब हमें भी पता चल गया है। सब कुछ भरा -भरा सा ही है। अभी तक नैराश्य भाव से ग्रसित था मैं और पहली बार पता चला की अरे गिलास तो आधा नहीं पूरा ही भरा है। आधा पानी से और आधा हवा से। इस दर्शन ने सब कुछ देखने और समझने की शक्ति में जैसे अकस्मात  परिवर्तन कर दिया । मैं अब दुखी हूँ उन लोगो के लिए जो इस दर्शन से अपने आपको आत्मसात नहीं कर पाये है। अचानक लगता है जैसे कितना कुछ बदल गया है। कल तक इन विभिन्न विकास के आकड़ो पर नजर डालता तो देश की शासन व्यवस्था पर मन में सवालिया प्रश्न  हिचकोले लगाने लगते। वंचितो के समूह का तात्कालिक दायित्व से इतर सभी कुछ  संचितो के लिए विशेष रूप से किया जा रहा है ऐसा ही लगता था।किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन सा हो गया है। अभी तक के सरकार को कोसने के सिवा और कोई भी रचनात्मक सोच मन में नहीं उठते थे। किन्तु अब सभी पूर्व सरकारों के पूर्वाग्रह से मैं अपने-आपको मुक्त महसूस करने लगा हूँ। मन कितना हल्का सा लगने लगा है। 
             अब देश के अंदर निरक्षर और साक्षर से लगता है लोग बस खेल रहे है। आखिर ये समझ में क्यों नहीं आ रहा है की देश की ७०% जनता का मस्तिष्क यदि किताबो के पन्नो से भरा हुआ है तो बाकि बचे हुए जनता ने किताबी पन्नो से इतर प्रत्येक दिन के जद्दो-जहद भरी विषय के पुस्तक और आखर इन मस्तिष्क में बिठा रखे है। किताबी ज्ञान से भरी जीवन  से बेहतर है सांसारिक ज्ञान को जीवन में उतारा जाय। क्या  बेमतलब के प्रश्नचिन्ह कुछ लोगो ने अपनी शिक्षा व्यवस्था खड़ा कर रखा है? इन आकड़ो को अब बदलना चाहिए। हम सौ फीसदी साक्षर है कुछ किताबो में छपे अक्षरो से और कुछ जीवन के घिसने से बने अक्षरो से। इन फलसपों को पता नहीं पूर्ववर्ती सरकार क्यों नहीं समझ सके। आने वाला कल पता नहीं गरीबी रेखा के नीचे रहने वालो के साथ कौन सा दर्शन  पेस करे। आधी रोटी से पूरी रोटी तक पहुंकते-पहुँचते पिछले सरकार के कितने सांसद संसद के दहलीज छोड़ जाने कहा पहुंच गए। किन्तु अब तो आधी रोटी के लिए बेचैन लोगो को वो भी मिलेगा या नहीं ये कहना दुश्वर है। कही ये धारणा  योजनागत रूप न ले बैठे की जिनका पेट रोटी से नहीं भरा हुआ है उसमे अंतरियाँ  और हवा तो भरे  है। फिर रोटी कि क्या आवश्यकता है ?
         समस्या कही कुछ नहीं है। बस नजरिया ही एक समस्या है। दर्शन जीवन का अंग है। इससे रूबरू होते ही कितनी छोटी-बड़ी समस्या अपने -आप दूर हो जाती है। इसका अनुभव अब मुझे होने लगा है। सब जस के तस होने के वावजूद भी फिजा में लगता है रूमानी ख्याल तैरने लगे  है। हम भी इसमें डूबने-उतरने लगे है।  अपने वृहत अध्यात्म और दर्शन के ज्ञान-कोष पर संदेह हो रहा है। ऐसे तो पढा नहीं है।  किन्तु मुझे दुःख बस इस बात का है कि जीवन दर्शनयुक्त  ये गूढ़ बाते अभी तक किसी मास्टर ने क्यों नहीं समझाया।   गंगा की सफाई के लिए तो नए प्रोजेक्ट बन जायेगे किन्तु मैल से पटे दिमाग को स्वच्छ करने के लिए कौन से आयोग का गठन किया जाएगा ये देखना अभी बाकी है। जो समस्या में समस्या नहीं बल्कि उसका हल देखे। काश आधा भरे ग्लास में आधा हवा कॉंग्रेस ने देखा  होता तो शायद आज ऐसी दुर्गति न होती। किन्तु अब लगता है उन्हें भी सब सही दिखने लगा है।अगर नहीं तो कोई नया नजरिया पेश करे। 

Wednesday, 21 May 2014

उफ़ ये गर्मी .....

                             सुबह का समय ब्लॉग पर बैठने का उपयुक्त लगता है। मौसम में तल्खी थोड़ी कम होती है। हलकी -हल्की संवेदना भरी हवा दिमाग को थोड़ी ठंडक और राहत पहुचाती है। किन्तु अब जैसे लग रहा चुनाव के ज्वार से निकलने के बाद भी तापमान शेयर बाजार में उछाल की तरह जारी है। सारे इंसानी इंतजामो पर मौसम ने अपना रंग चढ़ा रखा है। तापमान भी शायद इन परिणामो से उत्साहित होकर कुलांचे भड़ने को बैचैन दिख रहा है। समझ नहीं पा रहा हूँ कि इसके लिए किसपर नजर टिकाऊ। ऊपर वाले कि कुदृष्टि समझूँ इसे या जमीन पर रहने वाले विभिन्न  पेशेवर लोगो कि दूरदृष्टि, द्वन्द कायम है। ऐसे तो सारे कारणों  में से एक कारण बहुत ही आसान दीखता है क्यों न इसके लिए भी पूववर्ती सरकार को ही जिम्मेदार मान लिया जाय।  घर तो खैर घर है जहाँ बहुत प्रकार के इंसानी मरहम उपलब्ध है किन्तु खुला आसमान आकर्षित नहीं कर रहा है। मुक्ति की तमाम आग्रहों के बावजूद भी लगता है कही कैद हो जाना ही बेहतर। उधर मौसम बिभाग ने भी रस्म अदायगी करते हुए बता दिया है। फुहारे पड़ने में अभी लगभग पंद्रह दिन का वक्त है। इतने दिनों तक अभी कितने लोग जल-जल जिएंगे कहना मुश्किल है। चुनाव में जले और भस्म हुए के लिए वो मानसून कोई नया जीवन दान दे पायेगा  या नहीं ये कहना तो मुश्किल है। किन्तु जिसको सिर्फ ताप लगा वो अवश्य ही बूंदो में अपने संताप के डुबोने का प्रयास तो  कर ही  सकते है। जो इनसे इतर है वो इसके श्रृंगार से खुद को सुशोभित करने को आतुर तो होंगे ही। 
                          बहुतो के लिए प्रचंड ऊष्मा के तल्ख़ तेवर अब भी मन मष्तिष्क में  शीतोष्ण प्रभाव कायम रखे होंगे। चेहरे पर छाई भावना की भावुकता युक्त लहर में बह कर इस गर्मी में भी ताल तालिया में डुबकी का आनंद महसूस कर रहे होंगे। दिक्कत बस उनके किये है जो अपने जीवन दर्शन में भावना में बहना मनुष्य की कमजोरी समझते है और कमजोरी से निजात पा कर लू से टकरा-टकरा कर हौसला कायम रखे है। किन्तु भावना प्रधान देश के नागरिको के लिए ही छह ऋतुओ का सौगात है। प्रचंड तीखी धुप में मन -मस्तिष्क पर अपना नियत्रण रखने का अभ्यास  ही तो हमें ऐसे पांच वर्षीय आयोजन में उठते ताप को सहन करने का क्षमता प्रदान करता है। 
                  अब खिड़की से आने वाली हवा साँप की तरह फुफकार छोड़ रही है। बेहतर यही लगता है कि फुफकार डस ले उससे पहले उनका रास्ता बंद कर दिया जाय। किन्तु हम अपने आपको को कहा तक बंद रख पाएंगे ये तो पता नहीं । कही प्रकृति ने ये मौसम इस लिए भी तो नहीं बनाया कि स्वछंद उन्मुक्त विचार के हिमायती मानव मस्तिष्क कभी-कभी बंधन को महसूस करे  और इसका अभ्यास भी कायम रहे। खैर इससे पहले की ये फुफकार किसी को डसे हम तो यही आशा करते है कि जल्द ही खुला आसमान श्वेत -श्याम चादरों से ढक जाए और दिल खोल कर बुँदे नाचे।  जिसमे भीगकर प्रकृति के गर्मी और मानव ताप किसी में भी झुलसे लोगो के दिल में ठंडक पहुंचे।     

Saturday, 17 May 2014

ये परिणाम क्या कहता है

                                     लोकतंत्र के महापर्व का फैसला आखिर आ गया। अंतिम परिणाम कुछ स्वाभाविक के साथ-साथ अप्रत्याशित भी है। किसी भी देश का जनादेश देश की दशा तथा दिशा तय करने के लिए ही होता है। किन्तु इस बार का जो परिणाम आया है उसको देख के तो   यही लगता है की यह देश की इतिहास को भी दिशा व् दशा देगा। यह अब जाता रहा है की जनता अब किसी के लिए कोई किन्तु परन्तु नहीं छोड़ना चाहती है।   पिछले एक दशक के जनतांत्रिक आकड़ा ये कहता है  की विभिन्न मोर्चे पर अनिर्णय की स्थिति का कारण जनता के  ही   निर्णयों पर थोप दिया जाता है। अब जनता  परिणाम चाहती है  इसलिए   उसने मोटे-मोटे अक्षरो में परिणाम दीवारो पर लिख दिया है। आकांक्षा के अनुरूप सम्पूर्ण समावेशित विकास की गाडी यदि पटरी पर नहीं दौड़ती है तो उसे पुनः उसके हाथो से लगाम खिंच लिया जाएगा।
                      ये परिणाम साफ-साफ़ कहता है की अब जनता बेकार की लफ्फाजी से ऊब गई है। मुद्दो से हटकर मुद्दे बनाने की राजनितिक दलों की आदत से भी अजीज आ गई है।  उसने हर एक की बात को बड़े ध्यान से देखा और सुना है। किसी भी देश की विकास इतिहास के विभिन्न मोड़ पर थमती और सुस्ताती है जहाँ से यह निर्णय इतिहास के पन्ने में दर्ज होता है की अब कारवां किस राह तय करेगा। यह परिणाम इतिहास के एक ऐसे मोड़ को दर्ज करेगा ,जहाँ से देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के एक नए युग का सूर्योदय दीखता है। यह जनता में जागृत एक ऐसी प्रवृति को वयक्त करता है कि वह मात्र वोट का प्रतिक भर नहीं बल्कि ये निर्णय लेने में अब सक्षम है कि भावनात्मक बातो की जगह अब कार्यात्मक बातो के के ऊपर दृष्टि उसने आरोपित कर दिया है। अब दिल ही नहीं बल्कि दिमाग लगाने का समय आ गया है। 
                  आजादी के बाद से ही बिभिन्न चले सामाजिक और राजनितिक आंदोलनों ने बेशक अनेक उपेक्षित और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में राजनैतिक चेतना जो जगाया उसका स्थान इतिहास में योगदान के रूप में दर्ज तो अवश्य होगा। किन्तु उस उपलब्धि को कुछ ही लोगो के द्वारा  हर बार सिर्फ चुनावी फसल काटने भर से वो वर्ग का उथ्थान हो जाएगा ऐसा नहीं है और उसे पहचान कर उससे ऊब चूँकि  जनता ने उन आंदोलनों के जमात को नकार दिया है। ये परिणाम  स्पष्ट रूप से उन हासिये पर रहे वर्गों की भी उद्घोषणा है कि अब सांकेतिक सक्ता से कुछ नहीं होगा। जमीं पर उस उपलब्धी को परिलक्षित करना होगा। जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के उथ्थान का कारण बन सके।  पहली बार किसी गैर कांग्रेसी पार्टी को जनता ने इस प्रकार का बहुमत दिया है। सेंसेक्स की उचाई कितनी भी छू ले एक राष्ट्र के स्तर पर दुर्भाग्य होगा जो एक भी व्यक्ति को एक साँझ भूके पेट सोना पड़े। मंगल की यात्रा पूरी भी हो तो भी अभिशाप है कि देश में एक भी निरक्षर रहे। समस्या कि फेहरिस्त बेसक लंबी हो किन्तु काम  करने कि मंशा और उसके लिए अपेक्षित पुरुषार्थ यदि किया जाय तो कोई भी समस्या ऐसा नहीं जिसका निदान नहीं हो। जनता ने उसी भरोसे और विश्वास को चुना है। 
                ये परिणाम साफ़ -साफ ये दिखाता है कि बीते कल राजनैतिक सोच और शैली को अब बदलना होगा। बाते अब सिर्फ और सिर्फ तरक्की और विकास कि होगी। नकारात्मक सोच को त्याग कर अब सकारात्मकता कि ओर सभी को कदम बढ़ाना होगा। यदि जो भी पार्टी इस पर खड़ी नहीं उतरती है जनता उसे इतिहास का हिस्सा बनने को बाध्य कर देंगे।आज जिस पार्टी पर जनता ने अपना भरोसा जताया है ,उसे उस जन-आकांक्षाओं पर उतरने का प्रयास अवश्य ही करना होगा ,नहीं तो वे भी गद्दी  से उतार दिए जाएंगे।  अब राजनैतिक पार्टियों को अपना एजेंडा फिर से सेट करना होगा क्योंकि इस परिणाम के द्वारा जनता ने सभी के लिए अपना एजेंडा तय कर दिया है।