Sunday, 7 July 2013

आज रविवार है।

काश सभी को इनका आनंद ......
सूरज की किरणों का 
दीवारों पे वार 
अलसाई आँखों का 
पलकों से जदोजहज 
खुलने को तैयार नहीं 
अरे कुछ और कर इंतजार 
आज रविवार है।।


मोहे कहा विश्राम 
पर ऐसा क्यों हुआ 
जब नजर टिकी उसपे 
घडी की टिक-टिक 
जाने कैसे चल-चल 
यहाँ तक पंहुची  
क्या वो भी ठमक गई 
आज रविवार है।।

काट रहे जो पल 
या पल जिनको काट रहा 
जाने आज कहा की देहरी
हमारा रविवार कब आएगा   ....?
कदम ढूढते जाना होगा   
क्या भूख की होगी हार 
कही भूख ठिठक गयी 
आज रविवार है।।

समय के वार से
घायल कराह रहे 
हर दिन शुष्क आंतो को 
पसीने बहा कर ठंडक पहुचा रहे 
दिन न बता बुझ जायेंगे
लड़ने दे कुछ और दिन,चाहे  
आज रविवार है।। 

Thursday, 4 July 2013

श्रधान्जली के मायने

                               लाल गलियारा एक बार फिर से कर्तव्यनिष्ठ के रक्त से सन गया। उदेश्य विहीन उदेश्य ने कुसमय काल चक्र के घेरे में लील कर मासूमो को अपने से दूर कर दिया। गलतिय उनसे हो गई अपने को बंधे ढर्रे में घीसी पिटी कानूनों के लकीर पर चलने का हौसला जो कर बैठे। प्रत्येक अख़बार ने अपने कागज काली कर दी। समय समय पर जो इनके समर्थन और अत्याचारों की अनगिनत कहानियो से कलमो की स्याही सुखाते रहे है।उनके कलमो  में कुछ स्याही इन समय के लिए भी बची हुई है। जो उजाड़ दिए गए शहीद का दर्ज पा गए। रशमो अदागाई में कोई कमिया  नहीं रह गई है।इस कवायद में इतने अभ्यस्त हो गए है की हर बार सिर्फ इन आतंक का शिकार होने वाले के नाम बदल जाते है बाकि सब पूर्ववत सा होता है। फिर से वही घटना स्थल का दौर , वही खामियों का विशलेषण, मुआवजे ज की घोषणा  संतप्त परिवार को दिलासा।यही तो नियति है यही तो कर्म है इन कर्मो से कैसे कभी बिमुख नहीं होते। इन आचरणों को निति नियंता ने अपने में आत्मसात कर रखा है। शायद इनके कर्मो की पूर्णाहुति इन्ही आडम्बरो से ढक दिया जाता है की इन घटनाओ का दुहराव कैसे हो जाता है इस पर इनको सोचने का वक्त नहीं मिलता या जरुरी नहीं समझते।पुनः रणनीति बनाई जाएगी ,मुख्यधारा में लेने  के लिए अनेको घोषणा का अम्बार  लग जायेगा। किन्तु साथ-साथ इनसे लड़ने के लिए तैयार बैठे जांबाजो को सद्विचार दिया जायेगा की ये भी अपने ही है कुछ समय के लिए ये गुमराह हो गए या भटक गिये है। अपने कर्तव्य के दौरान इन बातो को कभी नजरंदाज नहीं करे नहीं तो आप मानवाधिकार के उलंघन के दोषी पाये जायेंगे।लालधारियो को बेशक हम पकड़ने में अक्छम हो किन्तु आपको अन्दर करने में हमारी छमता जग जाहिर है। आखिर हमने तो आपको कहा नहीं की इस सेवा में आपकी जरुरत है आप अपनी इक्छा से आये है येही तो इसका श्रृंगार है।
                            भटक तो बहुत कोई जाते है उनको ही रास्ते दिखाने के लिए हर साल इन जम्बजो को सपथ दिलाई जाती है न की निति नियंता के अकर्मण्यता का शिकार बनने के लिए विचारणीय है। इस प्रकार से अगर इन पूंजियो को हम नपुंशक विचार और अक्छम कार्यशैली के हाथो किसी गुमराह की बलि चड़ने दे तो वो दिन दूर नहीं जब रास्ता  दिखने वाले खुद ही गुमराह हो जाये।देश के वास्तविक तान बाना कमजोड न परे इसके लिए मजबूत निर्णय सिर्फ कागजो पर न होकर वास्तविकता के धरातल पर उसका परिलक्छन दिखाई  पड़ना चाहिए।भय बिन होहु न प्रीत ऐसे ही नहीं कहा गया है।
                          अंत में उसी रश्म का निर्वाह करते हुए किन्तु दिल से मै  इस कायरता पूर्वक अंजाम दी गए घटना में शहीद हुए कर्तव्यनिष्ठ अधिकारिओ के प्रति हार्दिक संवेदना तथा उनके परिवार को इस दुःख से जल्द से जल्द उभरे ऐसा भगवन से कामना करता हु। 

Monday, 1 July 2013

प्रकृति की प्रवृति

                              उत्तराखंड की तबाही दिल दहलाने वाली है। हजारो अनगिनत लोगो का  इस प्रकार काल के गाल में समा जाना सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं दिलो को झकझोरने वाला है। पल भर में भगवान के दर्शन को जाने वाले तीर्थयात्री भगवान के पास पहुच गए। जिन किसी ने  भी अपने परिचित या और भी कोई खोया सिर्फ वो ही नहीं  हर कोई इस त्रासदी  से दुखी है।इसे प्राकृतिक  घटना कहे या मानवीय भूलो भूलो की दुर्घटना, जाने वाले चले गए।सामने आई  आपदा पर जोर - जोर से चिल्लाना और फिर उतनी ही तेजी के साथ उसे भुला देना सामान्य सी आचरण हो गई है।किस-किस को कोसु किसको-किसको दोषी माने।और यही पूर्बवत सा आचरण इस के बाद पुरानी फिल्मो के प्रसारण की तरह जारी है। हर कोई दोषी को ढुंढने में लगा है। इन शोरो में हजारो दबे लोगो की चीख ,सहायता के लिए पुकारते लोगो की आवाज दब कर रह गयी है।फिर भी जो कर्मयोगी है किसी न किसी रूप में इनके पास पहुचने का प्रयास कर ही रहे है।
                                आखिर इतने बड़े विनाशलीला में किसका हाथ है। जब विनाश लीला प्रक्रति ने मचाया है तो उसमे साधरण मानव का हाथ भला कैसे हो सकता है। कुछ लोगो या ये कहे की पर्यावरण  के विशेषज्ञ ने तो सीधा मत व्यक्त किया है की हम लोगो ने अपने पर्यावरण के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ कर रखा है ये उसी का दुष्परिणाम है। अगर हमने ये छेड़छाड़ बंद नहीं किया तो आने वाले समय में और भयावह परिणाम हो सकते है। मुझे ये पता नहीं की 1  9 9 9  में उड़ीसा में 2 5 0 की मी की भी  तेज रफ़्तार से आई उस महाविनाशकारी चक्रवातीय तूफान में मानवीय धृष्टता कितनी थी जिसने कुछ ही पलो में कितने सपने  हवा के झोको में उड़ाने के साथ-साथ जल प्लावित कर दिए।बीते वर्षो में  बिहार और गुजरात में आये भूकंप यदि हमारे विकास का परिणाम है तो 1 9 3 4 ई की बिहार का भूकंप किसका दुष्परिणाम था जिसमे लिले गए लोगो का शायद सही आकड़ा भी न हो,यही स्तीथी आज भी कायम है अलग अलग कोनो से अपने अपने आकडे दिए जा रहे है।।शायद चीन अठारवी सदी में आई भुखमरी के लिए या फिर पिली नदी के बाढ  के लिए इस प्रकार विकसित हो की उसे छेड -छाड़ माना जाय  ऐसा इतिहास तो नहीं कहता। 
                                 प्रकृति सदा से शक्तिशाली है इसमें शायद किसी को संदेह हो किन्तु लगता है हमने उससे शक्तिशाली होने का भ्रम पल लिया है। और अगर विकास छेड़ छाड़ है तो क्या उत्तरांचल को वैसे ही रहने दिया जाय या फिर कश्मीर में श्रीनगर से रेल के जुड़ने को आने वाले समय की किसी आपदा का सूचक माना जाय।क्यों न सभी पहाड़ी जगह  को अन्य स्थान सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाय।जैसे की अंदमान निकोबार के कुछ स्थान है। जब कोयले की सीमित भण्डारण ज्ञात है तो अब क्यों न पहले की तरह लालटेन युग का सूत्रपात किया जाय। दोनों बाते तो साथ-साथ नहीं हो सकती। क्या इतनी बड़ी तबाही का कारण विकास हो सकता? ये सोचने के लिए भी तो विकास करना ही होगा।डायनासोर का इस पृथ्वी पर से अनायास विलुप्त हो जाना,कुछ तथ्यों का पौराणिक कथा में परिवर्तन हो जाना क्या मनुष्य के क्रमिक विकास से कोई लेना देना  है?आदि काल से प्रकृति की यही प्रवृति है,ज्वालामुखी की प्रकृति उसके लावा में है ,सुमद्र अपने प्रकृति से लहर को  कैसे अलग कर सकता है,नदियो का श्रींगार उसकी उफनती धारा है।ये प्रवृति तो विकास के कारण प्रकृति ने विकसित नहीं किया है। सृष्टी के आरंभ से ऐसा ही है।  सीमित और पर्यावरण संतुलित विकास का कोई नया फार्मूला जब तक इजाद नहीं होता ये क्रम तो ऐसे ही चलेगा।
                                जिन चीजो पर हमारा बस नहीं उसको किसी का कारण मानना शायद अपने आपको धोखा देना होगा। जिन के ऊपर हमारा बस है वैसे सूचना हम नजरंदाज कर गए,हमें करना क्या है वो सोचने में घंटो गुजर गए,देश के सभी नागरिक न होकर अपने-अपने प्रांतो के लोगो को फूल मालाओ से स्वागत में लग गए।संभवतः यही सोच का  विकास जहरीली लत की तरह सभी की सोच को सोख कर सारे पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है जिससे जिन्हें हम अपने बीच बचा कर ल सकते थे उन्हें भी खो दिया। हमें कोसने की बजाय हम क्या कर सकते है ऐसे आपदा के समय ये सोचने की जरुरत है। जरुरत इस बात की है सिर्फ आधुनिक उपकरण रखे नहीं वक्त से उसका सही इस्तेमाल भी हो। आपदा प्रबंधन की इकाई बना देने से सिर्फ आपदा रूकती नहीं ,आपदा होने पर उसका निपटने की छमता पे बहस करने की प्रवृति हो। हमारे एजेंसिया हमें सही हालत की जानकारी दे न की संयुक्त राष्ट्र की शाखाये हमें बताये।जब प्रकृति का आरम्भ ही  महा प्रलय से है तो भिन - भिन रूपों में वो चलता ही रहेगा बात सिर्फ इतनी है की जो हम कर सकते है वो करे या फिर किसी अन्य आपदा के लिए अभी से बहाने सोचे।  

Saturday, 22 June 2013

है हमने किया, क्या गुनाह ?

है हमने किया,क्या गुनाह ?
जो नभ ने यु ठान लिया 
अमृत बरसे जिस दरिया से 
धार काल बन क्यों निगल गया ?


धरती गरजे अम्बर गरजे 
थर्राई पाषाणों की शिला 
देव भूमी के इस आँचल को 
कफ़न बना किसने है लीला ?

मलय कांति की खुसबू फैलती 
डमरू  तुरही चहुँ दिश बजती 
वो गुंजित मंगल सी ध्वनी 
         क्रंदन में कौन बदल गया ?




है हमने किया,क्या गुनाह ?
जो नभ ने यु ठान लिया, 
अमृत बरसे जिस दरिया से, 
धार काल बन क्यों निगल गया ?

पुष्प लता तरुवर से शोभित, 
मृगछाला से सदा शुशोभित, 
उस भोले के आसन प्रांगन में 
रेत पाषण कौन बिछा गया ?

कणक किरण से सजने वाले ,
अमृत वन से छाने वाले ,
इस धरा पे किसने ऐसा 
कलुषित गरल बौछार किया ?


है हमने किया,  क्या गुनाह ?
जो नभ ने यु ठान लिया 
अमृत बरसे जिस दरिया से 
धार  काल बन क्यों निगल गया ?

Sunday, 16 June 2013

मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है

क्या पाना हमें जिन राहों पर कदम बढते आये है? 
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है। 
न दीखता कोई दूर तलक मेरे आगे ,
फिर भी ख्वाब हमने सजाये है।
ये पत्तिया ये दबे दूब सारे ,
कर तो रहे कुछ ये भी इशारे। 
इन्ही पगडंडियो पर कोई तो है गुजरा 
जिनको इन्होंने दिए कुछ सहारे। 
इन्हें देख कर दिल में  रौशनी झिलमिलाये है। 
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।

चले हम कहा से अब कहा जा रहे है ?
उलझते सुलगते बस बड़े जा रहे है।
जिनको सुना मंजील अब मिल गई है, 
इन्ही राहो पे वो भी टकरा रहे है।
दिखा दूर झिलमिल वो मिलता किनारा 
पास आने पे खुद को  वही पा रहे है। 
पर चलने की चाहत नहीं डगमगाए है। 
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।। 

ये जीवन है पथ, पथिक हम चले है, 
क्या पाना है मुझको ये द्वन्द लिए है। 
कर्तव्य पथ पर तो बढना ही होगा ,
पर पाना है क्या यहाँ कौन कहेगा ?
कदम दर कदम ख्वाहिश गहराता जाता 
किसी मोड़ पर काश कोई ये बताता।
है उम्मीद पे दुनिया बिश्वास गहराए है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।