Thursday, 22 August 2013

निशा मौन तुम क्यों रहती हो ?

                                                                                     (चित्र :गूगल साभार )
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?
क्यों भय तुम ऐसे करती हो,
दिनकर से भला लाज हया क्यों,
क्यों तुम दवे पाँव इस आगन
हौले-हौले यु धरती हो। 
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ? 


जब सब कुछ है  एक बराबर,
बाँट रखा है धरा या सागर,
स्नेह मान जब सभी  करते है,
जैसे थक, माँ का आँचल धरते है।
रक्त आवरण धर आते रवि तुझे लेने
क्या उससे ही भय खाती  हो?
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?

श्याम आवरण रूप भला क्या
कृष्ण की  प्रीत परछाई है,
निशब्द घूँघट ओढ रखी जैसे
रोज आते कन्हाई है।
कोई आहट कंस न आये,
क्या इससे तुम घबराती हो ?  
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?

किनते जुगनू चमक-चमक ,
तुम पर रीझ कर मिट गए।  
बाह फैलाये अरमानो  के 
तारे कितने टूट गए। 
न जाने किसकी चाहत में ,
ऐसे रोज सिसकती हो ?
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?
                                                                                                             

Monday, 19 August 2013

विघटन

उनके पदचाप कानो को भेदती है, 
पलट के देखता हु तो बस निशान बाकि है। 
हरे भरे पेड़ अगर अनायास लेट जाये तो, 
धरती भी भार को महसूस करती है ,
जीवन न होकर पानी का बुलबुला हो ,
क्या खूब आँखों में समाती है। 
पल भर में सृष्टि का रूप धरकर ,
गुम हो जाती है जैसे बिजली कौंधती हो। 
क्या कौन महसूस करता है, 
पास होकर भी कोई दूर होता होता है, 
कुछ चमकते है सितारों में ,
जो रोज खामोश शामो में पास होता है। 
बेशक आखो में कोई ठोस रूप ,
अब परावर्तित न होगा। 
हलक से निकली  तरंगो का इस कानो से ,
सीधा तकरार न होगा। 
न होगी कोई परछाई को भापने की कोशिश  ,
क्योकि लपटो का ह्रदय पर पलटवार जो होगा। 
सत्य तो सत्य है ,सभी जानते है, 
काया धरा की कोख जाएगी मानते है ,
पंच तत्वों का विघटन अश्वम्भावी है, 
जीवन नस्वर बस ह्रदय मायावी है। 


(ये रचना हमारे एक सहयोगी के आकस्मिक देहांत हो जाने पर श्रधांजली स्वरुप है ,भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे तथा परिवार के सदस्यों को धौर्य दे  )

Sunday, 18 August 2013

पटाछेप

                            कब से इंतजार  कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
              और ये आज  यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी  ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता  था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि  दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे  आते ही न जाने  कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को  धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते।  वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के  दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा  जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह  अनमस्यक सा उसे देख रहा था


                        खैर चलो तुम आ गए पता नहीं दिल में क्या -क्या ख्याल उठ रहे थे।  सांसो की धड़कन में जैसे लगता था कि कोई विरहा  राग की आलाप हो,धड़कन की ध्वनि न होकर आलाप की आरोहन -अवरोहन ज्यादा लग रही थी,थोड़ी देर के लिए पलको  में प्रेम-आलिंगन भी हो गया ,लगा की गहरी सुरंग  के भंवर-शून्य में कुछ मेरा अपना छीनता  जा रहा है  । ऐसी बातो से घबराहट तो होती है न बोलो,देखो तब से ऐसे ही  बैठी हूँ । पलकों को सजा दे रखी है अपलक बस तुम्हारी राह को ही निहारे।   कितनी मुर्ख हूँ  मै  और ये मन भी न  जाने क्या-क्या सोचने बैठ जाता है।अब मन का क्या, उसे तो सभी बावरा ही समझते, मेरा कोई अनोखा तो है नहीं जिसमे बसता  है उसीको देखना चाहता है।  नहीं तो छिप -छिप कर यूँ ही आसमान को तो न निहारता ?लहरे क्यों बार-बार तट की ओर भागती? जानते हो हवा से सुखी पत्तीयाँ  क्यों खड़खड़ाती है, उसको लगता है की अभी तक तो चलो टूटने के बाद भी अपने पेड़ के आगोश में था  किन्तु जैसे ही हवा चलती है बिछोह के डर से उनकी आत्मा चिल्ला उठती है। देखो न पहले भी तो कई बार इंतजार कराये तुमने पर तब तो ऐसे उल जुलूल ख्याल मन में न आया कभी , किन्तु आज,स्वयं से प्रश्न … नहीं …. निगाह तो उसपे जमी थी।
                       आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज  भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो  को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था।  बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे  साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह  की कोठरियो  से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की  पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।                            
              अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
       उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के  पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
         उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो  के निशां अपलक देख रही थी।
         पुनः बादल घिर  आये थे  और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है  इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ  बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी। 

पटाछेप

                            कब से इंतजार  कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
              और ये आज  यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी  ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता  था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि  दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे  आते ही न जाने  कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को  धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते।  वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के  दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा  जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह  अनमस्यक सा उसे देख रहा था


                        खैर चलो तुम आ गए पता नहीं दिल में क्या -क्या ख्याल उठ रहे थे।  सांसो की धड़कन में जैसे लगता था कि कोई विरहा  राग की आलाप हो,धड़कन की ध्वनि न होकर आलाप की आरोहन -अवरोहन ज्यादा लग रही थी,थोड़ी देर के लिए पलको  में प्रेम-आलिंगन भी हो गया ,लगा की गहरी सुरंग  के भंवर-शून्य में कुछ मेरा अपना छीनता  जा रहा है  । ऐसी बातो से घबराहट तो होती है न बोलो,देखो तब से ऐसे ही  बैठी हूँ । पलकों को सजा दे रखी है अपलक बस तुम्हारी राह को ही निहारे।   कितनी मुर्ख हूँ  मै  और ये मन भी न  जाने क्या-क्या सोचने बैठ जाता है।अब मन का क्या, उसे तो सभी बावरा ही समझते, मेरा कोई अनोखा तो है नहीं जिसमे बसता  है उसीको देखना चाहता है।  नहीं तो छिप -छिप कर यूँ ही आसमान को तो न निहारता ?लहरे क्यों बार-बार तट की ओर भागती? जानते हो हवा से सुखी पत्तीयाँ  क्यों खड़खड़ाती है, उसको लगता है की अभी तक तो चलो टूटने के बाद भी अपने पेड़ के आगोश में था  किन्तु जैसे ही हवा चलती है बिछोह के डर से उनकी आत्मा चिल्ला उठती है। देखो न पहले भी तो कई बार इंतजार कराये तुमने पर तब तो ऐसे उल जुलूल ख्याल मन में न आया कभी , किन्तु आज,स्वयं से प्रश्न … नहीं …. निगाह तो उसपे जमी थी।
                       आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज  भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो  को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था।  बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे  साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह  की कोठरियो  से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की  पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।                            
              अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
       उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के  पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
         उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो  के निशां अपलक देख रही थी।
         पुनः बादल घिर  आये थे  और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है  इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ  बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी। 

Wednesday, 14 August 2013

आजादी की वर्षगांठ में नये प्रण अपनाते है

आजादी की वर्षगांठ में नए प्रण अपनाते है

सपने पुरे बेशक न हो ,कुछ कमियां रह जाती है 
दीपक दिया उजाला करती कालिख में घीर जाती है।
पुरखो ने जो  सोचा होगा आज वहाँ  न पहुच सके, 
समरसता की नीव हिली है और खड़े प्रश्न गंभीर नए।  
विचारो में अवनति की आपस में है होड़ मची, 
नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन जैसे इसका मोल नहीं। 
छिद्रान्वेषी बनकर ढूंढे और बहुत मिल जायेंगे 
कमियां हमको बैठे-बैठे चारो ओर दिख जायेंगे।। 

किन्तु कमियों के ही कारण निराशा में  घिरे नहीं 
उन्नत मस्तक  करने को है और भी बाते कई नई, 
हमने कुछ  दिखाया है, दुनिया हमको मान रही 
हममे सारी छमता है दुनिया ऐसा जान  रही। 
आत्मग्लानी मन में भरकर ऐसे कैसे बैठ गए 
बलिदानों के सारे सपने अभी नहीं है रूठ गए। 
    बेशक मन में अंधियारे का सोच यहाँ पर छाया है, 
      पर न भूले  हर दिन सूरज नया सवेरा लाया है।। 

है हमको भी प्रेम देश का ऐसा हम दिखला देंगे 
कुछ हुई हो भूल अगर तो उसको अब सुलझा देंगे। 
गौरव सबके मन में जागे ,सबको अब समझाना है 
देश है मेरा सबसे ऊपर ऐसा अलख जगाना है। 
 दिल पे जो भी गर्द पड़े है झोंका में उड़ाना है ,
सुप्त पड़े शिराओ में आज, चिंगारी धधकाना है।   
हर्षित मन से आओ हमसब  उत्सव ये  मनाते  है, 
आजादी की वर्षगांठ में नये प्रण अपनाते है।।