अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
Thursday, 22 August 2013
Monday, 19 August 2013
विघटन
उनके पदचाप कानो को भेदती है,
पलट के देखता हु तो बस निशान बाकि है।
हरे भरे पेड़ अगर अनायास लेट जाये तो,
धरती भी भार को महसूस करती है ,
जीवन न होकर पानी का बुलबुला हो ,
क्या खूब आँखों में समाती है।
पल भर में सृष्टि का रूप धरकर ,
गुम हो जाती है जैसे बिजली कौंधती हो।
क्या कौन महसूस करता है,
पास होकर भी कोई दूर होता होता है,
कुछ चमकते है सितारों में ,
जो रोज खामोश शामो में पास होता है।
बेशक आखो में कोई ठोस रूप ,
अब परावर्तित न होगा।
हलक से निकली तरंगो का इस कानो से ,
सीधा तकरार न होगा।
न होगी कोई परछाई को भापने की कोशिश ,
क्योकि लपटो का ह्रदय पर पलटवार जो होगा।
सत्य तो सत्य है ,सभी जानते है,
काया धरा की कोख जाएगी मानते है ,
पंच तत्वों का विघटन अश्वम्भावी है,
जीवन नस्वर बस ह्रदय मायावी है।
(ये रचना हमारे एक सहयोगी के आकस्मिक देहांत हो जाने पर श्रधांजली स्वरुप है ,भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे तथा परिवार के सदस्यों को धौर्य दे )
Sunday, 18 August 2013
पटाछेप
कब से इंतजार कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
और ये आज यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे आते ही न जाने कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते। वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह अनमस्यक सा उसे देख रहा था
आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था। बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह की कोठरियो से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।
अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो के निशां अपलक देख रही थी।
पुनः बादल घिर आये थे और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी।
उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो के निशां अपलक देख रही थी।
पुनः बादल घिर आये थे और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी।
पटाछेप
कब से इंतजार कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
और ये आज यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे आते ही न जाने कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते। वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह अनमस्यक सा उसे देख रहा था
आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था। बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह की कोठरियो से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।
अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो के निशां अपलक देख रही थी।
पुनः बादल घिर आये थे और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी।
उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो के निशां अपलक देख रही थी।
पुनः बादल घिर आये थे और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी।
Wednesday, 14 August 2013
आजादी की वर्षगांठ में नये प्रण अपनाते है
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