Monday, 20 January 2014

एक किसान

चित्र;गूगल से
हर समय देखता उसके तन पर
बस एक ही कपडा।
मैं  किंचित चिंतित हो पूछता जो
वो कहता -
हर मौसम से है उसका
रिश्ता गहरा।
बारिस के  मौसम से
बदन की गंदगी धूल जाती है,
मौसम कि गर्मी से ज्यादा तो
पेट कि अगन झुलसाती है,
जुए से जुते बस चलते है,
फिर सर्दी में भी बदन दहकते है। 
फिर मैंने पूछा -
क्यों शाम होते ही
यूँ बिस्तर पे चले जाते।
वो कहता -
क्या करूँ
मेरा मित्र गाय-बैल ,चिड़ियों की चहचहाट
जो शाम के बाद साथ नहीं निभाते।
सुबह इतनी जल्दी जाग कर
क्या करना है
वो कहता -
घूमते है हरि ब्रह्म मुहूर्त में
बस उनसे ही मिलना है।
क्यों इस खेत-खलिहान में
अब तक हो उलझे,
कुछ करो ऐसा की
आने वाला जिंदगी सुलझे।
मुस्कुरा कर वो कहता-
किसी को तो इस पुण्य का
लाभ कामना है
सब समझे कहाँ माँ के आँचल में 
ख़ुशी का जो खजाना है। 
बेसक अर्थ में जो 
इसका हिसाब लगाएगा ,
इन बातो को 
वो नहीं समझ पायेगा। 
जीने के लिए तो 
सभी कुछ करते है,
पर सिर्फ मुद्रा से ही 
पेट नहीं भरते है। 
हमारे उपज  से ही
सभी कि क्षुदा शांत होती है ,
तृष्णा फिर हजार 
सभी मनो में जगती है। 
वो दिन भी सोचो 
जब विभिन्न योग्यताओं  के ज्ञानी होंगे ,
पर खेती से अनभिज्ञ सभी प्राणी होंगे। 
कर्म तो कर्म है 
उसे करना है 
पर निजहित में 
परहित का भी 
ध्यान रखना है। 
सब इस भार को नहीं उठा पाते 
भगवान् इसलिए किसान बड़ी जतन से बनाते।।

Saturday, 18 January 2014

शिक्षा और दुरियाँ

घर के रास्ते
बस चौराहे पर मिलते थे ,
दुरी राहो की
दिल में नहीं बसते  थे।
मेरी माँ कभी
अम्मी जान हो जाती थी
तो कभी अम्मी माँ रूप में नजर आती थी।
नामों के अर्थ का
कही कोई सन्दर्भ न था ,
सेवई खाने से ज्यादा
ईद का कोई अर्थ न था।
उसका भी आरती के थाली पे
उतना ही अधिकार था ,
कोई और ले ले प्रसाद पहले
ये न उसे स्वीकार था।

पैरो कि जूती
बराबर बढ़ रही थी,
मौसम बदल कर लौट आता
किन्तु उम्र बस  बढ़ रही थी।
तालीम अब हम
दोनों पाने लगे ,
बहुत अंजानी बातें
अब समझ हमें आने लगे।
ज्यों-ज्यों ज्ञान अब बढ़ता गया,
खुद में दिल बहुत कुछ समझाता गया।

घर के रास्ते से ये चौराहे की दुरी
कई दसको से हम नापते रहे,
अब भी कुछ वहीँ खरे है ,
दसको पहले थे जहाँ से चले।
घर ,रास्ते सब वहीँ  पड़े है ,
पर नई जानकारियों ने नये अर्थ गढ़े है।
टकराते चौराहे पर
अब भी मिलते  है ,
पर ये शिक्षित होंठ
बड़े कष्ट से हिलते है।

किन्तु वो निरा मूरखता की बातें ,
जाने क्यों दिल को है अब भी सताते।
वो दिन भी आये जो बस ये ही पढ़े हम
मानव बस मानव नहीं कोई और धर्म। । 

Thursday, 16 January 2014

पन्नों में दबी चींख

गर्म हवा जब मचलती है ,
सारे पन्ने फरफरा उठते है। 
एक बार फिर लगता है कि  
जिंदगी ने जैसे आवाज दी। 
हम ढूंढते है ,खोजते है, 
गुम साये को 
आज में तलाशते है। 
ये पन्नों कि फरफराहट 
चींख सा लगता है। 
दबे शिला में  जैसे कोई घुँटता है।  
अक्षरों कि कालिख , 
स्याह सा छा जाता  है।  
धुंधली तस्वीर 
आँखों में कई उतर आता है।  
कितने ही साँसों का ब्यौरा 
बचपन कि किलकारी 
यौवन का सपना 
धड़कते दिल से इंतजार 
शौहर का करना 
बूढ़े नयनों में आभास 
समर्थ कंधो की 
जो छू ले नभ वैसे पंजों की। 
जो धड़कते थे , जाने कैसे रुक गए  
कारवां ख़ुशी के  
बीच सफ़र में ही छूट गए ।   
हर एक की कहानी 
इन पन्नों में सिमटी है ,
एक नहीं अनेकों  
रंग बिरंगे जिल्द में ये लिपटी है। 
सागवान के मोटे फ्रेमों में 
पारदर्शी शीशे के पीछे 
किसी कि साफगोई, 
या किसी चाटुकारिता कि किस्सागोई ,
न  जाने कितनी अलमारियाँ 
सजी-सजी सी पड़ी है। 
प्रगति और विचारवानो के बीच 
ड्राइंग रूम कि शोभा गढ़ी है। 
किन्तु बीच -बीच में 
न जाने कैसी हवा चलती है ,
इन आयोगों के रिपोर्ट में दबी 
आत्मा कहर उठती है। 
वो चीखतीं है ,चिल्लाती है ,
काश कुछ तो ऐसा करो  
की  इन पन्नों को 
रंगने कि जरुरत न पड़े। 
हम तो इन पन्नों में दबकर 
जिसके कारण अब तक मर रहे ,
उन कारणों से कोई 
अब न मरें। ।

Monday, 13 January 2014

संक्रांति का संक्रमण


कर्म में लीन 
पथ पर तल्लीन 
रवि के चक्र से बस इतना समझा 
दक्षिणायण  से  उत्तरायण में
प्रवेश कि बस  है महत्ता। । 

ग्रहों के कुचक्र हमसे ओझल  
जो उसे बाधित नहीं कर पाता  
मास दर मास न विचलित हो 
पुनः धरा में नव ऊर्जा का  
तब संचार है कर पाता। । 

हम उस प्रयास को 
भरपूर मान देते है 
लोहड़ी ,खिचड़ी ,पोंगल मना  
इस संक्रमण को 
किसी न किसी रूप में सम्मान देते है। । 

बिंदु और जगहवार
उसकी पहचान करते है  
बेवसी और ख़ामोशी से  
कल्पित हाथ हर पल   
जहाँ उठते और गिरते है।। 

कि आज का ये दिन 
पिछले मासों के कालिख भरी पसीनो को 
आज का स्नान धो देगा 
ये कटोरी में गिरते तिल के लड्डू 
इस आह में ख़ुशी भर देगा। । 

चलो संक्रांति के इस संक्रमण को 
इस विचार से मुक्त करे 
हाथ उठे न कि उसमे 
हम कुछ दान करे 
सतत प्रयास हो जो मानव सम्मान करें। ।

(सभी को मकर संक्रांति कि हार्दिक शुभकामना )

Saturday, 4 January 2014

कल क्या किया ?

                    आज सप्ताह का पहला दिन ऑफिस कि दिनचर्या से निपट कर सदा कि भांति मोटर साईकल से निकलने ही वाला था कि विभाग के अन्यत्र  ऑफिस के  एक परिचित कार्मिक  मिल गए। मित्र नहीं है किन्तु हमदोनों के व्यवहार मित्रवत सा ही है।कुसमय के मिलन ने  दिल में कोफ़्त चेहरे ने मुस्कान बिखेरा।  औपचारिकता निभाते हुए पूछा -और क्या हाल है?
उनमे औपचारिकता कम था बेतक्लुफ्फ़ अंदाज में जबाव मिला- बढ़िया
आप कैसे है ? -मैंने भी कहा ठीक-ठाक
अन्य सहकर्मी के अभिवादन में दृष्टि उनसे हटाते ही  बोले  -लगता है लेट हो रहे है श्रीमतीजी को समय दे के आये है क्या ?
कुछ सही होते हुए भी सहज दिखावा कर  मैंने कहा -नहीं ऐसी कोई बात नहीं ,समय क्या देना हर रोज तो यही समय होता है। गुजरते हुए सभी जल्दी में दिख रहे थे।
उन्होंने इसपर कोई खास ध्यान नहीं दिया।
 मेरी आँखों में झांककर पूछा -और कल क्या किया ?
बड़ा अजीब सा प्रश्न मै असहज हो कर पूछा -मैं कुछ समझा नहीं।
उन्होंने मेरी स्थिति भांप ली। अरे नहीं आप से मेरा मतलब था कि इस ऑफिस की दिनचर्या से कुछ अलग भी करते है या इसी में उलझ कर रह जाते है।
समय अपनी रफ़्तार से निकल रहा था मैं  मन ही मन उसे कोस रहा था। कम्बख्त निकलते समय क्यों मिल गया। मैंने मुस्कुराने का प्रयास करते हुए कहा- और कुछ काम करके नौकरी से निकलवाने का इरादा है क्या?
अरे नहीं -आप तो कुछ और ही समझ बैठे।
मैं बैठा कहाँ था अच्छा खासा जाने को तैयार खड़ा था किन्तु ये नाचीज कहाँ से आ टपका। मैंने बात समाप्त करने के इरादे से कहा -नहीं कल और कुछ नहीं किया और   मोटर साईकल की सीट पर बैठ गया। उन्होंने इसको नजर अंदाज करते कहा -नहीं मेरा मतलब था कि इस दिनचर्या से अलग और कुछ नहीं करते। लगता है ये खुन्नस निकाल रहा है और वेवजह इतनी सर्दी में मुझे विलम्व करा रहा है। थोड़ा चिढ़ते हुए मैंने कहा नहीं करते है न -बाजार जाता हूँ ,बच्चो को घर में पढ़ाता हूँ और कल भी ये सभी काम किये थे,आस-पास परिवार के साथ घूम भी आये इससे ज्यादा कुछ नहीं  ।
इसके अलावा और कुछ नहीं।काफी दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई थी ,मन ही मन मैंने सोचा की लगता है सर्दी कि वजह से इनका दिमाग जम गया है। उल-जलूल बाते कर रहे है।
इसके अलावा और क्या काम होता है आकस्मिक छोड़ कर और वक्त किसी काम के लिए मिलता कहाँ । थोड़ी शुष्कता आवाज में आ गई।रोड लाईट ने रौशनी बिखेरना शुरू कर दिया।
अरे नहीं आप तो नाराज हो गए। मैं तो बस ऐसे ही पूछ बैठा-मुस्कुरा कर कहा।
पता नहीं क्यों पुनः   मोटर साईकल को स्टैंड पर लगा खड़ा हो गया।अपनी खींझ को दबाकर लगभग चिढ़ते हुए  पूछा -किन्तु आपने अभी तक नहीं बताया की आपने कल क्या किया ?
मुस्कुराते हुए कहा -आपने अब तक पूछा कहाँ। मैं झेंप गया। सिहरन शरीर में दस्तक देने लगा।
उन्होंने फिर कहा -बगल के बस्ती में अपने मुहल्ले से सारे पुराने कपडे इक्क्ठा कर बाटने गया था। सर्दी बहुत बढ  गई है न ,अभी फिर वही जाना है कल थैले छोड़ आया था  अगले हफ्ते फिर जरुरत पड़ेगी । यही तो एक अवकाश का दिन होता है अपने काम के अलावा थोडा बहुत प्रत्येक सप्ताह ये कुछ जरुरत मंदो के हिसाब से करने कि कोशिश करता हु,अपने परिवार के भी समय का ध्यान रखते हुए । ये काम तो चलता ही रहेगा और  दिन में चौबीस घंटे होते है ये तो सभी को पता है,उसी घंटो में से कुछ समय ऐसे लोगो के लिए निकालने की कोशिश करता हूँ । उनकी नजर मेरे चेहरे पर था और मेरा चेहरा सर्द। अच्छा अभी जरा बिलम्व हो रहा हूँ
उन्होंने मोटर साईकल चालू कर शुभ रात्रि कहा और चल दिए। पता नहीं क्यों मैं अनमयस्क सा उन्हें जाते हुए देख रहा  था। ……सर्दी से ठिठुरते  रोड किनारे के  कुछ चेहरे मेरे आँखों में परावर्तित होने लगे।