Sunday, 22 January 2017

तलाश

बाजार अपना ही था
लोग अजनबी से थे
भीड़ कोलाहल से भरी
कान अपने शब्द को तलाशते थे ।
मंजरों से अपनापन साफ झलकता था
भरे भीड़ में अब खुद ही गुम
खुद को तलाशते थे ।
मरीचिका से प्यास बुझाने
जाने कितने दूर चले आये हम
न वो है न हम है
जाने किसे तलाशते हम ।
राहें जस की तस है पड़ी
राहगीर बदल है गए
हमने मंजिलो पर तोहमत है लगाया
कि वो रास्ते बदल दिए ।।

Thursday, 17 November 2016

धन -धर्म- संकट


                     धर्म संकट बड़ी है। विवेकशील होने के दम्भ भरु या तुच्छ मानवीय गुणों से युक्त होने की वेवशी को दिखाऊ। रोजमर्रा कि जरुरत से तीन पांच होने में सामने खड़े मशीन पर निर्जीव होने का तोहमत लगा  उसे कोसे या उस जड़ से आश करने के लिए खुद पर तंज करे समझ नहीं आ रहा। भविष्य के सब्ज बाग़ में कितने फूलो की खुसबू बिखरेगी उस रमणीय कल्पना पर ये भीड़ अब भारी सा लग रहा  है।इतिहास लिखने के स्याही में अपने भी पसीने घुलने की ख़ुशी को अनुभव कर हाथ खुद ब खुद कपाल पर जम आते लवण शील द्रव्य के आहुति हेतु पहुँच जाता है। इस हवन में किसका क्या स्वहा होता है और किस-किस की आहुति यह तो पता नहीं। लेकिन इस  मंथन में हो रही गरलपान खुद में कभी -कभी शिवत्व का अनुभव करा रहा है।साथ ही साथ मन चिंतित भी हो रहा है की राहु केतु  वेष बदल क्रम तोड़ शायद अमृतपान कर निकल न जाए और बाकी सब तांडव देखते रहे। तब तक कैश के दम तोड़ने की उद्घोषणा हो जाता है और फिर आशावादी इतिहास में अपने योगदान के लिये हम अपने आपको तैयार करते। 
                   किन्तु इस घटनाक्रम में बेचारा काला रंग कुछ ज्यादा ही काला हो गया है।कुछ ही काले ऐसे है जिसके प्रति अनुराग स्वतः मन को अनुनादित करता है। इस अनुराग को भी जो भी कारण हो किन्तु इसे विद्रूपता बताया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं की इससे रंग भेद के आंदोलन को बड़ा धक्का लगा है। किसी भी बहाने हो अंतर्मन में इसके प्रति अनुराग को लोग बेसक छिपा कर रखे किन्तु पाने की व्यग्रता और अपनाने के लिए सिद्धान्तों में दर्शन की प्रचुर उपलब्धता से स्वयं को संतुष्ट करने में कौन चुकता है पता नहीं। नहीं तो क्या कारण है कि बिना करवाई के हम करवाई करना ही नहीं चाहते।  किन्तु धौर्य ने अपने धौर्य पर काबू कर रखा है। कुछ इन सब चिंताओं से मुक्त होकर इसी लाइन में लगे -लगे महाप्रस्थान कर गए। अर्थ के लाइन में लगकर अनर्थ के शिकार हुए के बलिदान की गाथा नव उदय इतिहास में अवश्य अंकित होगा। गुलाबी रंग पाने की अभिलाषा वातावरण को गुलाब की खुसबू से सुगन्धित कर रखा है। ऐसे मौके जीवन में कभी कभी आते जहाँ आप साबित कर सकते की आप एकांकी नहीं है और अपने इतर समाज और देश  के बारे में भी  सोचते है।  ऐतिहासिक घटनाओ के उथलपुथल में अपना योगदान देना चाहते है। ऐसा मौका जाने न दे और इस पक्ष या उस पक्ष किसी के भी साथ रहे आपके योगदान को रेखांकित अवश्य किया जाएगा। किन्तु फिर भी इस शारीरिक कवायद में शामिल होकर फिलहाल यह परख ले की इस जदोजहद में खड़े होने की क्षमता है या नहीं। नहीं तो इस मशीन के द्वारा त्याज्य अवशेष का विशेष उपभोग नहीं कर पाएंगे। 
                         किन्तु नहीं कुछ होने से कुछ का होते रहना आशावादी मन को कल्पनाओ के रंग से रंगने में बेहतर होता है। उस पर आप काले रंग की कूँची अन्य रंगों के साथ चला सकते है ,इसमें शायद परेशानी नहीं होगी। साथ ही साथ अर्थ के अनर्थ तथा अनर्थ से अर्थ के तलाश में यात्रा हेतु यायावर रूप धर कब तक बुद्धत्व कि प्राप्ति में मशीन रूपी वट वृक्ष के दर्शन होंगे यह देखना बाकी है।

Thursday, 27 October 2016

"तमसो माँ ज्योतिर्गमयः"

सच तो यही है कि 
हर रोज श्वेत प्रकाश की किरण 
बिखर जाते  है कोने कोने में 
किन्तु भेद नहीं पाती 
मन के अँधेरी गुफाओं को। 
और हमें भान है कि 
हमने पढ़ लिया सामने वाले के 
चेहरे पर उठने वाली हर रेखा को 
जो मन के कम्पन से स्पंदित हो उभर आते है। 

फिर सच तो यह भी है कि 
तम घुप्प अँधेरी चादर के 
चारो ओर बिखरने के बाद भी।  
हलकी सी आहट बिना कुछ देखे ही 
मन में उठने वाली स्पन्दन से 
चेहरे पर उभरे भाव को पढ़ने के लिए 
रौशनी के जगनूओ की भी जरुरत नहीं 
और हमारा मन देख लेता है। 

चारो ओर बिखरे अविश्वास की परिछाई 
जाने कौन से प्रकाश का प्रतिबिम्ब है 
जिसमे देख कर भी एक दूसरे को
समझने की जद्दोजहद जारी है। 
कुछ तो है की मन के कोने    
विश्वास कि  किरणों से दूर है। 
क्यों न मिलकर ऐसा दीप जलाये 
जो दिल में घर अँधेरे को रौशन करे 
और हम कहे -"तमसो माँ ज्योतिर्गमयः" ।।  
                
                दीपावली कि हार्दिक शुभकामना 

Monday, 17 October 2016

डाकिया दाल लाया .......

                         
                            प्रसन्न होने के लिए हर समय वाजिब कारण हो ऐसा तो जरुरी नहीं  है। खुशियो के प्रकार का कोई अंत नहीं है। बीतते पल बदलते रूपो में नए नए कलेवर के साथ खुद को आनंददित करने के नए -नए बहाने देते रहते है। बसर्ते आप उसको पहचानने की क्षमता रखे। फिर वो बाते जो बचपन में उसको एक झलक देखकर अंतर्मन को आनद से झंकृत करने की सम्भावना जगाता रहा उस मृतप्राय  अहसास के पुनः पल्लवित होने कि  सम्भावना वाकई सुखद लगता है।  बात आप सभी के लिए भी बराबर ही है। 
                           गुजरे दौर में इस देश समाज में जिस सरकारी कर्मचारी ने अपनी उपयोगिता का प्रत्यक्ष अहसास सभी को कराया वो डाकिया ही था। कक्षा दसवी तक न जाने इसकी भूमिका ख़ुशी और अवसाद के पलों पर उसका प्रभाव विभिन्न परीक्षाओ में विभिन्न तरह से कितनी बार वर्णित हुआ होगा इसका लेखा जोखा शायद मिले। हिंदी फिल्मो में इसका चित्रण और गीतों का दर्शन संभवतः कितना है कहना मुश्किल है। डाकिये का पराभव समाज के बदलते स्वरूप और भागते समय के साथ कही पीछे छूट सा गया और बिखरते सामजिक परिदृश्य में यह भी कही खो गया।  जब आधार स्तम्भ ही डगमगा गए तो संरचना का टिकना तो मुश्किल ही है।कभी समाज में हर तबके के लोगो के आँखों का तारा डाकिया ,जिसको देखते ही लोगो के मन अनायास ही कितने सपने सजों  लेते और साईकिल जब घर के पास न रूकती तो अपनों के बेरुखीपन को भी डाकिये का करतूत समझ लेते। फिर भी जल्द अगली बार फिर से उसका इन्तजार रहता। आज वही डाक विभाग एक उपेक्षित और असहाय सा गांव और शहर के किसी कोने में अपने वजूद से लड़ता दिखाई पर जाता है। आखिर अब इतना समय किसके पास है की एक खत के लिए सुनी अँखियों से उसकी राह निहारते रहे। जबकि बेसक अब भी दिन में चैबीस घंटे क्यों न हो।  
                           इतिहास से सबक लेने वाले लोग विवेकशील ही माने जाते है और प्याज ने कितने को रुलाया कि उसकी आह से सरकार चल बसी। इससे सबक हो या कुछ और  किन्तु लगता है अब डाकघर और डाकिये के अच्छे दिन आने वाले है। आज ही समाचारपत्र में देखा है कि अब सरकार डाक घर के माध्यम से दाल बेचने वाली है।आखिर जब दाल रोटी भी नसीब  होना दुश्वार होने लगे तो कुछ न कुछ क्रांतिकारी कदम तो उठाना ही पड़ेगा। विश्व की महाशक्ति से होड़ लेने की ख्वाहिश  पालते देश के नागरिक दाल से वंचित रहे। ये देश के कर्ता -धर्ता को आखिर कैसे शोभा देगा। व्याप्त अपवित्रता की जड़ो को पवित्र करने के लिए आखिर पहले ही  गंगा कि अविरल धारा तो डाक घरो के दहलीज तक पहुच ही चूका था। अब दाल कि खदबदाहट भी आपको डाकघर पर सुनाई और दिखाई देगा। चाहे तो आप गंगा जल के साथ ही साथ दाल भी खरीद ले ताकि अगर दाल में कुछ काले की सम्भावना नजर आये तो गंगा जल छिड़क कर उस सम्भावना को ख़ारिज कर सकते है। अब गलती से अगर डाकिया दिख जाए तो जो की सम्भावना कम है आप अपने दाल की एडवांस बुकिंग करवा ले। क्योंकि अगर डाक बाबू के नियत में खोट आ जाये तो कुछ भी संभव है। आने वाले समय में और उम्मीदे पाल सकते है की पर्व त्योहारों पर आप सीधे मनीआर्डर में दाल और अन्य उपलब्ध सामान भेजना चाहे तो भेज  सकते है। साथ ही साथ आज के भी बच्चों को डाकिया और डाकघर की उपयोगिता का पता चल जाएगा। बेसक उनके लिए हो सकता है फिर से डाकिये ऊपर निबंध आ जाए।  ऐसा भी नहीं है की यह करने से सिनेमा या संगीत की रचनाशीलता में कोई कमी आ जाएगा बल्कि उसमे नए आयामों की सम्भावना और बलबती होगा। किन्तु जब तक गीतकार कोई नया गीत नहीं रचते आप बेसक यह गुनगुना सकते है - डाकिया दाल लाया ,डाकिया दाल लाया  ....... । खुश होने के बहाने तलाशिये तनाव तो  हर जगह मुफ्त उपलब्ध है।

Tuesday, 11 October 2016

विजयी कौन .....?

                       बस अब युद्ध अंतिम दौर में है। किसी भी क्षण विजयी दुंदुभि कानो में गूंज सकती है। सभी देवतागण पंक्तिबद्ध हो अपने -अपने हाथो में पुष्प लिए अब भगवान के विजयी वाण के प्रतीक्षा में आतुर दिख रहे है। सभी के मुख पर संतोष की परिछाई दिखाई दे रहा है। अब इस महापापी का अंत निश्चित है। आखिर कब तक महाप्रभु के बाणों से अपनी रक्षा कर पायेगा। काल को अपने कदमो तले दास बनाने वाले को अब सम्भवतः अवश्य ही काल अपने चक्षु से दिख रहा होगा। अहंकार का दर्प अवश्य ही पिघल रहा है। राक्षसों की सेना में भी   मुक्ति की व्याकुलता दिख रही है। वानरों की सेना में असीम उत्साह का संचार एक -एक कर राक्षसों को मुक्ति मार्ग पर प्रस्थान कर रहे है। 
                         महाबली महापराक्रमी रावण रथ पर आरूढ़ आसमान से विभिन्न प्रकार के शस्त्र का प्रहार कर अपने वीरता के  प्रदर्शन में अब भी लगा हुआ है। महाप्रभु राम उसके हर शस्त्र का काट कर उसके साथ कौतुक कर रहे है। किन्तु अब भगवान् के चेहरे पर धारण मंद स्मित रेखा पर खिंचाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। देवतागण भगवान् के मुख पर उभरे इस रेखा को पढ़ कर आनंद और हर्ष से भर गए है। प्रभु राम अपने धनुष की प्रत्यंचा पर वाण धर अब इस कौतुक पर पूर्ण विराम करना चाह रहे है और प्रत्यंचा की तान प्रभु के और समीप खिंचता जा रहा है। प्रत्यंचा की तान से जैसे आसमान में बिजली सी कौंध गई और रण भूमि में दोनों ओर की सेनाओ को लगा जैसे रावण का काल बस उसके नजदीक आ गया। बदलो की टकराहट से पूरा रणक्षेत्र कंपायमान हो गया। दोनों ओर की सेनाये लड़ना भूल जैसे मूक दर्शक हो  महाप्रभु की ओर एकटक देखने लगे। अचानक इस दृश्य को देख देवतागण भी विस्मित से दिखने लगे। हाथो में धारण किये पुष्प इस गर्जन को सुन जैसे प्रभु के ऊपर बरसने को आतुर होने लगे। किन्तु अभिमानी रावण अब भी बेखबर भगवान् के लीलाओ को समझने में अक्षम लग रहा। उसके आँखों पर अभिमान का दर्प राम के देवत्व को देखने में बाधक था। भगवान् की प्रत्यंचा पर धारण वाण बस अपने आपको को भगवान् के तर्जनी और अंगूठे से मुक्त हो इस महापापी को महाप्रस्थान के लिए जैसे आतुर दिख रहा है। इसी क्षण बस राम ने वाण को मुक्त कर दिया। वाण का वेग देख जैसे वायुदेव का  भी सांस थम गया। पुरे रणभूमि में एक स्तब्धता छा गया। जिस क्षण की प्रतीक्षारत  देव ,मानव ,गन्धर्व ,आदि अब तक थे अब वो क्षण बिलकुल नजदीक दिख रहा है। प्रभु के धनुष से निकला वाण द्रुत गति से सीधा जाकर रावण की नाभी में समा गया। आसमान भार मुक्त, किन्तु  महापंडित रावण का भार अब भी पृथ्वी उठाने को तत्पर दिखी। रथ से अलग हो रावण का शरीर अब रण भूमि में चित पड़ गया। 
        यह क्या जोर-जोर की अट्टहास रण भूमि पर पड़े रावण के मुख से आ रहा और अपने बड़े-बड़े नेत्रों से राम को घूरा।  उसका अट्टहास मृत्यु पूर्व अंतिम उद्घोष था या चुनौती देवतागण भी विचारमग्न ,प्रभु के अधर पर स्वभाविक मंद स्मित मुस्कान। रावण अट्टहास करता करता दर्पपूर्ण स्वर में कहा - राम क्या तुमने मुझे सच में परास्त कर दिया ,
राम -रावण क्या अब भी अभिमान नहीं गया। क्या मृत्यु को इतने पास से भी देखने में सक्षम नहीं हो। अहंकार जब नजरो में छा जाता है तो ऐसा ही होता है। 
रावण -अहंकार मेरे शब्दो में नहीं राम तुममे झलक रहा है। रावण कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता। राम आज तुमने सिर्फ एक रावण का वध किया है। रावण की इस नाभि में बसे अमृत अभी सूखा कहा है। वह तो बस छिटक कर इसी पृथ्वी पर फ़ैल गया है। राम ये तुम नहीं जानते की तुम एक रावण के कारण कई रावण को जन्म दे दिए। रावण आज भी जिन्दा है और कल भी रहेगा। आने वाले युग में इस रावण की गुणों से युक्त कितने क्षद्म मानव होंगे तुम सोच भी नहीं सकते। चलो माना की तुम भगवान् हो और इस धरती पर अवतरण लिए। किन्तु जब मानव ही  रावण के गुणों से युक्त होगा किस मानव के रूप में आओगे। ये  तो मारीच से भी गुनी होंगे कब राम का रूप धर रावण दहन करेंगे और कब रावण का रूप धर सीता हर ले जाएंगे तुम्हारे देवता को भी समझाना मुश्किल हो जाएगा। हर कोई एक दूसरे को रावण कहेगा खुद को राम कहने वाला शायद ही मिले। यह राम तुम्हारी जीत नहीं हार है। जिस पृथ्वी से पाप मिटाने के लिए तुमने एक रावण का वद्ध किया उस रावण से कई रावण निकलेंगे यह तुम्हारी हार है। राम अभी तक तो तुमने पृथ्वी को  रावण मुक्त किया लेकिन आने वाले समय के लिए भार युक्त कर दिया। अब तो वर्षो यह मानव मेरा गुणगान करेंगे। अपने अंहंकारो की तुष्टि हेतु बस मेरे पुतले पर वाण चलाएंगे। राम मेरा शरीर नहीं मरा है वह तो तुम्हारे वाण से क्षत -विक्षित हो  बिखर गया चारो दिशाओ में। राम विचारो यह तुम्हारी विजय है या पराजय। पुनः अट्टहास जोर और जोर से, चारो दिशाए उन अट्टहास से जैसे कांपने लगा। 
         अचानक जैसे  उसकी तन्द्रा खुली खुद को रावण दहन के भीड़ में घिरा पाया। रावण सामने वाले मैदान में धूं -धूं कर जलने लगा। फटाको की आवाज से कान बंद सा हो गया। लेकिन उसके कानो में अभी भी रावण के प्रश्न  और अट्टहास गूंज रहे , भीड़ मदमस्त है और उसकी नजर राम को तलाश रहा है ।    

(आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामना )