Tuesday, 12 May 2020

अभिशप्त काल...कोरोना डायरी

  अभिसप्त काल अपनी भूत की कहानियों के साथ जीता है।ऐसे श्याह काल खंड से मानव सभ्यता को विभिन्न समय में साक्षत्कार करना ही पड़ा है। पुरातन काल के मिथकीय इतिहास के रूप में देखे या कहानी रूप में श्रवण करे, यत्र-तत्र हर धर्म या सम्प्रदाय इसे दोहराता आया है। ऐसे काल-खंड आधुनिक इतिहास में भी ऐसे ही प्रासंगिक रहे है।जब आधुनिक सभ्यता के विभिन्न  कालखंड में हम झांके तो नाम बदलते रहे लेकिन इंसान ऐसे बीमारी से काल कलवित होता रहा है।फिर भविष्य की आशा भरी यात्रा के लिए भुत की धुंधली दौर में झांकने का प्रयास करते है और उसी में रोशनी की सुराख भी दिखती है और पदचाप की गूंज भी कान सुनने का प्रयास करता है।फिर वही रोशनी और पदचाप आगे की यात्रा की जिजीविषा पैदा करता है।
              काल अगर अभिसप्त हो तो पात्र की स्थिति को कैसे देखे..?स्वभाविक रूप से वो भी अभिस्पतता के त्रास और दंश के अतिरिक्त और कोई अन्य व्यथा क्या कहेगा..? ऐसे अनगिनत पात्र समूह को हम एकल बटें चेहरे के प्रतिबिंब में देखे या फिर एकल में समग्र की प्रतिछाया देखे..? स्वभाविक नही की काल खंड भी भौगोलिक खंडों में विभक्त हो कर सामुहिकता का प्रतिकार स्वयं के वजूद के लिए संघर्षरत हो..। भौगोलिक खंड कैसे कभी संघर्ष का सहारा देती है तो कभी पूरे वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगा कर उन जड़ो की ओर धकेल देती है,जिसे कभी वो छोड़ आया है।ये रोड पर अनगिनत पदचाप कैसे मिलो चलने की ऊर्जा की अनेक कद काया का साक्षी बनने को अभिसप्त है?

               क्या यह सिर्फ एकल जिजीविषा की व्यथा कथा है या फिर ढांचागत आधुनिक शासन व्यवस्था सिर्फ उनकी सामुहिकता की कहानी कहता जो  है और जो समग्रता में प्रभावित करने की क्षमता रखते है? अवश्य बीमारी ने वर्ग विभेद का कोई प्रदर्शन नही किया, लेकिन इस बीमारी से बचने के तौर-तरीकों ने पुनः एक बार इसी ओर इंगित किया है, व्यवस्था तो सिर्फ उनके लिए ही क्रियान्वित है, जिनकी इच्छा का प्रदर्शन के लिए तमाम आधुनिक संसाधन लगे है। इसके बरक्स तो जिनके नाम पर तमाम संशाधनों की नीति की दुहाई दिया जाता है, वो कल भी उसी राह पर पैदल थे और इस समय पैदल और भूखे प्यासे उन्ही राह पर पैदल ही अभिसप्त रूप से चल ही रहे है। शासन और व्यवस्था अपने अव्यवस्था के लिए रजनीति शास्त्र के शब्दकोश से नित नए शब्दो को ढूंढ कर खानापूर्ति में लगे है।

             रह-रह कर कई परिदृश्य उभर कर आ रहे है।उस परिदृश्य में सतहों के उभार इतने विस्तृत है कि कौन किसके लिए संघर्षरत है कहना कठिन हो रहा है। संवेदना के साथ कठिन निर्णय और संवेदनहीन होकर कठिन निर्णय लेने में क्या ज्यादा तर्कसंगत है, कहना कठिन है। हर एक कदम के साथ अनुभव रहित निर्णय और निर्णय के साथ अनुभव आधारित बदलते स्थिति कही सिर्फ प्रयोग तक सीमित न रह जाय..? इन प्रयोगों में व्यवस्था के तहत बंधक बने इंसानी हित मे इंसान का वजूद ही जब खोने लगे तब इसको क्या कहा जाय..?आधुनिक विज्ञान के चरम पर होने की संभावना संजोए इंसानी सभ्यता जब इस तरह से निरुत्तर हो जाये तो वापस पलट कर देखना ही ज्यादा तर्क संगत लगता है। सनातन परंपरा तो कब से इस ओर इंगित कर रहा है।खैर..

            समय के दर्द को शब्दों की चासनी से आखिर कब तक भरमाया जा सकता है। किंकर्तव्यविमूढ़ होने की स्थिति में तो यही ज्यादा अनुकूल है कि ऐसे अगिनित जन को उनके भाग्य भरोसे ही छोड़ दिया जाय। नही तो जीवन  के लिए अपने जड़ो से कट कर ऐसे संघर्षशील विस्थापित को भी कम से कम इतना तो हो सके कि वो भी किसी शासन व्यवस्था  के प्रति खुद को आभारी बना सके।जो दर्द को झेलता न जाने कब से प्रयत्नशील है।ऐसे लोगों के लिए कभी तो तर्कशील निर्णय की मुहर लगे।

      काल गतिशील है और यह भी समय गुजर जाएगा।लेकिन एक आधुनिक समाज और देश के अनगिनत जनों के मष्तिष्क में यह ऐसे की प्रलय काल के रूप में दर्ज हो जाएगा। जहां निर्णय और अनिर्णय के मध्य जद्दोजहद में वैसे कई सांसे भी थम गई ।जिनको जीवन के सुर संगीत बिखेरना था। अतः असमंजस न हो,वो अंतिम पायदान पर बैठे हूए को अगर हाथों का सहारा दे उसे ऊपर खिंचने में संभव हो गए तो उससे ऊपर के पायदान वाले आ ही जायेंगे।ये हाथ सिर्फ शासन के होते है और इनके हाथ भी आम-जनों के हाथ से ही बने है।अब भी समय है, सभी को चेतना है। ध्यान रहे अकर्मण्य अनिर्णय की स्थिति कर्म का पर्याय नही हो सकता है।

Wednesday, 29 April 2020

अलविदा इरफान...श्रधांजली

           लगता है जैसे आनंद फ़िल्म की पटकथा आंखों में तैरने लगा है।
         "जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जांहपनाह। उसे न तो आप बदल सकते हैं न ही मैं" 
           जंग तो पिछले कई वर्षों से जारी था और ऐसा तो कतई न था कि जीने की जिजीविषा न हो।जिसकी आँखों में कला और अभिनय का अलग ही संसार बसा हो । वह आंखों के पलक मूंद इस तरह खामोश हो गया है, सहसा विश्वास तो नही होता।

                   शायद शायर अहमद मुश्ताक ने लगता है इसी को देख कर ये पंक्तियां लिखा होगा-
बला की चमक उस के चेहरे पे थी
मुझे क्या ख़बर थी कि मर जाएगा।।

               अभिनय के कई पाठशाला होंगे।लेकिन अगर उन सभी का पाठ्यक्रम एक मे आ कर सिमट जाए तो संभवतः वह इरफान है। शारीरिक हाव-भाव और संवाद अदायगी तो जब मूल तत्व है किसी कलाकर के,किन्तु सिर्फ आंखों से अभिनय देखना हो तो आपको इरफान अवश्य याद आएंगे। गिने-चुने फ़िल्म देख कर आप किसी का अगर मुरीद हो सकते है तो वो अवश्य ही इरफान खान है।तभी तो लगभग सिर्फ तीस फिल्मों में उनके अभिनय ने अदाकारी की कई नए मिसाल गढ़ गये। चाहे वो मकबूल हो या फिर पान सिंह तोमर या फिर आप लंच बॉक्स याद करे या फिर कोई अन्य।

         तभी तो रह-रह कर फ़िल्म आनंद का ये सवांद कानो में गूंजने लगा है- "बाबू मोशाय जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं"। फिर इरफान सिर्फ बड़ी जिंदगी के साथ ही खामोश हो गए, क्योंकि तिरपन वर्ष  अंतिम यात्रा के लिए कोई उम्र तो नही है भला।किन्तु अंतिम सत्य तो यही लगता है जो तुलसीदास जी कह गए-"हानि लाभ जीवन मरण। यश अपयश विधि हाथ "।।

       कुछ बाते सहसा विश्वास करने लायक नही होती। लेकिन विश्वास का न होना सत्य से परे तो नही हो सकता। फिर सत्य तो यही है कि  अपने नाम  "इरफान" के अनुरूप श्रेष्ठ, सर्वोत्तम, शानदार और चाहे कोई विशेषण लगा ले, वो कलाकार अब इस पार्थिव दुनिया को छोड़ कर सितारों की दुनिया का एक नया सितारा बन गया।

अहमद नदीम क़ासमी का ये शेर कितना सटीक है-
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा ।।
     और वो कला का दरिया अनंत के सागर में विलीन हो गया। लेकिन उस सागर में उठने वाले लहरों में भी इरफान का लहर उसी मासूमियत, आंखों की गहराई धारण किये नजर आएगा।
  इरफ़ान खान को भाव-भीनी श्रद्धांजलि।।

Tuesday, 28 April 2020

कोरोना डायरी... मानसिक संक्रमण

          अब हर दिन ये शब्द रह-रह कर गूंजता रहता  है ....... लॉक -डाउन ...शंशय से प्रश्न दिमाग मे कौंधने लगते है..कब तक चलेगा? फिर बढ़ते आंकड़े.. और फिर  केंटोनमेंट जोन, रेड ज़ोन, ऑरेंज जॉन... ग्रीन जोन। फिर नजर ..विदेश के कोरोना भ्रमण.. उसके बाद... सवाल देश का ...फिर राज्यो की स्थिति...अब जिला का सवाल और  फिर अंत मे ..कही हमारे आस-पास तो नही है ?

                 स्वयं को सुरक्षित के भाव से भरने के बाद जब अगल-बगल निहारो तो हर अगला जैसे कोविडासुर का वाहक लगता है।उस पर कोई अपरचित अगर किसी भी वजह से  राह रोक  दिया तो लगता है जैसे कोविडासुर माया से रूप बदल कर  मिलने आ गया है। बिल्कुल "कुएं में भांग मिलना" वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहा है।

               वैसे भी मास्क लगाना अब नियति है और लगता तो यही है कि हम सब शर्मिंदगी के कारण बस प्रकृति से अपना चेहरा छुपा रहे है। वैसे भी  इस मास्क में अब हर कोई अजनबी ही हो गया है।

           समाचार चैनल आपको इस  गाथा को सुना-सुनकर दिमागी रूप से ऐसा संक्रमित कर देंगे कि उसकी जांच के लिए कोई "टेस्ट किट" भी उपलब्ध हो पायेगा, कहना मुश्किल है। इसलिए अपने आपको को इस बीमारी के हालात से सिर्फ "अपडेट" करे नही तो "आउट डेट" होने की भी गुंजाइश हो सकता है..? अगर रह सकते तो घर मे रहे स्वस्थ रहे। बाकी आपकी मर्जी...।।

Saturday, 25 April 2020

कोरोना डायरी.....दो गज दूरी

               दो गज दूरी तो बनाया जा सकता है। किंतु वो तो तब है जब बाहर निकलने की संभावना बने। लगभाग एक मास का सफर "ताला-बंदी" में निकल चुका है। इतना चलने के बाद भी अभी तक दो गज फासले पर अटके हुए है।किन्तु अभी भी इस दो गज दूरी का और कोई कारगर विकल्प दिख नही रहा है और ये स्वभावतः संभव नही, अतः लॉक-डाउन के अलावा अन्य  बाकी इलाज तो बस प्रयासरत कर्म ही है।

                   लियो टॉलस्टॉय की एक प्रसिद्ध कहानी है। जिसमे किरदार एक गांव में अपने लिए जमीन खरीदने जाता है।गाँव वाले की शर्त के अनुसार एक तय राशि पर वह सूर्योदय से सूर्यास्त तक पैदल जितना जमीन, जिस जगह से नापना शुरू कर वापस वही तक नापता पहुच जाता है तो वह पूरा जमीन उसका हो जाएगा।अन्यथा राशि जब्त हो जाएगा।  शर्त के अनुसार वह दिन भर ज्यादा से ज्यादा जमीन नापने के लालच में दिन भर भागता रहा, लेकिन उसे सूर्यास्त से पूर्व जहाँ से चलना शुरू किया वही पहुचना होता है।  अतः वह ज्यादा से ज्यादा भागता रहा और जब वह शुरुआत की जगह पहुचता है तो उसके प्राण निकल जाते है। इसके बाद गाँव वाले उसे वही लगभग दो गज जमीन में दफना देते है ।

                         कहानी तो मूलतः लालच को केंद्र बिंदु पर लिखा है और वर्तमान भी वही है। लॉक-डाउन से बाहर निकलने की लालच, फिर से वही भागमभाग की जल्दी, जबकि सब जानते और समझते हुए भी की इस भागम -भाग  मे दो गज की दूरी बनाये रखना कितना कठिन प्रतीत होता है।इसलिए अमेरिका जैसे महाशक्ति इस बात को नही समझ पाए और असमय कई दो गज जमीन में समा गए।

                वैसे तो दधीचि ऋषि की कहानी तो आप जानते ही है।जब देवलोक पर वृतासुर नामक राक्षस ने अपना अधिकार कर लिया था।तब बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है।तब इंद्र के अनुरोध पर दधीचि ने उक्त प्रयोजन में अपने अस्थियो का दान कर दिया।

            इस कोविडासुर के दमन के लिए अब लगता है लोगो को अपने और दिनों का दान करना होगा। अभी तक के अनुभव तो यही कह रहे है कि इसके संहार के लिए और अतिरिक्त कोई अस्त्र नही दिख रहा है।बाकी आपकी मर्जी...

Friday, 17 April 2020

कोरोना डायरी

           संघर्ष के दौर में विभिन्न प्रकार के लहरे हिचकोले लेते रहेंगे। पर इन लहरों पर सवार होकर कोई सागर लांघ जाए ऐसा तो नही होता और कोई डर के तट पर ही बैठा रह जाये यह भी नही हो सकता। फिर इस संक्रमण के दौर में संघर्षरत वीर हतोत्साहित हो जाये तो क्या?क्या आश्चर्य नही की संक्रमण से ग्रसित शरीर खुद के इलाज की जगह भस्मासुर बन इधर-उधर छुप रहा है,तो फिर उसका मंतव्य और प्रयोजन क्या हो सकता है?

                 इसलिए कोविडासुर संक्रमण के दौर में, सिर्फ बीमारी नही बल्कि इसे काल और समय का संक्रमण समझे ।साझा संस्कृति की गंगा-जमुना तहजीब की वकालत करते उदारपंथी इसको समझने की कोशिश करे कि गंगा तो अब भी अपने देश और मानव धर्म की निष्ठा के साथ वैसे ही अक्षुण है। किंतु जमुना की रवायत में अब भी कालिया नाग के जहर का असर है।जिसका प्रदर्शन रह-रह कर होता रहता है।

          जब काल संक्रमित होता है तो समय की धार में नदियों के बहाव के तरह गंदगी और दूषित पदार्थ कही किनारे में जमा होने लगते है।ये वैसे ही गंदगी की तरह मैले मटमैले धार में झाग बन उबल रहे है। ये पत्थर चलाते पुरुष और महिला उसी दूषित और संक्रमित मानसिकता के परिचायक है।जिनके लिए देश के मुख्य राह की जगह सिर्फ अपने एकांगी रास्ते का अनुसरण करना है।यह सिर्फ एक विरोध की नकारात्मक प्रदर्शन नही है।बल्कि उस आदिम सोच की हिंसात्मक प्रवृति और विचार जो  अब भी जेहन में पोषित है। जिसके लिए वसुधैव कुटुम्बकम कोई मायने नही रखता है। बल्कि राष्ट्र रूपी गंगा की धारा जो प्लावित हो रही है, उसमे संक्रमित हो रखे प्रदूषित सोच और उस अनर्गल प्रलाप का धोतक है। जिसे हम विभिन्न वाद और निरपेक्षता के ढाल में और पनपने दे रहे है।स्वभाविक रूप से नदी की धार को काट कर अलग कर दिया जाय तो वह अपने स्वत्रन्त्र इकाई के रूप से किसी और रूप में परिवर्तीत हो जाती है।विगत यह हो चुका है और उसका परिणाम सब देख रहे है।इसलिए यह तो स्वयं सिद्ध है ।अतः इस दूषित मानसिकता के स्वच्छता अभियान के लिए निश्चित ही शारीरिक संक्रमण के साथ-साथ मानसिक संक्रमण को भी नियोजित किया जाय और इसके लिए भी प्रयोजन आवश्यक है।

                 आश्चर्य नही की इतने बड़े कुनबे में एक आवाज आती है उन मूर्खो और जोकरों के लिए, तो क्या अन्य बाकी आदर्श और सिद्धान्त की ढोल पीटने वाले इस बार मूक या बधिर हो गए है।एक आवाज तो नक्कारखाने में तूती की तरह विलुप्त हो जाएगी। फिर मीडिया उस एक के आवाज को कोरस के रूप में गाने लगता है।सहृदय उदार दिखने के लोलुप आत्मप्रवंचना में उसे उसे सिर्फ कुछ लोगो के करतूत के रूप में देखे तो आश्चर्य है। फिर इतना तो लगता है इस मानसिकता को या तो पढ़ पाने में अक्षम है या फिर उदारवाद के दिखावा में वास्तविकता से दूर रहना ही श्रेयस्कर समझ रहे है।

             असमंजस का यह दौर जितना किरोना के कारण भयावह नही है उससे ज्यादा भयावह तो वो सोच और मानसिकता है जो इस कोविडासुर के कारण अस्पष्ट रूप से कई जगह परिलक्षित हो रहा है।समय रहते सभी प्रकार के संक्रमण को इलाज नही होता है तो ये किसी न किसी रूप में रह-रह कर देश को बीमार करते रहेंगे। क्योंकि संक्रमित शरीर से  कही ज्यादा खतरनाक संक्रमित सोच और बीमार मानसिकता है।