Sunday 10 February 2013

क्या करे अब वक्त नहीं पास है

कल जो बीत गए आज न कुछ हाथ है ,
ढूंड रहा परछाई पर रोशनी नहीं साथ है।
मजनुओ को जो चाहा उतार दे दरख़्त पर,
चल परा पानी सा अब स्याही सुखी दवात  है।
यही कहते अब न कोई आस है, 
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।।

चेहरे के  धुल  पोछकर देखना जो चाहा है 
पाया की अब आयना खुद को दरकाया है।
उनकी बाते  काँटों से चुभन देती थी
  सुनना चाहा तो हलक न कुछ बुदबुदाया है।
यही कहते अब न कोई आस है ,
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।।

कदम हर  कदम अब खुद से अंजान है,
मुड़ के जो देखा तो न कोई पहचान है। 
साथ भीर में चाहा तलाशे  किसी को,
न मिला सब को किसी और की प्यास  है।
यही कहते अब न कोई आस है, 
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।।

बहती हुई धार के मौजों  को पहचान, 
हवा के झोको से न रह अंजान, 
कोसते हुए जिन्दगी में भी क्या रखा है ?
सूखे पतों को  क्या वर्षा से आसरा  है ?
यही न कहते रहो अब न कोई आस है, 
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।

Saturday 9 February 2013

विचार मोदी परिवर्तित है



                 बहुत दिनों के बाद चुनावी परिद्रिश्य  से बाहर आकर किसी राजनेता का भाषन सुना। दिनाक 06.02.2013 को श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में श्री नरेन्द्र मोदी का ब्याख्यान काफी मायनों में अलग है।सामान्तया मोदी उन गिने हुए नेताओ में है जिनकी किसी भी कार्य को राष्ट्रीय मीडिया अपने सोच के अनुसार विश्लेषन करता है।मोदी एक दायरे में बांध दिए गए है और उनके किसी भी कम को एक विशेष चश्मे से देखा जाता है।मोदी अब व्यक्ति विशेष न होकर रूपक स्वरुप हो चुके है ,जिनके किसी भी बक्तब्य को उनका अपने इमेज की बदलने की कोशिश ही बतया जाता है।कोई नेता चार बार चुनने के बाद अपने इमेज को लेकर ज्यादा ही आश्वस्त होगा भला उसे क्यों बदलना चाहे। उनके विचारो का विश्लेषन बर्तमान या भविष्य को ध्यान में न रखकर हमेसा से भूतकाल में उनके विशेष योगदान के सन्दर्भ में  ही ज्यादातर विश्लेषक करने की कोसिश  करते है।

                       ये एक अजीब मानसिकता है की किसी नए विचार को समय के अनुसार बदलाब के रूप में उसका स्वागत न  कर हमेशा  से अपने सोच के रेखा अंतर्गत ही रहना चाहते है।किन्तु ये समझते नहीं की जनता की भी अपनी एक सोच और समझ होती है।जहा किताबी अवधारणा से भी परे की जीवन की यथार्त अब्धारना होती है।जिसे की मोदी ने अपने संबोधन में छात्रो के सम्मुख  रखा तथा तालियों की गरगारहट  युवा की स्वरोक्ति को दर्शाता है।समय के साथ यथार्त परिवर्तन को देश के सामने एक मौका के रूप में देखना चाहिए सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना नहीं होनी चाहिए।इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता की मोदी के साशन कल में गुजरात की प्रगति सभी के लिए विचारनीय तथा अनुसरनीय है।कानून अपना कार्य करता है ओर अगर मोदी के खिलाफ कोई आरोप बनता है तो अवस्य ही विधि समत फैसला उनको स्वीकारना होगा।किन्तु तब तक उनके  साशन में हुए  सर्वांगीं विकास की अवधारणा जिनको की उन्होंने छात्रो के सामने रखा  उसे  अपने-आप को  ब्रांड रूप में परिवर्तन करने की कोशिश  न मानकर हमें उन्हें एक कारगर शासक मानाने से गुरेज नहीं करना चाहिए। अगर ऐसा होता तो बाल्मीकि कभी रामायण नहीं लिख पाते।साथ साथ यह भी विचार करने योग्य है की जनता से ज्यादा येपड़े लिखे विश्लेषक,चिन्तक  धर्म ,जात -पात को कही विकास के ऊपर तर्हिज तो नहीं दे रहे है। अगर किसी गलती के लिए दंड का प्रावधान है तो अच्छे  कार्यो की जमकर सराहना की जानी चाहिए।

Monday 15 October 2012

हकीकत

कालीखो से घिरे दीप को न देख
इस लौ को थोड़ा और जगमगाने दे,

दबी हुई थी हवा, अब बहक गई है    
रोक मत कदम बहक जाने दे।

ये गरम हवा का झोका ही सही,
दिलो में जमे बर्फ तो गलाने  दे।

हर रोज एक नई तस्वीर छपती है
थक जाय  नैन पर उसे निहारने दे।

 जो  ढूंडते अब  एक अदद जगह
 रौशनी से उनका चेहरा तो नहाने  दे।

न्याय की तखत पे बैठे है जो
उनके बदनीयत की बैशाखी अब हटाने  दे।

दिलो में घुट रही है धुआ लोगो के
इन्ही चिंगारी से आशियाना जलाने दे।

जो भीर रहे शासक से, सिरफिरे ही सही
नियत से क्या हकीकत तो जान लेने  दे।

Monday 8 October 2012

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

जिस धरा के अंग अंग में रास ही बसी  हो,
प्रेमद्विग्न अप्सरा भी जहा कभी रही हो।
फिसल परे जहा कभी नयन मेघो के,
ऐसा  रंग जिस फिजा  में  देव ने भरा हो।
बचे नहीं कोई यहाँ इसके महक से ,
कभी किसी ने  कदम जो  यहाँ  रखा हो।
इन्ही वादियों में बिखरे मनका न गूँथ सकूँ  
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

थी खनकती तार वो जिसमे सुर संगीत है,
शब्द में न उतर सका ये वो मधुर गीत है।
वो हसीन लम्हों ने छेड़ा जो तान था ,
गुन्जनो के शोर सा  छलकता गान था।
थी हसी समा जैसे मोम से पिघल गए ,
चांदनी हसीन रात जाने कबके  ढल गए ,
जलज पात जिन्दगी कैसे स्याही सवार दू।
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

रूप को ख्याल कर, क्या उसे आकार  दू
रूह में जो बस गए कैसे साकार  दू।
आभा उसका ऐसा की शब्द झिलमिला गए
केसुओ की छाव में नयन वही समा गए ।
चांदनी यु लहरों पे हिचकोले खाती है।
दूर दूर बस वही नजर आती है।
कायनात की नूर कैसे कुछ पदों में शार दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पहली बार उससे यू टकराना,
वो नजर की तिक्छ्नता पर साथ  शर्माना।
कदम वो  बडा चले पर झुक गयी नजर,
धडकते दिल की अक्स भी मुझे  दिखी जमीं पर।
भों तन गई मगर पलक झिलमिला गए,
अर्ध और पूर्ण विराम सुरमा में समां गए।
वाक्य न बन सका कैसे विराम दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पल पल वो पल ,पल के संग बंध गए,
छण बदलकर आगे आगे दिनों में निखर गए।
हर पल अब नजर  को किसी की तलाश था,
वो चमन भी जल रहा इसका एहशाश था।
प्यास थी अब बड़  चली दुरी मंजूर नहीं,
कदम खुद चल परे जिधर हो तेरा यकीं।
ऐसे एहशास कैसे अंतरा में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू ,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

ठहर गए वक्त तब मेजो के आर पार ,
मिल रहे थे सुर दो कितने रियाज के बाद।
थी सड़क पे भीर भी और शोर भी  अजीब था ,
टनटनाते चमच्चो में भी सुर संगीत था .
और फिर साथ साथ हाथ यु धुल रहे ,
मिल गए लब भी और होठ थे सिल गए ,
उस सिसकती अंतरा को किस छंद में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
                                                  .

Sunday 7 October 2012

मोहताज

दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

महल मिला बडेरा को या नहर कोई पी  गया,
गरीब की दवा को भी कोई यु ही लिल गया।
गाय के  चारे को जो रोटी समझ के खा गये 
तोप के गोले भी जो युही पचा गए   ।।
आदर्श घर न मिल सका उसका क्या काज है,, 
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

जमी  असमान हो या   खेत खलिहान हो ,
 ताबूतो को भी ले गए या तेलगी का काम हो ।
जहा नजर घुमाये हम , ये भिखारी छा गए
इनको  देख के अब  भिखारी भी  शर्मा गए।।
सत्यम की बात हो या खेलगांव का राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

रोटियो को मांगते गरीब हमने देखा है
जिनके पास कमी नहीं वो अमीर देखा है।।
ऐसे अमीर बढ गए जो मन के गरीब  है,
जिनके पास सब कुछ,पर लूट ही नसीब है।।
जनता अब जानता  है सबको पहचानता है,
पैसे वाले भूखे नंगे बेल अब मांगता है।
आज नहीं तो कल अब खतम इनका राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।