Sunday, 11 August 2013

काले-बादल



 रविवार की प्रतीक्षा मन व्यग्रता पूर्वक करता है.। दफ्तर में किसी प्रकार की अनावश्यक आवश्यकता न आन पड़े दिल इसी प्रकार की इक्छा रखता है.। जब तैयारी के साथ बहर जाने का समय हुआ ,आचानक कालिदास के दूतो ने पुरे क्षेत्र में अपना पाव फैला दिया। ईद की चाँद की तरह अगर सावन के महीने में अगर इन काले काले बदल का दीदार होगा तो किन का मन मयूर इनको देख के नहीं नाचेगा। बस बाहर जाने का विचार त्याग कर घर में बैठे-बैठे ही इन नजारों से रु-बरु होने लगे। 




 पता नहीं ये काले काले बदल ही क्यों बरसते है। कुछ भी हो सप्ताहंत तक निहारते नयन को अगर कुछ अनुयोजित कार्यक्रम को छोड़कर भी अवकास के दिन अगर इनका दीदार और पचम सुर में इनके बूंदों का रिमझिम स्वर सरिता कानो में घुले तो आनंद की सीमा आप अपने लिए तय कर सकते है। 








 अगर आपके घर एक झरोखा हो जिससे आप प्रकृति को निहारने  का आनंद ले सकते है तो बहुत एकत्रित की गई अनावश्यक तनाव की परते ऐसे बदलो की झोंको में या उड़ जायेंगे नहीं तो बारिश में अवस्य ही धुल जायेंगे,बस मन को उसमे बसने की आवश्यकता है। 


संभवतः प्रकृति ने  बारिश की व्यवस्था आने वाले मानवो की प्रवृति को समझ कर ही किया होगा, इतने प्रकार के बिभिन्न कपट क्रिया से ग्रसित जब लगता है की इनमे कुरूपता अंग करने लगता है ,अपनी फुहार से इसे पहले की तरह स्वच्छ ,निर्मल तथा पवित्र बना देते है.। इसलिए तो रिमझिम बारिश के बाद का पल भी मन को ये नज़ारे ऐसे आगोश में लेते है की लगता है बस ऐसे ही निहारते रहे.।  

Saturday, 10 August 2013

हलचल अगस्त ' ४७


     ये सावन यु ही बरस रहा होगा 
       हाथो में तिरंगे भींग कर भी
   जकडन से निकलने की आहट में   
      शान से फरफरा रहा होगा।। 
            थके पैर लथपथ से  
         जोश से दिल भरा होगा 
           बस लक्ष्य पाने को
        नजर बेताब सा होगा।।


            क्या अरमान बसे होंगे 
           नयी सुबहो के आने पर 
      फिरंगी दास्ताँ से निकलने की      
        वो अंतिम सुगबुगाहट पर। । 
         जो तरुवर रक्त में  सिंची 
           अब लहलहा रहे होंगे
 लालकिले से गाँवों के खेत खलिहानों में
 सभी धुन भारती के गुनगुना रहे होंगे। ।  


          फिरंगी की दिया बस
          टिमटिमा रही होगी 
           वो बुझने ने पहले 
      कुछ तिलमिला रही होगी।।
         वो जकड बेड़ियो की
      कुछ-कुछ दरक रहा  होगा
       खुशी से मन -जन पागल
  मृदंग पे मस्त हो झूमता होगा।


          नयी भोर के दीदार को
    नयन  अपलक थामे रहे होंगे
  बीती अनगिनित काली रातो को
         हर्ष से बस भूलते होंगे।   
      जब ये माह  आजादी का 
        युहीं हर साल आता है 
     क्या रही होगी तब हलचल 
   पता नहीं क्यों ख्याल आता है।।      

Thursday, 8 August 2013

शहादत मुद्दे में कही खो जाते ।

सब उठाते इसे अपने अंदाज में ,
हर किसी को फ़िक्र करना आता है ,
हुतात्मा 
आवेश में विषरहित आवेशित हो कर
चहू ओर अपनों पर फुफकारना आता है ।

फ़िक्र अपने-अपने सियासती रोजी-रोटी की
बटखरा ले विचारों का,तौलने में उलझे पड़े,
शरहदों पे बिखरे लाश को किस पाले में रखे
की नाकामियों का भार कही और पड़े ।

है लोहा गरम अभी चोट कर लेने दो
जवानों को जो खोया कुछ तो मोल लेने दो ,
हम इस पाले  में हो या उस पाले में,
हमें अपनी नजर से दर्द  देख लेने दो।

जाने कौन किसके दर्द को महसूस करता है,
उन माँ का जिसने खोया जिगर  का टुकरा ,
या चंद नीति के नियंता जिनके खद्दर पर लगा ,
चोटित अस्मिता की मवाद का धब्बा ।

उलझती नीतिया  चित्र : गूगल साभार
बहते हुए लहू किसकी प्यास बुझाती है
कुछ अपने भी है जो इसे पानी समझते है,
नाकामियों को कफ़न से ढकते ही आये
धब्बा नहीं बस लिपटे तिरंगो में शान देखते है।

दुश्मनों से दोस्ती की आश में यहाँ
खंजर खाने को बहादुरी माने बैठे ,
चमक धार की कुछ तो दिखाना लाजिम है ,
की कांपते हाथ से अमन की कामना वो भी करे।

ये शरहद पे खड़े नौजवान वीर बेचारे,
देश के अरमानो का बोझ संभाले ,
उफ़ न करते बंधे इक्छा पर कुर्बान हो जाते ,
किन्तु हर बार इनकी शहादत मुद्दे में कही खो जाते। ।

Sunday, 4 August 2013

डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।

हाथो में हाथ , कदम दर कदम साथ
चल रहे दूर कही ,न जाने कहा।
अपनों ने मुह फेरे,
जानने वाले पता नहीं क्यों मुस्कुराया।
इतनी बेरुखी, खून का रिश्ता भी
खून के प्यासे से लगने लगे,
रिश्तो के रेशे  अब तार -तार है,
इन रेशो से बने कफ़न  ढूंढ़ते उन्हें,
गली के हर मोड़ पर ठेकेदार
कब्र खोदे तैयार है।
लहलहाते अरमानो पर अब
नफरत की बारिस हो चली
डूब न जाये हम  ,चलो अब चले कही।।
सुखी पेड़ ,सपनो की छाया
तपती शिला पर अब कमर था टिकाया
कोमल से पाव में दुनिया के घाव
वो झुककर हाथो से जाने किसको सहला रहा ।।
नजर में समाने की चाहत
अब नजर चुराती हुई
किंचित ससंकित, खुद में उलझे से
मंजिल है साथ पर जाना कहा है
घृणा की आंधी में सब उड़ से गए
पता नहीं अब आशियाना कहा है।
सभ्य समाज के असभ्यता से अन्जान
कोई और कहानी न बन जाये यही
डूब न जाये हम  ,चलो अब चले कही।।

Wednesday, 24 July 2013

भूलते अतीत

भूलते नायक 
                     हर समाज अपने इतिहास से सबक ग्रहण करता है. भूतकाल के गलतियो को वर्तमान में मंथन कर भविष्य की रुपरेखा तैयार करना प्रगति का निशानी है. इसी मंथन के क्रम में अपने अतीत के नायको को याद कर उनके प्रति देश तथा समाज अपनी कृतज्ञता जाहिर करता है. किन्तु अपने यहाँ इतिहास से सबक लेना तो दूर कुछ परम्परा का निर्वाहन भी इस रूप में करते है जिससे की इसको ढोना प्रतीत होता है. स्वाभाविक रूप से जब भारस्वरूप  किसी को ढोया जाय तो कुछ तो हमसे छुटेंगे ही .  
                  देश के स्कूलों में या अन्य सार्वजनिक मंचो से अपने अतीत के वीर सेनानियों को समय-समय पर याद  करना अपने लिए गौरव तथा उन हुतात्माओ के प्रति श्रधांजली की परम्परा अब ज्यादातर कोनो से खोती जा रही है. शायद अब रश्मो का निर्वाहन भी हम करने में सक्छ्म नहीं लग रहे है. स्वतंत्रता संग्राम की लम्बी लड़ाई में शहीद हुए अनगिनत नायको में अब लगता है कुछ एक नाम को छोड़कर बाकि को भुलाने की कवायद की जा रही है. पत्रकारिता के सभी  स्तंभ अभी तक अपने कर्तव्यों में पीडियो को उनके योगदान का स्मरण कराते आ रहे है,अब लगता है खुद को इससे विस्मृत करते जा रहे है. 
             आज एक राष्ट्रिय समाचार पात्र पड़ते हुए अचानक एक विषेश  आलेख पर नजर गया.  शीर्षक था आजाद की जन्मदिन पर विशेष . कमजोर स्मृति, न किसी समाचार चैनलो पर किसी प्रकार का प्रसारण,न ही बच्चे के स्कूलों में कोई आयोजन पड़ने देखने से लगा की आज दिनांक २ ४  जुलाई को शायद इस महान क्रन्तिकारी का जन्मदिन हो. किन्तु आलेख पड़ने से मन में कुछ छोभ उत्पन्न हुआ . क्योंकि वीर क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन २३ जुलाई ही थी . ऐसा लगा जैसे संपादक महोदय खानापूर्ति कर रहे है. आम जन की भी रूचिया विग्रह ,आग्रह अब इस कदर बदल गई है की बीती पीडियो का योगदान देश समाज के प्रति न होकर खुद के लिए किया गया कार्य प्रतीति होता है. इन रुचियों को पोषक अब मीडिया अपने जरूरतों के अनुसार दिन ब दिन करते  जा रहा है.  देश के स्वतंत्रा में अपना सर्वस्व त्याग करने वाले इन वीर नायको को अगर इतनी जल्दी विस्मृत करने लगे तो भविष्य सोचनीय है . 
         किसी भी क्रन्तिकारी का रास्ता और विचारधारा बहस का विषय हो सकता है किन्तु उनके योगदान को नाकारा नहीं जा सकता . जो समाज इस प्रकार का रास्ता चुने , आने  वाले पीढ़ी के साथ एक प्रकार का धोखा है . आजादी के कितने दीवानों ने अपने आपको कुर्वान कर दिया उसकी कोई संख्या नहीं है, उनमे से कुछ को ही जान पाए. अतीत के अंधेरो से उन्हें ढूंडने की अब किसी को न ही समय है और न ही लगाव। .  किन्तु जिन आजादी के मतवालों को उस समय का आजाद हिंदुस्तान नमन किया था कम से कम हम उन्हें तो विस्मृत न होने दे. जिनको समाज ने ये जिम्मेदारी दी है की समय समय पर आने वाली पीढ़ी को इनके योगदान की जानकारी देते रहे, वो खुद पाटो में इनको बाट दिया।
      शायद वीर आजाद इनमे से किसी के भी पालो में अपने आपको नहीं पाते है . किन्तु अभी भी बहुतो की यादो में वे है .
"शहीदों की चिता पर लगेंगे हर बरस मेले ,
वतन पे मिटने वालो का यही बाकी निशां होगा ."
उन दिवानो के निशान पर बहुत जल्द कृतघ्नता का मैल चढने लगा है ,कही निशान मिट न जाये।